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अनेकान्त
[वर्ष१
स्कन्धमें हैं परन्तु जो पयायें इस समयमें हैं वे दूसरे तथा नित्य भी है अनित्य भी है। समयमें नहीं हो सकती। यदि यह व्यवस्था न मानी यहां पर आपाततः प्रत्येक मनुष्यको यह शङ्का जावे तो किसी पदार्थकी व्यवस्था नहीं बन सकती। हो सकती है कि इस प्रकार परस्पर-विरोधी धर्म एक जैसे, सुवर्णको लीजिए, उसमें जो स्पर्श, रस. गंध और स्थानपर कैसे रह सकते हैं और इसीसे वेदान्तसूत्र में वर्ण है वे, सोना चाहे किसीभी पर्यायमें रहे, रहेंगे व्यासजीने एक स्थानपर लिखा हैकेवल उसकी पर्यायों में ही पलटन होगा।
नैकस्मिन्नसम्भवात्। यही व्यवस्था जिन द्रव्योंको सर्वथा नित्य माना अर्थात् एक पदार्थमे परस्पर विरुद्ध नित्यानिहै उनमें है। यदि संसार अवस्थाका नाश न होता त्यत्वादि नहीं रह सकते । परन्तु जैनाचार्योने स्यातो मोक्षका कोई पात्र न होता । इमसे यह सिद्ध हुआ द्वादसिद्धान्तसे इन परस्पर विरोधी धर्मोका एक स्थान कि संसारमें ऐसी कोई भी वस्तु नहीं जो नित्यानि- में भी रहना सिद्ध किया है और वह युक्ति-युक्त भी त्यात्मक न हो। तथा हि
है। क्योंकि वह विरोधी धम विभिन्न अपेक्षाओंसे एक आदीपमाघ्योम समस्वभावं स्याद्वादमुद्रातिभेदि वस्तु । वस्तुमे रहत है, न कि एक ही अपेक्षासे । देवदत्त तमित्यमेकनित्यमन्यादति त्वदाज्ञाद्विषतां प्रलापः ॥ पिता है और पुत्र भी है परन्तु एककी ही अपेक्षा
कहनेका तात्पर्य यह है कि दीपकसे लेकर उत्त. दोनों रूप दवदत्तमे सिद्ध नहीं हो सकते । वह आकाश पर्यन्त सभी पदार्थ नित्यानित्यात्मक है, अपने पुत्रकी अपेक्षा पिता है अपने पिताकी अपेक्षा इसको सिद्ध करनेवाली स्याद्वादमुद्रा है, उनमें दीपक- पुत्र भी है। इसी प्रकार सामान्यकी अपेक्षा पदार्थ को सर्वथा अनित्य और आकाशको सर्वथा नित्य नित्य है-उत्पाद और विनाशसे रहित है तथा माननेवाले जो भो पुरुष है वे आपकी आज्ञाके वैरी विशेषकी अपेक्षा अनित्य है-उत्पाद और विनाशस है। यदि दीपक, घट, पटादि सर्वथा अनित्य ही होते युक्त है । सामान्यकी अपेक्षा पदार्थ एक है परन्तु तो आज संसारका विलोप हो जाता। केवल दीपक अपनी पर्यायोंकी अपेक्षा वही पदाथे अनेक हो जाता पर्यायका नाश होता है न कि पुद्गलके जिन परमा- है । जैसे, सामान्य जलत्वकी अपेक्षास जल एक है णुओंसे दीपक पर्याय बनी है उनका नाश होता है। परन्तु तत्तत्पर्यायोंकी अपेक्षा वही जल तरङ्ग, बबूला, तत्त्वकी बात तो यह है कि न तो किसी पदार्थका हिम आदि अनेकरूप होता देखा जाता है। जैना. नाश होता है और न किसी पदार्थकी उत्पत्ति होतो चार्योंने स्याद्वादसिद्धान्तमै उक्त धोका अच्छा समहै। मूलपदार्थ दो है जीव और अजीव । न ये उत्पन्न न्वय किया है। देखियेहोते हैं और न नष्ट होते है। केवल पयायोंकी 'स्याद्वादा हि सकलवस्तुतत्वसाधकमेवमेकमस्खलितं उत्पत्ति होती है और उन्हींका विनाश होता है। माधनमहद्दवस्य, स तु सर्वमनेकान्तमनुशास्ति सवस्य सामान्यरूपसे द्रव्यका न तो उत्पाद है और न वस्तुनोऽनेकान्तात्मकत्वात् । अत्र स्वास्मवस्तुनो ज्ञानमात्रविनाश है परन्तु विशेषरूपसे उत्पाद भी है और तयानशास्यमानोऽपि न तत्परिदोषः ज्ञानमात्रम्यात्मवस्तुनः विनाश भी है। तथा हि
स्वयमेवानेकान्तात्मकत्वात् । तत्र यदेव तत् तदेवातत्, 'न सामान्यात्मनोदेति न व्येति व्यक्तमन्वयात् । यदेवैकं तदेवानेकम् , यदेव सत् तदवासत्, यदेव नित्यं म्येत्युदेति विशेषासे सहकत्रोदयादि सत् ॥ तदेवानित्यमित्येक वस्तुवस्तुत्वनिष्पादकविरुद्धशक्रिद्वयप्रका
जैसे पदार्थ नित्यानित्यात्मक है वैसे ही तत शनमनेकान्तः । तत्स्वात्मकवस्तुनो ज्ञानमात्रत्वेऽप्यअवत् , सत् असत् और एकानेक रूप भी है। जैसे, न्तश्चकचकायमानरूपेण तत्त्वात् बहिरुन्मिषदनन्तज्ञ यताएक आत्मा द्रव्य लीजिये, वह तत् भी है अतत भी पक्षस्वरूपतातिरिक्तपररूपेणासत्वात् सहक्रमप्रवृत्तानन्तहै, एक भी है अनेक भी है, सत् भी है असत् भी है चिदंशसमुदयरूपाविभागकद्रव्येसैकत्वात् अविभागैकबन्य