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अनेकान्त
होती है और जो इस प्रकार हैं:
शती -
१. सुप्रसिद्ध तार्किक भट्टाकलङ्कदेवकी पर विद्यानन्दने अष्टसहस्री टीका लिखी है। यद्यपि यह टीका आप्तमीमांसा पर रची गई है तथापि विद्या - नन्दने अष्टसहस्री में अकलङ्कदेवकी अष्टशतीको आत्मससात् करके उसके प्रत्येक पदवाक्याटिका व्याख्यान किया है। अकलदेव के ग्रन्थवाक्योका व्याख्यान करनेवाले सर्वप्रथम व्यक्ति आ० विद्या नन्द हैं । विद्यानन्दकी अकलङ्कदेव के प्रति अगाध श्रद्धा थी और वे उन्हें अपना आदर्श मानते थे । इसपर से डा० सतीशचन्द्र विद्याभूषण, म० म० गोपीनाथ कविराज जैसे कुछ विद्वानों को यह भ्रम हुआ है कि कलङ्कदेव अष्टसहस्रीकार के गुरु थे । परन्तु ऐतिहासिक अनुसन्धानमे प्रकट हैं कि अकलङ्कदेव अष्टसहस्त्रीकारके गुरु नहीं थे और न अनुसहस्रीकार ने उन्हें अपना गुरु बतलाया है । पर हॉ, इतना जरूर है कि वे अकलङ्कदेवके पदचिन्हों पर चले है और उनके द्वारा प्रदर्शित दिशापर जैनन्या यका उन्होंने सम्पुष्ट और समृद्ध किया है। अक लङ्कदेवका समय श्री० पं० कैलाशचन्द्रजी शास्त्रीने विभिन्न विप्रतिपत्तियोंके निरसनपूर्वक अनेक प्रमागोसे ई० सन् ६२० से ६८० निर्णीत किया है । अतः विद्यानन्द ई० सन् ६८० के उत्तरवर्ती है, यह निश्चित है ।
२. अष्टसहस्रीकी अन्तिम प्रशस्तिमे विद्यानन्दने दो पद्य दिये है । दूसरे पद्यमे उन्होंने अपनी १ देखो, अच्युत (मासिकपत्र पृष्ठ २८) वर्ष ३, ४ । २ देखो, न्यायकुमुद प्र० भा० प्रस्ता० ।
३ " श्रीमदकलङ्कशशधर कु. लविधानन्दसम्भवा भूयात् । गुरुमीमांसालङ्क तिरष्टसहस्रो सतामृद्धये ॥ १ ॥ कष्ट सहस्री सिद्धा साऽष्टसहस्त्रीयमत्र मे पुष्यात् । शश्वदभीष्टमस्त्री कुमारसेनोविवर्धमानार्था ॥ ६ ॥” इन दो पद्योंके मध्य में जो कनडी पद्य मुद्रित अष्टसहस्रीम पाया जाता है वह अनावश्यक और असङ्गत प्रतीत होता है और इसलिये वह अष्टमस्त्रीकारका पद्य मालूम नहीं होता । लेखक ।
[ वर्ष १०
अष्टमहत्रीको कुमारसेनकी उक्तियोंसे वर्धमानार्थ बतलाया है अर्थात् कुमारमेन नामके पूर्ववर्ती विद्वानाचार्य के सम्भवतः आप्तमीमांसापर लिखे गये किसी महत्वपूर्ण विवरण अष्टसहस्रके अर्थको प्रवृद्ध किया प्रगट किया है । विद्यानन्दके इस उल्लेखसे स्पष्ट है कि वे कुमारसेनके उत्तरकालीन है । कुमासेनका समय सन् ७८३ के कुछ पूर्व माना जाता है, क्योंकि शकस० ७०५ ई०, सन ७८३ में अपने हरिवंशपुराणको बनानेवाले पुन्नाटसंघी द्वितीय जिनमेनने इनका स्मरण किया है । अतः विद्यानन्द ई० सन् ७५० (कुमारसंनके अनुमानित समय ) के बाद हुए है।
३. चूंकि विद्यानन्दमुपरिचित कुमारसेनका हरिवंशपुराणकार ( ई० ७८३) ने स्मरण किया है, किंतु आ० विद्यानन्दका उन्होंने स्मरण नहीं किया । इससे प्रतीत होता है कि उस समय कुमारसेन तो यशस्वी वृद्ध ग्रन्थकार रहे होंगे और उनका यश सर्वत्र फैल रहा होगा । परन्तु विद्यानन्द उस समय बाल होंगे तथा वे ग्रन्थकार नहीं बन सके होंगे। अत इसमे भी विद्यानन्दका उपर्युक्त निर्धारित समय - ई० मन ७७५ मे ई० मन ८४०प्रमाणित होता है ।
४. श्र० विद्यानन्दने तत्त्वार्थश्लोकवात्तिकक अन्तमें प्रशस्तिरूपमें एक उल्लेखनीय निम्न पथ दिया है:
'जीयात्सज्जनताऽऽश्रयः शिव-सुधाधागवधान-प्रभु, ध्वस्त-ध्वान्त-ततिः समुन्नतगतिस्तोत्र - प्रतापान्वितः । प्रोजज्योतिरिवावगाहनकृतानन्त स्थितिर्मानतः, मन्मार्गस्त्रियात्मकोऽखिल मल-प्रज्वालन- प्रक्षम. ॥'
१ न्यायकुमुद प्र० प्र० पृ० ११३ । २ 'अकूपार' यशां लोके प्रभाचन्द्रोदयोज्वलम् । गुरोः कुमारसेनस्य विचरत्यजितात्मकम् ॥'
- हरिवंश १-३८ । ३ 'गरोः कुमारमेनस्य यशो अजिनात्मक विचरनि' शब्दों भी यही प्रतीत होता है ।