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संयम (प्रवक्ता श्री १०५ पूज्य क्षुल्लक गणेशप्रमादजी वर्णी न्यायाचार्य) सागर-चानुमांसमें दिया गया वर्णीजीका एक अन्य प्रवचन]
--x-- आज संयमका दिन है संयमका अर्थ श्री नेमिः तो यह अहिसा नहीं है। गृहस्थ पुरुष अपने पदके चंद्र आचार्यने लिखा है कि
अनुकूल ही अहिंसाका पालन कर सकता है। 'वदममिदिकसायाणं दंडाए तहिदियाण पञ्चण्ह। झठका आप लोगोंके त्याग होगा हा प्रतिदिनका धारणपावणणिग्गह चागजओ मयमो भणिओ' ॥ न हो, पर इन पवेक दिनोंमें भी कोई झूठ बोलता
व्रतांको धारण करना, समितियोंका पालन होगा, यह विश्वास मुझे नहीं होता। करना, कपायोंका निग्रह करना, दण्डों-मन, वचन, कायके व्यापारका त्याग करना और इंद्रियों
चोरीकी बात पूछिये नहीं, समय ऐसा आगया का जीतना मंयम कहलाता है। मंयममे ही संमार
है कि अचौयव्रतका निरतिचार पालन करना हम ममुद्रस मंतरण हो सकता है। मनुष्यपर्याय पाकर
त्यागियोंके लिये भी दुर्भर हो रहा है। एक त्यागीन जिन्होंने संयम नहीं धारण किया उन्होंने क्या
प्रतिज्ञा की थी कि मैं किसीको घूम न दूंगा न किसी किया ? भगवान समन्तभद्र देवनं लिखा है- म लुगा, दोनों हो चोरोमें सम्मिलित है। उसे हिमानृतचौर्येभ्यो मैथुनमवापरिग्रहाभ्याच।।
इटावास जबलपुर आना था । वह तीन दिन पापप्रणालिकाम्यो विरतिः संनस्य चारित्रं ।। म्टेशनपर गया । पर बाबृने उसे टिकिट नहीं दिया।
हिमा.भठ. चोरी. व्यभिचार और परिग्रह ये चौथे दिन जब दो रूपये अंटीमे दिय तब टिकिट पांच पापकी नालियां है, इनसे विरक्त होना मा मिला। जबलपुर आकर उमन प्रायश्चित्त किया। व्रत है। व्रत महाव्रत और अणुव्रतके भंदस दो दृसरंकी क्या कहे, आजकल हम लोग भी तो चोरो प्रकारका है। अभी यहां महाव्रतक धारण करने का ही खा रह है। जब यहां गेहूँ पैदा हुआ ही नहीं वाले तो नहीं है अन्य स्थानमे है पर अवतक है तब यह निश्चय है कि जो कुछ हमें मिलता है धारण करनेवाले बहतसं बैठ है। य क्षुल्लकजी वह मब ब्लैककं द्वारा ही मिलता है वही ब्लैकका बैठे है। लंगोटी और चादरको छोड़ दें। अकलापीछी द्रव्य हम लोग भी ग्वाते है। यदि आप लोग चोर है
और कमण्डलु ही परिग्रह रह जाय। यही मान ता हम लोग भी कोन माहूकार है ? तुम्हाग दिया कहलाने लगग। जैन कुलमे उत्पन्न हुआ आदमी हुआ अन्न भी बात है। आरम्भ उद्यम आदिको छोड़कर प्रायः किसी जीव- मैथुनमंवा विषयमे तो कुछ कहने नहीं बनता। की हिंमा नहीं करता है। प्रारम्भमें उद्यम आदिम जवान स्त्री-पुरुपोंका शरीर जर्जर हो गया है। हिंसा करनी पड़ती है पर जैन-शासन गृहस्थकोमा पन्द्रह-पन्द्रह सालकी लड़कियां पिण्डरामे पड़ी हुई करनेकी आज्ञा देता है। हम चादरको अपना माने है। जैमी प्रवृत्ति आप लोगोंकी है उसमें पिण्डरा और उसकी रक्षा करे नहीं यह कहांका धर्म है। नहीं रहना पड़े तो कहां रहना पड़े। पं० श्राशाधर
आप शरीरको अपना माने और फोड़ा आदि होने जीन लिखा है कि स्त्रीका सेवन अन्नकी तरह ...पर उनमे उसको रक्षा नहीं करें ये तो गृहस्थका करना चाहिये। जिस प्रकार सीमास अधिक अन्न कर्तव्य नहीं है । आप पशु पालें और उनके घाव ग्वानपर मृत्यु हो जाती है उसी प्रकार सीमासे आदिमें कीड़े पड़ जानेपर उनसे उनकी रक्षा न करें अधिक स्त्री-सेवन करनेपर मृत्यु हो जाती है।