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ऐतिहासिक भारतकी प्राध मूर्तियां
जैन, बौद्ध या हिन्दू (ले०- श्री बालचन्द्र जैन, एम० ए०)
मतिनिमाणके दो ही उद्देश्य हो मकत अनेक वर्षों एकछत्र राज्य किया और जिनके वैभव है-प्रथम तो किमी अमत भावको मत रूप देना और प्रभुत्व का दबदबा उम समय समस्त उत्तर
और द्वितीय, किमीकी स्मृतिको स्थायी बनाम भारतमें था। रखना। भामकी कृतिसे हमे ज्ञात होता है कि अजातशत्रकी कही जानेवाली मति पर डा० प्राचीनकालमें देवकुल बनाए जाने की प्रथा थी। जायसवालने प्रजासत्र और कणिक दोनां नाम इन देवकुलाम स्थानीय राजवंशोंक प्रतापी गजानों पंढ थे जो बौद्ध और जैन ग्रंथोंसे समर्थित हैं। यह की मतियां स्थापित की जाती थीं। यह तो नहीं कहा अनुमान किया जा सकता है कि कणिक नामवारी जा सकता कि इन देवकलोमे स्थापित मतियाकी च्यनिने ही अपने सामथ्र्य और प्रभुत्वके बलपर पजा होती थी कि नहीं, पर इतना अवश्य ज्ञात हा अजातशत्रकी उपाधि ग्रहण की हा। मका है कि राजाकी मृत्युके पश्चात ही उसकी नन्दिवर्धनका वंशगत धर्म जैनधर्म था। हाथी मतिका निर्माण होता था और वह देवकुलमे रखी
। गुफाक लग्बमें 'लिगजिन मगध ले जानका उल्लेग्य' जाती थी। एक घटना मिलती है कि कुमार भरतको
इस कथन की पुष्टि करता है । चन्द्रगुप्त मौर्यसे पूर्व महाराज दशरथकी मृत्युकी प्रथम मचना देवकलमें
नन्द समस्त उत्तर भारतका एकछत्र सम्राट था। ही मिली थी जहां उन्होंन अन्य पृवजोक माथ उसकी शक्ति और सनाक आतंकस ही सिकन्दरको महाराज दशरथकी मति भी देवी । दवकुलांक प्रवकी ओर बढ़नके अपने निश्चयको बदलकर वाअस्तित्वक तिहासिक प्रमाण मथुरा प्रान्तस प्रान पम लौटना पड़ा था। कषाणवंशी राजाओंकी मतियों तथा परखम और हम यहां महिंजीदगे, हड़प्पा तथा सिधु-सभ्यता पटनाकी अजातशत्र और नन्दिवर्धनकी मतियांम के अन्य केन्द्रोंक संबन्धमे चर्चा नहीं करेंगे मिलते है।
क्योंकि वहांके. धमके बारमे पुरातत्त्व-विनअजानशत्र और नन्दिवधनकी मतियांक अभी तक किसी निणयपर नहीं पहुंच सके है। पर संबंध विद्वानाम मतभेद है। ये किसकी मूप्तियां उम संस्कृतिपर भी जैन प्रभाव लक्षित होता है।
एतिहामिक भारतकी मृतिकलापर दृष्टिपात कविद्वानोन भिन्न भिन्न प्रकारसे विचार किया है और रनेपर हम दग्यत है कि वैदिक देवताओं तथा राम उनके निर्णय भी भिन्न है। कुछ भी हो, मृतिके कृष्णा आदिकी मृति हमें उतनी प्राचीन नहीं मिलती रोबीले आकार, उच्चकाय, शैलीकी प्राचीनता और जितनीकि जैनतीथकरों और बद्ध तथा बोधिसत्वाअडित लिपि तथा नामोल्लेबने इन्हें उन्हीं महान की मिलनी हैं। 'कौन मेरे इन्टको खरीदेगा' इस वा. मम्राटोंकी मूर्ति मानना ही पड़ेगा जिन्होंने लगातार क्यमे यह निर्णय नहीं किया जा सकता कि वैदिक