________________
६६
अनेकान्त
[वर्ष १०
(ग) जयन्ति निर्जिताशेषसर्वथैकान्तनीतयः । पार्श्वनाथकी अतिशयपूर्ण प्रतिमा अधर रहती थी सत्यवाक्याधिपाः शश्वविद्यानन्दा जिनेश्वराः ॥ और जिसे लक्ष्य करके ही विद्यानन्दने श्रीपुरपाव
-प्रमाणपरीक्षा मङ्गलपद्य । नाथस्तोत्र रचा था। श्रीपुरुपका राज्य-समय ई० सन् (घ) विद्यानन्दैः स्वशक्त्या कथमपि कथितं
७२६ से ई० मन ७७६ तक बतलाया जाता है। सत्यवाक्याथसिद्धय ।-आप्तपरी० श्लो. १२३ । विद्यानन्दने अपनी रचनाओं में श्रीपुरुषराजा (शिवविद्यानन्दके प्रमाणपरीक्षा और युक्त्यनुशासना- मारके पिता एवं पूर्वाधिकारी) का उत्तरवर्ती गजाओं लङ्कारके प्रशस्ति-उल्लेखोंपरसे बा० कामताप्रसादजी (शिवमार द्वि०, उसके उत्तराधिकारी राचमल्ल सत्यभी यही लिखते है । इससे मालूम होता वाक्य प्रथम और इसके पिता विजयादित्य) की है कि विद्यानन्द गङ्ग-नरेश शिवमार द्वितीय तरह कोई उल्लेख नहीं किया। इससे यह महत्व(ई०८१० ) और राचमल्ल सत्यवाक्य प्रथम पर्ण बात प्रकट होती है कि श्रीपुरुपके राज्य-काल (ई०८१६ ) के समकालीन हैं और उन्होंने अपनी (ई०७२६-ई ७७६) मे विद्यानन्द ग्रन्थकार नहीं कृतियाँ प्रायः इन्हीं के राज्य-समयमें बनाई है।
बन सके होंग और यदि यह भी कहा जाय कि व विद्यानन्दमहादय और तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक तो
उस समय कुमारावस्थाको भी प्राप्त नहीं हो सके शिवमार द्वितीयके और आप्तपरीक्षा, प्रमाण- होंगे तो कोई आश्चय नहीं है। अतः इन सब परीक्षा तथा युक्त्यनुशासनालंकृति य तीन कृतियाँ प्रमाणोंसे आचाय विद्यानन्दका समय ई० सन राचमल्ल सत्यवाक्य प्रथम (इ०८१६-८३०) के ७५ से ई० सन् ८४ निीत होता है। राज्य-कालमें बनी जान पड़ती है। अष्टसहस्री, जो यहाँ यह शभा की जासकती है कि जिस प्रकार श्लोकवार्तिकक बादकी और आप्तपरीक्षा आदिक हरिवंशपराणकार जिनमन द्वितीय ई०७३, न पूर्वकी रचना है, करीब ई० ८१०८१५ में रची गई अपने समकालीन वीरसेनम्वामी (ई०८१६) ओर प्रतीत होती है। तथा पत्रपरीक्षा, श्रीपुरपाश्वनाथ- जिनसनस्वामी प्रथम (ई०८३७) का स्मरण किया स्तोत्र और सत्यशासनपरीक्षा ये तीन रचनाएँ इ० है उसी प्रकार इन आचार्योन अपने समकालीन सन् ८३०-८४० में रची ज्ञात होती है। इससे भी आचार्य विद्यानन्द (ई० ७७५-८४०) का स्मरण अथश्रा० विद्यानन्दका समय पूर्वोक्त ई० सन ७७५ से वा उनके ग्रन्थवाक्योंका उल्लेख क्यों नहीं किया ? ई. सन् ८४० प्रमाणित होता है।
इसका उत्तर यह है इन प्राचार्योकी वृद्धावस्थाक यहाँ एक खास बात और ध्यान दने योग्य है। समय ही प्रा० विद्यानन्दका ग्रन्थ-रचनाकाय वह यह कि शिवमारके पूर्वाधिकारी पश्चिमी गङ्ग- प्रारम्भ हुआ है और इसलिये विद्यानन्द उनके वंशी राजा श्रीपुरुषका शक सं० ६६८, ई० सन द्वारा स्मृत नहीं हए और न उनके ग्रन्थवाक्योंक ७७६ का लिखा हुआ एक दानपत्र मिला है जिसमे उन्होंने उल्लेख किये है। इसके अतिरिक्त एक दूसरे उसके द्वारा श्रीपरके जैन मन्दिरके लिये दान दिये की कायप्रवृत्तिस अपरिचित रहना अथवा ग्रन्थजानेका उल्लेख है । यह श्रीपुरका जैनमन्दिर काररूपस प्रसिद्ध न होना भी अनुल्लेखमें कारण सम्भवतः वही प्रसिद्ध जैनमन्दिर है जहाँ भगवान सम्भव है। अस्तु ।
, देखो, जैनसिद्धान्तभास्कर भाग ३, किरण ३। २. देखो, Guerinot no 131 अथवा जैनसि. भा. मा० ४, कि० ३ पृ० ११८ का नं० का उद्धरण ।
१ देखो, श्रीज्योतिप्रसाद जैन एम. ए. का लेख-Jain Antiouary. Vol.X. II. N. 1. जुलाई १६४६ ।