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किरण ६]
स्थाद्वाद
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अन्तर है। सिवाय इसके कि संजय फक्कड़की थे। उनका विश्वास था कि संघके पँचमेल व्यक्ति तरह खरो बात कह देता है और बुद्ध बड़े आद- जब तक वस्ततत्त्वका ठीक निर्णय नहीं कर लेते तब मियोंकी शालीनताका निर्वाह करते है। . तक उनमें बौद्धिक दृढ़ता और मानसबल नहीं प्रा
बुद्ध और संजय ही क्या, उस समयके वाता- सकता। वे सदा अपने समानशील अन्य सघके वरणमें आत्मा, लोक-परलोक और मुक्तिके स्वरूप
भिक्षुओंके सामने अपनी बौद्धिक दीनताके कारण सम्बन्धमें-है (सत्), नहीं (असत),है-नहीं (सदसत
हतप्रभ रहेंगे और इसका असर उसके जीवन और उभय), न है न नहीं है (अवक्तव्य या अनुभय)।ये आचारपर आये बिना न रहेगा । वे अपने चार कोटियाँ गूंज रही थीं। कोई भी प्राश्निक शिष्योंको पर्देबन्द पदानियों की तरह जगतके स्वरूप. किसी भी तीर्थकर या प्राचार्यसे बिना किमी मंकोचक विचारकी बाह्य हवासे अपरिचित नहीं रखना अपने प्रश्नको एक साँसमें ही उक्त चार कोटियोंमें थे, किन्त चाहते थे कि प्रत्येक प्राणी अपनी सहज विभाजित करके ही पूछता था । जिस प्रकार आज जिज्ञासा और मननशक्तिको वस्तके यथार्थ स्वरूपक कोई भी प्रश्न मजदूर और पूंजीपति, शोषक और
विचारकी ओर लगावे। न उन्हे बुद्धकी तरह यह भय शोष्यके द्वन्द्वकी छायामे ही सामने आता है, उसी व्याप्त था कि यदि आत्माके सम्बन्धमें 'है' कहते है प्रकार उस समय आत्मा आदि अतीन्द्रिय पदार्थोक
तो शाश्वतवाद अर्थात उपनिषद्वादियों की तरह प्रश्न सत् असत् उभय और अनुभय-अनिर्वचनीय
लोग नित्यत्वकी ओर झुक जायेंगे और नहीं इस चतुष्कोटिमें आवेष्टित रहते थे । उपनिषद् या करनेसे उच्छवाद अर्थात् चावाककी तरह नास्तिऋगवेदमे इस चतुष्कोटिक दशन होते है। विश्व के
त्वका प्रमंग प्राप्त होगा। अतः इस प्रश्नको अव्यास्वरूपके सम्बन्धमें असत्से सत हुआ ? या सत्
कृन रखना ही श्रेष्ठ है । वे चाहते थे कि मौजूदस सत् हुआ ? यह सदसत् दोनों रूपसे निवेच.
तकोंका और संशयोंका समाधान वस्तुस्थिति के नीय है ? इत्यादि प्रश्न उपनिषद् ओर वेदमे बरा
आधारसे होना ही चाहिए। अतः उन्होंने वस्तस्वरूपबर उपलब्ध होते है ? ऐमी दशामें राहुलजीका
का अनुभव कर यह बताया कि जगतका प्रत्येक स्याद्वादके विषयमें यह फतवा देदना कि संजयक
सत् चाहे वह चेतनजातीय हो या अचेतनजातीय, प्रश्नोंके शब्दोंसे या उसकी चतुर्भगीको तोड़-मरोड़. परिवर्तनशील है । वह निसर्गतः प्रतिक्षण परि. कर सप्तभंगी बनी-कहां तक उचित है, यह वे स्वयं वर्तित होता रहता है। उसकी पर्याय बदलती रहती विचारें । बुद्धकं समकालीन जो छह तीथिक थे उनमे
है। उसका परिणमन कभी सदृश भी होता है कभी महावीर निग्गएठ नाथपुत्रकी, सवज्ञ और सवेदशी- विसदृश भी। पर परिणमनसामान्यके प्रभावसे के रूपमे प्रसिद्धि थी। व सर्वज्ञ और सर्वदशी थ कोई भी अछूता नहीं रहता । यह एक मौलिक या नहीं यह इस समयकी चर्चाका विषय नहीं है, नियम है कि किसी भी सत्का विश्वस सर्वथा पर वे विशिष्ट तत्त्वविचारक थे और किसी भी प्रश्न- उच्वंद नहीं हो सकता, यह परिवर्तित होकर भी को संजयकी तरह निश्चय कोटि या विक्षेप* अपनी मौलिकता या सत्ताको नहीं खो सकता । कोटिमें या बुद्धकी तरह अव्याकृत कोटिमे डालने एक परमाणु है वह हाइडोजन बन जाय, जल बन वाले नहीं थे और न शिष्योंको सहज जिज्ञासाको
जाय, भाप बन जाय, फिर पानी हो जाय, पृथ्वी अनुपयोगिताके भयप्रद चक्करमें डुवा देना चाहते बन जाय और अनन्त आकृतियों या पयायोंको धारण
8 प्रो० धर्मानन्द कोसाम्बीने संजयके वादको विशेष- करले, पर अपने द्रव्यत्व या मौलिकत्वको नहीं खो वाद संज्ञा दी है। देखो, भारतीय संस्कृति और अहिंसा सकता। किसीकी ताकत नहीं जो उस परमाणुकी पृष्ठ ४७1
हस्ती या अस्तित्वको मिटा सके । तात्पर्य यह कि