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किरण ५]
जीवन और विषयके परिवर्तनोंका रहस्य
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समझ लेना अज्ञानता है । हां, मनुष्यको सीमित इन तत्वोंको ठीक-ठीक न जानने से ही है। शक्तियों एवं समयके कारण उनकी बुद्धि-पूर्वक हमारे जैन शास्त्रोंमें पुद्गल-बर्गणाओंका पात्मामदद लेना आगे बढ़ने के लिए आवश्यक है। पर के ऊपर जो असर होता है उसका अच्छा विवेचन यहां भी मात्र सिद्धांतोंके घचड़-पचड़में अपनेको किया हुआ मिलता है, पर वहां ऐसा समाधानात्मक भुला देना ठीक नहीं-एक सच्चे मार्गकी खोज वर्णन न होने से जिससे कि हमें उनकी आन्तरिक करना ही हमारा इष्ट या ध्येय अथवा हमारी सारी क्रिया-प्रक्रियामे एक अन्तईष्टि-मी हो जाय और हम चेष्टाओंका लक्ष्य होना चाहिए।
यह जान जाय कि आखिर यह सब सचमुच होता जैनसिद्धान्तोंने अनेकान्त-स्यादवादका व्यवहार से है-हमारा ज्ञान फिरभी अधूरा ही रह जाता करके इसी तरहका एक सीधा-सादा मार्ग सांसारिक है। यह थोड़ा-सा अव्यक्तपन या धुंधलापन आत्माओंको आगे बढ़नेके लिए निर्धारित किया अथवा इस तरह का अधूरापन ही सारे फिसादों है । जो परम्परासे मर्वज्ञ-तीर्थकर-जिनद्वारा निर्दे एवं झगड़ों की जड़ है । इसे यथासंभव हटाना शित, निरूपित और व्यक्त किया जाकर प्राचार्यों आवश्यक है। मैंने भी कर्म-वर्गणाओं की इस गुत्थीतथा दर्शनवेत्ता-गुरुत्रों और ज्ञानियों द्वारा लिपि- को सुलझानेक लिये जो कुछ अपने मनमें तर्फबद्ध किया गया है। ज्ञान और अनभव को ठीक. वितक-द्वारा शास्त्रोंको पढ़ने पर निश्चय किया उस ठीक व्यक्त करना कठिन ही नहीं प्रायः असम्भव- यहां लोगोंकी मदद के लिए यथासंभव और यथा. सा है, लिखना तो और भी दूर की बात है। दूसरों शक्ति प्रकाशित कर देना अपना कर्तव्य समझा। की शिक्षाओं या लेखोंसे तो हम एक मुलझाया विषय इतना गूद, कठिन एवं क्लिष्ट है कि हुआ निर्देश ही पाते है-असल बात तो उमको बहुत चेष्टा करने परभी मेरा अपने विचारोंको जानकर स्वयं अनभव प्राप्त करना ही मचा तथ्य जल्दी लिपिबद्ध करना संभव नहीं हो सका । या सारे तत्वोंका सार है।
कितनी ही बार लिखना प्रारम्भ किया पर भूमिकाआत्मा और पुद्गलकी परिभाषाओं, शक्तियों में ही उलझा रहा गया या विषयान्तर हो जानेसे और रूपोंका वर्णन बड़े विशदरूपमे जैन शास्त्रोंमें प्रतिपाद्य विषय कुछका कुछ होकर दूसरी तरफ मुड़ किया गया है, यहां तो केवल कुछ ऐसी बातों पर गया। खैर, अन्तमे थोड़ो-सी सफलता मिली है, प्रकाश डालना है जिन्हें हम केवल पाथियोंको पढ़- जिसे यहाँ इसलिए व्यक्त किया जाता है कि इससे कर खुलासा जान नहीं पाते है । केवल तर्क या और दूसरे विचक्षण वैज्ञानिक एवं दार्शनिक लाभ श्रद्धापूर्ण तर्क द्वारा ही बहुत-सी बातों को स्वयं सिद्ध ले सकें। मनुष्य का ज्ञान अपूर्ण है इसलिए लेखककह कर मान लेते है, जो हमारे ज्ञानको पूर्णरूपसे को भी वैसा ही समझना उचित एवं ठीक है । जिस विशुद्ध बनाने में असमर्थ रहता है। यही कारण आदमीने अंगूर नहीं खाए है वह अंगूर का स्वाद है कि धर्म-तत्वोंका अर्थ लोग मनमाना लगा लेते हैं ठीक-ठीक कैसा होता है नहीं जान सकता है। ऐसे
और फिर व्यवहार में भी उसी कारण ढोंग और ही दूसरे फलोंके स्वादकी बात समझिये। पुस्तकोंसे मिध्या आचार एवं रीति-नीतिका विस्तार बढ़ जाता या दूसरोंके कहने अथवा बतलाने और निर्देश है। इससे बचने के लिए और संसारको या जिज्ञासु करनेसे हम किसीके बारेमें बहुत-सी ज्ञातव्य बातें अन्य व्यक्तियोंको तत्वोंका ठीक सकचा झान कराने जान जाते है जिसे हजारों वर्षोंसे लेकर आज तकके लिए उनकी सूरमतम बारीकियोंको आधुनिक के अनभवका इकट्ठा लाभ कहा जासकता है-फिर बैज्ञानिक तरीकोंसे प्रतिपादन करना अत्यन्त जरूरी भी यह साराका साग ज्ञान नकली है यदि स्वयं है। संसारकी सारी अव्यवस्था या उथल-पुथल अपनी अनभूति माथमें न हो या न होसके। इस