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किरण ३ ]
जगह है। हर समय रहता है और सर्वदासे ऐसा हो है । ऐसी हालत में इन परमाणुओंका असर ठीक उसी तरह आत्मपर पड़ता है, जैसे जलमें दिखाई देनेवाले प्रतिविपर जलमें वर्तमान मिट्टी इत्यादि के कोंका । इस तरह आत्मा भी अनादि कालसे है, और पुद्गल भी, और जब तक किसी भी तरह आ त्मा इन पुद्गल परमाणुओंसे छुटकारा नहीं पाता तब तक वह परमनिमल नहीं कहा जा सकता । न उसका ज्ञान ही "केवलज्ञान" हो सकता है और न वह मोक्ष ही प्राप्त कर सकता है ।
आत्मा, कर्म, सृष्टि और मुक्ति
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फिर प्रश्न यह उठता है कि जबतक आत्मा संसार में है, जहां हर जगह हर वक्त पुद्गल परमाणु मौजूद है । फिर वह कैसे छुटकारा पा सकेगा । ऐसी हालत मे जबतक कि वह किसी ऐसी जगह या स्थान में न पहुँच जाय जहां पुद्गल न हों फिर तो वह जगह ऐसी ही होगी जहां मोक्षके समय ही आत्मा जा सकेगी। या मोक्ष हो जानेपर ही जासकेगी। पर ऊपर यह कहा जा चुका है कि वगैर पुद्गलोंसे छुटकारा पाये मोक्ष नहीं हो सकता | फिर ये दोनों बातें एक दूसरेकी विरोधी हो जाती है। और देखन में तो इससे यही साबित होता है कि फिर ऐसी हालत में आत्माको कथा मोक्षकी प्राप्ति ही न हो सकेगी ?
पर ऐसी बात नहीं है थोड़ा गौग्म सोचने पर इस गुत्थी को भी हम सुलझा पायेंगे । और आगे समझ सकेंगे ।
बात है भी ऐसी ही कि आत्मा जबतक मंसारमे है या रहता है, कर्मेसि या पुद्गलों (कर्मपरमा
ओ) से छुटकारा नहीं पाता है क्योंकि वे तो हर वक्त उसके प्रदेशमें विद्यमान है। आत्मा तो स्वयं कुछ करता नहीं, जिससे इन पुद्गलोंसे छुट कारा पा जावे । या कर भी क्या सकता है जब उसके अन्दर और बाहर हर तरफ, हर जगह, हर व पुद्गल वर्तमान ही हैं। स्वयं वह कहीं श्र जा भी नहीं सकता। उसे तो स्थानान्तरित करने
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वाला या एक जगह से दूसरी जगह ले जानेवाला भी तो पुद्गल ही है । वह स्वयं तो केवल ज्ञानानंदमय चेतन है । वह तो केवल जानता या अनुभव करता है। बस, ऐसी हालत में आत्मा कैसे या क्यों कर केवलज्ञान या निर्मल ज्ञानको प्राप्त होगा या होता है, यह एक बहुत कठिन समस्या है जिसे यहाँ सुलझाना या हल करना है ।
आत्मा संसारमें रहते-रहते जब कभी मानवशरीर पाता है तब समय, संयोग तथा सुयोग पाकर (जिसे हमारे शास्त्रकारोंने निमित्तकारण तथा काललब्धि कहा है ) जब ऐसी अवस्थामें आता है कि वस्तुरूप ठोक-ठीक समझने लग जाय तब उसका ध्यान बाहर से मुड़कर अपने अंदर आना आरम्भ हो जाता है। और यहीं से उसके लिये केवलज्ञान या मोक्षप्राप्तिका प्रारम्भिक विषयप्रवेश आरम्भ होता है । और जैसे-जैसे अनेकानेक कारणों या जरियों द्वारा उसका ज्ञान बढ़ता जाता है अथवा यों कहिये कि माफ या निर्मल होता जाता है वह एक ऐसी स्थितिमे आ जाता जबकि उसके अन्दरके पुद्गलों की बनावट या गठन (तरतीच) में इसतरहका फर्क आ जाता है या आने लगता है कि उनका असर एकदम मटमैला या अंधकारपूर्ण न होकर चमकदार या प्रकाशपूर्ण होने लगता है। जैसे कि जलमे मिट्टीके करण न डालकर अबरख, या शीशे या हीरे के कर डाल दिये जाये । आधुनिक विज्ञानद्वारा ये बातें हम जान सकते है कि किसी भी वस्तुका रूप या आंतरिक और बाह्यरूप और गुण वगैरह उसकी Atomie Construction ( आणविक बनावट) पर ही निर्भर करते है । यदि हम किसी वस्तुकी एटोमिक बनावटको किसी तरह बदल सकें तो उस बस्तुको हम किसी दूसरी वस्तुमें परिणत कर देंगे, जिसका रूप और गुण वगैरह पहली वस्तुसे एकदम भिन्न होंगे। इस प्रकार आत्मामें जो चेतना (जानन तथा अनुभव करनेका (गुण) है । और पुद्गलक