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किरण २]
मैं क्या हूँ?
अधिक अन्य कोई कृपापात्र है, फिर भी मैं आपसे इस प्रार्थना करता हूँ जो कल्याणकारी है-वही मुझे मिलना (लोकक) लक्ष्मीको याचना नहीं करता है किन्तु हे चाहिये; क्योंकि सबोधिके बिना सब कुछ मिलना व्यर्थ शिवश्रीक रत्नाकर (समुद्र) और मगलके अद्वितीय निवा- है, उससे आत्माका कुछ भी हित नहीं सधता ।' सस्थान अन्तदेव ! मैं कवल इस सद्बोधि-रूप रत्नकी ही इस प्रकार यह अपराधत्तमास्तोत्र समाप्त हुआ।
में क्या हूँ
[इस लेखके लेखक जैनसमाजके पुराने प्रसिद्ध विद्वान् पं० दरबारीलालजी 'सत्यभक' हैं, जो अपने कुछ स्वतंत्र विचारोंके कारण जैनसमाजसे अलग होकर अपना एक जुदा ही समाज कायम करने में प्रवृत्त हुए हैं, जिसे 'सत्यसमाज' कहते हैं, और जिनका 'सत्याश्रम' नामका एक प्राश्रम वर्धामें कई वर्षसे खुला हुआ है, और तबसे अाप अपनेको प्रायः सत्यभक्त ही लिखा करते हैं। श्राप स्वतत्र विचारफ होनेके साथ-साथ अच्छे निर्भोक लेखक और समालोचक हैं। आपकी पालोचनाएँ दूर-दूर तक प्रहार किया करती है-धर्म, समाज, राजनीति, देवी-देवता. पुराण-कुरान, साधुसन्यासी, देश-विदेश श्रीर स्वर्ग-नरकादिक सभी तक उनकी गति है। श्राप सत्यके प्राणस्वरूप 'अनेकान्त' के उपासक हैं और साथमें अहिंसाको भी अपनाये हुए हैं। इसीसे आपके विचारोंका पारमा प्रायः जैन है-शरीरादिक भले ही अन्य हो-और इसे श्राप अनेकों बार स्वयं स्वीकार भी कर चुके हैं और इसीलिये अपने विचारानुसार सदा ही लोककल्याणकी भावनाओंमें तत्पर रहते हैं। आपने अपने विचारोंका पोषक कितना ही साहित्य तय्यार किया है और श्राप उसके प्रचार-प्रसार तथा नवसाहित्यके निर्माणमें बराबर लगे हुए हैं। आपके विचारोंमें बहुतोंको कुछ असंगति प्रतीत होती तथा पारस्परिक विरोध जान पड़ता है, उस विरोधादिकको दूर करनेके लिये ही यह लेख लिखा गया है। इस श्रात्मपरिचायक लेखमें अपने विचारोंका जैसा कुछ स्पष्टीकरण किया गया है उसपरसे सत्यभाजीको बहुत अंशोंमें समझा जासकता है, और इस दृष्टिको लेकर ही यह लेख उनके 'संगम' पत्रपरसे यहाँ दिया जाता है। इस परिचयलेखमें एक बात बढी अच्छी कही गई है श्रार वह यह कि सत्यभक्रजीने जहाँ अपने विचारोंपर जिन्दगीके अन्त तक, असफलताको पराकाष्ठापर पहुंचनेपर भी और बिलकुल अकेला रह जानेपर भी स्थिर रहनेका दृढ निश्चय व्यक्त किया है वहां उन्होंने यह सुन्दर शर्त भी लगाई है कि "बशर्ते कि इस राह मुझे सत्येश्वरका विरोध मालूम न होग-अर्थात् यदि किसी समय किमीके भी युक्रि-बलको पाकर यह मालूम पड़े कि उनका कोई विचार सत्यके अथवा लोकहितके विरुद्ध है तो वे उसपर स्थिर रहनेका अाग्रह नहीं रक्खेगे । इस शर्तसे स्पष्ट है कि उन्हें अपने किसी भी दृढ विचारपर सर्वथा एकान्तरूप कदाग्रह नहीं है कोई उसे असत्य अथवा लोकहितके विरुद्ध सिद्ध करे तो वे उसे छोड़नेको तय्यार है और इससे उनकी भव्यताका अच्छा द्योतन होता है। उनके इस कथनको कोई भी समर्थ विद्वान परीक्षण .करके जाँच सकता है।
हों, इस लेखकी एक खास बात और भी उल्लेखनीय है और वह है तथ्य सत्यका विवेक । लेखमें तथ्य ( यथार्थता) को बुद्धिवाद और सत्यको कल्याणवाद कहा गया है और उसके द्वारा यह प्रकट किया गया है कि जिस बातसे लोकका अधिक हित सधता हो वही बात सत्यभक्जीको दृष्टिमें सत्य है चाहे वह कितनी ही अतथ्य अथवा प्रवास्तविक क्यों न हो । शायद इसी दृष्टिको लेकर सत्यभक्रजी भगवान महावीरकी डायरी महावीरके नामसे स्वयं लिख रहे हैं और