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अनेकान्त
वस्तुस्वभावसे रहित पुरुष सम्यग्दृष्टि नहीं हा अर्धकथानकके इस उल्लेग्यसे मालूम होता है सकते । पांडे रूपचन्द्रजीके वस्तुतत्व विवेचनम कि प्रस्तुत पांडे रूपचन्द्र ही उक्त 'समवसरण' पं० बनारसीदासका वह एकान्त अभिनिवेश दर पाठके रचयिता है। चूँ कि उक्त पाठ भी संवत् होगया, जो उन्हें और उनके साथियोंको 'नाटक १६६२ में रचा गया है और पं० बनारसीदासजीने समयसार' की रायमल्लीय टीकाके अध्ययन करनसे उक्त घटनाका समय भी अर्धकथानकमें सं० १६६२ होगया था और जिसके कारण वे जप, तप, सा- दिया है। इससे मालूम होता है कि उक्त पाठ मायिक, प्रतिक्रमणादि कियायोंको छोड़कर भग- आगरकी उपर्युक्त घटनासे पूर्व ही रचा गया है। वानका चढ़ाया हुआ नैवेद्य भी खाने लगे थे। इसीसे प्रशस्तिमे उसका कोई उल्लेख नहीं है। यह दशा केवल बनारसीदासकी ही नहीं उ- अन्यथा पांडे रुपचन्दजी उस घटनाका उल्लेख नके साथी चन्द्रभान, उदयकरन और थानमल्लकी उममें अवश्य ही करते । अस्तु, नाटक समयमारमें भी होगई थी। ये चारों ही जने नग्न होकर एक इन्ही रूपचन्द्रजीका समुल्लेख किया गया है वे कोठरीमे फिरते थे और कहते थे कि 'हम मुनिराज सं० १६६२ के रूपचन्द्रजीमे भिन्न नहीं हैं। हैं। हमारे कुछ भी परिग्रह नहीं है। जैसा कि अर्ध- इनकी सस्कृतभापाकी एक मात्रकृति 'ममवसरणकथानकके निम्न दोहेसे स्पष्ट है :
पाठ' अथवा 'केवलज्ञान कल्याणाचो' है। इसमे "नगन होंहि चारों जने, फिरहि कोठरी माहि। जैनतीर्थकरके केवलज्ञान प्राप्त कर लेनेपर जो अन्तकहहिं भये मुनिराज हम, कछू परिग्रह नाहि ॥" बर्बाह्य विभूति प्राप्त होती है अथवा ज्ञानावरण, पांडे रूपचन्द्रजीके वचनोंको मुनकर बनारसी
मब अध्यात्मी कियो विचार, दासजीका परिणमन और ही रूप होगया। उनकी
___ ग्रंथ वंचायौ गोम्मटमार ।।६३१।। दृष्टिमें सत्यता और श्रद्धा निर्मलताका प्रादुर्भाव
तामे गुनथानक परवान, हुआ। उन्हें अपनी भूल मालूम हुई और उन्होंने उमे
कह्यो ज्ञान अरु क्रिया विधान । दूर किया। उस समय उनके हृदयमें अनुपम ज्ञान
जो जिय जिम गुनथानक होइ, ज्योति जागृत हो उठी थी और इसीस उन्होंने
जैसी क्रिया करै मय कोइ ॥६३३।। अपनेको 'स्याद्वादपरिणतिसे परिणत' बतलाया
भिन्न भिन्न विवरण विस्तार,
_अन्तर नियत बहुरि विवहार । सं० १६६३ में पं० बनारसीदासजीने आचार्य
सबकी कथा सब विध कही, अमृतचन्द्र के 'नाटकममयमारकलश' का हिन्दी पद्या
सुनिक संसे कछु ना रही ॥६३३॥ नुवाद किया और संवत् १६६४ में पांडे रूप
तब बनारसी औरहि भयो. चन्द्रजीका स्वर्गवास होगया।
स्यावाद परिनति-परिनयो। १ अनायास इस ही समय,
पांड रूपचन्द्र गुरु पास, नगर अागरे थान ।
सुन्यो ग्रन्थ मन भयौ हुलास ।।६३०॥ रूपचन्द्र पंडित गुनी,
फिर तिस समै बरसकै बीच, अायो अागम जान ॥६३०॥
रूपचन्दको आई मीच । तिहुना साहु देहरा किया,
सुन सुन रूपचन्द्र के बैन, तहां श्राय तिन डेरा लिया। अर्धक.
बानारसी भयौ दिव जैन ॥६३५।।