________________
१६६
अनेकान्त
[वष १०
मैं-यह विल्कुल ठीक है कि 'दर्शन' का अर्थ मानता है और विरोधी दिखनेसे दूसरे धर्मका वह जगतमें शांतिका मार्ग दिखानेका है और इसीलिये निराकरण करता है तो स्याद्वादद्वारा यह बतलाया दर्शनशास्त्रका, लोकमें उदय हुआ है। जब लोकमें जाता है कि स्यात्-अमुक दृष्टिसे अमुक धर्म है धर्मको लेकर अन्धश्रद्धा बढ़ गई और भेड़ियाधमान और स्यात्-अमुक दृष्टिसे अमुक धर्म है और इस जैसा लोगोंका गतानुगतिक प्रवर्तन होने लगा तो तरह दोनों धर्म वस्तुमें विद्यमान है । जैसे, वेदान्ती समझदार लोगोंको दर्शनशास्त्र बनाने पड़े और उनके आत्माको सर्वथा नित्य और बौद्ध सर्वथा अनित्य द्वारा यह बताया गया कि अपने हितका मार्ग परीक्षा मानते हैं। यहाँ जैनदर्शन स्याद्वादसिद्धान्त द्वारा करके चुनो। अमुक पुस्तकमें ऐसा लिखा है अथवा आत्माको द्रव्य और पर्यायोंकी अपेक्षासे नित्य तथा अमुक व्यक्तिका ऐसा वचन है इतनेसे उसे मत मान अनित्य दोनों बतलाता है और उन्हें कथंचित रूप में लो, पहले उसकी परीक्षा करलो। पीछे यथार्थ जंचने ही स्वीकार करनेके लिये कहता है। यही समन्वय. पर उसे अपनाओ। जैनदर्शनमें स्पट कहा है- का मार्ग है । हमारा मब सच और दूसरेका सब
पक्षपातो न मे वीरे न द्वेषः कपिलादिपु। झठ, यह वस्तुनिर्णयकी सम्यक नीति नहीं है।
युक्तिमद्वचनं यस्य तस्य कार्यः परिग्रहः ॥ मूलतः सभी दर्शनकारोंका यह अभिप्राय रहा है
हिन्दुस्तान हिन्दुओंका ही है, ऐमा मानने और कि मेरे अथवा मेरे दर्शनद्वारा जगतको शांतिका मार्ग
९ कहनेमें झगड़ा है किन्तु वह जैनों, मुसलमानों, दिखे, किन्तु उत्तरकालमें पक्षपातादिके कारण उनके
बौद्धों आदि दुमरोंका भी है, ऐमा मानने तथा अनुयायिओंने उनके उस अभिप्रायको सुरक्षित नहीं।
कहनेमें झगड़ा नहीं होता । स्याद्वाद यही काम करता रखा और इसीसे उन्हें खण्डन तथा एक-दसरेपर है और इसीलिये जब हम स्याद्वादकी दृष्टिने काम
आक्रमणके दल-दल में फंस जाना पड़ा और जिससे लेते है तो सत्यार्थीमें कोई भी विरोधी नहीं मिलेगा. वे दर्शन श्राज विवाद करनेवाले-से प्रतीत होते है। जिसका निराकरण करना पड़े।
जैनदर्शनमें इन विवादोंको शमन करने और डाक्टरसा०-बुद्ध और महावीरकी सेवाधर्मकी समन्वय करनेके लिये अहिंसा और स्याद्वाद ये दो नीति अच्छी है और उसके द्वारा जनताको शांति शान्तिपूर्ण तरीके बतलाये गये है । अहिंसा आक्षेप मिल सकती है ? और आक्रमणकी भावनाको रोकती है और त्याद्वाद मैं-सेवाधर्म अहिंसाका ही एक अङ्ग है । माध्यस्थ्यभावको प्रदान करता है जिससं विवेकके अहिंसकको सेवाभावी होना ही चाहिए । महावीर साथ वस्तुनिर्णय तक पहुँचा जाता है। आप दखगे, और बुद्ध ने इस अहिंसाद्वारा ही जनताको बड़ी जैनदशनमें श्राक्षेप और आक्रमण नहीं मिलेगे। शान्ति पहुँचाई थो और यहो उन दोनों महापुरुषों हाँ, किसी असत्यार्थका प्रतिवाद जरूर मिलेगा की जनताजनादेनकी लोकोत्तर सेवा थी, जिसमें और जोरदार मिलेगा।
उनके अभ्युदय और कल्याणकी भावना तथा __ डाक्टरसा० - समन्वयका मागे तो ठीक नहीं है, प्रयत्न समाये हुए थे । इन महापुरुषोंके उपदेशोंपर उससे जनताको न शान्ति मिल सकती है और न चलकर ही महात्मा गान्धीजीने देशको स्वतन्त्र ठीक मार्ग । जो विरोधी है उसका निगकरण हाना किया, यह आपको मालूम हो है। ही चाहिये?
__यह चर्चा बड़ी मैत्री और सौजन्यपूर्ण हुई। इसके __ मैं-मेरा अभिप्राय यह है कि एक वस्तुमें सतत लिये प्रो.सा. तथा डा. सा. धन्यवाद के पात्र हैं । विद्यमान दो धमिसे एक एक धर्मको ही यदि कोई १० दिसम्बर १६४६, -दरबारीलाल जैन,