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अनेकान्त
विष १
प्रकाशित करनेवाला अनेकान्त है। इसीको स्पष्ट है। यहां हरितत्व और पीतत्वकी अपेक्षा रूपमें करते हैं
परिवर्तन हुआ है पर मामान्यरूपकी अपेक्षा क्या जैसे आत्माको ज्ञानमात्र कहा है, यहां यद्यपि हुआ? दोनों ही दशाओं में रूप तो रहता ही है। आत्मा अन्तरंगमें दैदीप्यमान ज्ञानस्वरूपकी अपेक्षा इसप्रकार एक हो अविभागी द्रव्य, अपने महभावी तत्स्वरूप है तथापि बाह्यमें उदयरूप जो अनन्त गणों और क्रमभावी पर्यायोंकी अपेक्षा अनेकरूपमे ज्ञेय है वह जब ज्ञानमें प्रतिभासित होते हैं तब ज्ञानमें व्यवहृत होता है अथोत् सह-क्रमप्रवृत्त चिदंश समु. उनका विकल्प होता है इमप्रकार ज्ञेयतापत्र जो ज्ञान- दायरूप अविभागी द्रव्यकी अपेक्षा तो आत्मा एककारूप है जोकि ज्ञानसे भिन्न पररूप है उसकी अपेक्षा स्वरूप है और चिदशरूप पर्यायोंकी विवक्षासे अतत्स्वरूप भी है अर्थात् ज्ञान ज्ञेयरूप नहीं होता। अनेकस्वरूप है। सहप्रवृत्त और क्रमप्रवृत्त अनन्त चिदंशोंके समुदाय एवं स्वदव्य क्षेत्र काल भावरूप होनेके योग्य रूप जो अविभागी एक द्रव्य है उसकी अपेक्षा एक स्व. जो शक्ति है, अतः उसके स्वभावसे जब वस्तका रूप है अर्थात् द्रव्यमें जितने गुण है व अन्वयरूप- निरूपण करते हैं तब वस्त सत्स्वरूप होती है और से ही उसमें सदा रहते हैं विशेष रूपमे नहीं। ऐसा
परद्रव्य क्षेत्र काल भावरूप होनेके योग्य जो शक्ति है, नहीं है कि प्रथम समयमे जितने गुण हैं वे ही द्वितीय
अत: उसके अभावरूपमे जब वस्त का निरूपण करते समयमें रहत हों और वे ही अनन्त काल तक रहे
है तब अमत्स्वरूप होतो है। श्रीसमन्तभद्रस्वामीने आते हों। चूकि पर्याय समय समयमें बदलती
कहा है किरहती है और द्रव्यमें जितने गुण हैं वे सब पर्यायशून्य नहीं है अतः गणोंमे भी परिवर्तन होना अनि
'सदेव सर्व को नेच्छेत्स्वरूपादिचतुष्टयात् । वाये है। इससे सिद्ध यह हुआ कि गण सामान्यतया
अमदेव विपर्यासान चेन व्यवतिष्ठते ।।' प्रौव्यरूप रहते है पर विशेषकी अपेक्षा वे भी उत्पा- अर्थात् स्वद्रव्य क्षेत्र काल भावको अपेक्षा सम्पूर्ण दव्ययरूप होते हैं। इसका खुलासा यह है कि जो विश्व मत् ही और परद्रव्य क्षेत्र काल भावकी अपेगण पहले जिसरूप था दूसरे समयमें अन्यरूप क्षा असत् ही है...इस कौन नहीं स्वीकृत करेगा? हो जाता है, जैसे जो थाम्र अपनी अपक्व अवस्थामें क्योंकि ऐसा मान बिना पदार्थकी व्यवस्था नहीं हरित होता है वही पक्व अवस्थामे पीत होजाता हो सकती।
अर्थका अनर्थ (श्री पं० कैलाशचन्द्रजी शास्त्री )
'ज्ञानोदय' पत्रकी ४.५ संख्यामें 'शूद्रमुक्ति' प्रायः यह कहते और लिखते रहते हैं कि मूलशीर्षकसे सिद्धांतशास्त्री पं० फूलचन्द्रजीका एक सिद्धान्तग्रन्थोंसे अमुक बातका समर्थन नहीं होता । लेख प्रकाशित हुआ है। पं०जी सिद्धान्तशास्त्रोंके प्रन्थकारोंने परिस्थितिवश ऐसा लिख दिया है। ज्ञाता माने जाते हैं । आपने धवला और जयधवला- पहले कर्मसिद्धान्तके विषयमें आपने अपनी कुछ का सम्पादन किया है। साथ ही आप प्रबल सुधारक नवीन मान्यताएँ इसी आधारपर रक्खी थी। अब भी हैं। किन्त जो सुधार आपको बांछनीय हैं जैन श्राप शूद्रोंको मुक्तिका अधिकारी सिद्ध करना चाहते शास्त्रोंसे उनका समर्थन नहीं होता। अतः आप है। और उसके लिये आपने धवलासे उश्वगोत्रका