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अनेकान्त
वर्ष १०
उनपर संवत् १२८३ से लेकर १२६३ तकका संवत् राजा विक्रमसिंहने महाचक नामके प्राममें कुछ उत्कीणे है । हां, बूढी चंदेरीमें १०वी ११वीं शताब्दी जमीन आदि भी प्रदान की '। नककी मूर्तियां पाई जाती हैं।
२) जैसवालवंशी कुशराजने, ओ तोमरवंशी मुरार-ग्वालियरमें पं० हरिहरनिवासजी द्विवेदी- राजा वीरमदेवके महामात्य थे, भगवान चद्रप्रभका को एक गुप्तकालीन चतुर्मुख सर्वतोभद्र प्रतिमाकी
____एक चैत्यालय बनवाया था और पद्मनाभ नामके प्राप्ति हुई है जो उन्हींके पास सुरक्षित है। उसपर कायस्थ विद्वानसे 'यशोधरचरित्र' अपरनाम गुप्त लिपिमें लेख भी अङ्कित है । यह मूति उन्हें 'दयासन्दरविधान' नामका एक संस्कृत काव्यग्रन्थ मुरारसे एक मीलकी दूरीपर मिली थी'
भी बनवाया था, जिसे पद्मनाभने भट्टारक गुण___ इन स्थानोंके अतिरिक्त वरई, सेसई, ईदार, कीर्तिके उपदेशसे पूर्वसूत्रानुसार रचा था । गोलकोट, पचराई, उज्जैन, और तुमुन आदि स्थानोंमें जैन पुरातत्वकी महत्वपूर्ण सामग्री विद्यमान है। (३) अरुणमणिके 'अजित पुराण में जिसका यदि जैन समाज ग्वालियर और उसके जिलों रचनाकाल सं० १७१६ है, भट्टारक श्रुतकीतिके शिष्य अथवा सूबों में प्राप्त सामग्रीपरसे ऐतिहामिक बुवराधवके द्वारा गोपाचल (ग्वालियर)में जैनमन्दिर
के बनानेका उल्लेख निम्न शब्दों में पाया जाता है:इतिवृत्तका मंकलन एवं अन्वेषणका कार्य प्रारम्भ करे, जो भारी अर्थव्ययको लिये हुए है, तो उसपर
"तच्छिष्य जातो बुधराघवाख्यो, मे जो मूल्यवान् सामग्री प्राप्त होगी, उमसे कितनी
गोपाचले कारितजैनधामा" ही ऐतिहामिक उलझनें दूर हो जावेगी । और वह
| जावगा। आर वह (४) अग्रवालकुलावंतस, संसारशरीरभोगोंजैन इतिहासके लिये ही नहीं किन्त भारतीय इति- से उदासीन, धर्मध्यानसे मंतन शास्त्रोंके अर्थरूपी हासके लिये हितकर होगी। क्या जैन समाज रत्न समहसे भूषित तथा एकादश प्रतिमाअकि अपना लक्ष्य इस ओर भी देगा ? अन्यथा आज संपालक खेल्हा नामके ब्रह्मचारीश्रावकने चन्द्रप्रभ जो महत्वपूर्ण सामग्री यत्र तत्र विखरी पड़ी है वह भगवानकी विशाल मतिका निर्माण ग्वालियरमै भी विनष्ट हो जायगी और उसका प्राम करना फि बड़ा ही दुष्कर होगा।
1 Sue Epigraphica indca. Vo L. II. P. 237 कतिपय जैनमन्दिर व मूर्तिनिर्मापकोंके • जाता श्रीकुशराज एवं सकलमापाखचूडामणिः
श्रीमसोमरवीरमस्थ विदितो विश्वासपात्रं महान् । समुल्लेख
मंत्री मंत्रविचक्षणः सममयः वीणारिपक्षः सयात् । (१) दूबकुण्ड ( चंडोभ ) के उक्त शिलालेखमें,
बोण्यामीरणरक्षणक्षणमतिजैनेन्द्रपूजारतः ॥ जिसका ऊपर उल्लेख किया जा चुका है। मुनि
स्वर्गस्यर्दिसमृद्धिकोऽतिविमलश्चैत्यालयः कारितो । विजयकीतिके उपदेशसे जैसवालवंशी श्रावक
लोकानां हृदयंगमो बहुध नैश्चन्द्रप्रमस्य प्रभोः । दाहड, कूकेक, सूर्पट, देवधर और महीचन्द्र आदि
ये तत्समकायमेव रुचिरं भव्य व काव्यं तथा । चतुर श्रावकोंने वि० सं० ११४५ में विशाल जैनमदिर
साधश्रीकशराजकेन सुधिया कीर्तिश्चिरस्थापकम् ।। का निमोण कराया था और जिसके पूजन, संरक्षणा एवं जीर्णोद्धार आदि कार्योंके लिये कच्छपवंशी
उपदेशेन ग्रन्थोऽवं गुणकीर्तिमहामुने। १ देखो, मंगलप्रभातमें प्रकाशित ग्वालियरको जैन कायस्थपचनामेन रचितः पूर्वसनतः ।। मूर्तियां' नामका लेख ।
-अशोभरचरित्र प्रशस्ति ।