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अनेकान्त
बावरके आत्मचरितमें किलेकी इन मूर्तियोंके खंडित कराने की आज्ञाका उल्लेख पूर्व किया जाचुका है । मुस्लिम युगमें अनेक विशाल जिनमंदिरोको तोड़कर उनके पाषाणों आदि अनेक मस्जिदोंका निर्माण किया गया है । चुनाँचे देहलो में अनंगपाल द्वितीय और तृतीय के शासनकाल में निर्मित हुए अनेक जिनमन्दिरों तथा पश्चात्वर्ती अन्य अनेक मन्दिरोंको विनष्ट कर कुतुबमीनार के प्रसिद्ध लोहेकी नाटके चारों ओर पासवालो बड़ी मस्जिद इन्हीं मन्दिरोंके पाषाणसे बनाई गई है ।
संवत् १२४६ में जब शहाबुद्दीन गौरीने दिल्ली पर कब्जा किया तब अजमेर को विजय करके वहांपर बने हुए दि० जैन मन्दिरको ढाई दिन के अंदर उसे मस्जिदका रूप दे दिया गया था, और जिसे ढाई दिनका 'पड़ा' इस नामसे पुकारा जाता गत वर्ष विद्वत्परिषद् के सोनगढ़ अधिवेशन से वापिस लौटते समय गिरनारजी, शत्रुञ्जय और आबू आदिकी यात्रा करते हुए अजमेर में आये,
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कित हैं परन्तु शीघ्रता और अवकाशकी कमी के कारण मैं उन्हें नोट नहीं कर सका। अतः उनके सम्बन्धमें निश्चयपूर्वक कुछ नहीं कहा जासकता । संग्रहालय
ढाई के उस झोंपड़ेको देखने से मालूम हुआ कि वास्तव में वह एक जिनमन्दिर था, उसमें उसकी शिखरकी छत तथा दर्वाजेके अतिरिक्त अन्य किसी थानपर कोई विकृति नहीं आई है। उसकी अन्दर की छतोंपर जो देशी पाषाणपर अनेक बेल-बूटे बने हुए हैं । वे सब के मन्दिरों की शिल्पकलासे बहुत कुछ मिलते-जुलते हैं । उसमें सात 'स्वस्तिक' (सांधिया) भी बने हुए हैं । बेल-बूटों में केवल पाषाण - काही अन्तर नहीं है, कि सूक्ष्मकलामें भी विशेबता पाई जाती है और जिसे आबूके मन्दिरोंकी तोंमें उत्कीरण किया गया है । स्व० महामना गौरीशंकर हीराचन्द्रजी श्रमाने भी अपने राज तानेके इतिहास प्रथम भाग में 'ढाई दिनके झोंपड़े' को जिन मन्दिर लिखा है। अजमेर के भट्टारकीय जिनमन्दिरमें बगलमे जो तीन विशाल मूर्तियां विराजमान हैं, उन्हें ढाई दिन के झोंपड़ेवाले मंदिरकी मूर्तियां बतलाया जाता है, उनपर मूर्तिलेख भी
ग्वालियर के किले में इस समय एक म्यूजियम ( संग्रहालय ) है जिसमें हिंदू, जैन और बौद्धोंके प्राचीन अवशेषों, मूर्तियों, शिलालेखों और सिक्कों आदिका संग्रह किया गया है । उसमें ऐतिहासिक पुरातन सामग्रीका जो संकलन अथवा संचय किया गया है वह बहुत ही महत्वपूर्ण है । यदि इन व शेषोंका पूरा परिचय और संग्रहीत शिलावाक्यों एवं मूर्तिलेखों का संग्रह पुरातत्व विभागकी ओर से प्रकाशित होजाय तो उससे ऐतिहासिक अनुसंधान में विशेष सहायता मिल सकती । इस संग्रहालय में जैनियों की गुप्तकालीन खड़गासन मूर्ति भी रक्खी हुई है जो बहुत ही कलात्मक और दर्शकको अपनी ओर आकृष्ट करती है। अन्य दूसरी मूर्तियां भी बहुत ही सुन्दर है । और वे अपनी प्राचीनता प्रकट करती है। किलेकी इन सब मूर्तियोंका निर्माण ग्वालियर के तोमर अथवा तंबर वंशी राजर डूंगरसिंह और उनके पुत्र कीर्तिसिंह या करणसिंह के राज्यकालमें हुआ है । ये तोमरवंश के प्रसिद्ध शासक थे । इनकी जैनधर्मपर बड़ी आस्था थी, और तत्कालीन भ० गुणकीर्ति आदि के प्रभावसे प्रभावित थे । इनके राज्यकालमें ग्वालियर और उसके सूबों तथा समीपवर्ती इलाकोंमें जैनधर्मने खूब समृद्धि पाई । राजा डूंगरसिंह और कीर्तिसिंहका राज्यकाल वि० सं० १४८१ से वि० सं० १५३६ तक सुनिचित है। जैन मूतियोंकी खुदाईका कार्य राजा डूंगरसिंहने शुरू किया था, वह उसे अपने जीवनकालमें पूरा नहीं करा सका, तब उसे उसके पुत्र कीर्तिसिह ने पूरा कराया था। जैनमूर्तियों की खुदाई का यह कार्य ३३ वर्ष पर्यंत चला है, इतने लम्बे अर्से में सैंकड़ों मृतियां उत्कीर्ण हुई हैं और
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