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अनेकान्त
[वर्ष १०
और बोला । महाराज, आपका लड़का तो बोलता अरे! मखका अनुभव करनेसे पाप नहीं होता है। राजाने खश होकर पांच गांव तथा अपने सब किन्तु उसके हेतुओंका विधात करनेसे होता है। श्राभूषण इनाममें दिये । जब लड़का खेलकर मिष्ठान्न खानेसे अजीर्ण नहीं होता किन्तु उसकी आया तब राजाने कहा बेटा बोलो। लड़का चुप मात्राका उल्लंघन करनेसे होता है। मात्राका उल्लंघन था। कछ भी नहीं बोला । राजाको शिकारीपर अत्यासक्तिमें ही होता है। क्रोध आया कि यह भी हमारी हंसो करने लगा।
सम्यग्दृष्टिकी एक पहचान अनुकम्पा भी है । अनुइसे फांसीको सजा दी जाय, ऐसा सेवकोंसे
कम्पाका अर्थ है परदुःखप्रहाणेच्छा। परके दुखको कहा। जब मेवकगण उसे फांसीके लिये लेजाने
नष्ट करनेकी इच्छा होना ही अनुकम्पा है। मनुष्य लगे तो उसने कहा कि मुझे ५ मिनिटका समय
मात्रको चाहिये कि किसीको दुखी देखे तो उसका दु:ख दिया जाय और उस लड़कंको बुलाया जाय ।
दूर करनेका भरसक प्रयत्न करे। समस्त जीवोंके लड़का बुलाया गया। उसने उसे गोदमे बैठाकर
माथ मैत्रीभाव होना चाहिये । पर 'दुःखानुत्पत्यभिकहा। भैया, मेरी फांसी तो होती ही है तुम उतना लापो मैत्री' दसरेको दुःख उत्पन्न ही न हो यह मैत्रीका ही बोल दो जितना कि उस वृक्षके नीचे बोले थे ।
अथे है । अनुकम्पास मैत्री गुण प्रशस्त और उससे भी लड़केको दया आई । यह व्यर्थ ही माग जायगा। .
उत्तम माध्यस्थ्य गुण है, जिसमें न राग है न द्वेष है यह सोचकर उसने कहा-'बोले सो फंसे'। राजाको
दोनोंका विकल्प ही नहीं है। वैयावृत्य भी इसी शिकारीकी बात पर विश्वाम हो गया । सा उमकी
अनुकम्पा गुणका एक कार्य है। हृदयमें अनुकम्पा मजा माफ करदी गई और पांच गांव जो इनाममे
न होगी तो दूसरेकी वैयावृत्ति क्या करोगे । भक्तिदिये थे वे भी कायम रक्खे गये। अब राजानं लड़के
पूर्वक जो मुनियोंको आहारादि दिया जाता है वह में कहा बेटा बोलते क्यों नहीं ? लड़कने अपना पाय
वैयावृत्य है । उसमें पञ्चाश्चर्य आदि अतिशय होते सारा किम्मा सुनाया कि में साधु था। तुम्हाग है। पर किसी दरिद्रीको भोजन दिया जाता है उसमे भक्तिसे प्रसन्न हो गया था मोके फलस्वरूप मेरी भक्ति नहीं होती। इसमें दया ही होती है और दयायह दुर्गति हुई है। किस्मा तो कल्पित होता है। पर का फल स्वगोदिक है। मुनिदान एवं पूजनका फल उससे सार ग्रहण करलिया जाता है। विचार करो मोक्ष है। स्वर्गादिकी प्राप्ति हो जावे. यह दसरी बात यह राग-द्वेष ही तो दुःखका कारण है। राग-द्वेषमे ही है। किसान खेतमें बीज डालता है अनाजके लिये विषयासक्ति बढ़ती है। आसक्ति कम हो जाय तो भसाके लिये नहीं। वह तो अपने आप होजाता है। विषय उतना हानिकर नहीं है। आत्मानुशासनम इसी प्रकार कोई कार्य करो मोक्षकी इच्छासे करो यह गणभद्राचार्यसे कोई प्रश्न करता है कि 'आप, पाप स्वर्गादि भुसाके समान जरा-सी मन्दकषायसे प्राप्त न करो, पाप न करो ऐसा द्राविड़ी उपदेश क्यों दते हो सकते हैं और अनन्त बार प्राप्त हुए हैं। हो ? सीधा यही कहो न, कि पुण्य न कगे।न पुण्य किया जायगा, न सम्पदा प्राप्त होगी, न उमका श्राज शौच धमे है। इसमें लोभका त्याग करना उपभोग होगा और न तब पाप होगा।' इसके पड़ता है। यदि आप लोग लोभको अच्छा समझते उत्तरमें गुणभद्र स्वामी लिखते है कि:
हो तो मोक्षका लोभ रख लो, अन्य विषयसामग्रीका 'न सुखानुभवात्पापं पापं तदनुघातकारम्भात् । लोभ छोड़ दो। मोक्षका लोभ संसारका कारण नहीं नाजाय मिष्टान्नाननु तन्मात्रातिमक्रमणान् । है। पर विषयका लोभ अनन्त संसारका कारण है।