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आखिर यह सब झगड़ा क्यों ?
किरण ४]
दूसरोंकी बातें स्वयं जानें और अपनी बातें समझने वालोंसे दूसरों की बातें जाननेको भी कहें तथा जाननेमें मदद करें तभी शुद्ध ज्ञान होगा और उसका सुसंस्कृत विकास होगा । ऐसा करके ही लोगोंकी मानसिक उन्नति और साथ ही आध्यात्मिक उन्नति भी हो सकेगी।
प्रायः सभी भारतीय धर्मामें आत्मलाभ आत्मज्ञान(to know the self or self realisation ) कोही महत्व दिया गया है और इसी को चरम आदर्श या ध्येय कहा गया है। यही सच्चा पुरुषार्थं है और मानव-जीवन प्राप्त करनेका ध्येय-मतलव या अर्थ भी इससे सम्पन्न होता है । अपनेको जानना किसी भी समझ्दार व्यक्तिका सबस पहला कर्त्तव्य है और सतत प्रयत्न एवं ध्यान अथवा तपस्या या भोग साधनपूर्वक अपने आत्माको जान कर उसे पा लेना ही हमारे जीवनका एकमात्र उद्देश्य है । इस काय या आ. शकी सिद्धिके लिए एकाग्रता अविच्छिन्न ध्यान, निर्विकार मनोयोग एव निश्चितता परम आवश्यक है। निर्मल ज्ञानका होना तो सबका आधार ही है। इस परम इष्ट आत्मधमके साधनद्वारा ही मनुष्य या व्यक्ति दुखोंस छुटकारा पाकर उन्नति करते-करते ईश्वर हो जा सकता है और इस तरह सारे आवागमन या सांसारिक कष्टों से छुटकारा पाकर परम निर्विकल्प एवं परम निराकुल मोक्षसुखका लाभ कर सकता है। इसी एक अ ंतिम या चरम लक्ष्यकी प्रधानतापूर्वक प्राप्ति के लिए ही सभी धर्मोन अपना २ मार्ग एवं रीतियाँ निर्धारित या निरूपित की हैं। जब लक्ष्य एक ही है तब साधन, प्रवृत्ति एवं समझके अनुसार व्यावहारिक विधानोंमे यदि भेद हुआ ही या होगा ही तो उसके कारण व्यर्थ तू-तू मैं-मैं करते रहना सिवा हानिके लाभप्रद कभी नहीं हो सकता । यही कारण है कि हम सब आपसमें एक दुसरेको समझ कर एक-साथ संयुक्त चेष्टा करने के बजाय लड़ते झगड़ते ही रह गए। इसमें अपने आप गिरे उन्नति मार्ग में आगे बढ़नेनं बंचित रहे और दूसरोंको भी गिराया तथा वंचित किया ।
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धार्मिक आचारों को पूर्णरूपसे निवाहने और ठीक जाननेके लिए देशकी राजनैतिक परिस्थितियोंका एवं सामाजिक संगठनका अनुकूल होना भी अत्यंत जरूरी है । राजनैतिक वातावरण या विधान और व्यवधानोंपर सच्चे धर्मका पालन बहुत कुछ निर्भर रहता है । इसलिए धर्मगुरुओं, पडितों और उपदेशकोंको यदि सचमुच लोककल्याण इष्ट है | सच्चे धर्मकी स्थापना ही मुख्य लक्ष्य और जाति, सम्प्रदाय, समाज एवं देश अथवा संसारमें सच्चा सुख और स्थायीशान्ति स्थापित करना ही उत्तम आदर्श है तो उन्हें सबसे पहले अपनी सारी शक्ति लगाकर राजनैतिक वातावरणको दुरुस्त करना ही होगा । अन्यथा आज तक हजारों वर्षों में कितने ही बड़े-बड़े अवतार बुद्ध, तोर्थंकर, पैगम्बर, मसीहा, उपदेशक, ज्ञानी वगैरह जो हुए है उनको शिक्षाओं के होते हुए भो संसार को दुरवस्थाएं एवं दुर्व्यवस्थाएं अब भी बनी हैं, उसमें उनकी भा सारी चेष्टाएं या शिक्षाए केवल मैकड़ों करोड़ों मानवों में गिनती के कतिपय धनिकों की कुछ भलाई करनेके सिवा प्रायः व्यर्थ ही रही है। अब तो एक ऐसे समाजकी स्थापना की जरूरत है जहां प्रायः सब समान हों-न कोई ऊँच हो न कोई नीच हो, यथाशक्ति परिश्रम करनेके बाद आजीविका एवं निर्वाहकी निश्चिन्तता हो और वृद्धावस्था या असहायावस्थामे देख-रेखकी निर्भरता हो । रूसका साम्यवाद तो अपने विनाशोक उपायोंसे आरंभ मे मफल होते भी जीवनके मुख्य व्यावहारिक क्षेत्रमे असफल सिद्ध हुआ है। अब तो महात्मा गांधी वाला जैन तीर्थंकरोंका बतलाया हुआ अहिंसामय 'समतावाद' ही हरएक बुराइयोंको दूर कर सकता है | इस 'समतावाद' की सिद्धिके लिए 'आत्मधर्म' का अधिक-से-अधिक व्यापक प्रचार ही इस धरातल पर अधिक-से-अधिक सुख-शान्ति स्थापित कर सकता है । सभी भारतीय धर्म या धर्मतत्व एक स्वरसं इसकी महत्ताका गान गाते है । फिर क्यों न सब कोई मिलकर अपने अपने धर्मोद्वारा निर्देशित मार्ग