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आखिर यह सब झगड़ा क्यों ?
किरण ४ ]
कोई । हरएक मुख्य धर्मके अन्तर्गत जो छोटे-छोटे भेद, फिरके या मतान्तर होगये हैं उनके लिए भी यही जरूरी है कि अपने चरम आदर्श, उद्देश्य या लक्ष्य की तरफ ध्यान रखें न कि छोटी-छोटी बातोंपर ही झगड़ते रह जाएँ - जैसा वे अबतक करते आये हैं। एक छोटा-सा उदाहरण यहां दिया जा रहा है। भगवान महावीर क्षत्रिके पुत्र थे या ब्राह्मण के ? इसपर झगड़ा करते रहने के बजाए यदि हम भगवान महावीर ने क्या किया और क्या कहा उसको समझने और पालन करनेमें अपनी शक्तियों को लगावे तो अपना ही नहीं, किन्तु अखिल विश्वका एवं सारे मानव समाजका भी बड़ा भला करेगे। किसी बातकी अस लियतका पता लगाना जरूरी है पर उसीपर वादविवाद करते ही रह जाना बुद्धिमानी नहीं ।
शास्त्रोंने हमें केवल मार्ग बतलाया है । जैसे श्र व्यवस्थित घनघोर जंगलके बीचसे होता हुआ एक पहलेका बना हुआ राजमार्ग हमें निर्विघ्न जंगल के बाहर पहुंचाने में सहायक होता है उसी तरह ये शास्त्र हमें संसाररूपी घनघोर जंगल से बाहर निकलनेका रास्ता बतलाते है नहीं तो हम भटकते ही रह जाँय । जो मार्ग इन पुराण-पुरुषोंने सहस्रों वर्षो के अनुभव, श्रम और तपस्यासे जाननेके बाद निर्धारित किये हैं उनसे लाभ लिये बगैर हमारा काम नहीं चल सकता। पर इन्हें साधन समझनेके बजाय यदि हम सब कुछ का अंत यहीं या इन्हीं में मान लें तो यह हमारी गलती है । इनके बाद भी हमें कहीं 'अनंत' की तरफ जाना है, और जैसे नदीके उस पार किसी पुलके सहारे कोई पहुँच जाता उसी तरह इन शास्त्रोंकी सहायता लेते हुए हमें आगेका मार्ग प्रशस्त करना है, न कि पुल पार कर वहीं मार्गकी समाप्ति समझ लें और इधर-उधर न ताकें या आगे न बढ़ें। यह समझ लेना कि ज्ञानका या सारे ज्ञानोंका अन्त इन्हीं पूर्वकथित शास्त्रों में ही हो गया और अब इन्हें जानने या पढ़ लेनेके बाद कुछ भी नहीं करना है तो यह महज नादानी है अथवा इसे कोरा भ्रम या अज्ञान ही समझना चाहिये ।
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हमारे अधिकतर पंडित प्रायः उन सभी बातों का विरोध करते हुये पाये जाते है जो उनके शास्त्रों में वर्णित नहीं है या जिनका जिक्र वहां नहीं आया है अथवा कम विस्तार से लिखा हुआ। । यह उनकी गलती या एकान्तमयी प्रवृत्ति है। ज्ञान अगाध एवं अनंत है। इसके अतिरिक्त सभी शास्त्र तो कौन कहे एक भी शास्त्र स्वयं जिनेन्द्र-प्रणीत नहीं है'तीर्थंकर की धुनि गणधरने सुनि अंग रचे चुनि ज्ञानमई ।' इसके बाद भी उन गोंको गुरुओंने परम्परा से सुन-सुनाकर कंठस्थ कर रखा और बहुत बादमे तब जाकर कहीं किसीने लिपिबद्ध किया जो आज हमारे सम्मुख है। जब भी कोई बात एक आदमी दूसरे आदमीसे कहता है और वह दूसरा तीसरे से कहता है तभी उसमें शब्दों, वाक्यविन्यासों एवं अर्थ में भी विभिन्नताएं आ ही जाती हैं- यह सर्वथा स्वाभाविक है। फिर भी किसीने बीच में कुछ अपना मिला दिया तो यह भी कोई ताज्जुबकी बात नहीं । फिर बाद में व्याख्याओं और टीकाओं में तो बहुत कुछ बढ़ा-चढ़ा दिया गया जिसका कुछ अन्त नहीं । आज अधिकतर लोग इन्हीं व्याख्याओंको 'जिनवाणी' समझकर वैसा ही व्यवहार करते हैं एवं दूसरों को उसमें शंकामात्र करनेसे ही धर्मद्वेषी या द्रोही समझ लेते हैं, यह तो सरासर गलती या अन्याय है । धर्मको सीमित कर देना उसका गला घोट देना है। द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव एवं सुविधा और सामर्थ्य आदिके अनुसार धर्मका प्रवर्तन होना चाहिये । अन्यथा ढोंग और अतिचारोंका ही धर्मके रूप में माना जाना और प्रचलित होजाना कोई कैसे रोक सकता है । आज जैनधर्म ही क्यों सभी धर्मोकी यही हालत है। अब तो समझदारीका व्यवहार करके धर्मका रूप वर्तमान कालादिके अनुसार ऐसा निरूपित करना चाहिये कि उसका आचरण संभव, स्वाभाविक एवं ठीक हो तथा भ्रम और मिथ्यामार्ग एवं ढोंग से रहित हो । तभी अपना भला होगा और लोकका कल्याण भी । अपनेको जन्मके कारण ऊंचा समझना और दूसरोंको नीचा समझना जैनधर्म के