________________
१६२
अनेकान्त
वर्ष १०
शरीरसे, रूपसे निकलती हैं वे उसीछापकी इस सूक्ष्म उसके अनुसार ही यह शरीरधारी आत्मा सारी सांसा. रूपमें पूरीकी पूरी बनी रहती हैं जिसके कारण ही रिक अवस्थाओंसे होता हुआ जब ऐसी अवस्थामें हमें उनके विशद मांमारिक रूपका पूरा ज्ञान होता पहुँचता है जहाँ उसके वर्तमान शरीरकी कार्माणहै। ये वर्गणा लगातार और अधिक समय तक वर्गणाओंकी बहुसंख्याका स्थानीय वातावरणकी देखने या ध्यान करनेसे हमारे शरीरके अन्दरकी वर्ग- वर्गणाओंकी बनावट या स्थिति (setting) के साथ णाओंमें भी परिवतेन लाकर उन्हें उसी रूपका भरसक अनुकूलता नहीं रहती तो आत्मा इस पार्थिव-स्थूल अधिक-से-अधिक बनाती जाती है। तीर्थकरकी मूति- पुद्गल शरीरको छोड़कर कामणि शरीर के साथ ऐसी का दर्शन या रूपका ध्यान करते रहनेसे हमारा रूप जगह चला जाता है जहां उसका वर्गणाओंकी अनभी हमारे अनजानमें वैसा ही अपने आप होता जाता रूपता अधिक से अधिक संख्या. मात्रा या परिमाण. है। स्त्रीरूपसे किसी देवाका बराबर ध्यान करनेसे में होती है। वर्गणाओमें अपने श्राप एक स्वभाव, जैसे भाव होंगे वैसा ही गठन हमारे शरीरका भी प्रकृति या विशंपताका निर्माण हुआ होता है और होता जाएगा। वीरका ध्यान करने से वीर, भयंकरा- वह योनि या पर्याय भी उसीके अनुकूल होती कृतिसे भयंकरता, शांताकारसे शांतता इत्यादि है। सारे विश्व में ऐसे समय वर्गणाओंकी सबसे स्वभावमें उसीत रहकी वर्गणाओंके बननेसे आती है। अधिक अनुकूलता केवल एक ही स्थान और निराकार ध्यान दि संभव हो तो वह मोक्षमे परम एक ही पर्याय मे होती है। केवल इमीस हम सहायक है। बाल्यरूपका ध्यान करनेस बूढ़ा भी किसी जीवधारीके शरीरकी रचना करने वालो वगजवान हो सकता है। इसीलिये ध्यान, पूजन, जप णाओंकी अनंतता एवं विविधताकी महानताका वगैरहकी महत्ता सभी भारतीय धर्मोमे बहुत बड़ी अनुमान कर सकते हैं। दृष्टान्तके लिए ऊपर मैंने कही गई है।
वर्गणाओंकी संख्या और किस्में केवल एक सौ मान इसके अतिरिक्त भी तो कारण शरीरम सर्वदा ली है; पर व अर्गात, असंख्य और अनंत है। अदल-बदल हेर-फेर वर्गणाओंकी बनावटमे होता अनंत होते हुए भी उनमे व्यवस्था है, यही सबसे ही रहता है, जिसे हम कर्मोका बंध कहते है और बड़ी खूबी है। और इसी व्यवस्थाके कारण ससार उसीके अनुरूप हमारा सारा व्यवहार एवं आचार या विश्व एक परम व्यवस्थितरूप, चाल या गतिमे होनेसे हमे फलस्वरूप मुख-दुःख की प्राप्ति एव अनु- चलता जाता है। सभी परिवर्तनादि सुव्यवस्थित भव होता रहता है। कोई भी जीव अकेला दुख- एवं सुचारु रूपसे ही होत है। कहीं गड़बड़-शड़वड़ सुख अनुभव करनेमे समर्थ नहीं । यद्यपि दुख सुख या अव्यवस्था नहीं । यदि किसी मनुष्यका देहान्त तो अकेला ही अनुभव होता है पर उसमे निमित्त हो जाता है और मान लिया कि उसे पहले सुजाककी कारण सारा संसार ही है। मुख्य निमित्त तो कोई बीमारी थी तो उसकी कामाण-वर्गणाओंमें ऐसी व्यक्ति स्वयं है और संयोगिक (casual) निमित्त वर्गणाएं भी होंगी जो इस बीमारीसे संबन्ध रखती बाकी सभी कोई या सभी कुछ है । अकेला रहने में है। ऐसी हालतमें यदि उसकी वर्गणाओंका संगठन न दुख होता है न सुख न उनके कारण ही हात है- (seting) ऐसा हो गया है कि पुनः उसका दूसरा पर कि किसी भी व्यक्ति या जीवधारीक साथ जन्म मनष्यका ही होगा तो मरनपर उसका आत्मा चारों तरफ एक पूरा भरा संसार है और सबका ऐसे ही मनुष्यके वीर्य में जायगा जिसको यह बीमारी असर सबके ऊपर अनिवार्य रूपसे अक्षुण्ण पड़ता है हो। इस तरह यह कहना कि पिताके पापोंका फल इसीलिये दख सुख भी है।
सन्तानको भोगना पड़ता है वह गलत है। फल तो कार्माण शरीरमें जो परिवर्तन होता रहता है हर एकको अपने अपने कर्मका ही भोगना पड़ता है।