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आचारांगभाष्यम् आचारांग प्राधान्येन आचारप्रतिपादक शास्त्र- आचारांग मुख्यतः आचार का प्रतिपादक शास्त्र है। इसलिए मस्ति । तेन अस्मिन् द्रव्यमीमांसा नास्ति प्रधाना। इसमें द्रव्य मीमांसा प्रधान नहीं है। फिर भी आचारशास्त्र तथापि आचारस्य आधारभूता तत्त्वद्वयी-जीवः के आधारभूत दो तत्वों-जीव और पुद्गल का यथास्थान पुद्गलश्च यथास्थानमस्ति निर्दिष्टा। जीवशब्दस्य निर्देश प्राप्त होता है । प्रस्तुत आगम में 'जीव' शब्द का प्रयोग प्रयोगः अनेकवारं दृश्यते । जैनद्रव्यमीमांसायां अजीव- अनेक बार हुआ है । जैन द्रव्य-मीमांसा में अजीब द्रव्य के पांच द्रव्यं पञ्चधा विभक्तमस्ति-धर्मास्तिकायः, अधर्मास्ति- प्रकार निर्दिष्ट हैं-धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय कायः, आकाशास्तिकायः, पुदगलास्तिकायः, कालश्च। पुद्गलास्तिकाय और काल । प्रस्तुत विषय में केवल पुद्गलास्तिकाय प्रस्तुतविषये केवलं पुद्गलास्तिकायस्यैव संबन्धः। का ही संबंध है।
आचारांगे 'पुद्गल' पदं नास्ति क्वचित् प्रयुक्तम्। आचारांग में 'पुद्गल' शब्द का प्रयोग कहीं प्राप्त नहीं है, किन्तु तस्य गुणात्मक निरूपणमुपलभ्यते -'जस्सिमे सद्दा किन्तु उसके गुणात्मकरूप का वर्णन प्राप्त होता है, जैसे ....'जो पुरुष य रूवा य गंधा य रसा य फासा य अभिसमन्नागया। इन शब्द, रूप, गंध, रस और स्पों को भली भांति जान लेता है, भवंति, से आयवं नाणवं वेयवं धम्मवं बंभव । 'से ण ।
उनमें राग-द्वेष नहीं करता, वह आत्मवान्, ज्ञानवान् वेदवान्, स, ण रूवे, ण गंधे, ण रसे, ण फासे।"
धर्मवान् और ब्रह्मवान् होता है।' 'आत्मा न शब्द है, न रूप है, न
गन्ध है, न रस है और न स्पर्श है।' जीवपुद्गलयोः मुर्ताऽमूर्त विभागोऽपि प्रदर्शितोऽस्ति प्रस्तुत सूत्र में जीव और पुदगल के मूतं और अमूतं ये दो —'अरूवी सत्ता।" दिठेहि णिव्वेयं गच्छेज्जा।'५ विभाग भी प्रदर्शित हैं---'जीव अमूर्त है।' 'जो दृष्ट- अजीव हैं,
उनमें विरक्त रहे। वैदिकसाहित्येऽपि मूर्ताऽमूर्तविभागो लभ्यते।' वैदिक साहित्य में भी मूर्त और अमूर्त का विभाग प्राप्त सांख्यदर्शने आत्मा अमूर्तः प्रकृतिश्च मूर्तः। आकाशश्च होता है । सांख्य दर्शन में आत्मा को अमूर्त और प्रकृति को मूर्त प्रकृतिविकार एव, ततः स मूर्त एव । बौद्धदर्शने तत्त्वानि माना है। 'आकाश' प्रकृति का ही विकार है, अतः वह मूतं ही है। अव्याकृतानि । तेन नास्ति तत्र मूर्ताऽमूर्तयोविभागः । बौद्ध दर्शन में सभी तत्त्व अव्याकृत हैं। इसलिए मूर्त और अमूर्त
का विभाग वहां नहीं है। प्रस्तुतागमे दर्शनस्य मूलबीजानामन्वेषणा कतु प्रस्तुत आगम में दर्शन के मूल बीजों को खोजा जा सकता शक्या, किन्तु अस्याधारेण तस्य रूपरेखा निर्धारयितुं न है, किन्तु इसके आधार पर उसकी रूपरेखा निर्धारित नहीं की जा शक्या इत्यस्माकं अभिमतम् ।
सकती है, यह हमारा अभिमत है।
१. आयारो, १३५४, ५५,१२२, ४११,२०,२२,२३.२६;
६।१०३,१०४,१०५, ८।१७,२१,२२,२३,२४ । २. वही, ३।४। ३. वही, ५।१४०। ४. वही, ५२१३८ । ५. वही, ४१६ ।।
६. (क) बृहदारण्यक २।३।१-'द्वे वा व ब्रह्मणो रूपे,
मूर्तञ्चेवामूर्तञ्च ।' (ख) शतपथब्राह्मण १४१५।३।१–'द्व एव ब्रह्मणो रूपे,
मूर्तञ्चवामूर्तञ्च ।' (ग) विष्णुपुराण १।२२।५३-'रूपे ब्रह्मणो रूपे,
मूर्तञ्चामूर्तमेव च ॥'
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