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किरण २]
मैं क्या हूँ?
उसप्रकार भूत-प्रेत आदिको नहीं करता, क्योंकि ये पर दुरुपयोग हर चीज़का होता है। खाने-पीनेअतथ्य भी हैं और असत्य भी है। भूत-प्रेतोंकी का दुरुपयोग होता है इसलिये लोग बीमार पड़ते हैं मान्यताका सदाचार आदिकी दृष्टिसे जीवनपर पर इसलिये खाना नहीं छोड़ा जासकता । शारीरिक कोई अच्छा असर नहीं होता। ये कुचिकित्सा और चिकित्साका तो इतना दुरुपयोग होता रहता है कि अपव्यय आदि ही बढ़ाते है निरर्थक भय आदिसे एक संस्कृत कविने वैद्यको यमराजका भाई बताया, मानसिक बीमारियाँ भी बढ़ाते है, इसीलिये अग्नि- विशेषता यह कि यमराज तो प्राण लेता है वैद्य तो परीक्षा आदिमें मैंने इनका भंडाफोड़ किया है। प्राण और धन दोनों लेते है । दवाइयोंके विज्ञापन
आज मानवका विकास भी इतना होगया है कि वह कैसा सर्वनाश कर रहे है यह मालूम ही है। इतन इनसे पिण्ड छड़ा सकता है बहुत कुछ छुड़ा भी पर भी चिकित्साको रोका नहीं जासकता। ऐलोपेथी, चका है। मेरी नीति बौद्धिक दृष्टिसे मनुष्यको यथा- यतानी.भार्यर. होमियोपेथी. तार-चिकित्स शक्य विकसित करनेकी, तथ्यकी ओर लेजानेकी, चिकित्सा मादि कोई प्राकृतिक चिकित्मा, आदि तथा जितना विकास होगया है या सरलतासे होस- चिकित्साके रूप ही बदले जासकते है, अच्छे-से-अच्छे कता है उसे सहारा बनाकर कल्याणवाद या सत्य- चिकित्सकको हँदा जासकता है पर सदा सर्वत्रके वादका अधिक-से-अधिक प्रचार करनकी है। लिये चिकित्साको तिलाञ्जलि नहीं दी जासकती। धर्मसंस्थाका उपयोग
शासनतंत्रके दुरुपयोग तो अनन्त हैं, ये पीढ़ी-पीढ़ी ५. धर्मको मैं जीवनकी मनोवैज्ञानिक चिकित्सा
विश्वव्यापी महायुद्ध, यह मन्त्रियांसे लगाकर अदना
सं-अदना सरकारी नौकरकी रिश्वतखोरी, सरकारी मानता हूँ शासनतन्त्र बाहरी चिकित्सा है और धमे भीतरी । अगर भीतरी चिकित्मा न की जाय तो
आदमियोंका यह अनन्त विलाम अभिमान और
प्रजापीड़न, और जबदेस्ती, आदि दुरुपयोगोंका पहाड़ बाहरी चिकित्मा बेकार जायगी। शासनतंत्र चलाने
इकटठा होगया है। इतने पर भी हम शासनतन्त्रमात्र वालोंमें जितनी नैतिकता या धार्मिकता होती है
को दूर नहीं कर सकते । सिर्फ तंत्र बदल सकते है शासनतंत्र उतना ही अच्छा होता है। अन्यथा
सरकार बदल सकते है उन्हे अकुशमें रखनकी अच्छा-से-अच्छा शासनतंत्र बेकार जाता है। धर्मका
कोशिश कर सकते हैं। अन्य भी बहुत-सी बातें हैं कार्य मानवताके, ईमानदारीक सहयोगके सस्कार जिनके टरुपयोगको रोकनक लिये हम कोशिश करते डालना है. और ये मस्कार मंकटमे भी टिके रह पर उनकी जगह बिलकल खाली नहीं करत । धमइसके लिये पीठबल देना है। भले ही वह पीठबल
संस्थाओका जो दुरुपयोग हुआ है उसे गेकनेका ईश्वर हो, अदृष्ट हो, प्रकृति हो, या किसी तरहका
काम भी दूसरी धर्म-संस्थाओंन ही किया है। वैदिक योग हो।
धर्मके हिंसाकांड और शूद्र-परिपीड़नको जैन-बौद्धों निःसन्देह धर्म-संस्थाओंका खूब दुरुपयोग की अहिंसा और जाति-समभावन ही रोका । आज हुआ है, परलोकके नामपर ब्राह्मणोंने जनताको भी जो धर्मोका दरुपयोग होरहा है वह मैं मूल धर्मोंलूटा, विशेप पुण्यफलके नामपर सामन्तोंने अपनी में सुधार करके या सत्यसमाजके जरिये रोकना सामन्तशाही चलाई, उच्चवर्णी लोगोंने करोड़ोंको चाहता हूँ। नीचवर्णी अछूत आदि बनाकर रक्खा, एक धर्म- हां। मैं एक ऐसे युगकी कल्पना किया करता वालेने दूसरे धर्मवालोंका कत्लेआम किया आदि। हैं जिसमें मनुष्यको धमकी जरूरत ही न रहगी।