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एक धर्म का होना तो सभी जगह एकदम संभव नहीं । लोग अपने अज्ञान और अशक्त अवस्थामें अपने मतलब लायक उसमें फेर बदल कर ही लेंगे। इसलिए साधनों, ध्येयों एवं मान्यताओं में विभिन्नता रहते हुए भी बजाय द्वेष-विद्वेषके सबको एक दूसरे की सहायता और सहयोग द्वारा जितना भी व्यवहारतः संभव हो सके स्वयं आगे बढ़ना और बाकी सभीको आगे बढ़ाना चाहिए । ऐसा करते-करते जब काफी ज्ञानका विकास होजायगा एवं काफी व्यापक रूपमें व्यक्ति तथा समाज सचमुच उन्नतिशील होगा तो अपने आप धीरे धीरे सारी व्यवस्थाए ठीक होती जायेंगी । विरोध कम होता जायगा ।
अनेकान्त
[ वर्ष १०
जाने, समझे और विभिन्नताओं की परवाह न करते हुए जहां समानता मिले उसे ही सुदृढ़ करे और
(२०) आजकी श्रावश्यकता - आज जरूरत है संसार में यथा शक्ति सच्चे ज्ञानका अधिक-सेअधिक व्यापक प्रचार करनेकी । छोटे-बड़ेका भेद भाव मिटाकर सबको हर संभव सुविधाएं उन्नति करने लायक उपलब्ध करनेकी । द्वेष-विद्वेषकी भावना दूर हटाकर हर एककी बातें एक दूसरा
बढ़ाते हुए हर कोई आगे बढ़े। ऐसा करके ही व्यक्ति, समाज, सम्प्रदाय, देश एवं संसारकी सच्ची उन्नति एवं सच्चा कल्याण होगा तथा सच्चे सुख और स्थायी शान्तिकी स्थापना हो सकेगी ।
(नोट-इल लेखको समझ लेनेके बाद जैन तत्त्वोंको समझने में आसानी होगी । जो लोग जीवन, मरण, संसार, दुख-सुख और मोक्ष आदि के असली तत्वोंको ठीक-ठीक सत्य-सत्य जानना चाहें उन्हें यह लेख पढ़नेके बाद - बा० सूरजभानु वकील द्वारा लिखित - हिन्दी द्रव्य-संग्रहकी हिन्दी टीका या अंग्रेजी में Sacred Books of the Jains Volu me V-Dravya Sangraha (द्रव्य-संग्रह) पढ़ना चाहिये- इसके बाद और दूसरी पुस्तकोंमें समयसार या फिर जितनी पुस्तकें देख सकें देख जांय तो अच्छा ही है । )
पटना, ता० १-११-४६