Book Title: Sramana 2005 01
Author(s): Shreeprakash Pandey
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ŚRAMANA A Quarterly Research Journal of Parshwanath Vidyapeeth Vol. XXXXXVI No. I-VI January-June 2005 1 Pārś wanātha Vidyapitha, Varanasi पा श्रना fa LZ, ale Jai Education International Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण ŚRAMAŅA A Quarterly Research Journal of Parshwanath Vidyapeeth Vol. XXXXXVI No. I-VI January-June 2005 Editor-in-Chief Prof. Sagarmal Jain Editor Dr. Shriprakash Pandey Publisher uni पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी Parshwanath Vidyapeeth Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ STITUT: पार्श्वनाथ विद्यापीठ की त्रैमासिक शोध-पत्रिका Śramana: A Quarterly Research Journal of Parshwanath Vidyapeeth January-June 2005 Vol. XXXXXVI Membership fee can be sent in the form of cheque or draft only in the name of Parshwanath Vidyapeeth Published by No. I-VI Cover Page : Venerable Nuns of Jaina Shvetambara Sect, the torch-bearers of Jaina Religion Email ISSN-0972-1002 Subscription Annual membership For Institutions: Rs. 250.00 For Individuals: Rs. 200.00 Per Issue Price: Rs. 25.00 With Curtsy: From the book 'The Essays in Jain Philosophy and Religion', MLBD, 2003. Life Membership For Institutions: Rs. 1500.00 For Individuals: Rs. 500.00 Printed at : Parshwanath Vidyapeeth I. T. I. Road, Karaundi, Varanasi-221005 Ph. 911-0542-255521, 2575890 : parshwanathvidyapeeth@rediffmail.com Type Setting at: Add Vision pvri@sify.com Karaundi, Varanasi-221005 : Vardhaman Mudranalaya Bhelupur, Varanasi-221010 Note: The Editor may not be agreed with the views or the facts stated in this Journal by the respected authors. Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादकीय विषयसूची हिन्दी खण्ड १. जीवदया : धार्मिक एवं वैज्ञानिक आयाम -डॉ० काकतकर वासुदेव राव - डॉ० हरिशंकर पाण्डेय - डॉ० अल्पना जैन श्रमण जनवरी- जून २००५ संयुक्तांक २. रूपस्थ एवं रूपातीत ध्यान ३. कर्म - सिद्धान्त एवं वस्तुस्वातन्त्र्य ४. भारतीय दार्शनिक सन्दर्भ में जैन अचेतन द्रव्य ५. प्राकृत भाषा और राजशेखरकृत कर्पूरमञ्जरी में देशी शब्द ६. आचार्य नेमिचन्द्रसूरि कृत्तरयणचूडरायचरियं में वर्णित अवान्तर कथाएँ एवं उनका मूल्यांकन ७. मुहम्मद तुगलक और जैन धर्म ८. राजपूत काल में जैन धर्म ९. जौनपुर की बड़ी मस्जिद क्या जैन मन्दिर है? १०. आनन्दजी कल्याणजी पेढी के संस्थापक युगपुरुष श्रीमद् देवचन्द्र जी महाराज 11. THE JAINA MANUSCRIPT AND MINIATURE TRADITION २२. विद्यापीठ के प्रांगण में २३. जैन जगत् २४. साहित्य सत्कार २५. सुरसुदरीचरिअं -डॉ० विनोद कुमार तिवारी - डॉ० कमलेश कुमार जैन 12. MATHEMATICAL FORMULARY OF JINISTIC PRECEPTS 13. SCIENTIFIC THOUGHT EVIDENT IN THE LABDHISARA - डॉ० हुकमचंद जैन डॉ० निर्मला गुप्ता - डॉ० महेश प्रताप सिंह - अगरचंद नाहटा मुनि पीयूष सागर ENGLISH SECTION - - Lalit Kumar - N.L. Jain - L.C. Jain १-१७ १८ - २४ २५-३९ ४०-४४ ४५-५६ ५७-७४ ७५-८० ८१-८५ ८६-८८ ८९-९३ 95-125 126-133 134-150 १५१-१५५. १५६-१७५ १७६-१८४ ५६ - १४० Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादकीय श्रमण जनवरी-जून २००५ संयुक्तांक सम्माननीय पाठकों के समक्ष नये कलेवर में प्रस्तुत है। पूर्व की भांति इस अंक में भी जैन दर्शन, साहित्य, आचार, इतिहास एवं कला से सम्बद्ध आलेखों को स्थान दिया गया है। प्रस्तुत अंक के हिन्दी खण्ड में जैन दर्शन, जैन साहित्य, जैन आचार एवं जैन इतिहास पक्ष से आलेख प्रकाशित किये गये हैं। अंग्रेजी खण्ड में जैन विज्ञान, गणित एवं कला-इतिहास से सम्बद्ध आलेख प्रस्तुत हैं। हमारा प्रयास यही रहता है कि श्रमण का प्रत्येक अंक पिछले अंकों की तुलना में हर दृष्टि से बेहतर हो और उसमें प्रकाशित हो रहे सभी आलेख शुद्ध रूप में मुद्रित हों। इस अंक के साथ हम अपने सम्माननीय पाठकों के लिये जैन कथा साहित्य में विशिष्ट स्थान रखने वाली प्राकृत भाषा में निबद्ध श्रीमद् धनेश्वरमुनि विरचित सुरसुंदरीचरिअं का तृतीय परिच्छेद भी प्रकाशित कर रहे हैं जो गणिवर्य श्री विश्रुतयशविजयजी म० सा० द्वारा की गयी संस्कृत छाया, गुजराती अर्थ और हिन्दी अनुवाद से युक्त है। यह महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ हमें पूज्य आचार्य विजय राजयशसूरीश्वर जी म० सा० के सौजन्य से प्राप्त हुआ है जिसके लिय हम उनके आभारी हैं। सुरसुंदरीचरिअं के आगे के परिच्छेदों की संस्कृत छाया, गुजराती अर्थ और हिन्दी अनुवाद भी हमें जैसे-जैसे पूज्य विश्रुतयश विजय जी म० सा० से प्राप्त होते जायेंगे, उसी क्रम से हम धारावाहिक रूप में श्रमण में प्रकाशित करते रहेंगे। सुधी पाठकों से निवेदन है कि वे अपने अमूल्य विचारों/ आलोचनाओं से हमें अवगत कराने की कृपा करें ताकि इस अंक की त्रुटियों को आगामी अंक में सुधारा जा सके। - - - - सम्पादक - - Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी खण्ड जीवदया : धार्मिक एवं वैज्ञानिक आयाम रूपस्थ एवं रूपातीत ध्यान • कर्म-सिद्धान्त एवं वस्तुस्वातन्त्र्य भारतीय दार्शनिक सन्दर्भ में जैन अचेतन द्रव्य प्राकृत भाषा और राजशेखरकृत कर्पूरमञ्जरी में देशी शब्द आचार्य नेमिचन्द्रसूरि कृत-रयणचूडरायचरियं में वर्णित अवान्तर कथाएँ एवं उनका मूल्यांकन मुहम्मद तुगलक और जैन धर्म राजपूत काल में जैन धर्म जौनपुर की बड़ी मस्जिद क्या जैन मन्दिर है? आनन्दजी कल्याणजी पेढी के संस्थापक युगपुरुष श्रीमद् देवचन्द्र जी महाराज Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण, वर्ष ५६, अंक १-६ जनवरी-जून २००५ जीवदयाः धार्मिक एवं वैज्ञानिक आयाम डॉ० काकतकर वासुदेव राव* जीव पालतू जानवरों के मौलिक अधिकार तथा वन्य जीवों का संरक्षण अब व्यापक एवं गम्भीर चर्चा के विषय हैं। निजी सदाचार नियमों से इनका सम्बन्ध प्राचीन काल से विद्यमान है। हाल में ये विषय कानून की परिधि में भी आ गये हैं। अत: हर नागरिक के जीवन से इनका सीधा सम्बन्ध हो गया है। विदेशों में नियमों के ढांचे पर जल्दबाजी में बनाने गये कानून के कारण लोगों के सामने कई समस्याएं पैदा हुई हैं। वन्य जीवों के अधिकारों का समर्थन करने वाले संगठनों के अत्युत्साह के कारण कानूनी प्रावधान में वैचारिक विसंगतियां उत्पन्न हुई हैं। विभिन्न धर्मों के चिंतक विज्ञान से विमुख होकर अपनी पुरानी मान्यताओं का ही समर्थन कर रहे हैं। फलस्वरूप उनके विचारों की उपेक्षा होती है। भारत में जीवदया को धार्मिक विचार ही समझा जाता था। अब विज्ञान एवं तंत्रज्ञान की प्रगति के कारण नयी समस्याएं सामने आ रही हैं जिनका समाधान प्राचीन ग्रथों में नहीं मिल सकता। कुल मिलाकर पूरी वैचारिक दिशाहीनता नजर आ रही है। अत: इन विषयों पर आमूलाग्र पुनर्विचार करने की आवश्कता है। इस चर्चा से धार्मिक भावनाओं तथा वैज्ञानिक तथ्यों से सुसंगत सदाचार नियम बनाना आसान होगा। सभी सदाचार नियम किसी न किसी दार्शनिक सिद्धान्त पर आधारित होते हैं। भारतीय संस्कृति की दो प्रमुख परम्पराओं- वैदिक परम्परा और श्रमण परम्परा में से जैन-बौद्ध परम्पराएं इसी देश में विकसित हईं जब कि वैदिक परम्परा का आगमन आर्य लोगों के साथ हुआ, ऐसा माना जाता है। इन दोनों परम्पराओं में माना गया है कि प्रत्येक प्राणि तथा वनस्पति की अलग अलग आत्माएं हैं जो जड़ शरीर से भिन्न हैं। मृत्यु के पश्चात् आत्मा दूसरा शरीर धारण करती है। जैनमत के अनुसार किसी जीव का वध करना पाप है। शुद्ध शाकाहार ही इस परम्परा में ग्राह्य माना गया है। यद्यपि प्राचीन काल में वैदिक आर्य लोगों में मांसाहार का प्रचलन था तथा यज्ञ में पशु बलि प्रथा थी तथापि कालक्रमेण शाकाहार ही श्रेष्ठ माना गया । आजकल वैदिक धर्मानुसरण करनेवाले उच्च वर्ण के लोग शाकाहारी हैं। परम्परा तथा भौगोलिक परिस्थिति के कारण कुछ लोगों में मांसाहार का प्रचलन जरूर है; फिर भी व्रत उपवास * रिटायर्ड प्रोफेसर, जन्तुविज्ञान, दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ : श्रमण, वर्ष ५६, अंक १-६/जनवरी-जून २००५ के दिनों में मांसाहार निषिद्ध है। स्पष्ट है कि हिन्दू सदाचार नियमों में मांसाहार तत्त्वतः निषिद्ध है क्योंकि जीव दया ही धर्म का आधार है, ऐसी मान्यता स्वीकृत है। भारत में कुछ अन्य धर्म भी हैं जिनका आधार हिन्दू दार्शनिक सिद्धान्तों से भिन्न है। ग्रीक चिंतक एरिस्टाटल के विचारों को प्राचीन यूरोप एवं पश्चिम एशिया में बड़ी मान्यता प्राप्त थी। उसके अनुसार चैतन्य (जीव तत्त्व) के तीन प्रकार हैं- संवर्धी चैतन्य, संवेदी चैतन्य तथा विवेकी चैतन्या संवर्धी चैतन्य जो पोषण, वृद्धि तथा प्रजनन का नियामक है, सभी जीवों में विद्यमान है। संवेदी चैतन्य चलन क्रिया का नियमन करता है तथा सभी प्राणियों एवं मनुष्यों में पाया जाता है। विवेकी चैतन्य केवल मनुष्यों में पाया जाता है अर्थात् बुद्धिपूर्वक क्रिया करने की क्षमता केवल मनुष्यों में होती है। यह विचारधारा ईसाई दर्शन में ग्राह्य मानी गयी। ईसाइयों के प्रमाण ग्रंथ बाइबल के अनुसार परमेश्वर ने मानव जाति के भोगोपभोग के लिए ही सभी जीव-जन्तुओं की सृष्टि की। केवल मनुष्यों में विवेकी चैतन्य अर्थात् आत्मा अमर है जो परमेश्वर का ही अंश है, इस सिद्धान्त के एक उपसिद्धान्त के अनुसार अन्य जीवों में आत्मा नहीं है। अत: उन्हें सुख-दुःख का अनुभव नहीं होता इस तर्क के अनुसार मांसाहार में कोई दोष नहीं है। इस्लाम में भी यही विचारधारा मान्य हो गयी। यूरोप में ज्ञान के नवोदय के साथ सभी दार्शनिक विषयों पर नये सिरे से विचार करने की प्रवृत्ति पैदा हुई। धीरे-धीरे धार्मिक ग्रथों के विरुद्ध मत भी प्रस्तुत किये जाने लगे। जानवरों को दर्द का अनुभव होता है यह प्रमाणित करने के लिए किसी प्रमाणग्रंथ के आधार की या किसी जटिल वैज्ञानिक प्रयोग की आवश्यता नहीं है। केवल निरीक्षण से ही स्पष्ट हो जाता है। पश्चिम देशों में भी गाय के सामने उसके बछड़े की हत्या करना निषिद्ध माना जाता है। कई सामिषाहारी अपने सामने भेड़-बकरी का गला काटना देख नहीं सकते। इस प्रकार जनमानस में जीवदया की ओर झुकाव होना स्वाभाविक है। जीवदया ही मानव का नैसर्गिक गण है। यूरोपीय देशों में भी इस गण की अभिव्यक्ति होने लगी। इटली के रोम नगर में १९वीं सदी में जानवरों पर होनेवाली हिंसा का विरोध करनेवालों का एक स्वयंसेवी संगठन बना। यद्यपि कैथोलिक सम्प्रदाय के जगद्गुरु पोप ने इस पर आपत्ति जतायी तथापि इस तरह की संस्थाओं की संख्या बढ़ती गयी। धीरे-धीरे जीवदया को उन्नत संस्कृति का लक्षण मानना समाज में स्वीकृति हो गया। इस परिवर्तन में अंग्रेज सबसे पुरोगामी थे। सन १८२२ में पालतू गाय तथा घोड़ों पर होनेवाली हिंसा पर प्रतिबन्ध लगाने वाला कानून ब्रिटिश संसद में पारित हुआ। कुछ समय के बाद सन १८२४ में सभी पालतू जानवरों पर होनेवाली हिंसा को रोकने के लिए एक निजी संस्था स्थापित की गयी जिसे सन् १८४० में शासन की मान्यता मिली। इस आदर्श का अनुसरण मानते हए अन्य यूरोपीय देशों में भी स्वयंसेवी संस्थाएं स्थापित की गयी तथा कानून पारित किये गये। Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवदया : धार्मिक एवं वैज्ञानिक आयाम : m १. जीवदया की सैद्धान्तिक बुनियाद आधुनिक विज्ञान एवं तंत्रज्ञान की प्रगति के साथ-साथ हिंसा का प्रमाण भी बढ़ रहा है। पालतू जानवरों के बड़े फार्म तथा वैज्ञानिक अनुसंधान की बड़ी प्रयोगशालाओं में जानवरों की हिंसा सतत् होती है। धनी नगरवासियों के शौक के लिए बने प्राणिसंग्रहालयों (चिड़ियाघरों) में भी कई प्रकार की हिंसा होती है। इसमें मानव का स्वार्थ निहित होने के कारण इस प्रकार की हिंसा को पूरी तरह रोकना भी सम्भव नहीं है। अतः पश्चिमी देशों में अब जीवदया के विषय में नये सिरे से चर्चा प्रारम्भ हो गयी है। इस सन्दर्भ में तीन प्रमुख विचारधाराएं हैं जिनका संक्षिप्त वर्णन नीचे दिया गया है। १. सर्वजीवसमानतावाद इस विचारधारा के अनुसार सभी जीवों पर समान रूप से दया का भाव रखना चाहिये। सभी जीवों का एक प्रमुख लक्षण हैजिजीविषा । मृत्यु का डर सबको समान रूप से सताता है। अतः किसी जीव को किसी प्रकार की पीड़ा देना अनुचित है। किसी आचार नियम का औचित्य परखने का एक आसान तरीका है। इस विधि के अनुसार हमें यह सोचना चाहिये कि यदि हमें कोई पीड़ा दे तो हमारी प्रतिक्रिया क्या होती ? स्पष्ट है कि सभी जीव समान रूप से दया के अधिकारी हैं। वस्तुत: यह विचार प्राचीनकाल से ही चला आ रहा है। जैन मुनि (श्रमण ) इसी आचार नियम का यथा सम्भव पालन करते हैं। यद्यपि एक आदर्श सदाचार नियम के रूप में यह विवादातीत है तथापि व्यवहार्यता की दृष्टि से यह सदोष है क्योंकि सभी लोगों के लिए इसका आचरण सम्भव नहीं । संसार के सभी बंधन तोड़कर कोई मुमुक्षु दृढ़ निर्धारण के साथ इसके पालन का प्रयत्न कर सकता है फिर भी चलने-बैठने में, यहां तक कि श्वांस लेने में भी हिंसा होती है। दुष्ट हेतु से रहित होकर इस कठिन व्रत का पालन करने से व्रती को अपराध भावना नहीं आती। फिर भी यदृच्छया होने वाली हिंसा होती ही है । " ७ २. अनुबद्धतावाद - इस वाद के अनुसार हमें जीवों पर दया करनी चाहिये क्योंकि हम उनसे फायदा लेते हैं। इस प्रकार जीवों के साथ हमारा एक अलिखित अनुबन्ध है। इस वाद की परिधि में सभी पालतू जानवर आते हैं। अन्य जीवों के विषय में हमारा ऐसा कोई दायित्व नहीं है। गाय, भैंस, घोड़ा, कुत्ता आदि जानवर पूर्ण रूप से हमारे अधीन हैं। इसलिए उनका भरण-पोषण, रक्षा, बीमार होने पर औषधोपचार आदि हमारी ही जिम्मेदारी है। जंगली जानवारों तथा मछली, झींगा आदि जलचरों को आहार के लिए मारना इस वाद के अनुसार पाप नहीं है। हमें कष्ट पहुंचाने वाले जन्तु जैसे- मच्छर, विषैले सांप आदि मारना भी इस वाद के अनुसार पाप नहीं है। Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ : श्रमण, वर्ष ५६, अंक १-६/जनवरी-जून २००५ अनुबद्धतावाद में एक तार्किक दोष है जो इतना गंभीर है कि वह इस वाद की प्रच्छन्न अनैतिकता को दर्शाता है। प्रत्येक अनुबन्ध में दो पक्ष होते हैं जो अपनी अपनी लागत/लाभ अनुपात (cost/benefit ratio) निर्धारित करते हैं। दोनों पक्ष स्वेच्छा से अनुबन्ध के लिए राजी होते हैं। परिस्थिति के अनुसार मजबूरी से थोड़ी सी हानि या असुविधा को स्वीकारना पड़ता है। फिर भी यदि एक पक्ष को पूरा लाभ ओर दूसरे पक्ष को पूरी लागत (अर्थात हानि) हो तो स्वेच्छा से कोई अनुबन्ध नहीं हो सकता। पालतू जानवरों का मानव के साथ स्वेच्छा से किया गया कोई अनुबन्ध नहीं है। गाय-भैंस पालनेवाला अपने लाभ का बड़ी सूक्ष्मता से निर्धारण करता है। जानवरों को मिलनेवाला सुरक्षित आश्रय, दाना-पानी आदि उनका लाभ बताया जाता है। वास्तव में यह भी मानव के लिए लागत के रूप में निर्धारित किया जाता है। अतः यह इकतरफा अनुबन्ध है तथा इसमें नैतिक मूल्य दिखाना तर्कसंगत नहीं है। यह सच है कि पालतू जानवर अब फिर से जंगल में नहीं रह सकते। इस लिए यदि उनके हित का उदारता से एवं पूरी सहानुभूति के साथ ध्यान रखा जाए तो मानव को अपराध भावना का अनुभव करने की आवश्यकता नहीं है। क्या तोते को पिंजरे में मनोरंजन के लिए रखना भी अनुबद्धता के अनुसार समर्थनीय है? क्या सर्कस में बाघ, सिंह, भालू आदि जानवरों के खेल से मनबहलाव करना न्यायोचित है? जंगलों में रहनेवाले जानवर स्वतंत्रता को सर्वतोपरि मानते हैं। पिंजरा खोलते ही ऐसे जानवर भाग जाते हैं। इसके विपरीत गाय, भैस आदि शाम ढलते ही स्वेच्छा से घर लौट आते हैं। अत: जंगली जानवरों को बंधन में रखना अनुबद्धतावाद के अनुसार भी समर्थनीय नहीं है। वैज्ञानिक अनुसंधान में खरगोश, चूहे आदि जानवरों की हिंसा अनिवार्य है। परन्तु अनुबद्धतावाद के अनुसार इसका समर्थन नहीं हो सकता। ३.मानवश्रेठतावाद-समग्र मानव जाति का हित सर्वतोपरि है क्योंकि हम ... सब एक ही सृष्टिकर्ता की सन्तान हैं, ऐसी उदात्त भावना सभी सभ्यताओं में गृहीत है। मानवश्रेष्ठतावाद इसी भावना पर आधारित है। मानवहित के लिए की गयी जीवहिंसा इस वाद के अनुसार पाप नहीं है। तथापि जीवों को अनावश्यक पीड़ा पहुंचाना ठीक नहीं है। मांस के लिए हो या वैज्ञानिक अनुसंधान के लिए हो कम से कम पीड़ा पहुंचाकर जानवरों का प्रयोग सर्वथा उचित है। यदि कोई जीव गंभीर रूप से क्षतिग्रस्त हो या अशमनीय व्याधि से पीड़ित हो तो उसे कम से कम दर्द पहुंचाते हुए 'छुटकारा' दिलाना इस वाद के अनुसार यथायोग्य है। पश्चिमी देशों में इस वाद को सर्वाधिक मान्यता प्राप्त है क्योंकि वह उनकी परम्परागत संस्कृति तथा धार्मिक भावनाओं से विसंगत नहीं है। फिर भी इसका नैतिक दृष्टि से समर्थन करना कठिन है। विविध Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवदया: धार्मिक एवं वैज्ञानिक आयाम : ५ प्राणियों के हित से बढ़कर मानव के हित को सर्वोपरि मानने का आधार क्या है? क्या अन्य प्राणियों को दर्द का अनुभव मानव की अपेक्षा कम होता है? गंभीर रूप से घायल या असाध्य रोग से पीड़ित मानव को भी कम से कम दर्द पहुंचाते हुए 'छुटकारा दिलाना समर्थनीय क्यों नहीं? इन प्रश्नों का समाधानकारक उत्तर नहीं है। वास्तव में पश्चिमी सभ्यता में जो कुछ चला आ रहा है उसी को नैतिकता का रूप देना ही मानवश्रेष्ठतावाद का उद्देश्य है। ____ अपनी संस्कृति तथा धार्मिक परम्परा से विसंगत होने के कारण मानवश्रेष्ठतावाद भारत में ग्राह्य नहीं हो सकता। अनुबद्धतावाद की त्रुटियों की ओर इशारा किया जा चुका है। सर्वजीवसमतावाद व्यवहार में असम्भव होने के कारण वह भी अपनाने योग्य नहीं है। इसका अक्षरश: पालन करने से पूरी मानव जाति लुप्त होगी। अत: विविध जीवों के साथ मानव का सम्बन्ध निर्धारित करते हुए सदाचार नियमों का ढांचा तैयार करना होगा। इसमें अपनी दार्शनिक परम्परा का ध्यान अवश्य रखना होगा और साथ ही साथ यह भी ध्यान रखना होगा कि अद्यतन वैज्ञानिक तथ्यों की उपेक्षा भी न हो। भारत में कई धर्मों को माननेवाले लोग रहते हैं। सबको ग्राह्य सदाचार नियमों में किन्हीं मूलभूत धार्मिक श्रद्धाओं से टकराव भी टालना होगा। यहां एक ऐसी अचारसंहिता प्रस्तुत की गयी है जो इन सब निकषों पर खरी उतर सकती है। २. वैज्ञानिक व्यवहारवाद यदि कोई सदाचार नियम आचरण में न हो या निसर्ग के नियमों के विपरीत हो तो वह कभी टिक नही सकता। जीवों के साथ मानव के व्यवहार के नियम निरूपित करने में निम्नलिखित तीन तथ्यों का विचार आवश्यक है। १.सभी जीव प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से अन्य जीवों पर निर्भर रहते हैं। २.अन्य जीवों के प्रति दयाभाव मानव की नैसिर्गिक प्रवृत्ति है। ३. जिज्ञासापूर्ति एवं ज्ञान का संगोपन मानव की विशेषता है और उसका प्रतिरोध करना मानव के लिए हानिकारक है। जब तक पृथ्वी पर जीव है तब तक पहले तथ्य को नकारा नहीं जा सकता। दूसरे तथ्य के प्रतिकूल आचरण से सतत् मानसिक ग्लानि होती रहेगी। तीसरे तथ्य के प्रतिकूल आचरण असम्भव है क्योंकि जिज्ञासा मानव का निसर्गदत्त गुण है। जो सदाचार नियम इन तथ्यों को नकारता है वह पूर्णतया अव्यवहार्य है। इन तथ्यों का समन्वय करना ही वैज्ञानिक व्यवहारवाद का ध्येय है। सभी वनस्पति तथा प्राणी उस प्रकृति के अंग हैं जिसका अंग मानव भी है। इन सबके परस्पर सम्बन्ध एक जटिल व्यवस्था से बंधे हुए हैं। जब इस Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण, वर्ष ५६, अंक १-६ / जनवरी- जून २००५ व्यवस्था में कोई बाधा आती है तब उसे पूर्वस्थित में लाने की क्षमता भी निसर्ग में विद्यमान है क्योंकि वह भी इस नैसर्गिक नियम का एक अंग है। सभी प्राणि जातियों का अन्न प्रकृति नियम से सुनिश्चित है। कुछ प्राणी शाकाहारी हैं और अन्य कुछ मांसाहारी। गाय, भैंस, खरगोश आदि जीव घास या अन्य प्रकार के पौधे खाते हैं तब उनके मन में द्वेष की भावना नहीं होती। इसी प्रकार जब बाघ, हिरण को मारता है तब उसके मन में द्वेष की भावना नहीं होती । वह तो अपने उदरभरण के लिए अपना निसर्ग नियमित अन्न लेता है, जैसे गाय घास खाती है । निसर्ग के नियम से सुनिश्चित आहार आवश्यक मात्रा में लेना ही सही आचरण है। ६ : मानव जाति के विकास में दो प्रमुख बदलाव आये हैं। पहला बदलाव था चतुष्पाद अवस्था से द्विपाद अवस्था का उदय जिसमें वह कई प्रकार के औजार बना सका। गुहावास छोड़कर ग्रामवास और क्रमेण नगरवास अपनाया गया। दूसरे बदलाव के फलस्वरूप मस्तिष्क में विचार करने की क्षमता आ गयी । शिक्षा द्वारा ज्ञान निरन्तर बढ़ने लगा। मनुष्य युक्तियुक्त विचार कर सकता है । निसर्ग नियम समझते हुए उनका पालन करना ही मानव के लिए हितकारक है। इसी ज्ञान से अन्य जीवों पर दया की भावना उत्पन्न होती है। जब खेती करने की क्षमता विकसित हुई तब मानव मांसाहार से मुक्त होकर शाकाहारी बना। गोधन बढ़ाने से कई पोषक एवं उपयोगी पदार्थ मिलने लगे। पालतू जानवरों से लाभ पाने के लिए उनका पालन-पोषण सही ढंग से करना अनिवार्य था। इससे पशुओं के बारे में प्रेम एवं कृतज्ञता के भाव पैदा हुए। निसर्ग में सभी जीव-जातियों का अपना स्थान तथा औचित्य है। कोई जीव निसर्ग की व्यवस्था में अनावश्यक नहीं है। जीव - विकास में जब किसी पौधे या जानवर की सार्थकता समाप्त होती है अर्थात् निसर्ग की व्यवस्था में वह विसंगत होता है तब वह विलुप्त होता है। यह भी नैसर्गिक व्यवस्था है। डायनोसोर जैसे भीमकाय जानवर इसी प्रक्रिया में लुप्त हो गये। इस तरह निसर्ग में कोई 'अनावश्यक' या फालतू जीव नहीं है। जानवरों पर ईमानदार, मूर्ख, सुन्दर, बदसूरत, चतुर, राजतुल्य आदि गुणों का आरोप अवैज्ञानिक है। हमारी सीमित (कभी-कभी सदोष ) दृष्टि से ऐसे गुणों का आरोप होता है जब कि वस्तुनिष्ठ दृष्टि से यह गलत है। प्रकृति का एक अंग होने के नाते प्राकृतिक सम्पदा में मानव का भी एक न्यायोचित हिस्सा है। इससे अधिक लेना ही निसर्ग नियम का उल्लंघन है अर्थात् पाप है। वैज्ञानिक व्यवहारवाद में मानव में मानव की किसी अन्य जीवों से श्रेष्ठता नहीं मानी जाती। विज्ञान की दृष्टि से मानवश्रेष्ठतावाद तत्त्वतः असंगत है। विकसित तंत्रज्ञान के विवेकशून्य प्रयोग से मानव को ही हानि पहुंचती है। विज्ञान के नाम पर प्राणियों पर कैसी घोर हिंसा की जाती है उसका विवेचन नीचे दिया जाएगा। Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवदया : धार्मिक एवं वैज्ञानिक आयाम पश्चिम देशों में समर्थित तथा स्वीकृत मानवश्रेष्ठतावाद के अनुसार ऐसी हिंसा में कोई आपत्तिजनक बात नहीं है क्योंकि प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से इसमें मानव का हित है। भारतीय जनमानस इसे सम्मति नहीं दे सकता क्योंकि यहां की सांस्कृतिक विचारधारा अहिंसा तत्त्व पर आधारित है। फिर जिज्ञासापूर्ति तथा आयुर्विज्ञान की प्रगति के लिए जानवरों पर प्रयोग करना आवश्यक है। ऐसे प्रयोग जिनमें हिंसा अनिवार्य है, क्या उनपर प्रतिबन्ध लगना चाहिये ? जैवतंत्रज्ञान से विकसित विधि द्वारा समान आनुवंशिक गुणों के कई जीवों का ('क्लोन' का) निर्माण सम्भव है। क्या इस पर कानूनी प्रतिबन्ध लगना चाहिये ? धार्मिक पंथों के आचार्य इस बारे में मार्गदर्शन करने में असमर्थ हैं क्योंकि अधिकांश धार्मिक चिन्तक आधुनिक विज्ञान से अपरिचित हैं तथा आधुनिक तंत्रज्ञान और उसके अन्धाधुन्ध प्रयोग को समझ नहीं पाते। ३. समग्रता से जीवदया पर विचार जैन श्रावकाचार में जीवदया पर जो बल दिया गया है वही वास्तव में वैज्ञानिक व्यवहारवाद को निरूपित करता है । निसर्ग की देन में अपना न्यायोचित अंश लेते हुए अन्य जीवों पर दयाभाव रखना ही वैज्ञानिक व्यवहारवाद का प्रमुख तत्त्व है। अतः यह वाद अन्य जीव-जन्तुओं के हित से विसंगत नहीं है। इस संदर्भ में मानव के न्यायोचित अंश का निर्धारण ही सबसे जटिल समस्या है। स्वार्थपरवशता के कारण मानव अपनी जरूरतें बढ़ा-चढ़ाकर निरूपित करते हुए अन्य जीवों के हक पर अतिक्रमण कर रहा है। आधुनिक विज्ञान एवं तंत्रज्ञान की क्षमताओं के परिप्रेक्ष्य में प्रमाद होने का भय निरन्तर बढ़ रहा है। अब तक निसर्ग को अपने अनुकूल ढालना तथा मानव समाज के लिए भौतिक सुख-सुविधाएं जुटाना ही तंत्रज्ञान का एकमात्र लक्ष्य समझा जाता था। परन्तु अब ऐसी धारणा गलत साबित हुई है। मानव निसर्ग का ही एक अंग है। अतः निसर्ग को हानि पहुंचाकर सुख पाना सम्भव नहीं है। निसर्ग को वश में लाना जैसी उद्घटता स्वघातक है। अन्य जीवों के हित की रक्षा में ही मानव का सुख समाविष्ट है। इस वास्तविकता को ध्यान में रखते हुए अब प्रबुद्ध एवं सुसंस्कृत मानव अपने हिस्से की सही मर्यादाएं स्वयं निर्धारित कर सकता है। इस संदर्भ में व्यक्तिगत आचार नियमों के साथ-साथ अपनी सामाजिक एवं आर्थिक नीतियों पर भी पुनर्विचार करना होगा। अब तक आर्थिक विकास के नाम पर किये गये औद्योगीकरण के कई दुष्परिणाम सामने आये हैं जिनके कारण न केवल वर्तमान समाज अपितु भावी पीढ़ियां भी प्रभावित होंगी । १० : ७ हिंसा के कई प्रकार हैं जिनका वैज्ञानिक व्यवहारवाद के अनुसार विवेचन संक्षेप में देने का यहां प्रयास किया गया है। इसके परिशीलन से यह स्पष्ट होगा कि वैज्ञानिक व्यवहारवाद एवं श्रावकाचार में कोई बड़ा अन्तर नहीं है। Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८ : श्रमण, वर्ष ५६, अंक १-६/जनवरी-जून २००५ (क) अनिवार्य तथा निवार्य हिंसा सभी जीव अन्य जीवों पर निर्भर रहते हैं। निसर्ग की व्यवस्था ऐसी ही है। निसर्ग के नियमों को सक्ष्मता से समझकर उनके अनुसार किया गया वैयक्तिक तथा सामाजिक आचार ही सदाचार है। वाचक उमास्वामी ने हिंसा की जो परिभाषा दी है उसी पर सदाचार नियम आधारित किये जा सकते हैं। प्रमादवश तथा राग-द्वेष आदि कषायों से प्रेरित होकर किसी जीव को पीड़ा देना ही हिंसा है। इसमें मनोवृत्ति का बड़ा महत्त्व है। खेती, गृह-निर्माण आदि कामों में अनिवार्य रूप से हिंसा होती है। यथासम्भव अनावश्यक हिंसा को टालने पर ऐसे जीवनावश्यक कामों में की गयी हिंसा से मानसिक क्षोभ नहीं होता। आवश्यक मात्रा में अपनी रक्षा के लिए होने वाली हिंसा भी पापकर्म नहीं है। यद्यपि यह नियम स्थूल रूप से सबको ग्राह्य है तथापि आधुनिक तंत्रज्ञान की निरन्तर बढ़ती क्षमता को देखते हुए इस पर भी पुनर्विचार करना होगा। मलेरया, डेंगू आदि भयानक बीमारियां फैलानेवाले मच्छरों से बचने के लिए कुछ ऐसे कीटनाशक बनाये गये हैं जिनके प्रयोग से हानिकारक कीड़ों के साथ अन्य जीव भी मरते हैं। इस प्रकार विविध वनस्पतियों का परागसिंचनं करनेवाले कई प्रकार के कीट नष्ट होकर प्राकृतिक सन्तुलन में बाधा पहुंचाते हैं। फल-सब्जियों की रक्षा के लिए प्रयुक्त कीटनाशक निसर्ग में विद्यमान आहार श्रृंखला के जरिये हमारे आहार में भी आते हैं और कई प्रकार की बीमारियों के कारण बनते हैं। अंततोगत्वा इससे मानव को ही हानि पहुंचती है। यद्यपि खेती, गृह-निर्माण तथा रोगों से अपनी रक्षा करना पापकर्म है तथापि इनमें होने वाली हिंसा आवश्यकतानुसार न्यूनतम प्रमाण में रखना ही हितकारक है। इससे मानसिक ग्लानि न होने के साथ-साथ प्राकृतिक संतुलन भी यथावत् रहता है। निसर्ग नियम के अनुसार मानव का आहार वनस्पतिजन्य है। यद्यपि आदिमानव के आहार में मछली, मांस आदि का समावेश था तथापि सभ्यता के विकास में उसका प्रमाण कम हुआ है। आधुनिक विज्ञान भी शाकाहार को ही श्रेष्ठ मानता है। परन्तु अब भी कुछ प्रदेश में परम्परा से सामिष आहार निर्दोष माना जाता है। तंत्रज्ञान की प्रगति के साथ अब बड़ी मात्रा में मछली पकड़ने और मुर्गी आदि पालने के तकनीक विकसित हुई है। खास नस्ल की कुक्कुट जाति आनुवंशिक अभियांत्रिकी (genetic engineering) द्वारा पैदा की गयी है जिससे मांस का प्रमाण अधिक तथा अस्थियों का प्रमाण कम होता है। ११ बजार में इसकी कीमत सामान्य नस्ल की अपेक्षा अधिक है। सामान्य लोग, इस तरह के मुर्गी पालने में कितनी बर्बर हिंसा होती है, यह नहीं जानते। आधुनिक पोल्ट्री फार्मों में मुर्गे-मुर्गियों को दिन के २२ घंटे रोशनी में रखना Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवदया: धार्मिक एवं वैज्ञानिक आयाम : ९ पड़ता है ताकि वे अधिक दाना खाकर जल्दी बढ़े। इनकी हड्डियां कमजोर होने के कारण अस्थिभंग (future) होते हैं जिनका कोई इलाज नहीं किया जाता। इस प्रकार इन्हें आमरण वेदनामय जीवन बिताना पड़ता है। कुक्कुट जाति की औसत आयु दस साल के लगभग है परन्तु पोल्ट्री फार्म के कुक्कुट ६-७ महीने की अवस्था में ही मारे जाते हैं। मछली पकड़ने के यंत्रचालित बड़े-बड़े जालों मे कई प्रकार के समुद्री जीव फंसते हैं जो खाये नहीं जाते। उन्हे फेंक दिया जाता है या कम्पोस्ट जैसे खाद के लिए प्रयोग में लाया जाता है। इस प्रकार आधुनिक मुर्गी पालन, मच्छीमारी आदि उद्योगों में बड़ी मात्रा में हिंसा होती है। ऐसी स्थिति को देखते हुए पश्चिमी देशों में भी, जहां मांसाहार रूढ़िसम्मत माना गया है, अब शाकाहार का समर्थन करने वालों की संख्या बढ़ रही है। (ख) वैज्ञानिक दृष्टिकोण मानव विकास के दौरान उसकी जरूरतों में बहुत बदलाव आया है। पालतू जानवरों से हमें कई उपयोगी उत्पाद मिलते हैं जो आज के सन्दर्भ में अनिवार्य बन गये हैं। खेती, माल ढुलाई आदि में हम जानवरों पर निर्भर हैं। क्या दूध, ऊन जैसे प्राणिजन्य उत्पाद पापकर्म हैं? यदि वैज्ञानिक दृष्टि से देखा जाए तो यह स्पष्ट होगा कि सभी जानवरों के प्रति हमारी नैतिक बाध्यता एक जैसी नहीं है। इस सन्दर्भ में जानवरों का यह वर्गीकरण प्रसंगोचित लगता है-१.आश्रित, २.दमयित, ३.स्वतन्त्र। १. आश्रित प्राणी पूर्णतया मानव पर निर्भर हैं। यद्यपि मूलत: ये जानवर जंगली अवस्था में ही विकसित हुए थे, तथापि मानव ने अपने लिए इनका दमन किया और अन्तत: वे मानव के आश्रित बन गये। अब ऐसे जानवर स्वतंत्र रूप से वन्य अवस्था में जीवित नहीं रह सकते। गाय, भैंस, कुत्ते, ऊंट, घोड़े, भेड़ आदि कई प्राणी इस वर्ग में आते हैं।१२ अब इनके हित की रक्षा मानव की जिम्मेदारी है। इनके बारे में अंशत: अनुबद्धतावाद न्यायोचित लगता है। दूध, ऊन जैसे उत्पाद लेना तथा बदले में उनके अन्न, आश्रय एवं जरूरत पर पशुवैद्यकीय चिकित्सा का दायित्व मानव पर है। कुत्तों तथा घोड़ों की वफादारी के कई हृदयंगम किस्से प्रसिद्ध हैं। इसमें कोई संदेह नहीं कि ऐसे जानवर अपने मालिक के प्रति कृतज्ञ हैं, अतः हम समझ सकते हैं कि उन्हें मानव के साथ अनुबन्ध मंजूर है। यदि हम गोवंश के पूर्ण योगक्षेम का उत्तरदायित्व लें तो दूध जैसे उत्पाद लेने में कोई मानसिक ग्लानि नहीं हो सकती। छोटे पैमाने पर रखे गये डेरी फार्म में अनुबद्धतावाद का अनुसरण हो सकता है। किसान अपनी गाय भैंस आदि आश्रित जानवरों को नाम से पहचानते हैं तथा परिवार के सदस्यों की तरह उनका परिपालन करते हैं। बड़े डेरी फार्मों में जानवरों के नाम नहीं होते। उन्हें गिनाने के लिए लोहे की गरम सलाई से नंबर दागे जाते हैं। यह घोर Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० : श्रमण, वर्ष ५६, अंक १-६/जनवरी-जून २००५ क्रूरता है और इसका किसी नीति-नियम से समर्थन नहीं हो सकता। और भी प्रकार के हिंसा कार्य अपनाये जाते हैं जिनका विभत्स वर्णन यहां करना उचित नहीं होगा। भाकड़ी गाय तथा कमजोर बूढ़े बैलों को कसाईखाने में भेजा जाता है।१३ यह सारा बर्बरतापूर्ण व्यवहार डेरी के 'अर्थविज्ञान' में क्षम्य माना जाता है। स्पष्ट है कि आश्रित जानवरों के प्रति दयाभाव तथा योगक्षेम का दायित्व अपनाना सदाचार है। इसके विपरीत आश्रित जानवरों के हित का ध्यान न रखते हुए स्वार्थ के लिए उन्हें यातना पहुंचाना गलत है। २. 'दमयित' शब्द का अर्थ है दमन के द्वारा अधीन किया हुआ जीव । हाथी इस वर्ग का सबसे अच्छा उदाहरण है। हाथी स्वतंत्र जंगली जानवर है। हाथी की नस्ल के संगोपन की बाध्यता मानव की नही हैं। वन्य अवस्था में वे अपनी रक्षा, भरणपोषण करने में समर्थ हैं। मानव ने उन्हें पकड़कर उनसे काम की कला हस्तगत की है। उनके संदमन में कई प्रकार के हिंसक तरीके अपनाये जाते हैं जो वैज्ञानिक व्यावहारिकतावाद के अनुसार समर्थनीय नहीं हैं। अपने मनोरंजन के लिए सिंह, बाघ, भालू, बन्दर आदि जानवर बन्धन में रखे जाते हैं। सर्कस आदि खेलों से विकृत मानसिकता का आनन्द लेना अनैतिक है। अन्य जीवों को पीड़ा देते हुए मनबहलाव करने की तामसी प्रवृत्ति से उभर कर दूसरे अहिंसक मनोरंजन के साधन अपनाना ही नैतिकता है। चिड़ियाघरों में भी कई स्वतंत्र वर्ग के जानवर बंधन में रखे जाते हैं। चिड़ियाघरों के बारे में हमें शिक्षा मिलती है, ऐसी दलील दी जाती है। वास्तव में ऐसे जानवरों से मिलने वाली शिक्षा न के बराबर है। जानवरों का दमन करने में मानव का 'पराक्रम' दिखाना ही चिड़ियाघरों का मूल उद्देश्य था।१४ आधुनिक विज्ञान की शिक्षा के लिए तथा वैज्ञानिक अनुसंधान के लिए चूहे, खरगोश, बन्दर आदि जानवरों का प्रयोग किया जाता है।१५ इस पर रोक लगाने से विज्ञान की प्रगति रुक सकती है। वर्तमान परिस्थिति में इस प्रकार की हिंसा क्रमश: कम करते हुए अनुसंधान के पर्यायी तरीके विकसित करना ही उचित है। कई वैज्ञानिक प्रयोगों के लिए अब अहिंसात्मक पर्याय उपलब्ध हैं। इसी दिशा में प्रयास जारी रखते हुए अन्त में ज्ञान प्राप्ति के लिए जीव-हिंसारहित तरीके विकसित करने का आदर्श अपनाना चाहिए। जीवविज्ञान में अनुसंधान के फलस्वरूप आये दिन नयी उपलब्धियां हासिल हो रही हैं। वैज्ञानिक मानते हैं कि जिज्ञासापूर्ति तथा आयुर्विज्ञान की प्रगति के लिए जानवरों पर प्रयोग करना आवश्यक है। ऐसे प्रयोगों में हिंसा अनिवार्य है। जीवदया का समर्थन करनेवाले कई निजी संगठन इसका विरोध कर रहे हैं। कभी-कभी वे विरोध प्रदर्शित करने के लिए प्रयोगशालाओं में घुसकर तोड़-फोड़ जैसी हिंसा भी Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवदया: धार्मिक एवं वैज्ञानिक आयाम : ११ करते हैं।१६ क्या हिंसात्मक अनुसंधान पर प्रतिबन्ध लगना चाहिये? जैव तंत्रवाद से विकसित विधि द्वारा मनुष्यों के 'क्लोन' का निर्माण सम्भव है। ऐसे प्रयोगों के दूरगामी परिणाम क्या होंगे? क्या यह धर्मसम्मत होगा? क्या इसपर कानूनी प्रतिबन्ध समर्थनीय है? ऐसे कई ज्वलंत प्रश्न हैं जिनके सभी आयाम परखकर कुछ सुनिश्चित नीति निर्धारण करना अनिवार्य बन गया है। इसमें वैज्ञानिक, विधिवेत्ता तथा धार्मिक चिन्तक ही नहीं, सामान्य नागरिक का भी सम्मिलित होना आवश्यक है। ३. स्वतन्त्र जीव वे हैं जो निसर्ग में अपना भरण-पोषण करते हुए प्रजनन द्वारा अपनी संख्या अन्य जीवों की संख्या के योग्य अनुपात में रख सकते हैं। जीवविकास क्रम में मानव के उदय से भी पहले लाखों वर्ष से स्वतन्त्र प्राणी इस प्रकार निसर्ग की व्यवस्था में निरन्तर विद्यमान हैं। इस व्यवस्था को स्थिर रखने में मानव के हस्तक्षेप की जरूरत नहीं है। जबतक मानव हस्तक्षेप नहीं करता तबतक इन जीवों को या मानव को कोई बाधा नहीं पहुंच सकती। जब मानव निसर्ग की व्यवस्था में बदलाव करने लगता है तब इन जीवों का जीना कठिन बनता है तथा अन्त में मानव जाति पर ही इसके दुष्परिणाम दिखाई देते हैं। अतः इन जीवों के विषय में उदासीनता भाव रखता ही मानव के लिए हितकारक है। (ग) सर्वथा त्याज्य हिंसा कई धार्मिक अनुष्ठानों में पशुबलि देने की प्राचीन प्रथा अब सुसंस्कृत एवं प्रबुद्ध समाज में समाप्त हो चुकी है। फिर भी अज्ञानवश तथा रूढ़ि के खिलाफ जाने की हिम्मत न होने के कारण कुछ प्रदेशों में पशुबलि की प्रथा जारी है। इसे कानून द्वारा रोकना धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक व्यवस्था में सम्भव नहीं है। यदि धार्मिक नेता अपने-अपने समाज में इसके बारे में उपदेश देकर अहिंसा का संदेश फैलायें तो यह कुप्रथा समाप्त हो सकती है। सही ढंग से वैज्ञानिक कारण देते हुए प्रचार करने पर इस कार्य में सभी लोगों का सहकार्य मिल सकता है। सन् १९९९ में श्री महावीर जयन्ती तथा बक्रीद एक ही दिन आयी। जैन समुदाय की भावनाओं की कद्र करते हुए मैसूर (कर्नाटक) के मुसलमानों ने उस दिन कुर्बानी न देने का निश्चय किया। इस से स्पष्ट होता है कि अहिंसा तत्त्व के प्रति सबको आदर है। आदिमानव के लिए मृगया (शिकार) जीवनावश्यक काम था। तीर या धारदार हथियार से जानवर मारे जाते थे। यह एक साहसपूर्ण काम था। कभी-कभी उग्र जानवर जख्मी होकर शिकारी को भी मार देता था। क्रमशः तेज रोशनी के सर्चलाईट तथा बंदूक जैसे हथियार विकसित किऐ गये। इससे मानव का वर्चस्व बढ़ा। फलस्वरूप नि:सहाय जीव मानव का सामना करने में असमर्थ हो गये। यद्यपि समय के साथ खेती Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ श्रमण, वर्ष ५६, अंक १-६ / जनवरी - जून २००५ के तंत्र विकसित किये गये और आहार के लिए जंगली जानवर मारने की जरूरत नहीं रही फिर भी शौक के रूप में मृगया करनेवालों ने अपनी बहादुरी प्रदर्शित करने के लिए यह हिंसा जारी रखी। वास्तव में बंदूक से किसी असहाय जंगली जानवर मारने में कोई पराक्रम नहीं है। फिर भी यह शौक समाप्त नहीं हुआ। हिंसक जानवरों को मारकर हिरण, नीलगाय जैसे पशुओं की रक्षा की जा सकती है, ऐसी दलील देनेवाले लोग हैं। वैज्ञानिक व्यवहारवाद के अनुसार यह गलत है। १७ ४. समस्या का समाधान जीवों को प्रति अनुकम्पा ही प्राचीन नीतिनियमों की बुनियाद थी। अब इस विषय को व्यक्तिवाद सदाचार की सीमा से बाहर एक बहुत विस्तृत परिप्रेक्ष्य में देखना होगा। जीवों के मौलिक अधिकार निसर्ग में मानव जाति का स्थान तथा उसकी सीमाएं आदि कई बातों पर वैज्ञानिक तरीके से चिंतन करने की आवश्कता है। यद्यपि इस विषय में लोगों की जागरुकता स्पष्ट दिखाई देती है तथापि सही दिशा में प्रयत्नों का अभाव है। (क) निसर्गसंगोपन के कार्यक्रम जंगल काटकर कृषि क्षेत्र का विस्तार, रासायनिक उर्वरक और कीटनाशक, जलसिंचन का विस्तार आदि हरित क्रांति के कारण बने । पशुपालन के नये तरीके अपनाने से दूध विपुल मात्रा में मिलने लगा। आधुनिक आयुर्विज्ञान की प्रगति के कारण लोगों की औसत आयु बढ़ी। बालमृत्यु दर में भी कमी आयी। फलस्वरूप पिछले कुछ वर्षों में द्रुतगति से आबादी बढ़ी। साथ ही साथ नयी जीवनशैली अपनाने के कारण मानव की जरूरतें भी बढ़ीं। पहले इसे विज्ञान-तंत्रज्ञान की यशस्विता के रूप में देखा गया। परन्तु धीरे-धीरे इसके आनुवांशिक दुष्परिणाम भी दिखाई देने लगे। आबादी के सम अनुपात में नैसर्गिक सम्पदा नहीं बढ़ी। अनियमित वर्षा, मृत्तिका अपरदन, सिंचाई तथा घरेलू उपयोग के लिए पर्याप्त पानी का अभाव, वन-सम्पदा तथा प्राणि-सम्पदा में अवक्षय आदि जटिल समस्याएं प्रकट हुईं। इन समस्याओं के मूल कारण की अनदेखी करते हुए कुछ लोगों ने बाघ जैसे वन्य पशुओं की रक्षा का बीड़ा उठाया। प्रसार माध्यमों में उन्हीं के विचार प्रसारित किये गये। जानकार वैज्ञानिक सामान्य लोगों को सही दिशा दिखाने में असमर्थ रहे क्योंकि उनकी जटिल निरूपण शैली समझना कठिन है। धार्मिक नेता वैज्ञानिक चिंतन से विमुख होकर लोगों का मार्गदर्शन करने में विफल रहे। वन्य जीवों के 'अधिकारों' के समर्थकों का अत्युत्साह देखकर तर्कहीन कानून बनाये गये। ऐसी स्थिति में सामान्य नागरिक दिग्भ्रमित हो बैठे हैं | प्रसार माध्यमों में केवल बाघों की संख्या बढ़ाने की ही बात Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवदया : धार्मिक एवं वैज्ञानिक आयाम की जाती है। सरकारी योजनाएं भी बाघों की रक्षा के लिए चलायी जाती हैं। अतः सामान्य लोग यही समझने लगे हैं कि किसी तरह बाघों को बचाने से पर्यावरण का संतुलन रखा जा सकता है । यद्यपि यह विचारधारा सरासर गलत है, तथापि सही जानकारी के अभाव में यही 'वैज्ञानिक सत्य' माना जाता है। : १३ यह सच है कि बाघ जैसे जंगली पशुओं की संख्या बहुत कम हो गयी है। इनकी रक्षा बहुत जरूरी है क्योंकि निसर्ग में इन जानवरों के लुप्त होने का डर है। इनके मूल कारणों की अनदेखी करते हुए वन्य पशु- सम्पदा बढ़ाना असम्भव है। बाघ, तेंदुए जैसे जानवर अब भी उनकी खाल के लिए मारे जाते हैं। उनकी रक्षा के लिए जगह-जगह अभयारण्य बनाये गये हैं जहां ऐसे जानवरों का सुरक्षित रखने का प्रबन्ध शासन द्वारा किया गया है। वनों का क्षेत्रफल कम होने के कारण हिरण, नीलगाय जैसे जानवरों की संख्या भी बहुत कम हो गयी है । फलस्वरूप बाघों को पर्याप्त मात्रा में खाना नहीं मिलता। अतः उन्हें सूअर, गाय जैसे पालतू जानवरों का गोश्त दिया जाता है। इसके लिए सरकारी अनुदान है परन्तु वह भी अपर्याप्त है। इस कारण अभयारण्य के बाघ, तेंदुए तथा अन्य मांसाहारी पशु आसपास के गांवों में आकर किसानों के पालतू जानवर मारकर खा जाते हैं। कभी-कभी बाघ तथा तेंदुए नरभक्षी बनकर आतंक मचाते हैं। जीवदया का समर्थन करनेवाली कई राष्ट्रीय तथा अंतर्राष्ट्रीय निजी संस्थाएं हैं। उनके कार्यक्रमों से उनकी अप्रामाणिकता दिखाई देती है। उनकी दृष्टि में सिंह, बाघ, तेंदुए, मगरमच्छ, कुछ चुनिंदा किस्म के कछुए आदि जीव ही दया - पात्र हैं। अन्य जीवों की हत्या करके उनके विशिष्ट प्रेमपात्र जानवरों को किसी तरह जीवित रखने में कोई तार्किक संगति दिखाई नहीं देती। वे अपने कार्यक्रमों को निसर्गसंगोपन की संज्ञा देते हैं । वास्तव में उनके कार्य का उद्देश्य प्रसिद्धि पाना है। उनके विचारों का खंडन करने वाले न होने के कारण वे कामयाब भी हो रहे हैं। (ख) जीवों के मूलभूत अधिकार जानवरों के प्रति मानव का व्यवहार अधिकाधिक बर्बर होता जा रहा है, ऐसी धारणा अब पश्चिमी देशों में प्रबल हो गयी है। अतः प्राणिहिंसा पर रोक लगाने के लिए कई कानून बनाये गये हैं। भारत में भी ब्रिटिश शासन काल में कुछ कानून जारी किये गये थे। स्वतंत्रता के बाद ये कानून परिष्कृत किये गये । पुराने कानून को बदलकर १९६० में एक नया कानून बनाया गया जो तत्पश्चात् समय पर संशोधित भी किया गया।१९ आश्रित तथा दमयित जानवर इस कानून की परिधि में आते हैं। इस कानून में झींगे, खेकड़े आदि जीव प्राणिवर्ग में नहीं गिने जाते। यह कानून की Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ : श्रमण, वर्ष ५६, अंक १-६/जनवरी-जून २००५ न्यूनता है। इसे संशोधन द्वारा दूर करना होगा। स्वतन्त्र (वन्य) प्राणियों के संरक्षण हेतु सन् १९७२ में एक कानून बनाया गया जो सन् १९९३ तक चार बार संशोधित किया गया है।२० प्रचलित कानूनों में कई न्यूनताएं हैं जिन्हें दो वर्गों में रखा जा सकता है- व्यावहारिक कठिनाइयां तथा सैद्धांतिक विसंगतियां। १.व्यावहारिक कठिनाइयां- क्योंकि पीड़ित पक्ष मूक प्राणी हैं अत: उनकी शिकायत पूरी तरह से सुनी नहीं जा सकती। कानून की शब्दावली जटिल तथा अस्पष्ट होती है। जगह-जगह पर 'यथासम्भव', 'सकारण हिंसा' आदि प्रावधान होते हैं। पीड़क या उसका वकील वाक्चातुर्य से इसका फायदा उठा सकता है क्योंकि पीड़ित पक्ष उसका प्रत्युत्तर देने में असमर्थ होता है। यदि अपराध सिद्ध हो जाता है तभी दंड के रूप में केवल छोटी-सी रकम देनी पड़ती है। कानून के सही कार्यान्वयन में इस प्रकार की कई कठिनाइयां हैं। २.सैद्धान्तिक विसंगतियों के कारण कानून की गौरवमय प्रतिमा ही नष्ट हो जाती है। यदि कोई किसी जीव को इतनी पीड़ा दे कि उसे अब पशुवैद्यकीय सहायता द्वारा बचाना सम्भव न हो तो गुनाह साबित होने पर पीड़ा देनेवाले को दंडित किया जाता है। साथ ही साथ कानूनी प्रावधान के अनुसार पीड़ित जीव को 'वेदनारहित तरीके से' तुरन्त 'छुटकारा दिलाना चाहिए, अर्थात् उसे मार देना चाहिए। इस प्रकार जानवर को दुबारा यातना मिलती है- पहले उसे पीड़ा पहुंचती है जो अन्याय माना जाता है और दूसरी बार उसका प्राणहरण किया जाता है जो न्यायसम्मत है! जीवदया हेतु बने कानून में इस क्रूर विडम्बना की अनदेखी की गयी है। (ग) आदर्श की ओर वास्तव में कानूनी प्रावधानों द्वारा जीव-हिंसा को पूरी तरह नहीं रोका जा सकता। इसमें सब लोगों के सक्रिय सहयोग की आवश्यकता है। वनक्षेत्र का विस्तार घटने तथा वर्षा की अनियमितता के कारण वन्य पशुओं के सामने नयी कठिनाइयां आयी हैं। पशुसंवर्धन के नये तकनीक अपनाने के कारण आश्रित जानवरों की कठिनाइयां भी बढ़ी हैं। मानव के अधीन पूर्णतया आश्रित होने के कारण उन्हें असह्य जीवन मरने तक (अर्थात् मारे जाने तक) बिताना पड़ता है। मूक पशुओं की इन सब कठिनाइयों को प्रयत्नपूर्वक समझ लेना, विधि द्वारा आश्रित जानवरों के स्वास्थ्य की जांच कराना तथा यथायोग्य उपचार करना भी मानव का ही दायित्व है क्योंकि यातनाएं सहन करते हुए भी मूक जीव शिकायत नहीं कर सकते। दमयित जानवरों की समस्या का समाधान सरल है- जंगली जानवरों का दमन बन्द करने से कोई समस्या सामने नहीं आती। मौजूद दमयित जानवरों का आश्रित जानवरों की तरह संगोपन करने की जिम्मेदारी निभाना हमारा नैतिक दायित्व है। Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवदया : धार्मिक एवं वैज्ञानिक आयाम : १५ मानव के सामने सबसे जटिल समस्या है - निसर्ग की देन में अपने न्यायोचित अंश का निर्धारण | क्योंकि मानव अन्य जीवों के मौलिक अधिकारों का अतिक्रमण कर चुका है; अब पीछे हटने के अलावा कोई उपाय नहीं है । निसर्ग सम्पदा सीमित है। अतः उसी सीमा में अपनी जरूरतें समाये रखनी चाहिए। प्राचीन काल में दार्शनिकों ने जो नैतिक आचार निर्धारित किया था वह तत्त्वतः सही होने के बावजूद अब बदली हुई परिस्थितियों में कालबाह्य हो गया है। जीव विज्ञान, पर्यावरण विज्ञान आदि ज्ञान - शाखाओं में परिणत लोगों के साथ यदि दार्शनिक समालोचन करें तो इस दिशा में बढ़ना सम्भव होगा। सब लोग एक ही गति से आदर्श की ओर नहीं बढ़ सकते। इसी को देखते हुए जैन दार्शनिकों ने दो प्रकार के आचार निरूपित किये थेसंसार के सभी बंधन तोड़कर मोक्ष को एकमात्र साध्य माननेवाले मुमुक्षु लोगों के लिए ( श्रमणों के लिए) श्रमणाचार तथा गृहस्थाश्रमी लोगों के लिए श्रावकाचार । अब बदली हुई सामाजिक परिस्थिति में कई प्रकार के पेशे और उद्योग विकसित हुए हैं। विधि द्वारा निर्दिष्ट नियम सबके लिए समान हैं तथा पूरी निष्ठा से उनका पालन करना होगा । न्यूनाधिक प्रमाण में सभी श्रावकों के नित्य - नैमित्तिक कामों में किसी न किसी प्रकार की हिंसा होती है । उसे न्यूनतम मात्रा में रखते हुए कई प्रकार के व्यक्तिगत आचार नियम निर्धारित करने होंगे। इस प्रकार न्यूनतम सामान्य आचार से भी अधिक कठोर अहिंसा के नियम अपना कर जीवन की सार्थकता बढ़ाने की गुंजाइश है। सन्दर्भ : १. ३. भगवद्गीता में आत्मतत्त्व को अच्छेद्य (जो काटा नहीं जा सकता), अदाह्य (जिसे जलाया नहीं जा सकता), अक्लेद्य (जिसे भिगोया नहीं जा सकता), अशोष्य (जिसे सुखाया नहीं जा सकता), तथा नित्य कहा गया है। जैसे जीर्ण कपड़े छोड़कर मनुष्य द्वारा नये कपड़े धारण किये जाते हैं उसी प्रकार पुनर्जन्मचक्र में देह बदलते हैं; देही अविक्रिय है। श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय २, श्लोक, १८- २८. निःसन्देह यह परिवर्तन जैन-बौद्ध धर्मियों के प्रभाव के कारण हुआ। पशुबलि चढ़ाने वाला याजक अगले जन्मों में किस प्रकार अपने कर्मों का फल भोगता है। इसका रोचक एवं बोधप्रद वर्णन जैन पुराणों मिलता है। पशुप्रतीक के रूप में आटे का पशु बनाकर उसकी बलि चढ़ाना भी पाप माना गया है क्योंकि यज्ञ करनेवाला मन में पशु को ही मारता है। इस प्रकार की हिंसा को जैन दर्शन में संकल्पी हिंसा कहते हैं। जैन दर्शन में प्रस्तुत जीवों के वर्गीकरण के साथ इसकी तुलना करना उद्बोधक होगा। संवेदी चैतन्य त्रस जीवों का लक्षण है। इसी प्रकार विवेकी चैतन्य संज्ञी जीवों का लक्षण है। फिर भी संवर्धी, संवेदी तथा विवेकी चैतन्य को जीवद्रव्य से भिन्न स्वतन्त्र तत्त्व मानना युक्तिसंगत नहीं लगता क्योंकि ये लक्षण देह के हैं, देही के नहीं। Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ 4. ५. 6. ८. श्रमण, वर्ष ५६, अंक १-६ / जनवरी - जून २००५ Robert Garner (ed), Animal Rights: The Changing Debate, Macmillion 1996, Hampshire, U.K. ब्रिटिश संसद द्वारा सन् १८२२ में पारित कानून रिचर्ड मार्टिन ने प्रस्तुत किया था । इस लिए यह कानून मार्टिन ऐक्ट नाम से प्रसिद्ध है। : ७. (i) “प्रमत्तयोगात् प्राणव्यपरोपणं हिंसा" । उमास्वामी रचित तत्त्वार्थ सूत्र, अध्याय ७, सूत्र १३ | आचार्य पूज्यपादविरचित सर्वार्थसिद्धि, टीका सहित (११वां संस्करण सन् २००२)। सम्पादन - अनुवाद सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री, भारतीय ज्ञानपीठ, नयी दिल्ली। १०. Society for Prevention of Cruelty to Animals (SPCA) नाम की सन् १८२४ में स्थापित संस्था शासकीय मान्यता मिलने के बाद सन् १८४० में Royal Society for Prevetntion of Cruelty to Animals बनी। भारत में भी इस संस्था की शाखाएं स्थापित की गयीं, यद्यपि स्वतंत्रता के बाद उसके नाम से Royal शब्द हटाया गया। यह संस्था आज भी भारत में सक्रिय है। इस संस्था द्वारा चलाये गये पशुचिकित्सालय कई शहरों में हैं। (ii) श्वास लेने में भी कुछ सूक्ष्म जन्तु मरते होंगे। फिर भी सूक्ष्म जन्तु मारने हेतु कोई श्वास नहीं लेता। इस प्रकार द्वेषभाव रहित यदृच्छया होने वाली हिंसा पापकृत्य नहीं है। सदयप्राणविमोचन (अशमनीय तथा असहनीय वेदना से छुटकारा दिलाने के लिए प्राण विमोचन ) एक ज्वलन्त समस्या है। इस विषय में विपुल मात्रा में साहित्य उपलब्ध है। फिर भी यह सब ईसाइयों की विचारधारा पर आधारित है। भारत में इस पर जो चर्चा हो रही है वह भी पश्चिमी विचारों की प्रतिध्वनि है। अपने धार्मिक तथा सदाचारनियमों से सुसंगत विचारधारा जनमानस में विकसित करने के लिए स्वतन्त्र विचार की आवश्यकता है। जानवरों के 'क्लोन' (सर्वसम लक्षणों के दो या अधिक जीव) बनाने की विधि ब्रिटेन में विकसित की गयी है। मानव क्लोन का निर्माण भी इसी विधि द्वारा साध्य है; फिर भी ईसाइयों के विरोध के कारण ऐसा प्रयत्न अब तक नहीं हुआ। इस विधि द्वारा कई रोगों के इलाज के लिए ऊतक बनाये जा सकते हैं। अतः कई वैज्ञानिक इस तरह के प्रयोगों का समर्थन करते हैं। यद्यपि यह गम्भीर चर्चा का विषय है परन्तु भारत में इसपर वस्तुनिष्ठता से विचार नहीं हो रहा है। इसके सामाजिक, नैतिक तथा धार्मिक पहलुओं पर विचार होना आवश्यक है। हम अपने पूर्वजों के प्रति धन्यवाद प्रदर्शित करते हैं क्योंकि उनकी मेहनत का फल हमें अब मिल रहा है। उनकी दूरदर्शिता के कारण ही हम सुखी हैं। हमारे पूर्वज तो अब नहीं हैं फिर उनके उपकार का ऋण कैसे लौटाएं? इसका नीतिसम्मत तरीका एक ही है - आगामी पीढ़ियों के कल्याण का ख्याल रखना । धरती पर जीवन की निरंतरता बनाये रखने का यह एकमात्र तरीका है। इस सार्वत्रिक एवं सार्वकालिक Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवदया: धार्मिक एवं वैज्ञानिक आयाम : १७ नियम का अनुसरण ही सदाचार है। यदि हम निसर्ग की देन में अपने न्यायोचित अंश से अधिक लें तो वह दुराचार होगा। इस नियम के अनुसार हवा में तथा जलस्रोतों में प्रदूषण फैलाना भी पाप है। 11. Eric S. Grase, Biotechnology Unizipped (Asian edition), University Press (India) Ltd. 1977, Hyderabad. १२. ऊंट, घोड़े आदि आश्रित जानवर मानव के बिना जी नहीं सकते। अत: जंगल अवस्था में ऐसे स्वतन्त्र जानवर नहीं हैं। १३. इससे घोर कृतघ्नता क्या हो सकती है? १४. भारत में सर्वोच्च न्यायालय की अनुमति के बिना नये चिड़ियाघरों की स्थापना अपराध है। १५. औषधियों के तथा क्रीम, शैंपू आदि के उत्पादन में हर बैच की सुरक्षितता जानवरों पर प्रयोग से परखी जाती है। यह कानून के अनुसार अनिवार्य है। 16. Animal Liberation Front (ALF), People for Ethical Treatment __ of Animals (PETA) आदि संस्थाएं प्रसिद्ध हैं। कभी-कभी जानवरों के हित के लिए संघर्ष करने वाले कैसे विवेकशून्य बनते हैं इसका एक उदाहरण प्रस्तुत है। सन् १९९० में टेनेस्सी विश्वविद्यालय में सेवारत डॉ० हैरम किचन नाम के पशुवैद्य की गोली मारकर हत्या की गयी। उनपर 'आरोप' था कि वे जानवरों पर वैज्ञानिक प्रयोग करते थे। यद्यपि ठोस सबूत के अभाव के कारण किसी को दोषी नहीं पाया गया तथापि यह स्पष्ट था कि एनिमल लिबरेशन फ्रंट से जुड़े लोगों ने यह हत्या की थी क्योंकि उस संस्था से मृतक तथा उनके विश्वविद्यालयों के अधिकारियों को धमकी भरे पत्र आते थे। रक्षा भवति बहूनामेकस्यैवास्य जीवहरणेन। इति मत्वा कर्तव्यं न हिंसनं हिंस्रसत्त्वानाम् ।।८३।। श्रीमदमृतचन्द्रसूरिविरचित: पुरुषार्थसिद्ध्युपायः, मूल संस्कृत (कन्नड लिपि में) तथा कनड भावार्थ, ले. एतूरु शांतिराजशास्त्री, पं. ए. शांतिराजशास्त्री ट्रस्ट, १९९७, बेंगलोर। 18. Maneka Gandhi, O. Husain, & R. Panjwani, Animal Laws of India, Universal Law Publishing Co. 1996, Delhi. १९. अधिक जानकारी के लिए भारत का राजपत्र (Gazette of India) दि. १३-३ १९५९ तथा १७-२-१९६० 20. The Wild Life (Protection) Act 1972 (with amendments upto 1995), Universal Law Publishing Co. 1998, Delhi. १७. Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रूपस्थ एवं रूपातीत ध्यान प्रथमावस्था में साधक किसी आलम्बन का आधार ग्रहण कर ध्यान-साधना में प्रवृत्त होता है। आलम्बन के आधार पर किये गये ध्यान को सालम्बन ध्यान कहा गया है। आचार्यों ने ध्येय की अपेक्षा से ध्यान के चार प्रकार किये हैं- पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीत' । पिण्ड अर्थात् शरीर सहित आत्मा का ध्यान करना पिण्डस्थ ध्यान कहलाता है। पदस्थ ध्यान का अर्थ है - पदों या अक्षरों पर ध्यान केन्द्रित करना अर्थात् पवित्र पदों का आलम्बन लेकर जो चिन्तन किया जाता है वह पदस्थ ध्यान है। प्रस्तुत लेख में हम रूपस्थ एवं रूपातीत ध्यान का वर्णन करेंगे। १. रूपस्थ ध्यान प्रभु का, अर्हत् जिनेन्द्र देव का, समवसरण में विद्यमान भगवान् तीर्थंकर का ध्यान रूपस्थ ध्यान कहलाता है । भक्तामर स्तोत्र का अधोविन्यस्त श्लोक जिसमें भगवान् के रमणीय रूप का वर्णन है, उसका ध्यान रूपस्थ ध्यान कहा जाएगा - सिंहासने मणिमयूख शिखा विचित्रे विभ्राजते तव वपुः कनकावदातम् बिम्बं वियद् विसदंशुलता वितानं तुंगोदयाद्रि शिरसीव सहस्ररश्मेः ।। २ अर्थात् मणि किरणों की शिखाओं के विचित्र सिंहासन पर तुम्हारा कंचन के तुल्य शरीर ऐसे शोभित हो रहा है, मानो ऊँचे उदयाचल के शिखर पर आकाश में चमकती हुई किरण - लताओं वाला सूर्य बिम्ब । श्रमण, वर्ष ५६, अंक १-६ जनवरी- जून २००५ - इस आकृति का ध्यान रूपस्थ ध्यान है। आचार्यों ने इसकी अनेक परिभाषाएँ दी हैं - डॉ० हरिशंकर पाण्डेय * १. जब समवसरण में स्थित अरिहन्त भगवान का ध्यान किया जाता है तब उसे रूपस्थ ध्यान कहते हैं । ३ * अध्यक्ष एवं उपाचार्य विश्वविद्यालय, वाराणसी २. अनन्यशरण होकर परमेष्ठी का चिन्तन रूपस्थ ध्यान है | ४ ३ . रूपस्थ सर्वचिद्रूपम्' अर्थात् सर्वचिद्रूप का ध्यान रूपस्थ ध्यान कहलाता है। ४. चिन्तन जिनरूपस्य रूपस्थं ध्येयमुच्यते । अर्थात् जिनरूप का चिन्तवन करना रूपस्थ ध्यान कहलाता है, अर्थात् जिन रूप का चिन्तन रूपस्थ ध्यान का ध्येय है। प्राकृत एवं जैनागम विभाग, सम्पूर्णानन्द संस्कृत - Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रूपस्थ एवं रूपातीत ध्यान : १९ ५. घणघाइकम्ममहणो अइसयवर पाडिहेरसंजुत्तो झाएह धवलवण्णो अरहंतो समवसरणत्थो।। अर्थात् घातिया कर्मों से रहित, अतिशय और प्रतिहार्यों से युक्त समवसरण में स्थित धवलवर्ण वाले अरिहन्त का ध्यान रूपस्थ ध्यान है। ६. संस्थानावलम्बि रूपस्थम् अर्थात् जिसमें आकृति (संस्थान) का अवलम्बन लिया जाता है, वह रूपस्थ ध्यान है। तात्पर्य है कि समवसरण में स्थित तीर्थंकर, अरिहन्त की आकृति का एकाग्र मन से चिन्तन करना रूपस्थ ध्यान कहलाता है। रूपस्थ ध्यान के भेद कार्तिकेयानुप्रेक्षा के टीकाकार शुभचन्द्र ने एक प्राकृत गाथा के द्वारा रूपस्थ ध्यान के दो भेदों का निर्देश किया है रूवं झाणं दुविहं सगयं तह परगयं च जं भणियं। अर्थात् रूपस्थ ध्यान दो प्रकार का होता है- स्वगत और परगत। आत्मा का ध्यान करना स्वगत रूपस्थ ध्यान है और अर्हन्त का ध्यान करना परगत रूपस्थ ध्यान है। रूपस्थ ध्यान का ध्येय - अर्हन्त पद की महिमा से युक्त, समस्त अतिशयों से पूर्ण, दिव्य लक्षणों से शोभित, अनन्त महिमा के आधार, संयोग केवली परमेश्वर, सप्तधातुओं से रहित, मोक्ष रूपी लक्ष्मी के कटाक्ष के लक्ष्य, सब प्राणियों के हित, शीलरूपी पर्वत के शिखर और देव, इन्द्र, चन्द्र, सूर्य आदि की सभा के मध्य में स्थित स्वयंभू अरिहन्त रूपस्थ ध्यान के ध्येय हैं अर्थात् वे ही चिन्त्य हैं। घातिया कर्मों से रहित धवल वर्ण अरिहन्त ही चिन्त्य हैं। द्रव्यसंग्रहकार ने लिखा है__णट्ठचदुघइकम्मो दंसणसुहणाण वीरियमइओ। सुहदेहत्थो अप्पा सुद्धो अरिहो विचिंतिज्जो।१० अर्थात् चार घातिया कर्मों को नष्ट करने वाला अनन्त दर्शन, सुख, ज्ञान और वीर्य का धारक, उत्तम देह में विराजमान और शुद्ध जो आत्मा है, वह अरिहन्त है, उसका ध्यान करना चाहिए अर्थात् ध्येय के लिए निम्नलिखित का होना आवश्यक है। १. चारघातिया कर्मों का विनाशक - रूपस्थ ध्यान का ध्येय वही हो सकता है, जिसने अपने चारों घातिया कर्मों का विनाश कर दिया है। निश्चय रत्नत्रय स्वरूप शुद्धोपयोग ध्यान के द्वारा घातिया कर्मों में प्रधान मोहनीय के विनाश के उपरान्त ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय नामधारी कर्मों को एक ही समय में जिसने विनष्ट कर दिया है, वह ध्येय है। Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० : श्रमण, वर्ष ५६, अंक १-६/जनवरी-जून २००५ २. अनन्त चतुष्टय सम्पन्न - धातिया कर्मों के विनाश से उत्पन्न अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त सुख और अनन्तवीर्य रूप अनन्त चतुष्टय के धारक भगवान जिनेन्द्र ध्येय हैं। ३. सुहदेहत्थो- निश्चयनय से शरीर रहित है तो भी व्यवहारनय की अपेक्षा से सात धातुओं से रहित हजारों सूर्यों के समान देदीप्यमान परम औदारिक शरीर अर्थात् शुभदेह को धारण करता है, वह अर्हत् ध्येय है। ४. सुद्धो- क्षुधा, तृषा, भय, देश, राग, मोह, चिन्ता, जरा, रोग, मरण, स्वेद, खेद, मद, रति, विस्मय, जन्म, निद्रा और विषाद आदि अठारह दोषों से जो रहित है, वह शुद्ध है, वैसी शुद्ध आत्मा ध्येय है। ___५. अरिहो - सम्पूर्ण कर्मों से रहित जो पूज्य है, वही ध्येय है। महापुराण और ज्ञानार्णव में भी ध्येय का विवरण मिलता है। महापुरण (२१.१२०-१३०) के अनुसार जो घातिया कर्मों को नष्ट कर स्नातक अवस्था को प्राप्त हुए हैं, तेजोमय औदारिक शरीर को धारण किए हुए हैं, वैसे अर्हत्, सिद्ध, ज्ञानी, सर्वज्ञ ध्यान करने योग्य हैं। जो अर्हत्, सिद्ध, विश्वदर्शी, विश्वज्ञ, अनन्त चतुष्टय का धारक, समवसरण में विराजमान तथा आठ प्रातिहार्यों से युक्त हैं, वे ध्येय हैं। सुखमय, निर्भय, निस्पृह, निर्बाध, निराकुल, निरपेक्ष, नीरोग, नित्य, कर्म रहित, नव केवललब्धि युक्त परमेष्ठी, परम ज्योति, अक्षर स्वरूप अर्हत् भगवान ध्येय हैं। ज्ञानार्णवकार ने लिखा है - शुद्ध ध्यान विशीर्णकर्मकवचो देवश्च मुक्तेर्वरः। सर्वज्ञः सकलः शिवः स भगवान् सिद्धः परो निष्कलः। ११ अर्थात् शुद्धध्यान से कर्मरूपी आवरण को विनष्ट करने वाले, सर्वज्ञ, समस्त कल्याण के पूरक अर्हत् भगवान ध्येय हैं। रूपस्थ ध्यान का फल - अर्हत् के गुणों में प्रतिष्ठा ही रूपस्थ ध्यान का फल होता है। सिद्ध, सर्वज्ञ अर्हत् का चिन्तन करते-करते साधक तत्स्वरूप हो जाता है। ज्ञानार्णव में उल्लिखित है - यमाराध्यशिवं प्राप्ता योगिनो जन्म निस्पृहाः। यं स्मरन्त्यनिशं भव्याः शिवश्रीसंगमोत्सुकः।। तदालम्ब्य परं ज्योतिस्तद् गुणग्रामरञ्जितः। अविक्षिप्तमनायोगी तत्स्वरूपमुपाश्नुते।। .. अर्थात् जिन सर्वज्ञ देव का आराधन करके संसार से निस्पृह मुनिगण मोक्ष को प्राप्त हुए हैं तथा मोक्ष लक्ष्मी के संगम में उत्सुक भव्यजीव जिसका निरन्तर ध्यान Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रूपस्थ एवं रूपातीत ध्यान 1: २१ करते हैं। योगी उस सर्वज्ञ देव परम ज्योति को आलम्बन करके गुण ग्रामों में रंजायमान होता हुआ मन में विक्षेप रहित होकर, उसी स्वरूप को प्राप्त होता है। इस प्रकार सालम्बन ध्यान का तृतीय भेद रूपस्थ ध्यान अर्हत् चिन्तन विषयक है तथा तत्स्वरूप की उपलब्धि उसका लक्ष्य है। साधक अर्हत् का ध्यान करते-करते अर्हत् स्वरूप को उपलब्ध कर लेता है, मुक्ति श्री को वरण लेता है। २. रूपातीत ध्यान १. स्वरूप - जिस ध्यान का आलम्बन रूप, वर्णादि से रहित हो उसको रूपातीत ध्यान कहते हैं। रूप + अतीत = रूपातीत अर्थात् रूप से रहित, मूर्तिमान् पदार्थ से रहित, पुद्गल पदार्थ से रहित । तात्पर्यत: अमूर्त आत्मा का, चिदानन्द स्वरूप आत्मा का ध्यान रूपातीत ध्यान कहलाता है। इसकी अनेक परिभाषाएँ मिलती हैं - १.१ वसुदेवनन्दिश्रावकाचार में रूपातीत ध्यान का स्वरूप निर्दिष्ट हैवण्णरसगंध फासेहिं वज्जिओ णाणदंसणरूवो । जं झाइज्जइ एवं तं झाणं रूवरियं त्ति । । १२ अर्थात् वर्ण, रस, गन्ध और स्पर्श से रहित केवल ज्ञान दर्शन स्वरूप शुद्ध आत्मा का ध्यान किया जाता है वह रूपातीत ध्यान है । १.२ द्रव्यसंग्रहकार ने रूपातीत ध्यान को 'परम ध्यान' कहा है जिसमें अपनी आत्मा द्वारा अपनी ही आत्मा में रमण करने की बात कही गयी है मा चिट्ठह मा जंपह मा चिन्तह किं वि जेण होइ थिरो । अप्पा अप्पम्मि रओ इणमेव परं हवे ज्झाणं । । १३ अर्थात् हे ज्ञानीजनो! तुम कुछ भी चेष्टा मत करो ( काय का व्यापार मत करो ) कुछ भी मत बोलो और कुछ भी मत विचारो जिससे कि आत्मा में स्थिर हो जाओ, क्योंकि आत्मा में आत्मा की तल्लीनता ही परमध्यान है। इस गाथा में रूपातीत ध्यान के साधनों का भी निर्देश किया गया है। १. ३ ज्ञानार्णव में निर्दिष्ट है - चिदानन्दमयं शुद्धममूर्त्त परमाक्षरम् । स्मरेद्यत्रात्मनात्मानं तद्रूपातीतमिष्यते । । सर्वावयवसम्पूर्ण सर्वलक्षण लक्षितम् । विशुद्धादर्शसंक्रान्तं प्रतिबिम्बसमप्रभम् । । १४ अर्थात् जिस ध्यान में चिदानन्द स्वरूप, शुद्ध, अमूर्त, अजन्मा एवं परमाक्षर स्वरूप आत्मा का स्मरण, चिन्तवन किया जाता है वह रूपातीत ध्यान कहलाता है। Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ : श्रमण, वर्ष ५६, अंक १-६ / जनवरी - जून २००५ समस्त अवयवों से परिपूर्ण और समस्त लक्षणों से लक्षित निर्मल दर्पण में पड़े हुए प्रतिबिम्ब के समान प्रभाव वाले परमात्मा का चिन्तवन रूपातीत ध्यान है। १.४ रूपातीत या रूपरहित ध्यान का लक्षण योगशास्त्र में इस प्रकार मिलता है 1 अमूर्त्तस्य चिदानन्दरूपस्य परमात्मनः । निरंजनस्य सिद्धस्य ध्यानं स्याद् रूपवर्जितम् ।। १५ अर्थात् अमूर्त- वर्ण, गन्ध स्पर्शादि से रहित, केवलज्ञान दर्शन चारित्रादि गुणों से विभूषित, निराकार, चिदानन्द स्वरूप निरंजन सिद्ध का ध्यान रूपातीत ध्यान कहलाता है। . १.५ गणाधिपति श्री तुलसी ने 'मनोनुशासनम्' में रूपातीत ध्यान को पारिभाषित किया है - सर्वमलापगतज्योतिर्मयात्मालम्बि रूपातीतम् । १६ अर्थात् सर्वमलातीत ज्योतिर्मय आत्मा के अमूर्त स्वरूप का आलम्बन लेने को रूपातीत ध्यान कहा जाता है। २. रूपातीत ध्यान सालम्बन अथवा निरालम्बन ध्यान सालम्बन ध्यान है या निरालम्बन इस विषय में मतभिन्नता है। सालम्बन मानने वाले आचार्यों का अभिमत है कि रूपातीत ध्यान में अरूपी शुद्ध निजात्मा का आलम्बन लिया जाता है इसलिए इसे सालम्बन ध्यान कहते हैं । अरूपी आत्मा का इन्द्रिय साक्षात्कार नहीं हो पाता है। शब्दिक ज्ञान के द्वारा उसके स्वरूप को निश्चित कर उस पर मन को एकाग्र किया जाता है। रूपातीत ध्यान शाब्दिक भावना के माध्यम से होता है। इसमें आत्म विषयक विचार का चिन्तन रहता है। निरालम्बन ध्यान पूर्णतया विचार - शून्यता की स्थिति है। सालम्बन ध्यान के माध्यम से दीर्घकाल तक अभ्यास करते-करते साधक विचार - शून्यता की स्थिति में चला जाता है । w - रूपातात कुछ साधक5- विद्वानों का विचार है कि रूपातीत ध्यान निरालम्ब ध्यान के अन्तर्गत आता है, क्योंकि इसमें न तो किसी प्रकार का मन्त्र जप होता है आर न ही किसी चीज का आलम्बन । रूपातीत ध्यान का आलम्बन अमूर्त आत्मा का चिदानन्द स्वरूप होता है, इसका साधक आत्मा के ज्ञान, दर्शन, चारित्र, सुख आदि गुणों में अपने चित्त को स्थिर कर लेता है । पिण्डस्थ, पदस्थ और रूपस्थ ये तीनों ध्यान सालम्बन ध्यान के अन्तर्गत आते हैं, क्योंकि इन ध्यानों में आत्मा से भिन्न वस्तुओं, यथा- मन्त्र, जाप आदि का आलम्बन लिया जाता है। - Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रूपस्थ एवं रूपातीत ध्यान : २३ रूपातीत में बाह्य मन्त्रादि का आलम्बन नहीं लिया जाता है इसलिए इसे निरालम्बन तथा इसमें आत्मा का आधार लिया जाता है, इसलिए सालम्बन ध्यान कहने में कोई विप्रतिपत्ति नहीं है । ३. रूपातीत ध्यान की प्रक्रिया रूपस्थ ध्यान में स्थिर चित्त तथा क्षीण विभ्रम वाला ध्यानी अमूर्त, अजन्मा और इन्द्रियों से अगोचर परमात्मा के ध्यान का आरम्भ करता है। यही रूपातीत ध्यान होता है। इस ध्यान में ध्यानी पहले अपने गुणों का विचार कर सिद्धों के गुणों का विचार करता है । तदनन्तर अपनी आत्मा, दूसरी आत्माएं तथा मुक्तात्माओं के बीच में गुणकृत भेद को दूर करता है। इसके पश्चात् परमात्मा के स्वभाव के साथ एक रूप से भावित अपनी आत्मा को परमात्मा के गुणों से पूर्ण करके परमात्मा में मिला देता है। जो ध्यानी प्रमाण और नयों के द्वारा अपने आत्मतत्त्व को जानता है, वह योगी बिना किसी सन्देह के परमात्मतत्त्व को जानता है। आकाश के आकार किन्तु पौगलिक आकार से रहित, पूर्ण, शान्त, अपने स्वरूप से कभी च्युत न होने वाला, अपने घनीभूत प्रदेशों से स्थिर, लोकाय भाग में विराजमान, कल्याणरूप, रोगरहित और पुरुषाकार होकर भी अमूर्त एवं सिद्ध परमेष्ठी का चिन्तन करें। समस्त अवयवों से पूर्ण समस्त लक्षणों से लक्षित तथा निर्मल दर्पण में पड़ते हुए प्रतिबिम्ब के समान प्रभाव वाले परमात्मा का चिन्तन करें। इस प्रकार निरन्तर अभ्यास वाला दृढ़मति साधक स्वप्नादि में भी उसी परमात्मा को प्रत्यक्ष करता है। जब अभ्यास से परमात्मा का प्रत्यक्ष होने लगे तो इस प्रकार चिन्तन करेंवह परमात्मा मैं ही हूँ, मैं ही सर्वज्ञ हूँ, सिद्ध हूँ, साध्य हूँ और संसार से रहित हूँ । ऐसा चिन्तन करने से ध्याता और ध्यान के भेद से रहित चिन्मात्र स्फुरायमान होता है। उस समय ध्यानी मुनि पृथकपने को दूर करके परमात्मा के ऐसे ऐक्य को प्राप्त होता है, जिससे कि उसे भेद का भान नहीं रहता है। इस प्रकार का चिन्तन उसके मन में आ जाता है - निष्कल - परमात्माहं लोकालोकावभासकः । विश्वव्यापी स्वभावस्थो विकारपरिवर्जितः । । " १७ अर्थात् मैं लोक और अलोक को जानने वाला, देखने वाला, विश्वव्यापी, स्वभाव में स्थिर और विकारों से रहित परमात्मा हूँ। ४. उपलब्धि - रूपातीत ध्यान का प्रारम्भ परमात्मा के चिन्तन से होता है । रूपस्थ की अवस्था में ध्याता - ध्येय का भेद बना रहता है लेकिन रूपातीत ध्यान के सधते ही सारे विकल्प समाप्त हो जाते हैं और निरञ्जनत्व की प्राप्ति हो जाती है । आप्तवचन प्रमाण है - Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ : श्रमण, वर्ष ५६, अंक १-६/जनवरी-जून २००५ m ण य चिंतइ देहत्थं देहं च ण चिंतए किं पि। ण सगयपरगयरूवं तं गयरूवं णिरालंबं।। जत्थ ण झाणं झेयं झायारो णेय चिंतणं किं पि। ण य धारणावियप्पो तं झाणं सुटु भणिज्ज।।१८ अर्थात् जिसमें न साधक शरीरस्थ आत्मा का विचार करे न शरीर का विचार करे और न स्वगत या परगत रूप का विचार करे उसे रूपातीत ध्यान कहते हैं। जिसमें ध्यान, ध्याता, ध्येय आदि का कुछ भी विकल्प नहीं रहता, वही ध्यान श्रेष्ठ है। तात्पर्य है कि रूपातीत ध्यान में साधक परमात्मा रूप में स्थिति प्राप्त कर लेता है। सभी विकल्पों से उपरत होकर निरञ्जनत्व को प्राप्त कर लेता है। सन्दर्भ : १. · योगशास्त्र, ७/८, योगसार ९८, ज्ञानार्णव ३४/१. २. भक्तामर स्तोत्र २९. वसुदेवनन्दिश्रावकाचार ४७२-७५. ४. ज्ञानार्णव ३९.१४. द्रव्यसंग्रह, गाथा ४८ पर संस्कृत टीका। कार्तिकेयानुप्रेक्षा टीका, पृष्ठ ३७७. तत्रैव टीका, पृष्ठ ३७७. मनोनुशासनम् ४.३३. कार्तिकेयानुप्रक्षा टीका, पृष्ठ ३७७. १०. द्रव्यसंग्रह, गाथा संख्या ५०. ११. ज्ञानार्णव ३१.१७. १२. वसुदेवनन्दिश्रावकाचार ४७६. १३. द्रव्यसंग्रह, गाथा-५६. १४. ज्ञानार्णव ४०.१६-१७ १५. योगशास्त्र १०.१ मनोनुशासन ४.२५ १७. कार्तिकेयानुप्रेक्षा टीका, पृष्ठ ३७८. १८. तत्रैव, पृष्ठ ३७८-७९ 3 5 १६. Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण, वर्ष ५६, अंक १-६ जनवरी-जून २००५ कर्म-सिद्धान्त एवं वस्तुस्वातन्त्र्य डॉ० अल्पना जैन* १. प्रस्तावना कर्म-सिद्धान्त दर्शनशास्त्र का प्रधान व महत्त्वपूर्ण विषय है। भारतीय दर्शन की प्रमुख अवधारणाओं में कर्म की अवधारणा विशिष्ट स्थान रखती है। प्रायः सभी दार्शनिक सम्प्रदाय (चार्वाक को छोड़कर) इस अवधारणा में विश्वास करते हैं। कर्मसिद्धान्त की मान्यता है कि मानव जैसा कर्म सम्पादित करता है, उसी के अनुरूप फल प्राप्त करता है। कहा भी गया है 'अवश्यमेव हि भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम्।' वस्तुतः कर्म-सिद्धान्त कारणता का सिद्धान्त है जो नैतिक जगत् में व्याप्त व्यवस्था की व्याख्या करता है। जिस प्रकार भौतिक जगत में व्याप्त व्यवस्था की व्याख्या सार्वभौम कारणता के सिद्धान्त के आधार पर की जाती है उसी प्रकार नैतिक जगत् में व्याप्त व्यवस्था की व्याख्या कर्म-सिद्धान्त के आधार पर की जा सकती है। कर्म-सिद्धान्त का उल्लेख सभी दर्शनों में मिलता है परन्तु जितना सूक्ष्म व विस्तृत विवेचन जैनदर्शन में प्राप्त होता है व अन्यत्र कहीं प्राप्त नहीं होता। इसका कारण यह है कि अन्य दर्शनों में जहां कर्म-सिद्धान्त का उल्लेख प्रासंगिक रूप से करते हुए तात्त्विक विवेचना पर अधिक बल दिया गया है, वहीं जैनदर्शन में तात्त्विक व कार्मिक धारायें समान रूप से साथ-साथ चलती रही हैं। कार्मिक धारा के अन्तर्गत कर्मवाद पर जैनदर्शन में गहराई से विचार किया गया है। २. कर्म का स्वरूप 'कर्म' शब्द के अनेक अर्थ हैं, यथा- कर्मकारक, क्रिया तथा जीव के साथ बंधने वाले विशेष जाति के पुद्गल स्कंधा* यहाँ पर 'कर्म' शब्द का अर्थ जीव के साथ बंधने वाले विशेष जाति के पुद्गल स्कंध से है। 'कर्म' शब्द का ऐसा निरूपण मात्र जैनदर्शन में ही मिलता है। जीव मन, वचन, काय के योग द्वारा जो क्रियायें करता है, उनसे प्रभावित होकर एक विशेष जाति के सूक्ष्म पुद्गल स्कंध जीव के साथ बंध जाते हैं। बंध को प्राप्त ये पौद्गलिक स्कंध ही कर्म संज्ञा को प्राप्त करते हैं। कर्मग्रन्थ में कहा गया है- “विभिन्न हेतुओं से, जीव कर्मयोग्य पुद्गलद्रव्य को आत्मप्रदेशों से बाँध लेता है। आत्म-सम्बद्ध पुद्गल द्रव्य को ही कर्म कहते हैं।''३ * Q-A/195, अपर सिमलू, खैरी, जिला - बम्बा (हि०प्र०) Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण, वर्ष ५६, अंक १- ६ / जनवरी - जून २००५ ३. जैनेतर दर्शनों में मान्य कर्मसिद्धान्त की संक्षिप्त विवेचना जैन दर्शन से इतर अन्य भारतीय दर्शनों में भी कर्म सिद्धान्त का विवेचन मिलता है। न्याय-वैशेषिक कर्म को 'अदृष्ट', मीमांसक 'अपूर्व', वेदान्त अविद्या अथवा माया आदि विभिन्न संज्ञाओं से अभिहित करते हैं। न्याय-वैशेषिक व वेदान्त कर्म करने में कर्ता की स्वतंत्रता तो स्वीकार करते हैं किन्तु कर्म - फल प्राप्ति में ईश्वर' की अनिवार्यता को भी स्वीकृत करते हैं। इसके विपरीत मीमांसक व सांख्य कर्म व कर्मफल की प्राप्ति में किसी बाह्य सत्ता की अनिवार्यता को अस्वीकृत करते हैं। वे कर्म में कर्ता की पूर्ण स्वतंत्रता को सहमति प्रदान करते हैं। चूँकि बौद्धदर्शन में कोई भी ईश्वरीय सत्ता स्वीकार्य नहीं है अतः जीव कर्म का स्वतंत्र कर्ता व भोक्ता है। २६ : ४. जैन दर्शन प्रणीत कर्म सिद्धान्त की विशिष्टता जैनदर्शन में कर्म के भेद - प्रभेदों के सूक्ष्म विवेचन के साथ ही कर्म के द्रव्यात्मक व भावात्मक दोनों पक्षों का उल्लेख मिलता है। पौगलिक सम्बन्ध, द्रव्यात्मक पक्ष का पोषक है और जीव भावात्मक पक्ष का पोषक है। आप्तपरीक्षा में इस सन्दर्भ में कहा गया है- "जीव के जो द्रव्यकर्म हैं वे पौगलिक हैं और उनके अनेक भेद हैं तथा जो भावकर्म हैं वे आत्मा के चैतन्य परिणामात्मक हैं, वे आत्मा से कथंचित् रूप से स्ववेद्य प्रतीत होते हैं । " इस विधि से द्रव्य तथा भावरूप कर्म का प्रतिपादन अन्य दर्शनों में नहीं किया गया है। सांख्यदर्शन कर्म के मात्र द्रव्यात्मक पक्ष को स्वीकार करता है, क्योंकि वह पुरुष को कूटस्थ मानता है व कर्म को प्रकृति का विकार मानता है । अचेतन प्रकृति स्वयं ही कर्मबन्धन में बँधती है और स्वयं ही कर्मबन्धन से मुक्त हो जाती है।" दूसरी ओर बौद्ध दर्शन कर्म के केवल भावात्मक पक्ष को स्वीकार करता है, उसका मानना है कि कर्म का सम्बन्ध केवल चेतना से है। बौद्ध कर्म को सूक्ष्म पुगलों के रूप में स्वीकार नहीं करते।' बुद्ध ने कहा है कि "चेतना ही कर्म है, ऐसा मैं कहता हूँ ।" यहाँ चेतना को कर्म आरम्भ की दृष्टि से कहा गया है, क्योंकि सभी कर्मों का प्रारम्भ चेतना से ही होता है। १७ जैन दर्शन ने कर्म को सांख्य व बौद्धों की तरह जड़, पुद्गल व चेतनात्मक नहीं माना है, बल्कि जीव व पुद्गगल के संयोग का परिणाम कहा है। जैनदर्शन के अनुसार अनादिकाल से जीव कर्मों से बंधा हुआ है यह कर्मबद्ध जीव ही भावकर्म से नित्य द्रव्यकर्म का संचय करता रहता है। रागद्वेष रूप आभ्यन्तर परिणाम भावकर्म हैं और उसके द्वारा जो सूक्ष्म पुगलों का आकर्षण होता है वही जीव के साथ बंधकर द्रव्य कर्म की संज्ञा को प्राप्त होता है। इस प्रकार कर्म वास्तव में आत्मा व पुद्गल के मध्य का सम्बन्ध है जो सांसारिक अवस्था के अन्त तक बना रहता है | " Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्म-सिद्धान्त एवं वस्तुस्वातन्त्र्य : २७ ५. जैनदर्शन प्रणीत वस्तुव्यवस्था एवं वस्तुस्वातन्त्र्य जैन एवं जैनेतर दर्शनों में मान्य कर्म-सिद्धान्त के सामान्य स्वरूप से अवगत होने के पश्चात् सर्वप्रथम जैनदर्शन प्रणीत वस्तुव्यवस्था पर दृष्टिपात करना आवश्यक है तभी इस तथ्य का प्रगटीकरण सम्भव होगा कि जैनदर्शन में मान्य वस्तुव्यवस्था की क्या विशिष्टता है जो जीव की कर्मसम्बद्धता की अवस्था में भी स्वतन्त्रता का प्रतिपादन करती है। ५.(१) वस्तु का सत् स्वरूप जैन दर्शन में वस्तु को 'सत्रूप' माना गया है। “जो सत्ता रखता है अथवा जो सत् है वही वस्तु है।"९ वस्तु, सत्ता, द्रव्य, तत्त्व, पदार्थ, अर्थ, धर्म सभी एक ही अर्थ के वाचक हैं।१० सत् अस्तित्व का सूचक है। सत्तासहित वस्तु को ही जाना सकता है, उसपर विचार किया जा सकता है। जब तक वस्तुओं के सत् अस्तित्व को स्वीकार न कर लिया जाये तब तक उनके सम्बन्ध में विचार ही सम्भव नहीं है, क्योंकि असत्रूप वस्तु तो आकाशकुसुम, बंध्यापुत्र व शशशृंगवत् असम्भव है। इसीलिए आचार्य उमास्वामी ने तत्त्वार्थसूत्र में ‘सत्द्रव्यलक्षणम्' कहते हुए द्रव्य को परिभाषित किया है और वह सत्तावान वस्तु अनेक गुणधर्मों व विशेषताओं से परिपूर्ण है, इसका प्रतिपादन पंचाध्यायीकार ने निम्न श्लोक में किया है।११ तत्त्वं सल्लाक्षणिकं सन्मानं वा यतः स्वतः सिद्धम् । तस्मादनादिनिधनं स्वसहायं निर्विकल्पं च।। तत्त्व सत् लक्षणवाला है या सन्मात्र ही तत्त्व है और जिस कारण से वह स्वत: सिद्ध है, इसीलिए वह विनाशरहित अनादि है, अनिधन है, स्वसहाय है और निर्विकल्प अर्थात् अखण्ड है। उक्त श्लोक में संक्षेप में वस्तु के स्वभाव का सम्पूर्णता से दिग्दर्शन कराया गया है। वस्तु को स्वतः सिद्ध न माना जाये तो विश्व में वस्तुओं की कोई मर्यादा नहीं रह जायेगी। अनन्त द्रव्य उत्पन्न होते चले जायेंगे। अनादि-निधन स्वभाव की स्वीकृति के अभाव में वस्तु को परत: सिद्ध मानना होगा। प्रत्येक पदार्थ पर के सहयोग से उत्पन्न होगा जिससे अनवस्था नामक दोष उत्पन्न होगा। वस्तु स्वसहाय न मानने पर सत् का नाश मानना होगा, क्योंकि वस्तु की स्वतंत्र स्थिति, टिकाव व परिणमन के अभाव में समस्त द्रव्य परस्पर एक-दूसरे के कार्यों में हस्तक्षेप करने लगेंगे जिससे किसी भी वस्तु का मूल स्वरूप न ठहर सकेगा। निर्विकल्प स्वभाव की स्वीकृति के अभाव में वस्तु को युत्सिद्ध स्वीकार करना होगा। Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ श्रमण, वर्ष ५६, अंक १ - ६ / जनवरी - जून २००५ ५. (२) वस्तु का परिणामी नित्य स्वरूप सत्तावान वस्तु के स्वरूप से अवगत होने के पश्चात् यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि वस्तु कैसी है? क्या वह सर्वथा कूटस्थ व नित्य है या फिर सर्वथा परिवर्तनशील व अनित्य है ? जैनदर्शन वस्तु के अनेकान्त स्वरूप अर्थात् अनन्त धर्मात्मक स्वरूप का प्रतिपादक होने से वस्तु को न तो सर्वथा अथवा नित्य मानता है और न सर्वथा परिवर्तनशील अथवा अनित्य मानता है। वह वस्तु को 'भगुंत्पादधुवत्ता' व उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तंसत् १२ रूप में प्रतिपादित करता है। प्रत्येक वस्तु अपने ध्रुव रूप अस्तित्व को कायम रखते हुए पूर्व अवस्था का व्यय व नवीन अवस्था का उत्पाद करती हुई अनादि - अनन्त तक अपने अस्तित्व को कायम रखती है, जैसे- मिट्टी अपने पिण्ड रूप पर्याय का व्यय करती हुई, घट रूप नवीन पर्याय का उत्पाद करती हुई, घट व पिण्ड दोनों अवस्थाओं में मिट्टी रूप ध्रुव अस्तित्व से तादात्म्य रखती हुई अपने त्रिलक्षणात्मक अस्तित्व को सूचित करती है। इस सन्दर्भ में कार्तिकेयानुप्रेक्षा का कथन द्रष्टव्य है- " परिणाम से रहित नित्य द्रव्य न तो कभी नष्ट हो सकता है और न कभी उत्पन्न हो सकता है, ऐसी अवस्था में वह कार्य कैसे कर सकता है ? क्षण-क्षण में अन्य होने वाला विनश्वर तत्त्व अन्वयी द्रव्य के बिना कुछ भी कार्य नहीं कर सकता । " २३ दूसरे शब्दों में- "सर्वथा नित्य व सर्वथा क्षणिक वस्तु में अर्थक्रिया सम्भव नहीं है और अर्थक्रिया के अभाव में वस्तु की सत्ता ही सम्भव नहीं है । " २४ यहाँ यह शंका होना स्वाभाविक है कि द्रव्य एक समय में उत्पाद-व्यय-: - ध्रौव्य तीनों लक्षणों से युक्त कैसे हो सकता है ? इसका समाधान यह है कि अवस्था भेद से तीनों धर्म माने गये हैं। जिस समय द्रव्य की पूर्व अवस्था नाश को प्राप्त होती है उसी समय उसकी नयी अवस्था उत्पन्न होती है फिर भी उसका त्रैकालिक अन्वय बना रहता है ।" वह इस प्रकार कि जिस समय अंकुर की उत्पत्ति होती है उसी समय बीज का नाश होता है और दोनों में वृक्षत्व पाये जाने के कारण वृक्षत्व का भी वही काल है । ९६ उक्त विवेचन से स्पष्ट है कि प्रत्येक वस्तु त्रिलक्षणात्मक अस्तित्व से युक्त है। जगत् में नित्य-अनित्य, एक-अनेक इत्यादि अनेक धर्मयुक्त वस्तुयें ही कार्यशील दिखाई देती हैं जैसे- स्वर्ण कुण्डल, कलश, कंगन, अंगूठी इत्यादि अनेक रूपों में दिखाई देता है। यदि स्वर्ण एक रूप तथा अनित्य रूप ही हो तो उससे कुण्डलादि कार्य नहीं बन सकते। अतः वस्तु स्वभाव से ही अनेकान्त स्वरूप है। Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्म-सिद्धान्त एवं वस्तुस्वातन्त्र्य : २९ वस्तु के त्रिलक्षणात्मक स्वभाव के स्पष्टीकरण के पश्चात यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि वस्तु स्वयं में कैसी है? आचार्य कुन्दकुन्द तथा आचार्य उमास्वामी ने इसे क्रमश: ‘गुणपज्जासयं' व 'गुणपर्यायवद् द्रव्यम्' के रूप में व्याख्यायित किया है१७ जिसमें गुण और पर्यायें रहती हैं वह वस्तु है।१८ द्रव्य का उत्पाद-व्यय स्वभाव पर्याय में समाहित हो जाता है और ध्रौव्य स्वभाव का नित्य विद्यमान गुणों में समावेश हो जाता है। इस प्रकार द्रव्य इन तीनों लक्षणों से युक्त है- सत्, उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मक और गुणपर्यायात्मक। ये तीनों लक्षण परस्पर अविनाभावी हैं जहाँ एक हो वहाँ शेष दो नियम से होते ही हैं। आचार्य कुन्दकुन्द व माइल्लधवल ने द्रव्य को इसी रूप में परिभाषित किया है- “जो सत् लक्षणवाला है जो उत्पाद-व्यय संयुक्त है अथवा जो गुण-पर्यायों का आश्रय है वह द्रव्य है।''१९ ५.(३) द्रव्य-गुण-पर्यायात्मक वस्तु का स्वरूप जैन दर्शन लोक में छह द्रव्यों की सत्ता को स्वीकार करता है जो जाति की अपेक्षा से छह व संख्या की अपेक्षा अनन्त हैं अर्थात् षद्रव्यों का समुदाय ही लोक है। 'लोक' शब्द का व्युत्पत्तिसिद्ध अर्थ भी यही है- “यथा लोकयन्ते यस्मिन् षद्रव्याणि इति लोक।" ये छह द्रव्य हैं- २० जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश व काल। (क) द्रव्य और उसमें अन्तर्निहित सामान्य-विशेष गुण द्रव्य के सामान्य स्वरूप का हम पूर्व में उल्लेख कर चुके हैं यहाँ द्रव्यों का स्वरूप और उनमें अन्तर्निहित विशेष व सामान्य गुणों को उल्लिखित किया जा रहा है (१) जीवद्रव्य- जिसमें ज्ञान दर्शन रूप शक्ति हो वह जीव द्रव्य है। ज्ञान, दर्शन, चेतना, वीर्य, चारित्र आदि जीव के विशेष गुण हैं।२१ (२) पुद्गलद्रव्य- जिसमें स्पर्श, रस, गंध, वर्ण आदि गुण पाये जाते हैं, वह पुद्गल द्रव्य है। स्पर्श, रस, गंध, वर्ण व मूर्तत्व पुद्गल द्रव्य के विशेष गुण हैं।२२ (३) धर्मद्रव्य- जो स्वयं गमन करते हुए जीव व पुद्गलों के गमन में साधारण निमित्त हो, वह धर्म द्रव्य है, जैसे- मछली के गमन में पानी। गति हेतुत्व धर्म द्रव्य का विशेष गुण है।२३ (४) अधर्मद्रव्य- जो स्वयं गतिपूर्वक स्थिति रूप में परिणमित होते हुए जीव व पुद्गलों को ठहरने में साधारण निमित्त हो, जैसे- पथिक के ठहरने में वृक्ष की छाया। स्थितिहेतुत्व अधर्म द्रव्य का विशेष लक्षण है।२४ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० : श्रमण, वर्ष ५६, अंक १-६ / जनवरी- उ - जून २००५ (५) आकाशद्रव्य - जो जीवादिक द्रव्यों को रहने के लिए अवकाश देता है, वह द्रव्य है। अवगाहन हेतुत्व आकाश द्रव्य का विशेष गुण है । २५ (६) कालद्रव्य- अपनी-अपनी अवस्था रूप से स्वयं परिणमते हुए जीवादिक द्रव्यों के परिणमन में जो निमित्त हो, वह काल द्रव्य है, जैसे- कुम्हार के घूमने में लोहे की कीली । वर्तना हेतुत्व कालद्रव्य का विशेष गुण है | २६ चाक को सामान्य गुण- सामान्य गुण वह हैं जो सभी द्रव्यों में विशेषता रहित वर्तन करते हैं । २७ प्रमुख गुण निम्नांकित हैं- २८ (१) अस्तित्व गुण - जिस शक्ति के कारण द्रव्य का कभी नाश नहीं होता है और द्रव्य किसी से उत्पन्न नहीं होता है, उस शक्ति को अस्तित्व गुण कहते हैं। (२) वस्तुत्व गुण- जिस शक्ति के कारण द्रव्य में अर्थ - क्रियाकारित्व होता है अर्थात् अपनी-अपनी प्रयोजनभूत क्रिया होती है उस शक्ति को वस्तुत्व गुण कहते हैं। (३) द्रव्यत्व गुण - जिस शक्ति के कारण द्रव्य की अवस्थाओं में निरन्तर परिवर्तन होता रहता है, उसे द्रव्यत्व गुण कहते हैं। (४) प्रमेयत्व गुण - जिस शक्ति के कारण द्रव्य किसी न किसी ज्ञान का विषय हो उसे प्रमेयत्व गुण कहते हैं । (५) प्रदेशत्व गुण - जिस शक्ति के कारण द्रव्य का कोई न कोई आकार अवश्य होता है उस शक्ति को प्रदेशत्व गुण कहते हैं। (६) अगुरुलघुत्व गुण - जिस शक्ति के कारण द्रव्य में द्रव्यपना कायम रहता है अर्थात् (१) एक द्रव्य दूसरे द्रव्य रूप नहीं होता है । (२) एक गुण दूसरे गुण रूप नहीं होता है और (३) द्रव्य में रहने वाले अनन्तगुण बिखरकर अलगअलग नहीं हो जाते हैं, उस शक्ति को अगुरुलघुत्व गुण कहते हैं। (ख) पर्याय का स्वरूप गुणों के परिणमन को पर्याय कहा जाता है। आलाप - पद्धति में इसका व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ बतलाते हुए कहा गया है - "जो स्वभाव - - विभाव रूप से गमन करती है अर्थात् परिणमन करती है, वह पर्याय है।' । २९ परिणमन गुणों की अवस्था है अर्थात् गुणों की प्रतिसमय होने वाली अवस्था का नाम पर्याय है । ३० उपरोक्त सम्पूर्ण विवेचन से यह बात स्पष्टतः परिलक्षित होती है कि प्रत्येक वस्तु अपने स्वभाव से परिपूर्ण है। वस्तु का सत् अस्तित्व, उसके गुण- पर्यायों का Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्म - सिद्धान्त एवं वस्तुस्वातन्त्र्य उत्पाद-व्यय रूप परिणमन, उसमें अन्तर्निहित सामान्य व विशेष गुणों की सत्ता उसके पूर्ण, स्वसहाय स्वतन्त्र व निरपेक्ष स्वभाव की उद्घोषक है। (ग) द्रव्य - गुण व पर्याय की स्वतन्त्रता जैन दर्शन वस्तु की स्वतन्त्रता का जो प्रतिपादन करता है वह उसकी अद्वितीय विशिष्टता का द्योतक है। वह द्रव्य, उसके सहभावी गुणों व उसकी प्रतिसमय परिणमित हो रही क्रमवर्ती पर्यायों की स्वतन्त्र सत्ता का निरूपण कर वस्तु स्वाधीन, स्वसहाय, स्वसंचालित व्यवस्था की उद्घोषणा करता है जहाँ सर्वशक्तिमान परम सत्ता का हस्तक्षेप तो दूर की बात, दो द्रव्यों में भी परस्पर कर्त्तव्य की अस्वीकार्यता है । (i) द्रव्य की स्वतन्त्रता आचार्य कुन्दकुन्द ने 'पंचास्तिकाय' में द्रव्यों की स्वतन्त्रता का सुन्दर चित्रण किया है- “छहों द्रव्य एक-दूसरे में प्रवेश करते हैं, एक दूसरे को अवकाश देते हैं, परस्पर क्षीरनीरवत् मिल जाते हैं तथापि अपने स्वभाव को नहीं छोड़ते। १३१ ३१ जैन दर्शन की यह विचित्र व अलौकिक प्ररूपणा है कि आकाश के एक प्रदेश में आकाश सहित छहों द्रव्यों की सत्ता एक साथ होते हुए भी सभी द्रव्यों का स्वतन्त्र अस्तित्व है और उनका परिणमन भी पूर्णतः स्वतन्त्र है। (ii) गुणों की स्वतन्त्रता द्रव्य के सहभू, अनन्य व उसके प्रदेशों व अवस्थाओं में व्याप्त अनन्त गुणों की सत्ता पूर्णतः स्वतन्त्र है। वे एक-दूसरे के कार्यों में हस्तक्षेप नहीं करते हैं। जैसेज्ञानगुण का कार्य जानना है, चेतनागुण का कार्य चेतनपना है किन्तु ज्ञानगुण चेतनागुण का कार्य नहीं करता है, वैसे ही चेतनागुण भी ज्ञानगुण का कार्य नहीं करता । कहा भी गया है- “जीव में जो दर्शन नाम का एक गुण है वह न ज्ञानगुण है, न सुख है, न चारित्र अथवा न कोई अन्य गुण ही हो सकता है। किन्तु वह दर्शनगुण ही है । " कोई भी गुण किसी भी गुण का अन्तर्भावी नहीं है, आधार नहीं है, आधेय नहीं है, कारण और कार्य भी नहीं है, किन्तु अपनी-अपनी शक्ति को धारण करने की अपेक्षा सभी गुण अपने-अपने स्वरूप में स्थित हैं। इसलिए यद्यपि वे नानारूप व अनेक हैं तथापि निश्चयपूर्वक वे सब गुण परस्पर में एक ही सत् के साथ अन्वय रूप में रहते हैं । ३२ Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ : श्रमण, वर्ष ५६, अंक १-६/जनवरी-जून २००५ (iii) पर्याय की स्वतन्त्रता ऊपर हमने द्रव्य के सहभू, अनन्य व अभिन्न प्रत्येक गुण का अस्तित्व व कार्य भिन्न-भिन्न व स्वतन्त्र है, यह बतलाया है। इससे प्रगट होता है कि प्रत्येक गुण की पर्यायें भी स्वतन्त्र हैं, क्योंकि गुणों के कार्य अथवा परिणमन का नाम ही तो पर्याय है। अनन्त गुणों की अनन्त पर्यायें अपना स्वतन्त्र अस्तित्व रखती हैं यहाँ तक कि एक क्षण पूर्व उत्पन्न पर्याय भी दूसरे क्षण उत्पन्न होने वाली पर्यायों की कर्ता नहीं है। यही वस्तु की स्वतन्त्र सामर्थ्य है। इस सन्दर्भ में यह कथन अवलोकनीय है"जैसे स्वत: सिद्ध है वैसे ही स्वत: परिणमनशील भी है। गुण नित्य हैं तो भी वे निश्चय करके स्वभाव से ही प्रतिसमय परिणमन करते रहते हैं।''३३ निष्कर्ष - उपरोक्त विवेचन से यह स्पष्टत: प्रतीत होता है कि जैनदर्शन द्रव्य और उसमें अन्तर्निहित गणों एवं उसकी निरन्तर उत्पन्न हो रही पर्यायों की स्वतन्त्रता का गहराई व सूक्ष्मता से दिग्दर्शन कराता है। द्रव्य-गुण-पर्यायात्मक वस्तु में एकत्व होने पर भी उनमें से प्रत्येक का अस्तित्व व परिणमन पूर्णत: स्वसहाय व निरपेक्ष है, यह प्रतिपादित कर जैनदर्शन वस्तु की पूर्णता व स्वतन्त्र सामर्थ्य का अद्वितीय निरूपण करता है। जैनदर्शन का यह विशिष्ट व अलौकिक प्रतिपाद्य ही वस्तुस्वातंत्र्य है। ६. जीव व पुद्गल कर्मों की स्वतन्त्र परिणमनशीलता जैन दर्शन का प्रतिपाद्य है कि संसार अवस्था में जीव ज्ञानावरणादि अष्टकर्मों से सम्बद्ध है, बँधा है और कर्मजन्य नाना परिस्थितियों का उपभोग करता है। यहाँ पर मन में यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि जीव पुद्गल कर्मों से आबद्ध होने पर स्वतन्त्र कैसे है अथवा क्या यह कर्मबंधनों से जकड़ा होने पर भी स्वतन्त्र रह सकता है? सामान्यत: कर्मों की उदयरूप अवस्था में प्रत्येक प्राणी यह अनुभूति करता है कि वह कर्मों के कारण विभिन्न प्रकार की शारीरिक, मानसिक व भौतिक परिस्थितियों - से परतन्त्र है। कर्म उसको जो परिस्थितियाँ उत्पन्न करता है, वह उसका उपभोग करने के लिए विवश है और कर्मों का नाश होने पर ही वह स्वतन्त्र व स्वाधीन हो सकता है। यद्यपि यह अक्षरश: सत्य है कि मानव कर्मजन्य परिस्थितियों से पराधीन है, किन्तु वह कर्म की दृष्टि से केवल बाह्य रूप से ही परतन्त्र है। स्वभाव से वह कर्मोदयजन्य अवस्था भी स्वतन्त्र रूप से परिणमन करती है। यहाँ पर स्वतन्त्र परिणमन का अर्थप्रत्येक द्रव्य की परिणमनरूप स्वाभाविक स्वतन्त्रता से है। जैसे- जीव कर्मबन्ध के संयोग रूप अवस्था में भी अपना ज्ञान-दर्शन रूप कार्य ही करता है वह अपने ज्ञानदर्शन रूप कार्य को छोड़कर पुद्गल द्रव्य के स्पर्श-रस-गन्ध-वर्ण रूप कार्य को नहीं करता है, वैसे ही पुद्गल द्रव्य भी है। Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्म - सिद्धान्त एवं वस्तुस्वातन्त्र्य : ३३ समयसार गाथा - १८५ की आत्मख्याति - टीका इसी मन्तव्य का प्रगटीकरण है - " जैसे प्रचण्ड अग्नि द्वारा तप्त होता हुआ स्वर्ण स्वर्णत्व को नहीं छोड़ता उसी प्रकार कर्मोदय के द्वारा घिरा हुआ होने पर भी (विघ्न किया जाये तो भी) ज्ञान ज्ञानत्व को नहीं छोड़ता, क्योंकि हजारों कारणों के एकत्रित होने पर भी स्वभाव को छोड़ना अशक्य है।'’३४ समयसार कलश - २१३ भी उपर्युक्त मन्तव्य को सरलता से स्पष्ट करता है - “वस्तु का स्वभाव ही ऐसा है कि एक वस्तु अन्य वस्तु को नहीं बदल सकती। यदि ऐसा न हो तो वस्तु का वस्तुत्व ही न रहे। इस प्रकार वस्तु अन्य को परिणमित नहीं करा सकती वहाँ एक वस्तु ने अन्य का क्या किया ? कुछ नहीं । चेतन वस्तु के साथ पुद्गल एक क्षेत्रावगाह रूप से रह रहे हैं तथापि वे चेतन को जड़ बनाकर अपने रूप परिणमित नहीं करा सके, तब फिर पुद्गल ने चेतन का क्या किया ? कुछ भी नहीं । ११३५ समयसार का कर्ता-कर्म अधिकार इस विषवस्तु को विस्तार, गहनता व सूक्ष्मता से प्रतिपादित करता है। ७. जीव व पुद्गल कर्मों में मात्र निमित- नैमित्तिक सम्बन्ध एवं कर्म से जीव की स्वतंत्रता उपरोक्त विवरण से यह बात सद्यः स्पष्ट हो जाती है कि प्रत्येक द्रव्य अपने परिणमन का कर्ता अर्थात् आत्मा अपने परिणमन का कर्ता है और उससे भिन्न कर्मरूपी पुद्गल अपने परिणमन का कर्ता है। यहाँ शंका उठना स्वाभाविक है कि पुद्गल कर्मों का कर्ता कौन है जिसका संसारावस्था में जीव के साथ एक क्षेत्रावगाह सम्बन्ध है तथा जिसके कारण वह संसार में परिभ्रमण करता है ? जैन दर्शन जीव व जड़कर्मों में अर्थात् दो द्रव्यों में कर्ता-कर्म सम्बन्ध का पूर्णत: निषेध करता है और मात्र निमित्त - नैमित्तिक सम्बन्ध को स्वीकार करता है। इस सम्बन्ध में आचार्य कुन्दकुन्द व उनके टीकाकार आचार्य अमृतचंद्र व आचार्य जयसेन के निम्नांकित कथन क्रमश: ध्यातव्य हैं - " जीव के परिणामों का निमित्त पाकर पुद्गल (कार्मण वर्गणायें) कर्म रूप परिणमित होते हैं तथा जीव भी पुद्गल के निमित्त से परिणमन करता है । यद्यपि जीवकर्म के गुणों को नहीं करता और कर्म जीव के गुणों को नहीं करता, परन्तु परस्पर निमित्त से दोनों के परिणाम होते हैं। इस कारण आत्मा अपने भावों का कर्ता है, परन्तु पौगलिक कर्मों के द्वारा किये गये समस्त भावों का कर्ता नहीं है। " १३६ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ : श्रमण, वर्ष ५६, अंक १-६/जनवरी-जून २००५ __“जीव और पुद्गल में परस्पर व्याप्य-व्यापक भाव का अभाव होने से जीव को पुद्गल परिणामों के साथ और पुद्गल कर्म को जीव परिणामों के साथ कर्ता-कर्मपने की असिद्धि होने से, मात्र निमित्त-नैमित्तक भाव का निषेध न होने से, परस्पर निमित्त मात्र से ही दोनों के परिणाम होते हैं।'' ३७ "जैसे कुम्हार के परिणामों के निमित्त से मिट्टी घड़े के रूप में परिणमित होती है, उसी प्रकार जीव सम्बन्धी मिथ्यात्व व रागादिपरिणामों का निमित्त पाकर कार्मणवर्गणारूप पुद्गलद्रव्य कर्म रूप में परिणमित होता है। जैसे- घट का निमित्त पाकर कुम्हार 'मैं घड़े को बनाता हूँ'- इस प्रकार भाव रूप परिणमन करता है, उसी प्रकार उदय में आये हुए द्रव्य कर्मों का निमित्त पाकर जीव निर्विकार चिच्चत्मकार परिणति को प्राप्त नहीं होता हुआ मिथ्यात्व और रागादि विभाव रूप परिणमन करता है। यद्यपि परस्पर निमित्त से इन दोनों का परिणमन होता है तथापि निश्चय से जीव वर्णादि पुद्गल कर्म के गुणों को नहीं करता और कर्म भी अनन्त ज्ञानादि जीव के गुणों को नहीं करता। यद्यपि उपादान रूप से वे दोनों एक-दूसरे के गुणों को नहीं करते, तथापि कुम्हार व घड़े की भांति परस्पर निमित्त से उनके परिणाम होते हैं।'३८ आचार्य कुन्दकुन्द व उनके टीकाकारों ने जीव के भावों व पुद्गल के परिणामों में मात्र निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध की उद्घोषणा कर तथा कर्ता-कर्म सम्बन्ध का निषेध कर पुद्गल कर्मों के कर्तृत्व से जीव को मुक्त कर पूर्ण स्वतन्त्रता का रसास्वादन कराया है। ___आचार्य कुन्दकुन्द ने पुद्गलकर्मों के कर्तृत्व की मान्यता को और अधिक विश्लेषित करते हुए कहा है कि "आत्मा अनेक प्रकार के पुद्गल कर्मों का कर्ता व भोक्ता है, ऐसा कहना अज्ञानियों का अनादिकाल से प्रसिद्ध (रूढ़) व्यवहार है।''३९ जिस प्रकार कुम्हार को घड़े का कर्ता व भोक्ता कहना वास्तविकता न होकर अनादि का रूढ़ व्यवहार है, उसी प्रकार आत्मा को पुद्गल कर्म का कर्ता व भोक्ता कहना भी अनादि संसार का प्रसिद्ध व्यवहार है। लेकिन व्यवहारनय के इस मन्तव्य में दूषण है। कारण कि- "यदि आत्मा पुद्गल कर्म को करे और उसी को भोगे तो वह आत्मा अपनी व पुद्गलकर्म की दो क्रियाओं से अभिन्न ठहरे'' तथा जो आत्मा को (अपनी व पुद्गलकर्म की) दो क्रियाओं का कर्ता मानते हैं वे द्विक्रियावादी मिथ्यादृष्टि हैं। योगसार व पंचाध्यायी में भी यही मन्तव्य व्यक्त किया गया है- “यदि कर्म को चेतन और चेतन को कर्म का कर्ता माना जाये तो दोनों एक दूसरे के उपादान बन जाने के कारण कौन चेतन और कौन अचेतन है, यह बात सिद्ध ही न हो सकेगी।''४१ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्म - सिद्धान्त एवं वस्तुस्वातन्त्र्य कर्म का इस प्रकार आत्मा वास्तव में पुद्गल कर्म का अकर्ता है। उसे पुद्गल कर्ता कहना उपचार मात्र से है, जैसे- "योद्धाओं के द्वारा युद्ध किये जाने पर 'राजा युद्ध किया' ऐसा कहा जाता है, वह उपचार कथन है, वैसे ही जीव ने कर्म कियेऐसा उपचार से ही कहा जाता है । " ने १४२ FO ३५ यहाँ पर हमने आत्मा, पुद्गल कर्मों का अकर्ता कैसे है ? इस प्रश्न का तर्कपुरस्सर समाधान, आचार्यों के मन्तव्यों को उद्धृत करते हुए दिया है। आचार्यों ने जो कारण दिये हैं उसका सार निम्नांकित है (१) जीव व पुद्गल कर्मों में परस्पर निमित्त - नैमित्तिक सम्बन्ध है, कर्ता-कर्म सम्बन्ध नहीं है। क्योंकि जीव व कर्म परस्पर एक-दूसरे के गुणों के कर्ता नहीं होते । (२) जीव व पुद्गल कर्म दो भिन्न द्रव्य होने से उनमें व्याप्य व्यापक भाव का अभाव होने से कर्ता-कर्म सम्बन्ध नहीं होता । (३) यदि जीव को पुद्गलकर्म का कर्ता माना जाये तो द्विक्रियावादिता का प्रसंग उपस्थित होगा तथा दो द्रव्यों की भिन्नता सम्भव न हो सकेगी। (४) जीव को पुद्गल कर्मों का कर्ता कहना मात्र उपचार कथन है- अतः सिद्ध . हुआ कि अपने से भिन्न जीव जड़रूप पौगलिक कर्म का कर्ता नहीं है वह केवल अपने परिणाम का ही कर्ता है। निष्कर्ष उपरोक्त सम्पूर्ण विवेचन से यह बात भलीभाँति स्पष्ट हो जाती है कि जैनदर्शन परकर्तृत्व की मान्यता का जड़मूल से निषेधकर वस्तु की स्वतन्त्रता को सम्पूर्णता से प्रतिपादित करता है। जैनदर्शन सर्वप्रथम परम सत्ता ईश्वर के जगत्-कर्ता की अवधारणा को अस्वीकृत करते हुए कहता है कि विधि, स्रष्टा, विधाता, दैव, पुराकृत कर्म और ईश्वर ये सब कर्मरूपी ईश्वर के पर्यायवाचक शब्द हैं ४३ अर्थात् इनके सिवाय अन्य कोई लोक को बनाने वाला नहीं है। जैन दर्शन ईश्वरीय दासता से जगत् को मुक्त कर 'एक द्रव्य-दूसरे का कार्य करता है' इस प्रकार कर्तृत्व की मिथ्या बुद्धि का भी परिहार करते हुए, एक ही द्रव्य में कर्ता-कर्म सम्बन्ध की स्थिति को स्वीकार करता है और जीव अपने भिन्न परद्रव्यों घट, पट, रथ, शरीरादि, द्रव्यकर्मों का कर्ता मात्र उपचार से है, वास्तव में नहीं, इस मन्तव्य को बतलाकर स्वकर्तृत्व की अवधारणा का प्रतिपादन करता है। जैन दर्शन दार्शनिक जगत् में अपनी स्वतन्त्र वस्तु - व्यवस्था या विश्वव्यवस्था के प्रतिपादन में अद्वितीय वैशिष्ट्य स्थापित करता है। एक ओर जहाँ वह - Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ : श्रमण, वर्ष ५६, अंक १-६/जनवरी-जून २००५ विश्व-व्यवस्था की सत्ता का निषेध कर ईश्वरीय आधिपत्य से मुक्त कर कर्म को ही विधाता मानता है, वहीं दूसरी ओर वस्तु की परनिरपेक्ष स्वतन्त्रता की उद्घोषणा कर कर्म के दासत्व से भी जीव की सत्ता को उन्मुक्त करता है। सन्दर्भ: १. जैनेन्द्रसिद्धान्त कोश, क्षु. जिनेन्द्र वर्णी, भाग- २, पृ. २५,नई दिल्ली; १९९७. कर्मकारक जगत् प्रसिद्ध है। व्याकरण शास्त्र में कर्मकारक को कर्म कहा जाता है जिसे कर्ता अपनी क्रिया के द्वारा प्राप्त करना चाहता है। 'घटं करोति' में कर्मकारक 'कर्म' शब्द का अर्थ है। कुशल-अकुशल कर्म में पुण्य-पाप का अर्थ निहित है। उत्क्षेपण, अवक्षेपण आदि कर्म का क्रिया अर्थ विवक्षित है। वास्तव में 'कर्म' का शब्द मौलिक , अर्थ क्रिया ही है। किन्तु तीसरे प्रकार का कर्म अप्रसिद्ध है। केवल जैन सिद्धान्त ही उसका विशेष निरूपण करता है। . २. कर्मग्रहण योग्या: पुद्गला: सूक्ष्मा: न स्थूला: सर्वार्थसिद्धि, पूज्यपाद, पृ. ४०२, नई दिल्ली; १९५५ कीरई जीएण हेऊहिं जेणं तु भण्णाए कम्म। कर्मग्रन्थ, देवेन्द्रसूरि, भाग-१, गाथा १, आगरा: १९३९ द्रव्यकर्माणि जीवस्य पुद्गलात्मान्यनेकधा। भावकर्माणि चैतन्यविवर्तात्मनि भान्ति नुः। क्रोधादीनि स्ववेद्यानि कथंचिदभेदतः। आप्तपरीक्षा, विद्यानन्द, श्लोक ११३-११४, सरसावा; वि. स. २००६. सांख्यकारिका, ईश्वरकृष्ण, कारिका ६२, दिल्ली; १९७९ 6. Buddhists do not regard the Karma as Subtle Matter. Encyclopedia of Religion and Ethics, Vol.- VIII, P. 472. अंगुत्तरनिकाय, साभार- बौद्धदर्शन व अन्य भारतीयदर्शन, पृ. ४६३ 8. Studies in Jaina Philosophy, Nathmal Tatia, p. 228, PVRI, Banaras; 1951. ९. पंचास्तिकाय, कुन्दकुन्द, गाथा९, बम्बई, वि. स. १९७२. १०. पंचाध्यायी (पूर्वार्द्ध), गाथा १४३, कारंजा; १९३२. ११. वही, गाथा ८. Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२. १७. जयपुर, १९९६. १३. (i) कार्तिकेयानुप्रेक्षा, आ. कार्तिकेय, गाथा २२७ २२८, जयपुर, १९९६. (ii) स्वयंभूस्तोत्र, आ. समन्तभद्र, श्लोक २४, सरसावा; १९५१. १८. १४. (i) न्यायकुमुदचन्द्र, आ. प्रभाचंद्र, भाग १, पृ. ३७२-३७४ व ३७९, बंबई; प्रका. वर्ष (तिन) (ii) न्यायकुमुदचन्द्र परिशीलन, उदयचन्द, पृ. २१० २१४, मुजफ्फरनगर, २००१. १५. सर्वार्थसिद्धि, आ. पूज्यपाद, अध्याय ५, सूत्र ३०, नई दिल्ली; १९९८. १६. पंचाध्यायी (पूर्वार्द्ध) गाथा १३९. (i) पंचास्तिकाय, गाथा १०, (ii) तत्त्वार्थसूत्र, अध्याय ५, सूत्र ३८. स्याद्वादमञ्जरी, २३. १९. २०. २१. २२. २३. (i) पंचास्तिकाय, गाथा - १० (ii) तत्त्वार्थसूत्र, आ. उमास्वामी, अध्याय ४, सूत्र ३०, २४. कर्म - सिद्धान्त एवं वस्तुस्वातन्त्र्य (i) द्रव्यस्वभाव प्रकाशक नयचक्र, गाथा ३९. (ii) पंचास्तिकाय, गाथा १०. (i) गोम्मटसार ( जीवकाण्ड): आ. नेमिचंद्र सिद्धान्तचक्रवर्ती भाग - २, गाथा ५६१ की संस्कृत टीका, पृ० ८१०, नई दिल्ली; १९९७. (ii) द्रव्यस्वभाव प्रकाशक नयचक्र, गाथा ३५. : ३७ (i) सर्वार्थसिद्धि, अध्याय १, सूत्र ४ की टीका. (ii) आलापपद्धति, आ. देवसेन, संपा. व अनु. सिद्धान्ताचार्य पंडित कैलाशचंद शास्त्री, पृ० २१०, नई दिल्ली; १९७१. (i) द्रव्यसंग्रह, गाथा १७. (ii) पंचास्तिकाय, गाथा ८५ (i) लघुजैनसिद्धान्त-प्रवेश- रत्नमाला, प्रश्न ४०, पृ० १०, बुलन्दशहर । (ii) आलापद्धति, पृ० २१०. (i) द्रव्यसंग्रह, गाथा १८. (ii) सर्वार्थसिद्धि, अध्याय ५, सूत्र १७ की टीका. (iii) आलापपद्धति, पृ. २१०. Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ : श्रमण, वर्ष ५६, अंक १-६/जनवरी-जून २००५ २५. (i) पंचास्तिकाय, गाथा ९०-९१. (ii) आलापपद्धति, पृ. २१०. २६. (i) लघुजैनसिद्धान्त-प्रवेश-रत्नमाला, प्रश्न ७१, पृ. १४. (ii) आलापपद्धति, पृ. २१०. २७. अध्यात्मकमलमार्तण्ड, पृ. २१७. . द्वारा- जैनेन्द्रसिद्धान्त कोश, क्षु.जिनेन्द्रवर्णी, भाग- २, पृ. २४०, नई दिल्ली; १९९७. . २८. द्रव्यस्वभावप्रकाशक नयचक्र, गाथा १२. २९. आलापपद्धति, पृ. २२०. ३०. (6) पंचाध्यायी (पूर्वार्द्ध) गाथा ११७. (ii) तत्त्वार्थसूत्र, अध्याय ५, सूत्र ४२. ३१. (i) पंचास्तिकाय, गाथा ७. (ii) समयसार, गाथा १०३. ३२. (i) पंचाध्यायी (पूर्वार्द्ध) गाथा ५१-५२. (ii) वही ( उत्तरार्द्ध) गाथा १०१२-१०१३. ३३. पंचाध्यायी (पूर्वार्द्ध) गाथा ८९ व ११७. ३४. समयसार (आत्मख्याति टीका): आ. अमृतचन्द्र, जयपुर; १९८३. ३५. समयसार कलश, आ. अमृतचन्द्र, इंदौर; १९९४ निमित्त-नैमित्तक सम्बन्ध- जब उपादान स्वयं कार्य रूप परिणमित न हो, परन्तु कार्य की उत्पत्ति में अनुकूल होने पर जिस पर कारणपने का आरोप आता है उसे निमित्त कारण कहा जाता है। जब उपादान स्वयं कार्य रूप परिणमित होता है तब भाव या अभाव रूप किस उचित निमित्तकारण का उसके साथ सम्बन्ध है, उसका ज्ञान कराने के लिए उस कार्य को नैमित्तिक कहा जाता है। जैसे - मिट्टी से घट निर्माण में कुम्भकार निमित्तकारण है और घट रूप कार्य नैमित्तिक है। निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध में भी निमित्त-नैमित्तिक रूप कार्य का कर्ता नहीं होता, क्योंकि व्याप्य-व्यापक भाव के बिना कर्ता-कर्म सम्बन्ध घटित नहीं होता। ३६. समयसार, गाथा ८१-८१-८२. ३७. व्याप्य-व्यापक सम्बन्ध: जो वस्तु कार्य रूप परिणमित होती है वह व्यापक है, उपादान है तथा जो कार्य होता है वह व्याप्य है, उपादेय है। जैस- मिट्टी की Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्म-सिद्धान्त एवं वस्तुस्वातन्त्र्य : ३९ कलशरूप पर्याय व्याप्य है तथा उस पर्याय में मिट्टी व्यापक है कुम्हार नहीं। अत: कलश कर्म तथा मिट्टी उसकी कर्ता है, कुम्हार उसका कर्ता नहीं है क्योंकि मिट्टी की सर्व अवस्थाओं में स्वयं मिट्टी व्याप्त होती है। ३७. (i) समयसार, गाथा ८०-८१-८२- की आत्मख्याति टीका। (ii) पंचाध्यायी (पूर्वार्द्ध) श्लोक - ५७५-५७६ समयसार (तात्पर्यवृत्ति टीका) : आ० जयसेन, गाथा ८०-८१ की टीका, सोलापुर; २०००. ३९. समयसार, गाथा ८८. ४०. वही, गाथा ८५-८६. ४१. (i) योगसार : आ. अमितगति, अधिकार, २, गाथा ३०, वाराणसी; वी०नि०सं० - २४९५. (ii) पंचाध्यायी (पूर्वार्द्ध) श्लोक ५७४. ४२. समयसार, गाथा १०५-१०८. ४३. पद्मपुराण : रविषेण, सर्ग ४, श्लोक ३७. Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण, वर्ष ५६, अंक १.६ जनवरी-जून २००५ भारतीय दार्शनिक सन्दर्भ में जैन अचेतन द्रव्य डॉ. विनोद कुमार तिवारी* जैन परम्पराओं मे संसार की समस्त वस्तुओं को दो भागों में विभाजित किया गया है - जीव तथा अजीव अथवा चेतन और अचेतन। अचेतन द्रव्यों में पुदगल के अलावा देश और काल को भी शामिल किया गया है।' अजीवों में भी जो शरीर धारण करते हैं उन्हें अस्तिकाय तथा जो शरीर धारण नहीं करते उन्हें अनस्तिकाय अजीव कहा जाता है। अजीव द्रव्यों का विभाजन पांच समूहों में किया जाता है- धर्म, अधर्म, आकाश, पुद्गल और काल। इनमें से अन्तिम को छोड़ शेष को अस्तिकाय कहा गया है क्यों कि वे स्थान घेरते हैं, पर काल में चूंकि एक ही प्रदेश है, अत: वह अस्तिकाय नहीं है। अन्य द्रव्यों से अलग पुद्गल में रस, रूप, गंध और स्पर्श जैसे लक्षण पाये जाते हैं।३ धर्म, अधर्म और आकाश एक है, पर पुद्गल और जीव अनेक हैं। धर्म, अधर्म क्रिया रहित है, जबकि शेष दो में क्रिया है। काल में क्रिया नहीं है और इस कारण यह एक स्थान से दूसरे स्थान पर नहीं जा सकता। धर्म, अधर्म, आकाश और जीव में अनेक प्रदेश होते हैं, पर अणु में प्रदेश होता ही नहीं, अत: इसे अनादि या अमध्य भी कहा गया है। ये द्रव्य जीव, धर्म, काल एवं पुद्गल व्याप्त आकाश में स्वच्छन्द रूप से विचरण करते हैं। साधारणत: शाब्दिक रूप से धर्म और अधर्म का अर्थ पुण्य और पाप से लिया जाता है, पर जैन शब्दावली में धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय का विशेष अर्थों में प्रयोग किया गया है। धर्मास्तिकाय अजीव तत्त्व का वह भेद है, जो स्वयं क्रियारहित है और दूसरे में क्रिया उत्पन्न नहीं करता। पर इसके बावजूद वह क्रियाशील जीवों और पुद्गलों को उनकी क्रिया में सहायता अवश्य प्रदान करता है। इसका यह अर्थ कदापि नहीं कि जीव और पुद्गल की अपनी कोई गति नहीं है, बल्कि यह तो एक माध्यम है जिसके द्वारा गति पैदा होती है। जिस प्रकार विश्व की प्रत्येक वस्तु में परिणमन करने की शक्ति है, लेकिन फिर भी काल द्रव्य उसमें सहायक होता है जिसकी सहायता के बिना कोई वस्तु परिणमन नहीं कर सकती, उसी प्रकार धर्मास्तिकाय के बिना किसी में गति नहीं हो सकती। एक उदाहरण इसे समझने के पर्याप्त होगा। जैसे एक मछली पानी में तैरती है । यहां मछली के लिये पानी का रहना नितान्त आवश्यक है क्योंकि * रीडर व अध्यक्ष, इतिहास विभाग, यू०आर० कालेज, रोसड़ा, (समस्तीपुर) बिहार Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय दार्शनिक सन्दर्भ में जैन अचेतन द्रव्य 44 ४१ बिना पानी के वह तैर ही नहीं सकती। ठीक इसी तरह धर्म क्रियाशील जीव और पुद्गलों को उनकी क्रिया में एक सहायक के रूप में कार्य करता है। न तो धर्म स्वयं ही क्रियाशील है और न ही यह किसी में क्रिया उत्पन्न करना है, लेकिन यह उसकी क्रिया में एक आवश्यक आधार के रूप में कार्य करता है । अचेतन तत्त्व लोकाकाश में व्यापक रूप से रहता है पर यह रस, रूप, गंध, शब्द और स्पर्श से विहीन है । " यह परिणामी होकर भी नित्य है क्योंकि उत्पाद और व्यय होने के बाद भी इसका स्वरूप कायम रहता है । यह गति और परिणाम का कारण है। जीव और पुद्गल को स्थिर रखने में अधर्मास्तिकाय तत्त्व सहायक है।' इसकी तुलना उस बड़े पेड़ से की जा सकती है, जिसकी छाया में थके यात्री को आराम मिलता है।" यह अमूर्त, नित्य और लोकाकाश में व्याप्त है। धर्म और अधर्म दोनों जहां एक साथ लोकाकाश के प्रत्येक प्रदेश में रहतें हैं, वहीं दोनों नित्य, निराकार और गतिहीन हैं। यदि आधुनिक विज्ञान से धर्म और अधर्म की तुलना की जाए, तो इसे 'ईथर' तत्त्व और आकर्षण सिद्धान्त के सदृश माना जा सकता है। जिस प्रकार ईथर को अमूर्तिक, व्यापक और निष्क्रिय माना गया है, उसी प्रकार जैनियों ने धर्म द्रव्य को भी स्वीकार किया है। इसी प्रकार अधर्म द्रव्य को आइंस्टीन सिद्धान्त के अनुरूप माना गया है, जिसे सहायक कारण के रूप में स्वीकार किया गया है, मूल कर्ता के रूप में नहीं। १ १ जीव, धर्म, अधर्म, काल एवं पुद्गल को अपनी-अपनी स्थितियों के लिए जिस तत्त्व में स्थान की प्राप्ति हो जाती है, उसे जैन साहित्य में आकाशास्तिकाय तत्त्व कहा गया है। १२ उसका ज्ञान मात्र अनुभव से ही प्राप्त हो सकता है, क्योंकि यह अदृश्य है। अस्तिकाय द्रव्यों का विस्तार बिना आकाश के हो ही नहीं सकता। १३ आकाश के दो भेद बताये जाते हैं- लोकाकाश और अलोकाकाश। प्रथम आकाश का ही प्रतिरूप है, पर अलोकाकाश में गति का होना सम्भव नहीं है। १४ लोकाकाश में असंख्य और अलोकाकाश में अनन्त प्रदेश हैं । जहाँ प्रथम में जीव, पुद्गल, धर्म और अधर्म का निवास होता है, वहीं अलोकाकाश विश्व के प्रदेश से बाहर है। जैन विचारक लोकाकाश को सान्त मानते हैं और उसके आगे अनन्त आकाश मानते हैं, पर आइंस्टीन ने समस्त लोक को सान्त माना है और वे उससे आगे कुछ नहीं मानते । १५ 'पुद्गल' को जैन दर्शन के अन्तर्गत जड़ पदार्थ या वस्तु के नाम से जाना जाता है। इसकी परिभाषा देते हुए ऐसा विचार व्यक्त किया गया है कि 'जिस भौतिक द्रव्य का संयोजन और विभाजन हो सके, वही पुद्गल द्रव्य है।' इसी कारण पुद्गल को ऐसा द्रव्य माना गया है, जिसे जोड़कर हम बहुत बड़ा बना सकते हैं और उसे छोटेछोटे टुकड़ों में भी बांट सकते हैं। यह सीमित और मूर्त रूप है और इसमें आठ प्रकार Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ : श्रमण, वर्ष ५६, अंक १-६/जनवरी-जून २००५ के स्पर्श, पांच प्रकार के रस, दो प्रकार के गंध और पांच प्रकार के रूप पाये जाते हैं।१६ इसके रूप में जीव की प्रत्येक क्रिया अभिव्यक्त होती है। इसे यूं भी समझा जा सकता है कि इसके अणुओं से अनुभव की सारी वस्तुएं बनी हैं, जिसमें प्राणियों के शरीर, ज्ञानेन्द्रियां और मानस भी शामिल हैं। ऐसा विश्वास किया जाता है कि जीवों का निवास सभी अणुओं के अन्दर होता है और इस प्रकार सम्पूर्ण जगत् वस्तुत: जीवों से युक्त है। ये कर्म के रूप में भी होते हैं और इन्हीं कर्म पुद्गलों के सम्पर्क से जीव 'बद्ध' होता है। पुद्गल के 'सरल' या 'आणविक' और 'स्कन्ध' या 'यौगिक' दो रूप होते हैं। वस्तु के विभाजन की प्रक्रिया में एक ऐसा भी दौर आता है, जहां वस्तु का और विभाजन सम्भव नहीं होता और इसी अंश को 'अणु' कहा जाता है।१७ अनेक परमाणुओं के संगम से जो द्रव्य तैयार होता है, उसे स्कन्ध या संघात कहते हैं। सब प्रत्यक्ष योग्य वस्तुएं स्कंध या यौगिक हैं।१८ अणु या परमाणु की प्राप्ति स्कन्धों के विभाजन के फलस्वरूप ही होती है। यद्यपि परमाणु नित्य हैं तथापि स्कन्धों के टूटने से उनकी उत्पत्ति होती है। दो अणुओं के मेल से द्विप्रदेश और द्विप्रदेश तथा एक अणु को मिलाकर त्रिप्रदेश बनता है और इसी प्रकार बड़े एवं सूक्ष्म अनन्त प्रदेशी स्कन्ध तैयार होते हैं। आधुनिक विज्ञान में जिस अणु या ऐटम का वर्णन किया गया है, वे जैन शास्त्रों में वर्णित अणु की तरह नहीं हैं। जहां आधुनिक वैज्ञानिक 'अणु' का विभाजन हो सकता है, वहीं जैन दर्शन का अणु तो मूल कण है, जिसका अपना स्वयं का अस्तित्व है और उसमें किसी मिश्रण का प्रश्न ही नहीं होता जिसे विभाजित किया जा सके। शब्द, बन्ध, सूक्ष्मता, स्थूल, संस्थान, आकार, अंधकार, छाया, प्रकाश, और आतप ये सभी पुद्गल के परिणाम हैं।१९ जहां दूसरे दर्शन में शब्द को आकाश का गुण माना गया है, वहीं जैन विद्वानों ने इसे अलग मौलिक गुण के रूप में स्वीकार न करते हुए शब्द को स्कन्ध या आगन्तुक गुण बतलाया है।२° इसके प्रमाण में यह कहा जाता है कि यदि शब्द आकाश का गुण होता तो इसे मूर्तिक कर्णेन्द्रिय के द्वारा ग्रहण नहीं किया जा सकता था, क्योंकि अमूर्तिक आकाश का गुण - भी अमूर्तिक ही होता है और मूर्तिक को मूर्तिक इन्द्रिय नहीं जान सकती। वस्तु मात्र के परिवर्तन में सहायता प्रदान करने का कार्य काल द्रव्य का होता है। जैन दार्शनिक उमास्वाति ने द्रव्यों की वर्तना, परिणाम क्रिया, नवीनत्व या प्राचीनत्व 'काल' के कारण ही सम्भव माना है।२१ द्रव्यों के परिणाम और क्रियाशीलता की व्याख्या काल के द्वारा ही होती है। काल को एक ऐसा द्रव्य माना गया है, जिसे न तो हम देख सकते हैं, न उसकी आवाज सुन सकते हैं, न उसका स्पर्श कर सकते हैं और न उसकी गंध ही प्राप्त कर सकते हैं। इसीलिये काल के अस्तित्व का अनुभव प्रत्यक्ष के द्वारा सम्भव ही नहीं है। इसक लिए अनुमान का ही सहारा लेना पड़ता Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय दार्शनिक सन्दर्भ में जैन अचेतन द्रव्य : ४३ है। वस्तुओं की अवस्था में जो परिवर्तन होता है, उसकी व्याख्या के लिए काल को मानना पड़ता है। यह नित्य है, अत: पुद्गल सदैव गतिशील रहता है। व्यावहारिक दृष्टिकोण से काल को 'समय' के रूप में जाना जाता है, जिसका विभाजन आधुनिक काल में घण्टा, मिनट और सेकेण्ड के रूप में किया गया है। समय निश्चय काल का एक रूप है, पर जीव और पुद्गल की गति के द्वारा अभिव्यक्त होने के कारण 'परिणाम भव' कहलाता है। समय अस्थायी है, अत: इसे 'काल अण' भी कहा जाता है। चूंकि काल अणु मात्र प्रदेश को स्पष्ट करता है, अत: इसके काय नहीं होते। काल अणु परस्पर नहीं मिलते, यद्यपि ये समस्त लोकाकाश में भरे रहते हैं। निश्चय काल नित्य है और द्रव्यों के परिणाम में सहायक होता है। इन्हीं गणों के कारण जैन विद्वानों ने काल को दो वर्गों में बांटा है- पारमार्थिक या निश्चय काल तथा व्यावहारिक काल। जहाँ प्रथम नित्य और निराकार है, वहीं व्यावहारिक काल सांसारिक है जिसका प्रारम्भ एवं अन्त होता है।२२ गुणरत्न के आधार पर कुछ विद्वानों ने काल को स्वतंत्र द्रव्य न मानकर दूसरे द्रव्यों का ही एक पर्याय माना है। अखण्ड द्रव्य होने के कारण यह अस्तिकाय नहीं है, बल्कि यह अवयवों के बिना ही समस्त विश्व में व्याप्त रहता है।२३ उपरोक्त सभी द्रव्य अचेतन या अजीव हैं, अत: वे सुख-दुख की भावना से परे हैं। पुद्गल के अलावा दूसरे सभी अस्तिकाय द्रव्य असीमित आकार वाले हैं, जबकि पुद्गल में शुरू से ही रस, रूप, गंध तथा स्पर्श का अस्तित्व होता है। दूसरे दर्शन में व्यवहार काल को ही काल द्रव्य मान लिया गया है, जबकि जैनियों ने काल द्रव्य अणुरूप वस्तु को स्वीकार किया है। यह कालद्रव्य भी आकाश की तरह ही अमूर्तिक है, अन्तर इतना है कि आकाश अखण्ड है जबकि कालद्रव्य अनेक हैं।२४ इस प्रकार तुलनात्मक दृष्टिकोण से अजीव तत्त्व को जैन दर्शन में एक विशिष्ट स्थान दिया गया है और इसकी उपयोगिता इसके वैज्ञानिक तथ्यों के कारण अधिक परिलक्षित होती है। सन्दर्भ : १. आउट लाइन्स आफ इंडियन फिलॉसफी, एम० हिरियन्ना, पृ० १५८ आकाश का वह भाग, जिसमें एक परमाणु रह सके। तत्त्वार्थसूत्र, ५,१-४ भारतीय दर्शन, उमेश मिश्र, पृ० १११ द्रव्यसंग्रह, नेमिचन्द्र, १७ ६. तत्त्वार्थसूत्र, ३, ५, ६, ७ एवं १३ ७. पंचास्तिकाय, ८५ Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ : श्रमण, वर्ष ५६, अंक १-६/जनवरी-जून २००५ ८. नियमसार, ३० जैन फिलासफी, मोहनलाल मेहता, पृ० ७३ १०. पंचास्तिकाय, ८६ ११. कास्मोलॉजी ओल्ड एण्ड न्यू, घासीराम जैन, पृ० ४४ १२. पंचास्तिकाय, ९० १३. वर्धमान पुराण, XVI, ३१ १४. द्रव्यसंग्रह, १९ १५. कास्मोलॉजी ओल्ड एण्ड न्यू, घासीराम जैन, पृ० ५८ १६. तत्त्वार्थाधिगमसूत्र, ५२३ १७.. पंचास्तिकाय, ७७ १८. सर्वदर्शनसंग्रह, पृ० १६ . १९. द्रव्यसंग्रह, १६ २०. वही, ७१ २१. तत्त्वार्थसूत्र, ५.२२ २२. द्रव्यसंग्रह, २१ २३. सर्वदर्शनसंग्रह, ३५-३६ २४. सर्वार्थसिद्धि, पृ० १९१ Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत भाषा और राजशेखरकृत कर्पूरमञ्जरी में देशी शब्द श्रमण, वर्ष ५६, अंक १-६ जनवरी- जून २००५ डॉ० कमलेश कुमार जैन* णासिय- दोस- समूहं, भासिअणेगंतवाय - ललिअत्थं । पासिअ लोआलोअं, वंदामि जिणं महावीरं ॥ विश्व का मानव समुदाय आदिकाल से ही अपने भावों की अभिव्यक्ति के लिये ध्वनि का प्रयोग करता आ रहा है। बाद में यह ध्वनि बोली कहलाने लगी और कालान्तर में सभ्य समाज के द्वारा साहित्य संरचना के क्रम में भाषा के रूप में समादृत हुई। श्रद्धा पर आधारित धार्मिक सिद्धान्तों को कुछ समय के लिये गौण कर दिया जाये और सुप्रसिद्ध पाश्चात्य विद्वान डार्विन के इस सिद्धान्त को स्वीकार कर लिया जाये कि - 'मानव समुदाय का विकास बन्दर से हुआ है' अथवा 'मनुष्य के पूर्वज बन्दर थे' तो वस्तुस्थिति ऐसी ही प्रतीत होती है। मानव मात्र द्वारा आदिकाल से बोली जानी वाली विविध भारतीय भाषाओं के विकास-क्रम में संस्कृत को केन्द्र - बिन्दु मानकर यदि प्राकृत- भाषाओं के विकास पर विचार किया जाये तो प्राकृत भाषाओं के शब्द- समूह के तीन रूप स्पष्ट दिखलाई देते. - तत्सम शब्द, तद्भव शब्द और देश्य अथवा देशी शब्द | तत्सम शब्द वे हैं जिनकी संरचना संस्कृत शब्दों के समान होती है, यथासंसारदावानलदाहनीरं अथवा तुण्डं, कण्ठं, नीरं, तीरं आदि। इन शब्दों में किसी भी प्रकार का ध्वनि-विकार नहीं होता है, अपितु संस्कृत और प्राकृत- इन दोनों भाषाओं में सदृश प्रयोग होते हैं। तद्भव शब्द वे हैं जिनकी व्युत्पत्ति संस्कृत भाषा को आधार बनाकर की गयी हैं। यथा सिरिसिद्धराअ सच्चं साहसरसिक ति कित्तणं तुज्झ । कहमण्णहा मणं मह पडतमअणत्थमक्कमसि ।। * रीडर एवं अध्यक्ष, जैन-बौद्ध दर्शन विभाग, संस्कृतविद्या धर्मविज्ञान सङ्काय, • हि० वि०वि०, वाराणसी का Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ : श्रमण, वर्ष ५६, अंक १-६/जनवरी-जून २००५ (श्री सिद्धराज! सच्चं साहसरसिक! इति कीर्तनं तवं। कथमन्यथा मनः मम पतन्तमदनास्त्रमाक्रामसि।।) - वाग्भटालंकार, सिंहदेवगणि टीका, २/२ यहाँ इस गाथा में संस्कृत-ध्वनियों का ही प्राकृतीकरण किया गया है। अर्थात् संस्कृत शब्द-रूपों को वर्णागम, वर्णविकार, वर्णलोप और वर्णपरिवर्तन आदि के माध्यम से गंदला/विकृत करके शब्द-रूपों को प्रस्तुत किया गया है। धर्म का धम्म, चक्र का चक्क, कर्म का कम्म, पश्चात् का पच्छा, तस्मात् का तम्हा आर्य का अज्ज या आरिय आदि भी तद्भव शब्द रूप ही हैं। देश्य या देशी शब्द वे हैं, जिनमें संस्कृत भाषागत प्रकृति-प्रत्यय आदि की जोर-जबरदस्ती अथवा खींचातानी आदि नहीं चलती है। उनमें रूढ़िमात्र कारण होती है, यथा- कंदोट्ठ, छइल्ल, गलिबइल्ल आदि। ये शब्द तत्सम अथवा तद्भव शब्दों की भाँति न तो छान्दस् भाषा की तरह किसी पूर्ववर्ती बोली अथवा भाषा से संगृहीत हैं और न ही इनकी व्युत्पत्ति संस्कृत को आधार बनाकर की जा सकती है। ऐसे शब्द लोकभाषा में न केवल प्रयुक्त होते हैं, अपितु बोलचाल की भाषा को आभूषण की तरह सुशोभित भी करते हैं। देशी शब्द संस्कृत की किसी धातु या प्रत्यय से अथवा वर्णलोप, वर्णागम या वर्ण परिवर्तन से सिद्ध नहीं हैं। उदाहरण के लिये शरीर के लिये बोदि, निस्सार के लिये पोच्चड, चूहा के लिये ऊँदर, मिट्टी के ढेले के लिये डगलग, लड़का के लिये छोयर, कपड़ा के लिये पोत्त, कड़छी के लिये कडुच्छिका, खिड़की के लिये खडक्किका, छलनी के लिये चालिणि, खटमल के लिये ढिंकण, दाड़ी के लिये दाढिया, बैल के लिये बइल्ल, बाप के लिये बप्प, बेटी के लिये बेट्टिया, चावल के आटा के लिये रोट्ट, बरामदा के लिये बरंडग आदि देशी शब्दों का उल्लेख किया जा सकता है। (प्राकृत साहित्य का इतिहास पृष्ठ १०-११) आचार्य हेमचन्द्र ने अपने देशीनाममाला नामक ग्रन्थ में कुल ७८३ गाथाओं के माध्यम से ३९७८ शब्दों का संग्रह किया है, जिनमें तत्सम १००, तद्भव १८५०, जिनकी खींच-तानकर व्युत्पत्ति की जाये ऐसे संशयमूलक ५२८ और अव्युत्पादित प्राकृत अर्थात् देशी शब्द १५०० हैं। तात्पर्य यह कि आचार्य हेमचन्द्र ने विशुद्ध १५०० ऐसे देशी शब्दों का संकलन किया है, जिनकी कोई भी व्युत्पत्ति संस्कृत को आधार बनाकर नहीं की जा सकती है। यही देशी शब्द प्राकृत भाषा की जान हैं और जो अपने प्राकृत इस नाम को सार्थक करते हैं। ये देशी शब्द सीधे-सीधे प्राचीनकाल से अद्यावधि जन सामान्य की भाषा प्राकृत भाषा से संगृहीत हैं और इन पर संस्कृत वैयाकरणों का किसी भी प्रकार का कोई जोर-जुल्म नहीं चल सका। Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत भाषा और राजशेखरकृत कर्पूरमञ्जरी में देशी शब्द : ४७ हाँ! इतना अवश्य है कि प्राकृत भाषा का व्याकरण के माध्यम से नियमन करने वाले संस्कृतज्ञ प्राकृत वैयाकरणों ने इन शब्दों की सिद्धि आदेश मानकर की है। इस समस्या के समाधान के लिये इनके पास आदेश मानकर प्राकृत-शब्द रूप-सिद्ध करने के अतिरिक्त कोई अन्य युक्ति थी भी नहीं। ___ वस्तुत: प्राकृत भाषा के शब्द भण्डार में जिन तीन प्रकारों का प्रारम्भ में उल्लेख किया गया है, वे प्राकृत भाषा में त्रिस्तरीय प्राकृतों के प्रतिनिधि हैं। भाषा वैज्ञानिकों के अनुसार छान्दस् भाषा और प्रथम स्तरीय प्राकृत भाषा में कुछ शब्द समान रूप से पाये जाते हैं। जिससे यह बात एकदम स्पष्ट है कि छान्दस् भाषा और प्रथम स्तरीय प्राकृत भाषा का स्रोत इन दोनों से पूर्ववर्ती कोई अन्य ही जनबोली है, जिससे दोनों भाषाओं में समान रूप से शब्द संगृहीत हुए हैं। डॉ० रिचर्ड पिशल ने ऐसे अनेक शब्दों का उल्लेख किया है। (प्राकृत भाषाओं का व्याकरण, पैरा ६, पृष्ठ ८-९) द्वितीय स्तरीय प्राकृत भाषा के शब्द तद्भव-शब्दसमूह के अन्तर्गत स्वीकृत हैं। क्योंकि इन शब्दों का अधिकांश प्रयोग संस्कृत नाटकों में हुआ है। संस्कृत नाटक वस्तुतः संस्कृतज्ञों द्वारा संस्कृत भाषा में निबद्ध नाटक हैं और उनके लेखक विशुद्ध रूप से संस्कृत के प्रति गहरी निष्ठा रखने वाले हैं। वे संस्कृत को श्रेष्ठ किंवा आभिजात्य वर्ग विशेष की भाषा एवं प्राकृत भाषा को निम्न वर्ग की भाषा कहकर संस्कृत की तुलना में प्राकृत को हीन दृष्टि से देखते हैं। किन्तु उनकी मजबूरी यह . है कि संस्कृत नाटकों का यह नियम है कि उसके स्त्रीपात्र एवं निम्नवर्ग के पुरुषपात्र भी प्राकृतभाषा में ही बोलेंगे। अत: संस्कृत नाटकों के लेखन के समय स्त्रीपात्रों एवं निम्न पुरुषपात्रों के संवाद भी पहले संस्कृत में सोचे गये, तदनु उन पात्रों के संवादों की संस्कृत भाषा को गंदला करके/विकृत करके उनका प्राकृत रूप तैयार किया गया। इसलिये इस द्वितीय स्तरीय प्राकृत का जो स्वरूप बना वह तद्रव अर्थात् संस्कृत से उद्भभूत हुआ और ये शब्द संस्कृत से प्राकृत में कैसे परिवर्तित हो गये, इसे प्राकृत व्याकरण के माध्यम से बतलाया गया है। यहाँ यह ज्ञातव्य है कि लक्ष्य ग्रन्थों के आधार पर ही लक्षण-ग्रन्थों की रचना होती है, अत: भविष्य में जो विद्वान् संस्कृत नाटकों की रचना करें, वे अपने स्त्रीपात्रों एवं निम्न पुरुषपात्रों के मुख से बोले जाने वाले प्राकृत भाषागत संवादों को तैयार करने के लिये इसी पद्धति को अपनायें। _आचार्य हेमचन्द्र आदि संस्कृतज्ञ वैयाकरणों ने 'प्राकृत' शब्द की व्युत्पत्ति करते हुये जो यह लिखा है कि- प्रकृति: संस्कृतं, तत्र भवं तत आगतं वा प्राकृतम् (हेमचन्द्र कृत प्राकृत-व्याकरण), प्रकृति: संस्कृतं तत्र भवं प्राकृतमुच्यते (प्राकृतसर्वस्व कार), प्रकृति: संस्कृतं तत्र भवत्वात् प्राकृतं स्मृतम् (प्राकृत-चन्द्रिकाकार), प्रकृते: Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ : श्रमण, वर्ष ५६, अंक १-६ / जनवरी - जून २००५ संस्कृतायास्तु विकृतिः प्राकृती मता (षड् भाषा - चन्द्रिकाकार), प्राकृतस्य तु सर्वमेव संस्कृतं योनि (प्राकृत- संजीवनीकार) और प्रकृतेः संस्कृतादागतं प्रकृतम् (वाग्भटालङ्कार- टीकाकार) आदि- ये सभी कथन संस्कृत को गंदला / विकृत करके बनी प्राकृत को ही अभिव्यक्त करते हैं। उपर्युक्त सभी संस्कृतज्ञ प्राकृत- वैयाकरणों ने सर्वसम्मति से प्रकृति का अर्थ संस्कृत किया है, जो सर्वथा अनुचित है। क्योंकि उपलब्ध संस्कृत कोशों में मुझे 'प्रकृति' शब्द का अर्थ संस्कृत देखने को नहीं मिला है। वास्तविकता यह है कि जनबोली प्राकृत में प्रचलित शब्दों को व्यवस्थित / संस्कारित करके जो भाषा तैयार हुई वह संस्कृत कहलाई । अपने इस कथन की पुष्टि के लिये मैं अपनी ओर से कुछ न कहते हुये केवल महाकवि रूद्रटकृत काव्यालङ्कार के एक पद्य की श्वेताम्बर जैन विद्वान् नमिसाधुकृत टीका (वि० सं० १९२५) को उद्धृत करना चाहूंगा। वे लिखते हैं कि - प्राकृतेति। सकलजगज्जन्तूनां व्याकरणादिभिरनादित-संस्कारः सहजो वचनव्यापारः प्रकृतिः । तत्र भवं सैव वा प्राकृतम् । ... प्राक् पर्व कृतं प्राकृतं बालमहिलादिसुबोधं सकलभाषानिबन्धनभूतं वचनमुच्यते । मेघनिर्मुक्तजलमिवैकस्वरूपं तदेव च देशविशेषात् संस्कार करणाच्च समासादित विशेषं सत्संस्कृताद्युत्तरविभेदानाप्नोति । अतएव शास्त्रकृता प्राकृतमादौ निर्दिष्टं तदनु संस्कृतादीनि । पाणिन्यादिव्याकरणोदितशब्दलक्षणेन संस्करणात् संस्कृतमुच्यते । - काव्यालंकार, रूद्रट २/२, पृष्ट १३ अर्थात् संसार के समस्त प्राणियों का व्याकरणादि संस्कार से रहित सहज वचन-व्याकरण प्रकृति है और उससे होने वाली अथवा वही प्राकृत है। 'प्राकृत' शब्द दो पदों से बना है- प्राक् + कृत । जिसका अर्थ है- पहले किया गया। बालकों और महिलाओं के लिये यह सहज है तथा समस्त भाषाओं का मूल (कारणभूत) है। यह प्राकृत मेघनिर्मित जल की भांति पहले एक रूप है, पुन: वही प्राकृत देश अथवा क्षेत्र विशेष और संस्कार विशेष के कारण भेद को प्राप्त करती हुई संस्कृत आदि उत्तर भेदों को प्राप्त होती है । इसीलिये शास्त्रकार रूद्रट ने पहले प्राकृत का निर्देश किया है और तत्पश्चात् संस्कृत आदि का । पाणिनी आदि व्याकरणों के नियमानुसार संस्कार किये जाने के कारण वही प्राकृत संस्कृत कहलाती है। तृतीय स्तरीय भाषा वह है जो प्रादेशिक भाषाओं से गृहीत शब्दों से निष्पन्न है। ये शब्द व्याकरण से अनिष्पन्न हैं और वस्तुतः ऐसे देशी शब्द जिनका सीधा सम्बन्ध विभिन्न प्रादेशिक भाषाओं से जुड़ा हुआ हो, वे ही प्राकृत भाषा के जीवनाधायक तत्त्व हैं। Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत भाषा और राजशेखरकृत कर्पूरमञ्जरी में देशी शब्द : ४९ महाकवि राजशेखर ने अपनी कर्पूरमञ्जरी में ऐसे देशी शब्दों का विपुल मात्रा में प्रयोग कर प्राकृत भाषा को उस उच्च शिखर पर प्रतिष्ठित किया है, जिसकी वह अधिकारिणी है और भविष्य में रहेगी। महाकवि राजशेखर यद्यपि एक बहुश्रुत और प्रतिष्ठित संस्कृतज्ञ थे, किन्तु जमीन से जुड़े होने के कारण वे जन-जन के हृदय सम्राट भी थे। अत: उन्होंने उसी जनभाषा में कर्पूरमञ्जरी की रचना करके उभयभाषा चक्रवर्ती जैसे गरिमामय पद को स्वयं प्राप्त कर लिया। कर्पूरमञ्जरी एक सट्टक है। यह प्राकृत भाषा में लिखित नाट्य काव्य है। इसकी रचना में महाकवि राजशेखर ने पूर्वोक्त त्रिस्तरीय प्राकृत का प्रयोग किया है। इस त्रिस्तरीय प्राकृत के अन्तर्गत उन्होंने देशी शब्दों का अनेक स्थलों पर प्रचुर मात्रा में प्रयोग करके एक ऐसी मन्दाकिनी प्रवाहित की है, जो जन सामान्य को आनन्दित करने में सम्यक्तया समर्थ है। कर्पूरमञ्जरी में समागत कतिपय देशी शब्दों की छटा यहाँ द्रष्टव्य है - छइल्लप्पिया : महाकवि राजशेखर ने कर्पूरमञ्जरी के 'भदं भोदु ...' आदि मङ्गलाचरण में 'छइल्लप्पिया' शब्द का प्रयोग किया है, जिसकी संस्कृतच्छाया विद्वानों ने 'विदग्धप्रिय' की है। 'छइल्ल' शब्द संस्कृत व्याकरण से निष्पन्न नहीं होता है, अत: यह शब्द विशुद्ध रूप से देशी शब्द है। आज भी किसी चतुर व्यक्ति के सन्दर्भ में छइल्ल के विकसित रूप छैला शब्द का प्रयोग किया जाता है। १/१, १/५ . संघाडी: यह शब्द युगल के अर्थ में प्रयुक्त देशी शब्द है। इसका अर्थ समागम भी होता है। कर्पूरमञ्जरी के प्रारम्भ में सूत्रधार कहता है कि शिव और पार्वती का समागम आप लोगों को सुख प्रदान करे। १/३ हलबोलो : यह शब्द देशी है और कोलाहल के अर्थ में प्रयुक्त होता है। शोर-शराबा होने पर बुन्देलखण्डी भाषा में कहा जाता है कि - हल्ला हो रहा है। किसी कार्य का विरोध करने के लिये लोगों द्वारा समूह बनाकर आज भी हल्ला बोला जाता है। राजशेखर ने कर्पूरमञ्जरी में नान्दीपाठ के अनन्तर वाद्यों की सफाई के क्रम में होने वाले शोरगुल के लिये हलबोलो शब्द का प्रयोग किया है। १/४ Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० : श्रमण, वर्ष ५६, अंक १-६/जनवरी-जून २००५ प्रात:काल प्रशंसात्मक वाक्यों को जोर से बोलने वाले चरणों के लिये सुप्रसिद्ध कवयित्री श्रीमती सुभद्राकुमारी चौहान ने अपनी एक रचना में हलबोलो शब्द का प्रयोग किया है। बुन्देले हलबोलों के मुख हमने सुनी कहानी थी। खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।। पाडीसिद्धीएँ : यह देशी शब्द प्रतिस्पर्धा के अर्थ में प्रयुक्त होता है। यह तृतीया एक वचन का रूप है और इसकी संस्कृतच्छाया प्रतिस्पर्धया की गई है। कर्पूरमञ्जरी में महाकवि राजशेखर की प्रशंसा करते हुये उन्हें चन्द्रमा का प्रतिस्पर्धी कहा है। यह देशी शब्द कर्पूरमञ्जरी में अन्य अनेक स्थलों पर भी प्रयुक्त हुआ है। १/९, १/१९, २/१० • ढिल्लाअरा : यह देशी शब्द शिथिल आदर अथवा शिथिल रुचि के अर्थ में प्रयुक्त है। विद्वानों ने इसकी संस्कृतच्छाया शिथिलादरा: की है। वस्तुत: ढिल्ल का अर्थ ढीला या कमजोर है। संस्कृत शब्द शिथिल और देशी शब्द ढिल्ल में शब्द-संरचना की दृष्टि से कोई साम्य नहीं है। कर्पूरमञ्जरी में राजा चन्द्रपाल शिशिर ऋतु के बीत जाने पर बसन्त ऋतु के आगमन की सूचना देता हुआ कहता है कि वसन्तागम के कारण युवतियाँ शृङ्गार के प्रति शिथिल हो गईं हैं अर्थात् शृङ्गार करने में युवतियाँ ढिलाई कर रही हैं। १/१२ छोल्लंति, छल्लंति : यह देशी शब्द विकसित होने या चमकने के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। विद्वानों ने इसकी संस्कृतच्छाया स्फुरन्ति की है। कर्पूरमञ्जरी में देवी विभ्रमलेखा राजा को बधाई देती हुई कहती है कि शीत ऋतु के बीत जाने के कारण दाँत रूपी रत्न चमकने लगे हैं। १/१४ भसलं : यह देशी शब्द भ्रमर/भौंरा के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। कर्पूरमञ्जरी में द्वितीय वैतालिक टेसू के पुष्प पर बैठे भ्रमर को लक्ष्य करके कह रहा है कि काले अधोभाग वाला टेसू पुष्प ऐसा प्रतीत हो रहा है जैसे दोनों ओर अर्थात् दोनों दिशाओं से भ्रमर उसका पान कर रहा हो। १२/१५ कङ्कोली : यह देशी शब्द अशोकवृक्ष के अर्थ में प्रयुक्त है । कहीं-कहीं कङ्कोली का अर्थ काली मिर्च के वृक्ष के लिये भी प्रयुक्त हुआ है । कर्पूरमञ्जरी में देवी Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत भाषा और राजशेखरकृत कर्पूरमञ्जरी में देशी शब्द : ५१ विभ्रमलेखा मलयानिल बहने की सूचना देते हुए कहती है कि- मलयानिल के बहने से कङ्कोली का वृक्ष समूह हिल रहा है । १/१६ निप्पट : यह देशी शब्द अत्यधिक के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है । जो व्यक्ति अत्यधिक अशिष्ट होता है उसे बुन्देलखण्डी भाषा में निपट गंवार कहते हैं । कर्पूरमञ्जरी में निप्पट शब्द का प्रयोग मलयानिल बहने के प्रसंग में किया गया है। देवी विभ्रमलेखा कहती है कि यह मलयानिल पान की लताओं को अधिक नचानेवाली है ।१/१६ परपुत्तविट्टालिणि : देश विशेष में बोली जाने वाली यह एक प्रकार की गाली है, जो व्यभिचारिणी स्त्री के अर्थ में प्रयुक्त होती है । इसका सीधा अर्थ है- दूसरे के पुत्रों को विगाडने वाली। गाली के अर्थ में बिगडाल शब्द का प्रयोग जनभाषा में विशेषकर बुन्देलखण्डी भाषा में आज भी होता है । कर्पूरमञ्जरी में विदूषक क्रोध पूर्वक चेटी को 'परपुत्तविट्टालिणि' ऐसा सम्बोधन देता है ।१/१७ टेण्टाकराले : यह देशी शब्द गाली के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है । टेण्टा का अर्थ है-द्यूतस्थान और कराल का अर्थ है विकसित करना । कर्पूरमञ्जरी में विदूषक चेटी को सम्बोधित करते हुए टेण्टाकराले शब्द का प्रयोग करता है। यहां टेण्टाकराले का शब्द अर्थ है- जुआ खिलानीवाली ।१/१७, १/१९ ठेराए : यह देशी शब्द टेढी आंख वाली स्त्री के लिये प्रयुक्त है । कर्पूरमञ्जरी में इसका प्रयोग विचक्षणा द्वारा विदूषक के काव्य की उपमा के लिये किया गया है। विचक्षणा विदूषक से कहना चाहती है कि तुम्हारी कविता तिरछी आंखवाली स्त्री के समान है अर्थात् दुष्ट है ।१/१९ साडोलिया : यह देशी शब्द साडी के अर्थ में प्रयुक्त है। विचक्षणा हास-परिहास के क्रम में विदूषक से कहती है कि-तहिं गच्छ जहिं मे मादाए पढम साडोलिया गदा-अर्थात् तुम वहां जाओ, जहां मेरी माता की पहली साडी गयी है । १/१९ सोहंजणो: यह देशी शब्द सहजन अर्थात् मुनगा के लिये प्रयुक्त हुआ है । कर्पूरमञ्जरी में विदूषक विचक्षणा के लिये कहता है कि- ता मह महबंभमणस्स भणिदेण तं Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ : श्रमण, वर्ष ५६, अंक १- ६ / जनवरी - जून २००५ तुमं लह जं फगुग्णसमये सोहंजणो जणादो लहेदि - अर्थात् तुम्हें मुझ महाब्राह्मण के वचन से वह प्राप्त हो, जो फाल्गुन मास में सहजन को लोगों से प्राप्त होता है। वस्तुतः फाल्गुन मास में लोग सहजन वृक्ष की डालों को तोड़ डालते हैं |१/१९ गलिबइल्लो : यह देशी शब्द गरयार बैल के लिये प्रयुक्त हुआ है। कर्पूरमञ्जरी में विदूषक कहता है कि- ता यह महबंभणस्स भणिदेण तं तुमं लह जं पामराहिंतो गलिबइल्लो लहेदि । अर्थात् मुझ ब्राह्मण के वचन से तुम्हें वह प्राप्त हो, जो पामरों द्वारा गरयार बैल को प्राप्त होता है। वस्तुतः गरयार बैल की पिटाई होती है अथवा उसकी नाक छेद दी जाती है। १/१९ घल्लिस्सं : यह देशी शब्द फेंकने के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। बुन्देलखण्डी भाषा में कहते हैं कि अभी एक थपाड़ा घलेगा। कर्पूरमञ्जरी में विचक्षणा विदूषक को लक्ष्य करके कहती है कि - उत्तरासाठा पुरस्सर णक्खत्त - णामधेअं अंगजुअलं उप्पाडिअ घलिस्सं । अर्थात् उत्तराषाढ के पश्चात् आनेवाले नक्षत्र (श्रवण) के नाम पर जो दोनों अङ्ग अर्थात् कान हैं उन्हें उखाड़ फेकूंगी । टप्परकण्णा : यह देशी शब्द सूप के समान बड़े कानवाली के अर्थ में प्रयुक्त है | बुन्देलखण्डी भाषा में भी टपरा शब्द का प्रयोग बड़े के अर्थ में होता है - जैसे टपरा जैसे कान । कर्पूरमञ्जरी में विदूषक कपिंजल विचक्षणा से नाराज होकर चला जाता है और नेपथ्य से कहता है कि एसा वा दुट्ठदासी लम्बकुच्चं पडिसीसअं देइ मह ठाणे कीरदु । अर्थात् इसी दुष्ट दासी को लम्बी डाड़ी, कनटोप और मुखौटे से सजाकर मेरे स्थान पर रख लें। १/१९ कडिल्लं : यह देशी शब्द कटिवस्त्र के लिये प्रयुक्त है। विद्वानों ने कडिल्लं की संस्कृतच्छाया कटिवस्त्रम् की है। कर्पूरमञ्जरी में भैरवानन्द के द्वारा प्रस्तुत सद्य: स्नाता नायिका को देखकर राजा चन्द्रपाल ने नायिका के वर्णन प्रसङ्ग में 'कडिल्ल' शब्द का प्रयोग किया है । १/२६ चंगस्स : यह देशी शब्द सुन्दर के अर्थ में प्रयक्त हुआ है। विद्वानों ने इसकी संस्कृतच्छाया सुन्दरस्य की है। बुन्देलखण्डी भाषा में भी चंग शब्द का प्रयोग स्वस्थ / सुन्दर के अर्थ में होता है । कर्पूरमञ्जरी में राजा चन्द्रपाल नायिका की प्रशंसा करते हुये कहता है कि- णिसग्गचंगस्स ण माणुसस्स सोहा समुम्मीलदि भूषणेहिं । अर्थात् Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत भाषा और राजशेखरकृत कर्पूरमञ्जरी में देशी शब्द : ५३ स्वाभाविक रूप से सुन्दर मनुष्य की शोभा भूषणों से नहीं होती है। आगे भी 'अंगं चंगं...' प्राकृत गाथा में इसका प्रयोग हुआ है। १/३०, १/३२ सिहिण: यह देशी शब्द स्तन के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। विद्वानों ने सिहिण की संस्कृतच्छाया स्तन की है। कर्पूरमञ्जरी में राजा चन्द्रपाल नायिका के सौन्दर्य को रेखाङ्कित करते हुये कहता है कि- तहा सिहिणतुंगिमा जह णिएइ णाहि ण हु। अर्थात् स्तनों की ऊँचाई इतनी है कि वह अपनी नाभि नहीं देख सकती ।१/३३ बोल्लम्मि : यह देशी शब्द वार्तालाप के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। विद्वानों ने इसकी संस्कृतच्छाया वचने की है। बुन्देलखण्डी भाषा में नायिका का वर्णन करते हुये राजा चन्द्रपाल सोल्लास कहता है कि- बोल्लम्मि वट्टइ। अर्थात् बातचीत में वह बनी रहती है। २/४ तरट्टी: यह देशी शब्द प्रगल्भा के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। विद्वानों ने तरट्टी की संस्कृतच्छाया प्रगल्भा की है। कर्पूरमञ्जरी में राजा चन्द्रपाल ने इसे तरुणी नायिका के विशेषण के रूप में प्रयुक्त किया है।२/४ भक्करकालो : यह देशी शब्द परिहास काल के लिये प्रयुक्त हुआ है। विद्वानों ने इसकी संस्कृतच्छाया बर्करकाल की है। कर्पूरमञ्जरी में विचक्षणा विदूषक से कहती है किअण्णो बक्करकालो, अण्णे कज्जविआरकालो। अर्थात् परिहास काल अन्य है और कार्य-विचार का समय अन्य होता है।१/६ णहल्लबहिणिआए : यहाँ 'महल्ल' शब्द देशी है और यह बड़े के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। कर्पूरमञ्जरी में यह विचक्षणा के द्वारा बड़ी बहिन के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। २/९ टिक्किदा : यह देशी शब्द तिलक लगाने के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। विद्वानों ने इसकी संस्कृतच्छाया टीकिता की है। बुन्देलखण्डी भाषा में टीका लगाना विपुल मात्रा में प्रचलित है। कर्पूरमञ्जरी में नायिका को सजाने के बाद विचक्षणा कहती है कि- देव! मंडिदा टिक्किदा भूसिता तोसिदा च। अर्थात् हे स्वामिन! मैंने नायिका को सजाया, तिलक लगाया, आभूषण पहनाया तथा सन्तुष्ट किया। २/११ Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ : श्रमण, वर्ष ५६, अंक १-६/जनवरी-जून २००५ कंचीमरठ्ठो : यह देशी शब्द करधनी के अर्थ यें प्रयुक्त है। विद्वानों ने इसकी संस्कृतच्छाया काच्याडम्बरो की है। कर्परमञ्जरी में विदूषक यह बतला रहा है कि कैसी युवती के शरीर पर कौन सा आभूषण अच्छा लगता है। उसी क्रम में वह कहता है किचक्काआरे रमणफलए को वि कंचीमरट्ठो। अर्थात् गोलाकार जघन प्रदेश/ नितम्ब स्थल पर अनिर्वचनीय शोभा वाली करधनी अच्छी लगती है। २/२३ यहाँ मैंने राजशेखरकृत कर्पूरमञ्जरी से लगभग दो दर्जन से अधिक देशी शब्दों का चयनकर उन पर संक्षिप्त प्रकाश डालने का प्रयास किया है। वैसे कर्पूरमञ्जरी में और भी अन्य अनेक देशी शब्दों का प्रयोग हुआ है, जिनकी सारिणी इस प्रकार है। देशी शब्द सस्कृतच्छाया कर्पूरमञ्जरी | देशीनाममाला का सन्दर्भ अर्थ वक्ता ओलग्गविआ दासी बनकर विचक्षणा २/२८ पृष्ठ १४९ बोलेइ अतिवाहयति बिताती है विचक्षणा २/२९ पृष्ठ १४९ २/३३ पृष्ठ १५० पब्भारपीडि प्राग्भार . ६/६ अत्यन्त भार से पीड़ित पीडितम् विदूषक विदूषक विदूषक हक्कारइ आह्वयति बुलाता है २/३३ पृष्ठ १५० पुक्कारइ चक्कलं वर्तुलम् गोलाकार विदूषक ३/२० २/३४ पृष्ठ १५० हिंदोलण हिन्दोलन हिंडोला विदूषक ८/७६ २/३४ पृष्ठ १५० हक्कारिऊण आकार्य बुलाकर विदूषक २/३६ पृष्ठ १५० भसलकुलाणं भ्रमरकुलानाम् भ्रमरसमूहों का राजा ६/१०१ २/४४ पृष्ठ १५३ कंदोटेण इन्दीवरेण नीलकमल से राजा २/९ ३/३ पृष्ठ १५५ Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत भाषा और राजशेखरकृत कर्पूरमञ्जरी में देशी शब्द : ५५ देशी शब्द सस्कृतच्छाया | अर्थ वक्ता कर्पूरमञ्जरी | देशीनाममाला का सन्दर्भ का सन्दर्भ ठक्कुरो राजा राजा विदूषक ३/७ पृष्ठ १५७ एक्केक्कअस्स | एकैकस्य परस्पर राजा १/१४५ ३/१० पृष्ठ १५७ णिअंसण निवसन वस्त्र राजा ३/१५ पृष्ठ १५८ सिहिणेहिं स्तनैः स्तनों से राजा ८/३१ ३/१६ पृष्ठ १५८ रिछोली रचना विदूषक ७/७ ३/२० पृष्ठ १५९ थक्कंतु तिष्ठन्तु विदूषक ३/२० पृष्ठ १५९ खिडिक्किआ खिडिक्किका खिड़की विदूषक ३/२० ७/७१ पृष्ठ १५९ मरट्ठो गर्वः अभिमान कुरिङ्गका ६/२० ३/२० पृष्ठ १६० विशाल ७/२९ राजा ८/३१ ववृत्तणं वृद्धत्वम् | राजा ४/२ पृष्ठ १६२ सिहिणपरिसरे - स्तनपरिसरे स्तनों के ऊपर पृष्ठ १६३ कर्पूरमञ्जरी में उपर्युक्त देशी शब्दों के अतिरिक्त और भी अनेक देशी शब्दों का प्रयोग हुआ है, जिनकी शोध-खोज विद्वानों द्वारा अपेक्षित है। मैंने तो यहाँ कुछ देशी शब्दों का मात्र दिग्दर्शन कराने का लघु प्रयास किया है। मेरे इस लेखन से जनबोली प्राकृत के यथार्थ स्वरूप पर प्रकाश पड़ेगा और संस्कृत भाषा की सहोदरा के रूप में इसे प्रतिष्ठा प्राप्त होगी, ऐसा मेरा विश्वास है। सन्दर्भ: १. एन इन्ट्रोडक्शन टू कर्पूरमञ्जरी, आर०पी० पोद्दार, प्रका० - रिसर्च इन्स्टीट्यूट आफ प्राकृत, जैनोलॉजी एण्ड अहिंसा, वैशाली (बिहार),सन् १९७४ (मूल पाठ पृष्ठ ३५से १६७) Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ : श्रमण, वर्ष ५६, अंक १-६/जनवरी-जून २००५ २. कर्पूरमञ्जरी, सम्पादन एवं हिन्दी अनुवाद- डॉ० जयकुमार जैन, प्रका० - ज्ञान प्रकाशन, सुभाष बाजार, मेरठ-२५०००२. प्राकृत साहित्य का इतिहास, लेखक- डॉ० जगदीशचन्द्र जैन, प्रका०-चौखम्बा विद्याभवन, वाराणसी, द्वितीय संस्करण, सन् १९८५. प्राकृत भाषाओं का व्याकरण, रिसर्ड पिशल, अनुवादक- डॉ० हेमचन्द्र जोशी, प्रका० - बिहार राष्ट्रभाषा परिषद्, पटना-३. वाग्भटालङ्कार (सिंहदेवगणिकृत संस्कृत टीका सहित), हिन्दी टीकाकार- डॉ० सत्यव्रत सिंह, प्रका० - चौखम्बा विद्या भवन, चौक वाराणसी-१, सन् १९५७ काव्यालङ्कार (रूद्रट), श्री नमिसाधुकृत संस्कृत टीका सहित, प्रका०- मोतीलाल बनारसीदास, बंगलोरोड, जवाहरनगर, दिल्ली-७, संस्करण १९८३. भारतीय संस्कृति के विकास में जैन वाङ्मय का अवदान, प्रथम खण्ड, लेखकस्व० डॉ० नेमिचन्द्र शास्त्री, प्रका०- अखिल भारतवर्षीय दिगम्बर जैन विद्वत् परिषद्, कटरा बाजार, सागर (म०प्र०),प्रथम संस्करण, मार्च १९८२. पाइअ-सद्द-महण्णवो, स्व० पं० हरगोविन्द दास त्रिकमचंद सेठ, सम्पा०- डॉ० वासुदेव शरण अग्रवाल, प्रका० - प्राकृत टेक्स्ट सोसाइटी, वाराणसी, द्वितीय संस्करण, सन् १९६३. १. देशीनाममाला (हेमचन्द्र), सम्पादक- रिचर्ड पिशल, पी० व्ही. रामानुजस्वामी, प्रिन्सिपल- महाराजा संस्कृत कालेज, विजयनगरम्, द्वितीय संस्करण, सन् १९३८. १०. देशीनाममाला का भाषावैज्ञानिक अध्ययन, लेखक- डॉ० शिवमूर्ति शर्मा, प्रका० देवनागर प्रकाशन, चौड़ा रास्ता, जयपुर, संस्करण १९८०. Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण, वर्ष ५६, अंक १.६ जनवरी-जून २००५ आचार्य नेमिचन्द्रसूरि कृत रयणचूडरायचरियं में वर्णित अवान्तर कथाएँ एवं उनका मूल्यांकन डॉ० हकमचंद जैन* आचार्य नेमिचन्द्र सूरि अपर नाम देवेन्द्र गणि चन्द्रकुल के बृहद्गच्छीय उद्योतनसूरि के प्रशिष्य एवं आम्रदेवसूरि के शिष्य थे। ये गुजरात के राजा कर्ण के समकालीन होने के कारण ११वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध एवं १२वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध के माने जाते हैं। इन्होंने अपने ग्रन्थों की रचना प्राकृत भाषा में की है। ये रचनाएँ गद्यपद्य एवं चम्पू शैली में है। रचनाएं - (१) महावीर चरियं (२) उत्तराध्ययन वृत्ति (उत्तराध्ययन की सुखबोधा टीका) (३) आख्यानक मणिकोश (४) आत्मबोध कुलक एवं (५) रयणचूडरायचरियं आपकी प्रमुख रचनायें हैं। ये रचनाएं अणहिल्लपाटपुर में श्री कर्ण राजा के राज्य में दो हट्ठी (श्रेष्ठी) के द्वारा वि०सं० ११४१ में रची गईं। रयणचूडरायचरियं भाषा एवं ग्रन्थ के आन्तरिक अध्ययन से ज्ञात होता है कि कवि की तृतीय कृति चम्पू शैली में रचित है। यह एक धर्मकथा है जिसमें दान, शील, तप एवं भावना सम्बन्धी अवान्तर कथाओं के सहारे मूल कथा आगे बढ़ती है। कथा-वस्तु - यह कथा छः खण्डों में विभाजित है - ___ . (१) रत्नचूड का पूर्व भव - गौतम स्वामी राजा श्रेणिक को धर्म प्रतिपादन के रूप में रत्नचूड की कथा सुनाते हैं। कंचनपुर नगर में बकुल माली था। जिनेन्द्र पूजा के कारण वह मृत्यु को प्राप्त कर राजा कमलसेन एवं रानी रत्नमाला के पुत्र रूप में उत्पन्न हुआ क्योंकि रानी ने गर्भ के समय रत्न के ढेले के दर्शन किये इसलिए रयणचूड नाम रखा गया। (२) रत्नचूड का जन्म और तिलक सुन्दरी से विवाह - एक बार रत्नचूड को हाथी अपहरण कर लेता है। राजा-रानी बहुत विलाप करते हैं। सुरगुरू नामक नैमित्तिक द्वारा कुमार को वापस आने की बात कहकर राजा-रानी आश्वस्त होते * सह आंचार्य एवं पूर्व विभागाध्यक्ष, जैन विद्या एवं प्राकृत विभाग, उदयपुर Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ : श्रमण, वर्ष ५६, अंक १-६/जनवरी-जून २००५ हैं। उधर हाथी कुमार को एक तालाब में गिरा देता है। वहाँ एक तपस्वी के दर्शन होते हैं। तपस्वी अपने आश्रम में ले जाता है। रत्नचूड और तिलक सुन्दरी का विवाह सम्पन्न होता है। (३) अन्य राजकुमारियों से विवाह एवं राज्य प्राप्ति - तिलक सुन्दरी को मदनकेशरी विद्याधर अपहरण कर लेता है। रयणचूड सुन्दरी को खोजता हुआ निर्जन रिष्टपुर नगर पहुंचता है। जहाँ वानरी के रूप में सुरानन्द मिलती है। रयणचूड विद्या द्वारा उसका उद्धार कर विवाह कर लेता है। बाद में सूर्यप्रभ मुनि द्वारा मुनि के पूर्व जन्म की कथा सुनता है जिसमें समस्या पूर्ति द्वारा राजहंसी से विवाह करता है। इस प्रकार तिलकसुंदरी, सुरानन्दा, राजश्री, पद्मश्री एवं राजहंसी से विवाह कर लेता है। पांचों पत्नियों के सुख को भोगता हुआ सपरिवार तीर्थ यात्रा करने की सोचता है। - (४) सपरिवार तीर्थयात्रा और धर्मोपदेश - रत्नचूड पांचों पत्नियों एवं माता-पिता के साथ मेरु पर्वत पर जिनेन्द्र के दर्शन करने गया। वहां सुरप्रभ मुनि के - धर्मोपदेश सुना। उन्होंने दान के दृष्टान्त के रूप में राजश्री का पूर्वभव, शील के दृष्टान्त में पद्मश्री का पूर्वभव, तप धर्म के दृष्टान्त में राजहंसी का पूर्वभव, भावना धर्म के दृष्टान्त में सुरानन्दा के पूर्वभव की कथा सुनायी। अन्त में रत्नचूड और तिलकसुन्दरी का पूर्वभव भी सुनाया। सभी लोगों की धर्म में दृढ़ आस्था हो गई। (५) दुश्चेष्टा के परिणाम-कथन के रूप में अमरदत्त और मित्रानंद की कथा - सुरप्रभ मुनि से तिलकसुंदरी ने रत्नचूड के वियोग का कारण पूछा तब मुनि ने कहा पूर्वजन्म में तिलक सुन्दरी ने क्रीड़ा करते हुए कबूतर को यह कहकर उड़ा दिया कि वह कभी न मिले। ऐसी दुश्चेष्टा के कारण वियोग हुआ। ऐसी ही एक कथा अमरदत्त और मित्रानंद की सुनाता है। रत्नचूड आदि सभी श्रावक दीक्षा स्वीकार करते हैं। (६) रत्नचूड द्वारा धार्मिक अनुष्ठान एवं क्रमशः मोक्ष प्राप्ति - रत्नचूड .. ने धार्मिक जीवन जीते हुए अनेक धार्मिक अनुष्ठान किये। मन्दिरों का निर्माण करवाया। पूजा, दान आदि कार्य किये और केवल ज्ञान प्राप्त किया। प्राचीन साहित्य में किसी भी कथा-नायक की मूल कथा के साथ अन्य अवान्तर-कथाएं प्रस्तुत करने की एक लम्बी परम्परा है। मूल कथा के साथ अवान्तरकथाओं को देने के पीछे ग्रन्थकार का यह आशय रहता है कि पाठक मूल कथा के अन्त को धीरे-धीरे पहुंचे तथा अवान्तर-कथाओं के माध्यम से उसका मनोरंजन होता चले। चरित-ग्रन्थों में अवान्तर-कथाएं चरित-नायक के विभिन्न गुणों को विकसित करने में सहायक होती हैं। अवान्तर-कथाओं से मूल कथा के प्रति पाठक का कुतूहल Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रयणचूडरायचरियं में वर्णित अवान्तर कथाएँ एवं उनका मूल्यांकन : ५९ अन्त तक बना रहता है। इन कथाओं के माध्यम से ग्रन्थकार को अपनी काव्य-प्रतिभा तथा सांस्कृतिक ज्ञान-विज्ञान को प्रस्तुत करने का अवसर मिल जाता है। वस्तुत: ग्रन्थकार ने समकालीन अथवा प्राचीन जिन महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों के अध्ययन से विभिन्न कथाओं को जाना समझा है तथा लोक-परम्परा से जो कथाएं उसके मानस में उभरी हैं उन कथाओं को वह अपने ग्रन्थ की मूल कथा के साथ किसी न किसी प्रकार संजोने का प्रयत्न करता है। यह लेखक की कुशलता और पांडित्य पर निर्भर करता है कि उसने किस प्रकार मूल कथा और अवान्तर-कथाओं को संजोया है। प्राचीन साहित्य की इसी परम्परा के अनुसार आचार्य नेमिचन्द्रसूरि ने भी रयणचूड में कई अवान्तरकथाएं प्रस्तुत की हैं जिनका संक्षेप सार यहां प्रस्तुत है - (क) अवान्तर-कथाएं १.क्षेमंकर सोनी- विजयखेड़ा नामक नगर में क्षेमंकर और सोनी धनावह नामक सेठ - ये दो मित्र रहते थे। धनावह की अत्यन्त लावण्यवती सुरवंकरा नाम की पत्नी थी। वह आभूषण बनवाने के लिए क्षेमंकर सोनी के पास आती थी। इस मेल मिलाप से दोनो में प्रेम हो गया। क्षेमंकर सोनी सुरवंकरा को भगा कर सहकार नामक सन्निवेश को चला गया और वहां अपनी जीविका चलाने लगा। एक बार चोरों के द्वारा उसका धन चुरा लिया गया तब उसने सुरवंकरा से आभूषण मांगा। अंधकार में आभूषण निकालती हुई सुरवंकरा को सांप ने डस लिया। बहुत इलाज कराने पर भी वह मृत्यु को प्राप्त हो गयी। क्षेमंकर उसके वियोग में, गले में फंदा लगाकर जंगल में मरने लगा। तभी सोमभूति नामक तापस कुलपति ने उसे छुड़ाया और उसे तापस दीक्षा दी। तपस्वी क्षेमंकर ने विद्याधर से तिलक-सुदनरी को छुड़ाया और उसकी रक्षा करते हुए उसे रत्नचूड को अर्पित किया तथा अन्त में मृत्यु को प्राप्त कर वह क्षेमकर तापस ज्वलनप्रभ देव हुए। २. उल्लू के रूप में पवनगति - रत्नचूड और तिलक सुन्दरी जब कुलपति के आश्रम में सो रहे थे तब एक उल्लू ने आकर तिलक-सुन्दरी को डराया और रत्नचूड को युद्ध करने के लिए ललकारा। रत्नचूड के द्वारा पकड़े जाने पर और उसको गोद में लेने में पर वह उल्लू एक विद्याधर कुमार हो गया। तब उसने कथा कुमार को सुनायी। जयरक्ष राजा की धाय माता वेगवती का पुत्र, मै पवनगति हूं। राजा के द्वारा पद्मश्री के वर को खोजने के लिए मैं निकला हूं। जब मैं एक वट-वृक्ष के ऊपर से जा रहा था तभी वहां पर स्थित सुरतेज नामक राजर्षि ने मेरी धृष्टता के कारण मुझे उल्लू बना दिया। तभी से मैं आपके आगमन की प्रतीक्षा में था। आपके स्पर्श से ही Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० : श्रमण, वर्ष ५६, अंक १-६/जनवरी-जून २००५ मेरा उल्लू रूप दूर हो सकता था इसलिए मैने तिलक-सुन्दरी को डरा कर आपको युद्ध के लिए ललकारा था। आपकी कृपा का मैं आभारी हूं कि आपने मुझे मेरा असली स्वरूप प्रदान किया है। यह पवनगति विद्याधर रत्नचूड को पद्मश्री राजकुमारी के साथ विवाह करने के लिए वैताढ्य पर्वत की ओर ले जाता है। ३. धूमकेतु-यक्ष - रत्नचूड कुमार जब रिष्टपुर में पहुंच कर उस निर्जन नगर को देखता है तो उसे वहां वानरी के रूप में सुरानन्दा राजकुमारी मिलती है। रत्नचूड जब वहां पर लेटा हुआ था तभी उसने नगर को जलता हुआ देखा। तभी वहां उपद्रव करता हआ एक राक्षस प्रगट हआ। उसने कमार को बहुत डराया। तब रत्नचड ने उसके वक्ष-स्थल पर चरणप्रहार किया। रत्नचूड के पूछने पर अपने परिचय में उसने कहा कि मैं धूमकेतु यक्ष हूं और मैंने पूर्वजन्म के कारण इस नगर को उजाड़ा है। रत्नचूड के आग्रह करने पर उस धूमकेतु यक्ष ने अपना पूर्व-जन्म सुनाया। ४. निर्धन सोमप्रभ ब्राह्मण - वर्धमान नामक नगर में धनेश्वर श्रेष्ठी पुत्र और सोमप्रभ नाम का एक ब्राह्मण रहता था। दोनो क्रमश: कामरति और कामपताका नामक वेश्याओं में अनुरक्त थे। कामदेव की हिन्दोला क्रीड़ा के समय नागरिक-जनों से धन के कारण अपमानित होकर सोमप्रभ ब्राह्मण धन प्राप्ति के लिए निकल पड़ा। पहले उसने बिल्व-वृक्ष की जटाओं के ज्ञान के आधार पर धन का घड़ा प्राप्त किया। किन्तु अटवी में चोरों ने उसको लूट लिया तथा एक अन्धे कुएं में फेंक दिया। एक सार्थवाह के द्वारा उसे निकाला गया। तब एक हेमकूट नामक धातुवादी की सहायता से सोमप्रभ ब्राह्मण ने कुछ सोना प्राप्त किया। किन्तु उसके सो जाने पर हेमकूट धातुवादी उस सोने को हरण कर ले गया। तब एक योगेश्वर नामक संन्यासी की सहायता से सोमप्रभ ने मंत्र जाप के द्वारा धन प्राप्त करने का प्रयत्न किया। किन्तु मंत्र-जाप के द्वारा वह छला गया।। दूसरे दिन सोमप्रभ ने लोहनंदी नामक संन्यासी को अपनी निर्धनता की व्यथा कही। वह संन्यासी सोमप्रभ को स्वर्ण बनाने के लिए रस लेने हेतु एक कुएं के पास ले गया और तुम्बी के साथ सोमप्रभ को रस्सी के सहारे उस कुएं में उतार दिया। रस लेकर जब सोमप्रभ बाहर आया तो दोनों ने मिलकर उस रस से स्वर्ण बनाया। किन्तु उस लोहनंदी संन्यासी के द्वारा उसे कपट से नगर भेज दिया गया और वह स्वर्ण तथा रस लेकर भाग गया। तब निराश होकर सोमप्रभ स्वर्ण-भूमि को गया और वहां उसने स्वर्ण की ईटें प्राप्त की। किन्तु रास्ते में जहाज भग्न हो जाने के कारण वह धन भी उसके हाथ से निकल गया। समुद्र में बहता हुआ वह सोमप्रभ किसी प्रकार Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रयणचूडरायचरियं में वर्णित अवान्तर कथाएँ एवं उनका मूल्यांकन एक धीवर के द्वारा बचाया गया। तब सोमप्रभ ने सोचा कि धन अनर्थ की जड़ है। बहुत पुरुषार्थ करने पर भी वह बिना देव की सहायता से प्राप्त नहीं हो सकता। ऐसा सोचकर सोमप्रभ चामुण्डा देवी के मन्दिर में जाकर सो गया । : ६१ ५. सुरखंड - चोर और सोमप्रभ - जब सोमप्रभ ब्राह्मण चामुण्डा देवी के मन्दिर में सो रहा था तभी राजा के सैनिकों से पीछा किया जाता हुआ सुरखंड नामक चोर उस मन्दिर में प्रविष्ट हुआ । उसने चोरी का माल सोमप्रभ के सिर के नीचे रख दिया। प्रात:काल रक्षकों के द्वारा सोमप्रभ को चोर के रूप में पकड़ लिया गया और सुर राजा के समक्ष उपस्थित किया गया। सुरकेतु राजा ने निरपराधी सोमप्रभ के बेध का आदेश दे दिया। सोमप्रभ को जब शूली पर चढ़ाया जा रहा था तब विद्याधरों ने वहां आकर उसको छुड़ा लिया। उसकी दशा पर करुणा करते हुए विद्याधरों ने सोमप्रभ को पंच नमस्कार मंत्र का जाप करने को कहा। उस मंत्र के प्रभाव से वह सोमप्रभ नामक ब्राह्मण मृत्यु के बाद धूमकेतु नाम का यक्ष हुआ। एक बार जब वह रिष्टपुर नगर से निकला तो उसने सुरकेतु राजा को देखकर पूर्वजन्म के वैर के कारण उसे समुद्र में फेंक दिया और सारे नगर को निर्जन बना दिया तथा सुरनन्दा राजकुमारी को वानरी रूप प्रदान कर वह धूमकेतु-यक्ष उसकी रक्षा करता हुआ वहीं रहने लगा। ६. केशव श्रावक की कथा श्रेणिक राजा के द्वारा सोमप्रभ ब्राह्मण के दुःखों का कारण पूछने पर गौतम स्वामी ने सोमप्रभ के पूर्व जन्म के प्रसंग में मन्दिर के द्रव्य को हड़पने वाले केशव श्रावक की कथा इस प्रकार कही - क्षेमंकर नगरी में केशव नामक एक श्रावक रहता था। वह नगर में स्थित देवमन्दिर के द्रव्य की सार संभाल करता था। एक बार अकाल पड़ जाने पर उसने मन्दिर के द्रव्य से पांच हजार रुपये व्यापार के लिये चुरा लिये। व्यापार में लाभ कमाकर उसने मूल धन तो मन्दिर के भंडार में जमा करा दिया किन्तु उसका लाभांश लोभ के कारण स्वयं रख लिया। तब मन्दिर के द्रव्य का स्वयं उपयोग करने से अशुभ कर्मों के उदय से, वह केशव श्रावक महादरिद्र हो गया। और भयंकर रोग से पीड़ित होकर मृत्यु को प्राप्त हो गया। अशुभ कर्म के उदय से वह क्रमशः कुत्ता, मृग, सर्प, महामच्छ आदि के रूप में जन्म लेता रहा और दुःख पाता रहा । तिर्यञ्च योनि के बाद वह अम्बश्री व्यापारी के यहां पुत्री के रूप में उत्पन्न हुआ। उसका नाम धनवती रखा गया । यौवन प्राप्त होने पर धनवती का विवाह पुण्डरिगिणी पुरी के निवासी वेश्रमण वणिक पुत्र से किया गया। धनवती के पूर्वजन्म के अशुभ कर्मों के कारण वेश्रमण को व्यापार में घाटा होने लगा तथा उसके मित्र और बांधव लोग भी उसे छोड़ने लगे। यह देखकर वेश्रमण ने धनवती को पीहर में छोड़ दिया। Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ : श्रमण, वर्ष ५६, अंक १-६ / जनवरी - जून २००५ पीहर में भी धनवती धन नष्ट करने वाली हो गयी । बंधुओं के द्वारा उसे त्याग दिया गया। सभी लोगों के द्वारा उसे अनादर मिलने पर उसने सोचा अहो! यह सब पापों की परिणति है। इस आत्म-आलोचना के परिणाम से मरकर वह सोमप्रभ ब्राह्मण के रूप में उत्पन्न हुई। ७. शूरतेज और शूरधर्म की कथा - कंचनपुर नगर में कनक कुण्डल राजा की कनकसुन्दरी और मतिसुन्दरी नाम की दो पत्नियां थीं। कनकसुन्दरी के पुत्र का नाम शूरतेज तथा मतिसुन्दरी के पुत्र का नाम शूरधर्म था। कुछ समय के बाद कनकसुन्दरी की मृत्यु हो गयी। एक बार राजा ने प्रसन्न होकर मतिसुन्दरी को वर प्रदान किया। समय आने पर मतिसुन्दरी ने राजा से वर के रूप में अपने पुत्र को राज्य देना मांग लिया। शूरधर्म के युवराज बनने पर शूरतेज दुःखी होकर देशान्तर को चला गया। वह विश्वपुर नगर को पहुंचा। वहां पर उसने श्मशान को ले जाते हुए एक बन्दी पुरुष को देखा वह किसी का कर्जदार था। शूरतेज ने अपने गले की रत्नावली देकर उस बन्दी को फांसी के फंदे से छुड़ा लिया और वह नगर की तरफ चला गया। इसी बीच में विक्रमबाहु राजा की पुत्री प्रियंगुमञ्जरी के पीछे एक पागल हाथी दौड़ पड़ा। उस दुष्ट हाथी से राजकन्या को बचाने के लिए सब लोग दौड़े। तभी शूरतेज ने पराक्रम से उस हाथी को वश में कर लिया और प्रियंगुमञ्जरी को बचा लिया। विक्रमबाहु राजा ने इस बात को सुनकर प्रसन्न होकर प्रियंगुमञ्जरी का विवाह शूरतेज से कर दिया और उसे अपने राज्य का युवराज बना दिया। राजा की दीक्षा के बाद शूरतेज वहां का महाराजा बन गया। एक दिन शूरतेज ने अपने अपमान का स्मरण कर अपने सौतेले भाई शूरधर्म के राज्य पर चढ़ाई कर दी और युद्ध में उसे पराजित कर तथा धार्मिक अनुष्ठानों को सम्पन्न करा कर शूरतेज मुनि बन गया। ८. चन्द्रानन राजकुमार और शिवकेंतु पुरोहित - कुण्डल नगर में चन्द्रशेखर राजा का चन्द्रानन और शिव पुरोहित का शिवकेतु नामक पुत्र था। चन्द्रानन और शिवकेतु दोनों मित्र थे जो स्वभाव से जैन धर्म के विरोधी थे। एक बार जब शान्तिनाथ भगवान का अभिषेक महोत्सव मनाया जा रहा था तब उन दोनों राजकुमारों द्वेष के कारण उस महोत्सव को बन्द करा दिया। इससे वहाँ पर स्थित श्रावकश्राविकाएँ बहुत दुःखी हो गये । उनके आग्रह पर वहाँ पर स्थित प्रवचनानंदीसूरि के द्वारा उन दोनों कुमारों को स्तंभित कर दिया गया। इस खबर को सुन कर उन कुमारों के पिता मुनि के पास आये और उन्होंने प्रार्थना की “कि हे महाराज! इनको इस बार छोड़ दें आगे से ये ऐसा धर्म विरोधी काम नहीं करेंगे। तब मुनि ने उन कुमारों को व्रत ग्रहण करा कर मुक्त कर दिया। Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रयणचूडरायचरियं में वर्णित अवान्तर कथाएँ एवं उनका मूल्यांकन : ६३ उन दोनों कुमारों में से चन्द्रानन ने तो व्रत का अच्छी तरह पालन किया किन्तु शिवकेतु ने व्रत पालन की तरफ ध्यान नहीं दिया। समय पूर्ण होने पर मृत्यु के बाद वे दोनों कुमार सौधर्मकल्प नामक विमान में सूर्यकांत और चन्द्रकांत नामक देव हुए। सीमंधर स्वामी के उपदेश से चन्द्रकांत ने शान्तिनाथ का मंदिर बनवाया और सूर्यकांत को प्रतिबोधित करने के लिए आग्रह किया। वहाँ से च्युत होकर चन्द्रकांत मलयपुर नगर में मृगांक राजा का पुत्र सूरप्रभ हुआ। एक बार उसने स्वप्न में किसी मुनि को अपने सामने बैठा हुआ देखा जो उसे धर्म का उपदेश दे रहा था। इसी प्रकार एक बार सूरप्रभ ने स्वप्न में नरक के भयंकर दु:खों को देखा। स्वप्न में देखे गये इन विषयों के सम्बन्ध में सूरप्रभ सोचने लगा यह सत्य है या असत्य। उसकी इस जिज्ञासा के समाधान के लिए एक मुनि ने (जो कि पूर्व जन्म में सूरप्रभ का मित्र था) सूरप्रभ को कई दृष्टान्त सुनाये। ९. गरु-शिष्य की कथा - किसी गाँव में बहत कमरों से युक्त एक मठ था। उसमें एक शिष्य के साथ एक महन्त रहता था। एक बार उस महन्त ने स्वप्न में किसी कमरे को लड्डुओं से भरा देखा। जागने पर यह बात उसने शिष्य को कही। शिष्य ने स्वप्न के लड्डुओं के आधार पर सारे गाँव को भोजन करने के लिए मठ में बुला लिया। किन्तु महन्त यह भूल गया कि कौन सा कमरा लड्डुओं से भरा था। अत: उसे स्वप्न में फिर से देखने के लिए महन्त सो गया। जब यह बात गाँव वालों को पता चली तो वे सब गुरु-शिष्य की मूर्खता पर बहुत हंसे क्योंकि स्वप्न में देखी गई वस्तु सत्य नहीं होती। १०. सत्य-प्रतिज्ञ राजा पुरुषोत्तम - पद्मावती नगरी में दानी, साहसी और सत्यप्रतिज्ञ पुरुषोत्तम राजा था। एक बार उसने किसी कापालिक को उसकी मन्त्र साधना में सहायता करने का वचन दे दिया। समय आने पर वह पुरुषोत्तम राजा, रात्रि में उस कापालिक के पास श्मशान पहुँचा। कापालिक ने उसे पीपल के वृक्ष पर लटके हुए एक शव को लाने के लिए कहा। राजा जब शव ला रहा था तब उसके राज्य की अधिष्ठित देवी ने उसे सावधान किया कि वह दुष्ट कापालिक है। तुम्हें धोखे से मारकर वह तुम्हारे रक्त से स्वर्ण बनाना चाहता है अत: तुम यहाँ से लौट जाओ। देवी के द्वारा ऐसा कहने पर भी सत्य-प्रतिज्ञ होने के कारण पुरुषोत्तम राजा कापालिक के पास गया और मन्त्र को ही नष्ट कर दिया। राजा उस सिद्ध मन्त्र से स्वर्ण बनाकर अपने महल लौट आया। ११. पुरुषोत्तम राजा और कमलश्री की कथा - पुरुषोत्तम राजा एक बार रात्रि में स्वप्न में किसी अद्वितीय सौंदर्य युक्त राजकुमारी को देखता है और Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ : श्रमण, वर्ष ५६, अंक १-६/जनवरी-जून २००५ प्रात:काल उठने पर उसकी प्राप्ति की चिन्ता में मग्न हो जाता है। राजा का मित्र सुमति मंत्री स्वप्न में देखी गई नगरी का निर्माण करवाता है। उसमें अतिथिशाला खुलवाता है अतिथियों से नगरी की वास्तविकता का ज्ञान कराता है। उसमें पता चलता है कि प्रियंकरा नगरी में सत्यसार राजा है। उसकी पुत्री कमलश्री के सौंदर्य को पुरुषोत्तम राजा ने स्वप्न में देखा था। राजा और मंत्री की योजना के अनुसार पुरुषोत्तम राजा वेश परिवर्तन कर प्रियंकरा नगरी को गया। वहाँ उसने दो तपस्वियों की सहायता से स्त्री रूप में कमलश्री राजकुमारी से मित्रता की। कमलश्री पुरुषद्वेषिणी थी। किन्तु पुरुषोत्तम राजा के द्वारा चित्रपट दर्शन से वह पुरुषोत्तम राजा को प्रेम करने वाली हो गयी। पुरुषोत्तम राजा कमलश्री को पद्मावती नगरी ले आया और उसे सब वृत्तान्त कहकर उससे विवाह कर लिया। अत: कुछ स्वप्न पुरुषार्थ के द्वारा सत्य भी साबित होते हैं। १२. राजा श्रीविजय और नेमित्तिक की कथा - पोदनपुर में राजा श्रीविजय राज किया करता था। एक बार उसने अपने साले अमिततेज को एक नैमित्तिक द्वारा की गयी भविष्य वाणी का वृतान्त इस प्रकार सुनाया - एक बार मैं अपने राज-दरबार में बैठा हुआ था। तभी वहां एक नैमित्तिक आया उसने भविष्यवाणी की कि आज से सातवें दिन पोदनपुर के राजा के ऊपर बिजली गिरेगी और मुझ नैमित्तिक के सिर पर सोने की वृष्टि होगी। नैमित्तिक के इस कथन के परीक्षण के लिए मेरे मंत्री ने वेश्रमण यक्ष की प्रतिमा को आठ दिन के लिए राज्य पर अभिसिक्त कर दिया। सातवें दिन बिजली ने गिर कर उस यक्ष प्रतिमा को नष्ट कर दिया। राजा के बच जाने से नैमित्तिक को स्वर्ण दान किया गया। . १३. मायावी मृग और सुतारा - एक बार श्रीविजय राजा अपनी रानी सुतारा के साथ उद्यान में गया। वहां पर अशनिघोष विद्याधर के द्वारा वैतालिनी विद्या से एक सोने का मृग राजा-रानी के सामने भेजा गया। सुतारा ने उस मृग को लाने के लिए श्रीविजय को प्रेरित किया। जब श्रीविजय उस मृग के पीछे दौड़ा तभी अशनिघोष ने उसका अपहरण कर लिया। सुतारा का रूप धारण कर वैतालिनी विद्या ने भी राजा को व्यामोहित करने का प्रयत्न किया किन्तु दो विद्याधरों की सहायता से राजा को बचा लिया गया और अशनिघोष विद्याधर के पास से सुतारा को भी प्राप्त कर लिया गया। १४. दासी-पुत्र कपिल और सत्यभामा - मगध जनपद के अचल ग्राम में धरणीजठ नामक ब्राह्मण रहता था। उसकी कपिला दासी का पुत्र कपिल था। कपिल ने सुन-सुन कर वेदों को सीख लिया। एक बार वह रत्नपुर नगर को गया। वहाँ पर Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रयणचूडरायचरियं में वर्णित अवान्तर कथाएँ एवं उनका मूल्यांकन वह अपने को धरणीजठ ब्राह्मण का पुत्र कहकर एक अध्यापक के पास विद्या सीखने लगा। उस उपाध्याय ने कपिल को अपनी पुत्री सत्यभामा प्रदान कर दी। किन्तु एक बार सत्यभामा ने कपिल की वास्तविकता को पहचान लिया कि वह दासी का पुत्र है। वह कपिल से अपना पिण्ड छुड़ाने का प्रयत्न करने लगी। किन्तु कपिल ने उसे नहीं छोड़ा। मृत्यु के बाद वह सत्यभामा सुतारा बनी तथा वह कपिल अशनिघोष विद्याधर के रूप में उत्पन्न हुआ। इसलिए पूर्व-जन्म की आसक्ति के कारण अशनिघोष ने सुतारा का अपहरण किया। : ६५ १५. वज्रायुध के धैर्य की परीक्षा - रत्नसंचय नगरी में क्षेमंकर राजा और रत्नमाला रानी के यहां वज्रायुध नामक पुत्र उत्पन्न हुआ। युवा अवस्था में वज्रायुद्य धर्म में दृढ़ विश्वास रखने वाला हुआ। उसके धैर्य की प्रशंसा देवताओं में भी होने लगी। तब एक देव ने कबूतर और बाज का रूप धारण कर वज्रायुध के धैर्य की परीक्षा ली। वज्रायुध ने अपने शरीर का मांस काटकर और प्राणों की आहुति देकर भी बाज से कबूतर को बचाने का प्रयत्न किया। इससे वह देव प्रसन्न हुआ और अन्त में वज्रायुध की प्रशंसा कर वापस चला गया। इसी वज्रायुध का जीव आगे चलकर शान्तिनाथ जिन के रूप में उत्पन्न हुआ। १६. ईश्वरी सेठानी की कथा - मलयपुर नगर में धनपाल सेठ रहता था। उसके ईश्वरी नाम की पत्नी थी। वह ईश्वरी कड़वा बोलने वाली और दान न करने वाली कंजूस थी। उसके घर जो भी धार्मिक व्यक्ति भिक्षा के लिए आते उनको दुतकार कर भगा देती थी और उन्हें अपशब्द कहती थी। इस प्रकार से धार्मिक जनों की निन्दा करने से वह ईश्वरी जन्म से भयंकर रोग से पीड़ित होकर आर्त ध्यान पूर्वक मृत्यु को प्राप्त हुई। उसके बाद वह रोग वाली कुतिया, सियाली आदि हुई। उसके बाद कंगुसाल गांव में वह एक दरिद्र बनिये के यहां नागश्री नामक पुत्री हुई। उसका विवाह अत्यन्त कुरूप-दुगट्ठे नाम के वणिक पुत्र से हुआ। किन्तु दुर्भागिनी होने के कारण दुगट्ठ ने भी उसे छोड़ दिया। तब वह दूसरों के यहां घरेलू काम करने लगी। एक बार किसी श्रावक के घर में उसने धर्म का महत्त्व सुना और दान की महिमा को जाना। तब से वह अपने को प्राप्त भोजन में से कुछ न कुछ दान करने लगी। एक बार उसने एक साधु को आहार दान दिया। उस दान के फलस्वरूप वह अगले जन्म में राजश्री के रूप में रयणचूड की पत्नी हुई। 3 १७. मनोरमा शीलवती की कथा सुरेशेल नामक नगर में कुलवर्धन नाम का सेठ था। उसकी अत्यन्त सुन्दर मनोरमा नाम की पत्नी थी। एक बार वह कुलवर्धन मनोरमा को साथ लेकर व्यापार के लिए कटाह द्वीप गया। वहां पर कामांकुर नामक महन्त ने एक दिन कुलवर्धन को जुए में हरा कर छल से मनोरमा Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ : श्रमण, वर्ष ५६, अंक १-६/जनवरी-जून २००५ का अपहरण कर लिया। मनोरमा को उसने बहत प्रलोभन दिए कि वह उसे स्वीकार कर ले किन्तु मनोरमा अपने शील पर दृढ़ रही तब क्रोधित होकर कामांकुर महन्त ने मनोरमा को कामापाल राजा को सौंप दिया। मनोरमा ने कामापाल राजा के प्रेमअनुरोध को भी ठुकरा दिया और उसे शील की महिमा समझायी। अन्त में मृत्यु को प्राप्त होकर वह रत्नचूड की पत्नी पद्मश्री हुई। १८. विक्रमसेन राजा और मदनसुन्दरी - मनोरमा ने कामापाल राजा को शील पर दृढ़ रहने वाली मदनसुन्दरी की कथा सुनाई। उज्जैनी नगरी में विक्रमसेन राजा था। उसने कभी नगर-सेठ की पत्नी मदनसुन्दरी को देखा तथा दासी के द्वारा अपना प्रस्ताव उसके पास भेजा। मदनसुन्दरी ने राजा को समझाने के लिए अपने महल में भोजन के लिए निमंत्रित किया। जब राजा भोजन करने के लिए आया तब मदनसुन्दरी ने उसके आगे रेशमी वस्त्रों से ढकी हुई कई थालियां रख दी और उनमें से भोजन परोसकर राजा को दिया किन्तु सभी थालियों में एक ही पकवान था। तब राजा ने पूछा एक ही पकवान की इतनी थालियों की क्या आवश्यकता थी। मदनसुन्दरी ने कहा जैसे एक ही भोजन अलग-अलग थालियों में होने से आकर्षण उत्पन्न करता है उसी प्रकार युवतियों के शरीर में भी एक ही तरह का मांस, मज्जा, हड्डी आदि अपवित्र पदार्थ है। सभी स्त्रियों का शरीर एक सा है इसलिए हे राजन! आप अपने रनिवास में ही सन्तुष्ट रहें। १९. शंख राजा और विष्णुश्री की कथा - शंखपुर नगर में शंख राजा रहता था। उसने विष्णुदत्त सार्थवाह की पत्नी विष्णुश्री पर आसक्त होकर उसे अपने अन्त:पुर में प्रवेश करा लिया। एक बार विष्णुश्री शूल की वेदना से मृत्यु को प्राप्त हुई। राजा उसके अत्यन्त मोह के कारण उसके शव को जलाने नहीं दे रहा था। मंत्रियों के द्वारा किसी प्रकार समझा कर वह शव श्मशान ले जाया गया। राजा ने उसके वियोग में भोजन त्याग दिया। तब मंत्री आदि राजा को श्मशान ले गये। वहां उसने विष्णुश्री के सड़े हुए और कीड़े पड़े शरीर को देखा। तब राजा का उसके शरीर से मोह समाप्त हुआ। २०. नागश्री और देवश्री की कथा - वणसाल नगर में बन्धुधर्म सेठ रहता था। उसकी नागश्री नाम की पत्नी थी किन्तु बहुत समय तक उसे पुत्र न होने के कारण उस बन्धुधर्म ने देवश्री नामक कन्या से दूसरा विवाह कर लिया। वह देवश्री अपने गुणों से अपने पति को बहुत प्रिय हो गयी। पहली पत्नी नागश्री को सौत का सम्मान सहन नहीं हुआ। उसने किसी मंत्र-तंत्र वाले तापसी से एक योग लेकर देवश्री को पानी के साथ पिला दिया। उसके प्रभाव से बन्धुधर्म ने देवश्री को प्रेम करना छोड़ Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रयणचूडरायचरियं में वर्णित अवान्तर कथाएँ एवं उनका मूल्यांकन : ६७ दिया। तब भी देवश्री पति के प्रति अनुकूल व्यवहार करती रही। अचानक ही नागश्री दाह ज्वर की वेदना से मृत्यु को प्राप्त हुई। इसी बीच एक मुनि के द्वारा बंधुधर्म को नागश्री की दुश्चेष्टा का पता चला। तब वह पुन: देवश्री को चाहने लगा और उन दोनों ने श्रावक धर्म स्वीकार कर लिया। २१. दुर्गला चाण्डालिनी की कथा - वह नागश्री मृत्यु के बाद कुत्ते, सियाल आदि तिर्यञ्चो के जन्म में दुःखों को भोगती हुई दुर्गला नाम की चाण्डाल पुत्री हुई। वहाँ भी वह बान्धवों एवं माता-पिता के लएि अनिष्ट थी। दुर्भागिनी होने के कारण .. उसका विवाह नहीं हुआ। माता-पिता ने भी उसे त्याग दिया। वह चाण्डाल पुत्रों को अपनी ओर आकर्षित करने का प्रयत्न करती किन्तु उसे कोई नहीं चाहता था। एक बार वह बगीचे में गयी हुई थी वहां पर कुछ चाण्डाल पुत्रों ने उसके विवाह का लालच देकर उसका अपमान किया और उसे कुरूप बना कर छोड़ दिया। इस अपमान से दु:खी होकर दुर्गला फांसी लगाकर मृत्यु को प्राप्त हुई। २२. देवमति वणिक पुत्री की कथा - वह दर्गला अगले जन्म में हर्षपर नगर के श्रीबंधु श्रेष्ठी के यहां देवमति नाम की पुत्री हई। किन्तु पूर्व जन्म के कर्मों के फल से उसका विवाह कहीं नहीं हो पाया। तब वह सौभाग्य को प्राप्त करने के लिए विभिन्न प्रकार के मिथ्यात्व वाले उपाय करने लगी। फिर भी उसे उचित वर प्राप्त नहीं हुआ। तब उसके माता-पिता ने दुःखी होकर उसे एक कुरूप भिखारी को व्याह दिया। किन्तु जैसे ही उसने प्रथम मिलन में देवमति का आलिंगन किया तो वह कण्डों की अग्नि की तरह उष्ण तथा इक्षुलता की तरह रूखे स्पर्श वाली प्रतीत हुई। इससे घबराकर वह भिखारी उसे रात में ही छोड़कर भाग गया। तब देवमति ने विचार किया कि सब दुष्कृत कर्मों का फल है। अन्त में उसने एक साध्वी के उपदेश से सौभाग्य कल्पवृक्ष तप की साधना की। उसके परिणाम स्वरूप वह दूसरे जन्म में रत्नचूड की पत्नी राजहंसी हुई। २३. दरिद्र चन्द्रलेखा वृद्धा की कथा - रिष्टपुर नगर में चन्द्रलेखा नाम की एक दरिद्र वृद्धा थी उसने पूर्व जन्म में अपनी भौजाई के लड्डुओं की चोरी की थी इसलिए उसे दरिद्रता प्राप्त हुई। एक बार उसने श्मशान भूमि पर शूली पर चढ़ाये जा रहे सोमप्रभ भट्ट को उसके मांगने पर पानी पिला दिया। राजा ने इस अपराध से उस चन्द्रलेखा वृद्धा को नगर से निकाल दिया। तब वह वृद्धा सोचने लगी की यह सब पूर्व जन्मों के दुष्कृत कर्मों का फल है कि इस जन्म में निरपराधी होने पर भी अपराध की सजा मिलती है। अत: हमेशा अच्छे कार्य ही करने चाहिए इस प्रकार से भावना करती हई उस चन्द्रलेखा को एक सांप ने डस लिया। शुभ भावना से युक्त होने के कारण वह चन्द्रलेखा अगले जन्म में रत्नचूड की पत्नी सुरानन्दा हुई। Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ : श्रमण, वर्ष ५६, अंक १- ६ / जनवरी - जून २००५ २४. अमरदत्त और मित्रानंद की कथा सुरतिलक नामक नगर में मकरध्वज नामक राजा रहता था। उसकी मदनसेना नामक की रानी थी। राजा ने एक बार अपना सफेद बाल देखकर वैराग्य को प्राप्त होकर तापस दीक्षा ले ली। उसके साथ मदनसेना भी जंगल में चली गयी। रानी पहले से ही गर्भवती थी। अत: तापस वन में एक पुत्र को जन्म दिया। किन्तु महाज्वर से पीड़ित होकर वह मृत्यु को प्राप्त हुई। तब वहां पर उज्जैनी के आये हुए देवानंद सेठ की पत्नी देवश्री को मदनसेना का वह पुत्र सौंप दिया। उज्जैनी लौट कर उस सेठ ने उस पुत्र का नाम अमरदत्त रखा। वहां पर सार्थवाह वेश्रमण का पुत्र मित्रानन्द अमरदत्त का बाल सखा हो गया । - एक बार वे दोनों बगीचे में गेंद खेल रहे थे तभी उनकी गेंद वहां पर वृक्ष की शाखा से लटके हुए एक मुर्दे के मुख में चली गई । मित्रानन्द इसे देखकर हंस दिया। तब उस मुर्दे ने मित्रानन्द को श्राप दिया कि थोड़े ही समय में तुम भी मेरी इस अवस्था को प्राप्त होगे। इससे मित्रानन्द उदास हो गया । अमरदत्त के बहुत पूछने पर ही मित्रानन्द ने अपना दुःख उससे कहा । तब अमरदत्त ने उसे समझाया की देव - व्यन्तरों का कथन पुरुषार्थ के द्वारा विपरीत भी किया जा सकता है। इसके लिए उसने मित्रानन्द को एक कथा सुनाई। २५. नैमित्तिक और मन्त्री पुत्र की कथा जितशत्रु राजा की सभा में एक नैमित्तिक ने आकर कहा कि ज्ञानगर्भ मन्त्री के घर में उसके पुत्र के द्वारा ही आपत्ति आयेगी । मन्त्री ने नैमित्तिक को अपनी ओर मिलाकर भोजन और पानी के साथ अपने पुत्र को एक पेटी में बन्द कर दिया और उसमें ताला लगवाकर उसे राजा के भंडार में रखवा दिया। तेरहवें दिन अन्तःपुर में शोर मचा कि मन्त्री के पुत्र ने राजकुमारी के वेणी को काट दिया है। यह सुनकर क्रोधित राजा ने मन्त्री को सकुटुम्ब नष्ट कर देने का आदेश दे दिया। तब मन्त्री ने भण्डार से उस पेटी को निकलवा कर देखा तो उसे उसका पुत्र एक हाथ में छुरी और दूसरे हाथ में कटी हुई वेणी लिए हुये निकला। इससे ज्ञात हुआ कि नैमित्तिक के कथन को विपरीत करने के लिए मन्त्री ने यह उपाय सोचा था। राजा इससे संतुष्ट हो गया । - २६. सालभंजिका रूप राजकुमारी रत्नमंजरी की कथा मित्रानन्द के श्राप को बदलने के लिए अमरदत्त और मित्रा मित्रानन्द दोनों देशान्तर को चल दिये। वे क्रमशः पाटली पुत्र पहुंचे। वे वहां पर एक देव मन्दिर के दर्शन करने के लिए गये। जिसमें कलात्मक पुतलियां बनी हुई थीं। उनमें से एक मनोहर सालभंजिका के सौंदर्य को देखकर अमरदत्त उस पर आसक्त हो गया। बहुत समझाने पर भी जब उसका मोह कम नहीं हुआ तो मित्रानन्द अमरदत्त को उस मंदिर के निर्माता निधिसार के संरक्षण में छोड़कर एक माह के भीतर सालभंजिका की असलियत का पता लगाने Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रयणचूडरायचरियं में वर्णित अवान्तर कथाएँ एवं उनका मूल्यांकन : ६९ के लिये चल दिया। पहले मित्रानन्द उसके शिल्पकार सूर्यदेव के पास सोपारक गया! उससे ज्ञात हुआ की उज्जैनी की राजकुमारी के सौंदर्य को देखकरवह सालभंजिका बनायी गयी है। तब रत्नमंजरी से मिलने के लिए मित्रानन्द उज्जैनी पहुंचा। मित्रानन्द ने उज्जैनी में रात्रि के समय धन कमाने के लिए साहसपूर्वक एक मृतक की साधना की। उसके लिए उसे पांच सौ टके प्राप्त हुए। प्रात:काल उस धन से मित्रानन्द आवश्यक वस्त्र आदि खरीद कर नगर की प्रधान गणिका बसन्तसेना के घर गया। अपने संयम और धैर्य से बसन्तसेना को प्रभावित कर उसकी माता को दूती के रूप में मित्रानन्द ने राजकुमारी के पास भेजा कि तुम्हारा प्रेमी पाटलीपुत्र का राजकुमार अमरदत्त तुमसे मिलना चाहता है। ___ रत्नमञ्जरी ने जिज्ञासा के कारण मित्रानन्द को मिलने के लिए चित्रशाला में बुला लिया। मित्रानन्द ने अपने कौशल के द्वारा रत्नमञ्जरी को एक राक्षसी के उपद्रव में फंसा दिया। उस निन्दा से बचने के लिए रत्नमञ्जरी मित्रानन्द के साथ पाटलीपुत्र चलने को तैयार हो गयी। तब राजा को प्रभावित कर मित्रानन्द रत्नमञ्जरी को पाटलीपुत्र ले आया। रत्नमञ्जरी के आ जाने से अमरदत्त और रत्नमञ्जरी का विवाह हो गया तथा अमरदत्त वहां का महाराजा भी बन गया। मित्रानन्द ने उस मुर्दे के श्राप से बचने के लिए देशान्तर का बहुत भ्रमण किया किन्तु अन्त में संयोगवश वह श्राप सत्य हुआ। २७. क्षेत्रपाल अहीर, सत्यश्री और चंडसेन की कथा - अमरदत्त और रत्नमञ्जरी की आसक्ति के सम्बन्ध में उनके पूर्व जन्म की कथा एक मुनि ने कही - क्षेत्रपाल नामक एक अहीर था। उसके सत्यश्री नाम की पत्नी थी तथा चंडसेन नाम का उसका मित्र था। एक बार बगीचे में घूमते हुए एक साधु से क्षेत्रपाल अहीर ने श्रावक व्रतों के पालन का नियम लिया। उनकी पालना फल से वह अमरदत्त के रूप में उत्पन्न हआ तथा सत्यश्री रत्नमञ्जरी हई और चंडसेन मित्रानन्द हआ। क्षेत्रपाल अहीर ने एक बार अपने नौकर को कहा था कि तुम अपने आदमियों से मत मिलो। इसलिए दूसरे अमरदत्त के जन्म में उसे बंधु जनों का वियोग प्राप्त हुआ। सत्यश्री ने अपनी नौकरानी को भोजन करते समय राक्षसी कहा था इसलिए रत्नमञ्जरी के जन्म में उसे राक्षसी की निन्दा प्राप्त हुई और चंडसेन ने किसी भिक्षुक के वस्त्रों को लेकर उन्हें पेड़ पर लटका दिया था ऐसा करने से उसे मित्रानन्द के जन्म में वृक्ष से उल्टा लटकने का फल प्राप्त हुआ। . २८. यशोमति वणिक पुत्री की कथा - एक मुनि के पास सोमवसु नाम का वणिक पुत्र आया और उसने निवेदन किया कि उसकी यशोमति नाम की पुत्री Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० : श्रमण, वर्ष ५६, अंक १-६/जनवरी-जून २००५ यौवन अवस्था में ही अत्यन्त अस्वस्थ हो गयी है। अनेक औषधि और उपाय किये जाने पर भी वह स्वस्थ नहीं हुई। इसका क्या कारण है? तब मुनि ने कहा कि तुम्हारी यह पुत्री पूर्व जन्म में भूतमाल नगर में कुरुमति नाम की वणिक पत्नी थी। एक दिन बिल्ली के दूध पी जाने पर उसने अपनी बहू को डाकिनी जैसे दुर्वचन कहे थे। उसके परिणाम स्वरूप वह अगले जन्म में क्षुद्र चंडालिनी हुई वहां वह सिर की पीड़ा से दु:खी रही। किन्तु मृत्यु के समय में उसने वैराग्य को प्राप्त कर साध्वी रूप धारण किया था। उसके परिणाम स्वरूप वह तुम्हारी पुत्री हुई है। दुर्वचन बोलने के कारण वह अस्वस्थ है उसे जोगिनी लगी हुई है। तब मुनि के द्वारा मंत्रित पानी पीने से उसका रोग ठीक हुआ। (ख) मूल्यांकन - आ० नेमिचन्द्र ने रयणचूडरायचरियं में रत्नचूड और तिलकसुन्दरी के मुख्य कथा के साथ-साथ उपर्युक्त जो २८ अवान्तर कथाएं दी. हैं उनका ग्रन्थ की कथा वस्तु के विस्तार में महत्त्वपूर्ण योगदान है। ये अवान्तर कथाएं दो दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं। एक तो इन कथाओं से ग्रन्थ के नायक के चरित को विकसित करने का अवसर ग्रन्थकार को मिला है। रत्नचूड के चरित को उदारता, साहस, वीरता एवं धर्म के प्रति आस्था आदि अनेक गुणों को इन अवान्तर कथाओं के माध्यम से उजागर किया गया है। इन कथाओं का दूसरा महत्त्व यह है कि ग्रन्थकार ने इसके द्वारा प्रमुख कथा के पात्रों के जन्म-जन्मान्तर स्पष्ट करने का प्रयत्न किया है। ग्रन्थकार यह बताना चाहता है कि किसी भी व्यक्ति को दुःख अथवा सुख एक ही जन्म के कर्मों के कारण नहीं अपितु उसके पूर्वजन्मों में उपार्जित कर्मों के कारण प्राप्त होता है। ये कथाएं इस दृष्टि से भी महत्त्वपूर्ण हैं कि ग्रन्थ की मूल विषय वस्तु से हटकर भी कई बातों की शिक्षा इन अवान्तर कथाओं से मिलती है। क्षेमंकर सोनी की कथा से ज्ञात होता है कि अन्तरंग व्यक्तियों से प्रेम हो जाना स्वाभाविक है किन्तु मित्र की पत्नी को भगाकर ले जाने पर क्षणिक सुख ही हो सकता है। अन्ततः दु:खी होना पड़ता है। उल्लू रूप पवनगति की कथा से ज्ञात होता है कि ऋषि अकारण भी श्राप दे देते हैं। किन्तु यह कथा रत्नचूड के साहस को प्रकट करने की लिए सम्भवत: ग्रन्थकार द्वारा प्रस्तुत की गई है। रत्नचूड उल्लू को पराजित कर उसे श्राप से मुक्त करता है। श्राप से मुक्त करना चरित नायक के गुणों में वृद्धि करता है। धूमकेतु यक्ष की कथा अमानवीय शक्तियों को प्रकट करने की कथा है। इस कथा में राक्षस का उपद्रव और नगर का उजड़ना ये दोनों प्रमुख कथानक रूढ़ियां प्राप्त होती हैं। इस कथा के द्वारा ग्रन्थकार ने तीन कार्य किये हैं। निरपराध को सजा देने का फल केवल राजा को नहीं अपितु सारे नगर को भोगना पड़ता है। धूमकेतु राक्षस Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रयणचूडरायचरियं में वर्णित अवान्तर कथाएँ एवं उनका मूल्यांकन : ७१ के उपद्रव से यह स्पष्ट है। दूसरी बात यह की यक्ष, राक्षस आदि अमानवीय शक्तियां मानव के लिए सहायक होती हैं। धूमकेतु ने राजकुमारी सुरानंदा की रक्षा की और रत्नचूड के कहने पर नगर को पुन: बसा दिया। तीसरी बात इस कथा से यह फलित होती है कि रत्नचूड को सुरनंदा राजकुमारी की प्राप्ति हो जाती है। सोमभद्र ब्राह्मण की कथा मुख्यरूप से धनोपार्जन करने की कथा है। प्राकृत साहित्य में धनोपार्जन सम्बन्धी कई कथाएं प्राप्त होती हैं। समाज के अपमान से पीड़ित होकर धन कमाने के लिए निकलना यह एक प्राचीन रूढ़ि है। इस कथा में वेश्या से अपमानित होकर धन कमाने के लिए सोमप्रभ ब्राह्मण निकलता है। इसी तरह वसुदेवहिन्डी में वसन्तलतिका गणिका की मां से अपमानित होकर चारुदत्त धन कमाने के लिये निकलता है। इसी ग्रन्थ में दो इष्ट पत्रों की कथा भी इसी विषय से सम्बन्धित है। कुवलयमाला में सागरदत्त भी समाज से अपमानित होकर धन कमाने के लिए निकल पड़ता है। रत्नचूड की इस अवान्तर कथा में धन कमाने के लिए जिन साधनों को बताया गया है वे प्राचीन साहित्य में बहुत प्रचलित थे। सुरखंड चोर कथा से दो बातें ज्ञात होती हैं कि उस समय के राजकीय रक्षक कितनी असावधानी रखते थे कि असली चोर के स्थान पर निरपराधी को पकड़ ले जाते थे। दूसरी बात यह कि सोमप्रभ ब्राह्मण का भाग्य उस समय ठीक नहीं था। इसलिए वह निरपराधी होने पर भी पकड़ा गया। असली चोर के बदले में किसी दूसरे को पकड़ने की कथाएं प्राकृत साहित्य में मिलती हैं।६ केशव श्रावक की कथा देवद्रव्य भक्षण करने के दुष्परिणाम को बताने वाली है। ग्रन्थकार ने इस कथा को सोमप्रभ ब्राह्मण की निर्धनता को व्यक्त करने के लिए कहा है। यह सोमप्रभ ब्राह्मण ही पूर्व जन्म में केशव श्रावक था। शूरतेज और शूरधर्म की कथा सौतेले भाइयों के द्वेष को व्यक्त करती है। इस प्रकार की कई कथाएं प्राप्त होती हैं। ग्रन्थकार ने इस कथा के नायक शूरतेज के गुणों को प्रकट करने के लिए विस्तार दिया है। नायक की उदारता प्रकट करने के लिए उसके द्वारा एक कर्जदार बन्दी पुरुष को अपनी रत्नावली देकर छुड़वाया गया है। रत्नावली देकर कर्ज से मुक्त होने की घटना मृच्छकटिक में भी प्राप्त होती है। इसी कथा में नायक शूरतेज पागल हाथी को वश में करके राजकुमारी पियंगुमंजरी के रूप में पुरस्कार को प्राप्त करता है। हाथी को वश में करने की कथानक रूढ़ि कई कथाओं में प्राप्त होती है। प्राकृत कथाओं में अघट्ठ कुमार की कथा तथा कुवलयचंद्र की कथा. में यही विवरण प्राप्त होता है। चन्द्रानन और शिवकेतु की कथा में आ.नेमिचन्द्रसूरि धार्मिक कार्यों में विघ्न डालने वाले व्यक्तियों को मिलने वाले दुष्परिणामों से परिचित कराना चाहते हैं। इस कथा Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ : श्रमण, वर्ष ५६, अंक १-६/जनवरी-जून २००५ के माध्यम से ग्रन्थकार ने जिनेन्द्र के अभिषेक महोत्सव और भक्तजनों द्वारा की गई प्रार्थनाओं का विस्तार से वर्णन किया है। उन्होंने एक बात और स्पष्ट की है कि प्रारम्भ में मंदिर में विघ्न उपस्थित करने वाले पात्रों ने अगले जन्म में शान्तिनाथ का मंदिर बनवाया था। अपने मित्रों को प्रतिबोधित करने का प्रसंग इस कथा में आया है जो कि कुवलयमाला के प्रमुख पात्रों के प्रतिबोधन की घटना से मिलता जुलता है। गुरु शिष्य की कथा यद्यपि स्वप्न की असत्यता को सिद्ध करने के लिए कही गयी है किन्तु यह कथा मूल् की कथाओं की कोटि में आती है। ऐसी कई कथाएं प्राचीन साहित्य में उपलब्ध हैं। कथासरित्सागर में नरवाहनदत्त का मनोविनोद करने के लिए उसका मन्त्री गोमुख उसे अनेक मों की कथाएं सनाता है। जिस प्रकार रयणचूड की इस कथा में मूर्ख शिष्य ने गुरु को संकट में फंसा दिया उसी तरह मूर्ख शिष्यों की अन्य कई कथाएं भी मिलती हैं।२० । सत्यप्रतिज्ञ राजा पुरुषोत्तम की कथा से दो बातें ज्ञात होती हैं कि राजा कापालिकों की मंत्र साधना में सहायक होते थे और प्राणों का संकट आने पर भी अपनी प्रतिज्ञा का पालन करते थे। इस प्रकार की कई कथाएं भारतीय साहित्य में उपलब्ध हैं। चोपन्नमहापुरिष-चरियं में राजा गणधर्म भी इस प्रकार एक कापालिक की मंत्र साधना में सहायक होता है।११ पुरुषोत्तम राजा और कमलश्री की कथा में आ. नेमिचन्द्रसूरि ने एक लोक कथा को प्रस्तुत किया है । राजा स्वप्न में एक अपूर्व सुन्दरी को देखता है जिसके परिचय के सम्बन्ध में उसे कुछ पता नहीं है । फिर भी प्रयत्न पूर्वक वह उसकी प्राप्ति करता है। "स्वप्न में भावी प्रिया का दर्शन'' इस विषय से सम्बन्धित कई कथाएं प्राप्त होती हैं। पृथ्वीराजरासो में पृथ्वीराज का हंसावती और संयोगिता से विवाह उन्हें स्वप्न में देखने के बाद ही होता है।९२ इस कथा के प्रसंग में पुरुषोत्तम राजा कमलश्री को प्राप्त करने में तापसियों का सहयोग लेता है। तापसियों से प्रेम व्यवहार में सहयोग लेने सम्बन्धी कई कथाएं प्राकृत साहित्य में उपलब्ध हैं।१३ इस कथा में पुरुष द्वेषिनी कन्या, चित्रपट्ट दर्शन, औषधि के रूप परिवर्तन आदि अनेक ऐसे तत्त्व हैं जो कई कथाओं में प्राप्त होते हैं। श्रीविजय और नैमित्तिक की कथा भविष्य वाणी के प्रति आस्था और उससे उत्पन्न संकट से राजा की सुरक्षा को प्रकट करने वाली है। मायावी मृग और सतारा की कथा रामायण के प्रसंग की याद दिलाती है। इसमें वैतालिनी विद्या के द्वारा राजा को व्यामोहित कर उसकी पत्नी को हरण करने की घटना है। इस प्रकार की विद्याओं के द्वारा स्त्री के अपहरण करने की कई कथाएं उपलब्ध हैं।१४ कपिल और सत्यभामा की कथा बेमेल विवाह को प्रकट करती है। ब्राह्मण-कन्या और दासी-पुत्र का विवाह समाज में मान्य नहीं था। इस कथा से आसक्ति दृढ़ता भी प्रकट होती है। Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रयणचूडरायचरियं में वर्णित अवान्तर कथाएँ एवं उनका मूल्यांकन वज्रायुद्य की कथा उसके धैर्य से सम्बन्धित है। बाज और कबूतर की कथा अति प्रसिद्ध है। यह कथा महाभारत में आयी है । १५ बौद्ध जातकों में भी यह कथा मिलती है।१६ प्राकृत कथाओं में यही कथा वसुदेवहिण्डी में मिलती है। " कथासरित्सागर में भी इस कथा को संकलित किया गया है। १८ १७ : ७३ ईश्वर सेठानी की कथा कटु वचन और दान न देने के भयंकर परिणामों को व्यक्त करने वाली है। इस कथा से ज्ञात होता है कि धार्मिकजनों को दान न देने से, और उनकी निन्दा करने से कई जन्मों में दरिद्रता का दुःख भोगाना पड़ता है । अन्त में, थोड़ा सा भी दान देने से उसका फल मिलता है, इसकी ओर संकेत किया गया है। आहारदान के फल को व्यक्त करने वाली कई कथाएं जैन साहित्य में उपलब्ध हैं। मनोरमा, विक्रमसेन और मदनसुन्दरी तथा शंखराजा और विष्णुश्री की ये तीनों कथाएं शीलवती नारी के द्वारा अपने शील के उपाय पूर्वक रक्षा करने को प्रकट करती हैं। इन कथाओं में ग्रन्थकार ने नारी के बाहरी सौन्दर्य से आसक्त व्यक्ति को विभन्न थालियों में एक ही भोजन के उदाहरण द्वारा प्रतिबोधित करने की बात कही है। णायाधम्मकहा में राजकुमारी एक सोने की प्रतिमा में भोजन की दुर्गन्ध के द्वारा अपने रूप पर आसक्त राजकुमारों को प्रतिबोधित करती है। १९ रयणचूड में शंखराजा अत्यन्त मोह के कारण अपनी पत्नी के शव को जलाने नहीं देता है। आसक्ति की यह पराकाष्ठा अन्य ग्रन्थों में भी मिलती है। नागश्री और देवश्री की कथा सौतिया डाह से सम्बन्धित है। सौतिया डाह की कई कथाएं साहित्य में उपलब्ध हैं । २१ दुर्गला चाण्डालिनी और देवमति वणिक पुत्री की कथा सौभाग्य से रहित स्त्रियों की कथा है। चन्द्रलेखा वृद्धा की कथा चोरी करने से दरिद्रता की प्राप्ति के फल को बताने वाली है। अमरदत्त और मित्रानन्द से सम्बन्धित कथाएं लोक कथाओं का प्रतिनिधित्व करती हैं। इनमें यशोमति वणिक पुत्री की कथा दुर्वचन कहने से रोग युक्त होने के फल को प्रकट करती है। दुर्वचन अथवा निन्दा के परिणाम वाली कई कथाएं प्राप्त होती हैं । उनमें सुगन्धदशमी कथा प्रमुख है । २२ इस प्रकार रयणचूडरायचरियं की अवान्तर कथाएं एक दृष्टि से स्वतंत्र भी हैं क्योंकि वे अलग-अलग फलों को व्यक्त करती हैं। दूसरी दृष्टि से वे सभी कथाएं एक दूसरे से जुड़ी हुई भी हैं क्योंकि ग्रन्थकार ने इन कथाओं के माध्यम से मूल कथा प्रमुख पात्रों के जन्म-जन्मान्तरों को स्पष्ट किया है। ये अवान्तर कथाएं कौतूहल बनाये रखने में जितनी सहायक हैं उतनी ही भारतीय कथा - साहित्य का प्रतिनिधित्व करने में भी सहायक हैं। इन कथाओं के अध्ययन से आचार्य नेमिचन्द्रसूरि के सशक्त कथाकार का व्यक्तित्व स्पष्ट रूप से उभरता है। Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ : श्रमण, वर्ष ५६, अंक १-६/जनवरी-जून २००५ सन्दर्भ : १. तुलना करें, कथासरित्सागर, २, ४, ९०-६. २. वसुदेवहिण्डी, पृ० ११६-१७. कुवलयमाला, पृ० १०३-६. कुवलयमालाकहा का सांस्कृतिक अध्ययन, डॉ० प्रेम सुमन जैन, पृ० १७९-१८५. जैन आगम साहित्य में भारतीय समाज, डॉ० जगदीश चन्द्र जैन, पृ० ८१. उत्तराध्ययन टीका (शान्तिसूरि) -४, पृ० ९५. कुवलयमालाकहा का सांस्कृतिक अध्ययन, डॉ० प्रेम सुमन जैन, पृ० २६. ८. . उत्तराध्ययन-वृत्ति (सुखबोधा) में प्रतिबुद्ध जीवों की कथा। ९. कथासरित्सागर दशमलम्बक, षष्ठ तरंग। १०. विनोद कथा संग्रह (मल्लधारीराजशेखरसूरि) कथा नं० २६. ११. चौपन्नमहापुरुष- चरियं (शीलंकाचार्य) मुनिचंद कथानक प्रस्तावना पृ० ४. १२. पृथ्वीराजरासो की कथानक रूढ़ियां, पृ० १३२.। १३. जैन आगम साहित्य में भारतीय समाज, डॉ० जगदीश चन्द्र जैन, पृ० २८३. १४. उत्तराध्ययनटीका-१८, पृ० २४२,२४७ आदि। १५. महाभारत (शान्तिपर्व), २४७-४९. १६. शिविजातका १७. वसुदेवहिण्डी, पृ० ३३७. | १८. कथासरित्सागर, १, ७, ८८-१०७. ___णायाधम्मकहा, मल्लिअध्ययन। कुवलयमालाकहा, सुन्दरी की कथा, पृ० २२५ तथा पउमचरियं सन्धि २७-२८. आवश्यकचूर्णि, पृ० २३०, विपाकसूत्र- ९, पृ० ५१-५२, उतराध्ययनटीका ९, पृ० १४१ आदि। २२. सुगन्धदशमी-कथा, हीरालाल जैन, भूमिका। २१. Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण, वर्ष ५६, अंक १-६ जनवरी-जून २००५ मुहम्मद तुगलक और जैन धर्म __डॉ. निर्मला गुप्ता मुहम्मद तुगलक का इतिहास विविधताओं से भरा है। जहाँ वह विद्वान,न्यायी, सच्चरित्र, सत्यान्वेषी और जिज्ञासु है, वहीं वह इस्लाम धर्म के प्रति आस्थावान है तथा अन्य धर्मावलम्बियों के प्रति उदार और सहिष्णु है। जैनियों और जैन- आचार्यों के साथ उसके प्रगाढ़ सम्बन्ध न केवल रोचक हैं वरन् अपवाद स्वरूप भी हैं। मुहम्मद तुगलक का जैन-धर्म के साथ सम्बन्ध मध्यकालीन भारतीय इतिहास का गौरवपूर्ण अध्याय है। यद्यपि फारसी इतिहासकारों ने कहीं भी स्पष्ट रूप से इन घटनाओं का उल्लेख नहीं किया है। इब्नबतूता और इसामी सुल्तान मुहम्मद तुगलक के बारे में लिखते हैं कि वह रात-रात भर योगियों से मिलता और उनसे वाद-विवाद करता था। मुस्लिम-आक्रमण के दौरान जैन-देवालय भी धराशायी हुए। प्रसिद्ध 'कुव्वतुलइस्लाम' मस्जिद के निर्माण में २७ हिन्दू और जैन मन्दिरों के अवशेष प्रयोग में लाये गये थे। समकालीन इतिहासकारों ने कहीं भी जैनियों को जैन कह कर सम्बोधित नहीं किया है। सुल्तानों के द्वारा राजाज्ञा जारी कर जैनियों को और उनके धर्मस्थलों को सुरक्षित करने का प्रयास भी किया है। वे उच्च प्रशासकीय पदों पर भी नियुक्त थे। समर शाह और गुजरात के मन्त्री वस्तुपाल का उल्लेख इस सन्दर्भ में किया जा सकता है। फेरू नामक जैन न केवल प्रसिद्ध व्यापारी था वरन् अलाउद्दीन खलजी के समय वह टकसाल का उच्चाधिकारी भी था। मुबारक-खलजी के बारे में यह कहा जाता है कि जैन आचार्य जिनचन्द्र सूरि के साथ उसके अच्छे सम्बन्ध थे, और १३१८ ई.के लगभग जैन आचार्य और सुल्तान के बीच भेंट होने की सम्भावना प्रगट की जाती है। इसी प्रकार सुल्तान गयासुद्दीन तुगलक ने सिंह नामक व्यक्ति को टकसाल का कार्यभार दिया था। ... सुल्तान मुहम्मद तुगलक के राज्यारोहण से दिल्ली सल्तनत के इतिहास में सहिष्णुता का काल आरम्भ होता है। अनेक जैनियों के नाम उपलब्ध हैं, जिनमें राजशेखर, भीम, मंत्री, मनक, महेन्द्र सूरि, भट्टारक सिंहकीर्ति, सोमप्रभ सूरि, सोमतिलक सूरि और जिनप्रभ सूरि ने अपनी विद्वता के बल पर सुल्तान से अच्छे सम्बन्ध बनाये और सुल्तान की कृपा प्राप्त की। समर शाह नामक जैन से सुल्तान * रीडर, इतिहास विभाग, महिला महाविद्यालय, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ : श्रमण, वर्ष ५६, अंक १-६/जनवरी-जून २००५ मुहम्मद तुगलक बहुत प्रभावित था। सुल्तान उसे अपना भाई मानता था। मुहम्मद तुगलक ने उसे तेलंगाना का गवर्नर बनाया था। यहाँ उसने अनेक मन्दिरों का निर्माण किया।९ गुणचन्द्र नामक व्यक्ति भी सुल्तान का कृपा-पात्र था। सुल्तान ने उसे उपहार में स्वर्ण दिया था।१० मुहम्मद तुगलक पर सर्वाधिक प्रभाव जिनप्रभ सूरि का था। जिनविजय के अनुसार आचार्य जिनप्रभ सूरि प्रथम व्यक्ति हैं, जिन्होंने दिल्ली दरबार में जैन-धर्म का प्रचार किया। प्राकृत और संस्कृत के ग्रन्थों में इन घटनाओं का उल्लेख मिलता है। इन सम्बन्धों के कारण जैन-धर्म का प्रभाव बढ़ा, और वह तुर्क-आक्रमण तथा सल्तनत के अन्य धार्मिक विरोधों से सुरक्षित हो गया। जिनप्रभ सूरि के लिखित ग्रन्थ 'विविध तीर्थकल्प' में वर्णित है कि विक्रम संवत् १३८५ पौष की एक शाम को आचार्य सुल्तान मुहम्मद से मिलने राजमहल में गये। अर्धरात्रि तक सुल्तान और आचार्य वाद-विवाद करते रहे। आचार्य ने बाकी रात भी महल में बिता दी। प्रात:काल सुल्तान ने उन्हें विशाल संख्या में पशु, धन, वस्त्र आदि उपहार में दिये, किन्तु आचार्य ने बड़ी नम्रता के साथ इसे लेना अस्वीकार कर दिया और सुल्तान से जैन-तीर्थों की सुरक्षा के लिए शाही-फरमान माँगा। सुल्तान ने आचार्य के इस माँग को स्वीकार कर लिया। इस विवाद की समाप्ति पर हाथियों पर शाही जुलूस निकला। एक हाथी पर जिनप्रभ सूरि तथा दूसरे पर जोनदेव आचार्य बैठे । नृत्य-संगीत और दरबारी अमीरों से घिरा यह जुलूस पौषधशाला तक पहुँचा। यहाँ आचार्य ने जैन रीति के अनुसार कुछ धार्मिक संस्कार किये।१२ ऐसा अनुमान है कि सुल्तान ने एक अन्य फरमान देकर भिक्षुओं को रहने के लिए उप-वसति निर्माण करने की आज्ञा प्रदान की।१३ आगे वर्णित है कि १३८५ संवत् में ही वियावंश के एक व्यक्ति (सम्भवत: यह व्यक्ति शिकदार था) ने असीनगर (सम्भवत: असीरगढ़) पर आक्रमण कर अनेक जैन भिक्षुओं को कैद किया। पार्श्वनाथ की मूर्ति तोड़ डाली और महावीर जी की मूर्ति दिल्ली ले आया। यह मूर्ति तुगलकाबाद के खज़ाने में रख दी गयी, जहाँ वह पन्द्रह माह तक पड़ी रही।४ इस मूर्ति को प्राप्त करने के लिये जैनियों ने कुछ प्रयास किया। इसी सन्दर्भ में जैन-आचार्य जिनप्रभ सूरि का सुल्तान के साथ भेंट करने का उल्लेख मिलता है। वर्षाऋतु में आचार्य सुल्तान से मिलने गये। वर्षा के कारण आचार्य के पैरों में कीचड़ लग गया था। सुल्तान ने अपने हाथों से उनके पावों से कीचड़ साफ किया। ऐसे अनुराग भरे उदाहरण सल्तनत में अपवाद हैं। यह भी कहा जाता है कि आचार्य ने सुल्तान के लिए कुछ रहस्यवादी पदों और विजय-मन्त्रों का गान किया था। सुल्तान Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुहम्मद तुगलक और जैन धर्म : ७७ को प्रसन्न कर आचार्य ने उपयुक्त अवसर देखकर उक्त महावीर की मूर्ति की माँग की। सुल्तान ने सहर्ष उनकी इस मॉग को स्वीकार कर लिया।१५ आचार्य के साथ सुल्तान के ऐसे ही अनेक भेंटों का उल्लेख मिलता है। आचार्य महाराष्ट्र भी गये। सुल्तान ने भव्य उपहार देकर आचार्य को विदा किया और दक्षिण में उनके रहने की सुविधाजनक व्यवस्था की। यह कहा जाता है कि वे सुल्तान के साथ पैठन गये और उन्होंने जैन तीर्थंकर मुनि सुव्रत की प्रतिमा का अवलोकन किया।१६ आचार्य के निर्देशन में ही सुल्तान ने पालिताना, शत्रुजय और ग़िरनार के मन्दिरों और मूर्तियों का दर्शन किया। शत्रुजय मन्दिर में तो एक जैन संघ के नेता की भांति सुल्तान ने धार्मिक संस्कार भी किये।१७ सुल्तान और जैन आचार्य के भेंट होने के अन्य दृष्टान्त भी प्राप्त हैं। एक बार जब सुल्तान अपनी माँ के स्वागतार्थ गया हआ था, तो उसने जैन आचार्य से मुलाकात की। जैन आचार्य को 'अभिनवसराय में ठहराया गया,जो बाद में 'भट्टारय शरत' कहलाया। यहाँ तक कि जब सुल्तान अपने पूर्वी इलाकों की विजय के लिए गया हुआ था, तब भी जैन आचार्य उसके साथ थे। किन्तु बाद में, शिविर का जीवन आचार्य के लिए कष्टकर समझ कर सुल्तान ने उनके वापस लौटने की व्यवस्था की।१८ कन्यान्य महावीर कल्पपरिषद् से विदित होता है कि आचार्य ने सुल्तान से अनेक फरमान प्राप्त कर जैन तीर्थस्थानों, यथा पेथाड, सराज, अचला आदि चैत्यों की सुरक्षा का आश्वासन प्राप्त किया।१९ 'खरतरगच्छ पट्टावली' से पता चलता है कि राघव चेतन नामक अन्य विद्वान मुहम्मद तुगलक के दरबार में सम्मानित था। परन्तु दुष्ट-प्रकृति का होने के कारण आचार्य से उसकी नहीं पटती थी। दरबार से राघव चेतन को हटा कर आचार्य जिनप्रभ सूरि का सम्मानित होना, इस काल की एक महत्त्वपूर्ण घटना है।२० जैन परम्पराओं से भी इसकी पुष्टि होती है। जैन श्रोतों से यह विदित होता है कि, खोरासान से आये एक कलन्दर और जैन-आचार्य के बीच तान्त्रिक शक्ति की होड़ लगी थी।२१ यह घटनाएँ स्पष्ट करती हैं कि न केवल आचार्य, वरन् अन्य धर्मावलम्बियों से भी मुहम्मद तुगलक का दरबार सुशोभित था। जिनप्रभ सूरि के अन्य शिष्य महेन्द्र सूरि का भी वह अत्यधिक सम्मान करता था। सुल्तान ने इन्हें अनेक उपहार देकर 'महात्मा' शब्द से सम्बोधित किया।२२ सुल्तान मुहम्मद तुगलक के समय सिंहकृति नामक कवि का उल्लेख मिलता है। पद्मावती वस्त्री अभिलेख से विदित होता है कि १३२६-१३२७ ई० में सुल्तान ने बौद्ध-धर्मानुयायियों को परास्त करने के लिए इन्हें दक्षिण से बुलवाया था।२२ जिनप्रभ सूरि के अलावा अन्य Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ : श्रमण, वर्ष ५६, अंक १-६/जनवरी-जून २००५ प्रसिद्ध जैन आचार्य जिनदेव का भी उल्लेख मिलता है, जिन्होंने अपनी योग्यता से दरबार में ऊंचा पद प्राप्त किया था।२४ उनकी योग्यता से प्रभावित होकर उन्हें एक सराय दान में दिया गया, जो कि बाद में 'सुरभाणसराय' कही जाने लगी। सुल्तान ने इन्हें शाही फरमान देकर पुन: जैन चैत्यों की सुरक्षा का आश्वासन दिया।२५ सादादी में प्राप्त अभिलेख से विदित होता है कि सुल्तान मुहम्मद तुगलक ने एक जैन साधु को राजस्थान और कुछ अन्य स्थानों में तीर्थयात्रा करने के लिए एक फरमान दिया था।२६ भावनगर अभिलेख में सुल्तान मुहम्मद की प्रशंसा करते हुए, उसे जैन समुदाय के प्रति अनेक उदार कार्य करने तथा संकट-काल में दानघर निर्माण कराने का श्रेय दिया गया है। इसी अभिलेख में सुल्तान द्वारा गुणराज नामक व्यक्ति को शाही फरमान देने का विवरण मिलता है।२७ __ . यह कहना कठिन है कि किस प्रकार सुल्तान जैन-संघ की ओर आकर्षित हुआ। सम्भवतः जिनप्रभ सूरि के व्यक्तित्व से प्रभावित होकर, उसने जैन धर्म और जैन समुदाय को पूर्ण सुरक्षा प्रदान की। यह निर्विवाद सत्य है कि सुल्तान मुहम्मद तुगलक संस्कृत, प्राकृत भाषाओं को अच्छी तरह जानता था एवं ज्ञानी आचार्य भी फारसी भाषा समझते थे, तभी तो शाही दरबार में दोनों के बीच धार्मिक वाद-विवाद हो सकता था। मुहम्मद तुगलक को धार्मिक शास्त्रार्थ में रुचि थी। इसी रुचि के कारण वह अनेक विद्वानों को शाही प्रश्रय देता रहा होगा। इससे संस्कृत और प्राकृत भाषा के विकास में सहायता मिली होगी। जैनियों के प्रति अपनाई गयी उदार और सहिष्णुता की यह नीति मध्यकालीन भारत के इतिहास में एक अनूठी घटना है, जिसपर अविश्वास नहीं किया जा सकता। जैन आचार्य और सुल्तान के सम्बन्ध, शाही जुलूसों के भव्यता के साथ निकलने में अमीरों का हिस्सा लेना, मन्दिरों का निर्माण, जैन-तीर्थों की सुरक्षा के लिए फरमानों और.आश्वासनों का मिलना, इस बात का प्रतीक है कि मुहम्मद तुगलक न केवल उदार, विद्वान, धर्मसहिष्णु-शासक था, अपितु वह पूर्णत: धर्म-निरपेक्ष शासन की स्थापना करना चाहता था, जहाँ योग्यता और समानता को महत्त्व मिल सके। समकालीन मुस्लिम-समाज तथा रूढ़िवादी उलेमा वर्ग ने उसके इन कार्यों को धर्मविरोधी समझा और सम्भवत: इसी कारण वे उसके विरोधी हो गये होंगे। सुल्तान के उदारता की पराकाष्ठा तो तब दिखलाई पड़ती है जब वह शत्रुजय, पालिताना आदि में मन्दिरों में मूर्तिपूजा के विधि-विधान को सम्पन्न कर रहा था। साथ ही यह भी आश्चर्यजनक लगता है कि जैनियों के इतने निकट होने पर भी सुल्तान की नीति पर अहिंसा का कोई प्रभाव नहीं पड़ा। यह भी स्पष्ट नहीं है कि जैनियों को जजिया या तीर्थ-यात्रा-कर देना पड़ता था। चीनी सम्राट से ज़ज़िया की माँग करना, इस बात Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुहम्मद तुगलक और जैन धर्म : ७९ का प्रमाण है कि जैनियों के प्रति असीम सहिष्णुता दिखाकर भी सुल्तान ने अवश्य ही उनसे ज़ज़िया लिया होगा, क्योंकि वह इस्लाम धर्म के सिद्धान्त का कट्टर पक्षपाती था। मुहम्मद तुगलक की मृत्यु के बाद जैन सम्बन्धों के इस गौरवपूर्ण अध्याय की समाप्ति हो गई। सन्दर्भ : १. रहला II, इब्नबतूता, (अनु० आगा मेंहदी हुसैन), बड़ौदा, १९५३, पृ० १६४. फुतूहस सलातीन, इसामी, सम्पादन-एम० उषा, मद्रास, १९४८, पृ० ५१५. ३. आर्कियालाजी एण्ड मानुमेन्टल रिमेन्स ऑफ देहली, कार स्टेफेन, इलाहाबाद, १९६७, पृ० ४१, ४२, ४५, पाद् टिप्पणी - १. ४. लिट्रेरी सर्कल आफ महामात्य वस्तुपाल एण्ड इट्स कन्ट्रीब्यूशन टू संस्कृत लिट्रेचर, भारतीय विद्याभवन, जैन सिंघी सिरीज, नं० ३३, पृ० ३१, प्रबन्धचिन्तामणि, मेरुतुंग, अनु० टावनी, कलकत्ता, १९०१, पृ० १६४-१६५. जैनिज्म इन गुजरात, सी०बी० सेठ, १९५३, पृ १७९, पी० एल० गुप्ता, इण्डियन क्वायन्स (थीसिस), पृ० ११८. कुतुबदीन सुरतान राउ रजिउसमणोहक जगि पचडऊ जिनचन्द्र सूरि सुरहि सिंह सहेरु (श्री निजकुशलय सूरि पट्टाभिषेक रास) ढिल्लीपुरे दान गुशौ वदीन्य श्री गयास साहि क्षितिपाल मान्य: सहि भिद्दोड भूद भूवि टंकशाली गागोय पन्ति मर्ल शील शाली (जर्नल आफ मध्य प्रदेश परिषद्, जि० ४, पृ० ८७) प्रोसीडिंग्स आफ इण्डियन हिस्ट्री कांग्रेस, १९४१, पृ० ३०१-३०२. तुगलक डायनेस्टी, आगा मेंहदी हुसैन, कलकत्ता, १९६५, पृ० ३१५-३१७. प्रो० इ०हि०कां०, १९४१, पृ० ३०१-३०२. ११. वही, १९४१, पृ० २९६-२९७. १२. वही, १९४१, पृ० २९६-२९९. १३. तेर पंचा सियई पोस सदि आटमिसणिहि वारो/मेटिऊ असपते महमदों सुगुरिढोलिय नयरे श्री मुखि सलहिरू पातसाहि विविध वरि सुसि सोहीं। देई फरमारतु अनु कारवईनववसति राय सुजारतु। (उद्धृ प्रो० इ०हि० कां० १९४१, पृ० २९६) १४. विविध तीर्थकल्प, जिनप्रभ सूरि, शान्तिनिकेतन, १९३४, पृ० ४५-४६. Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८० १५. वही, पृ० ३२. १६. तुगलक डायनेस्टी, पृ० ३१९-३२०. १७. वही, पृ० ३२१. १८. विविध तीर्थकल्प, पृ० ९५-९६. १९. २०. २.१. २२. २३. २४. २५. २६. : श्रमण, वर्ष ५६, अंक १-६ / जनवरी - जून २००५ २७. प्रो० इ० हि० कां०, १९४१, पृ० ३००-३०१. महाराणा कुम्भा, राम वल्लभ सोमानी, जोधपुर, १९६७, पृ० २१. वही, पृ० २१ २२. प्रोसीडिंग्स आफ द सेवेन्थ ओरिएन्टल कांफ्रेन्स, बड़ौदा, १९३५, पृ० ६३०. विशालकीर्ति इश्री नेमिचन्द्र सिंह गुण दूव वामाल्य वपते हि नेतत नये बगांलय देशावृत श्रीमद ढिल्लि पुरेड महम्मुद सुरंत्राण स्यमारा कत्तै निर्जत्याशु संभावना जिन गुरु व्वौ द्वापी वादि, ब्रजम जैन शिलालेख संग्रह, जि० ३, १९५७, पृ० ५१४-५२६. बंद भावक ही सुगुस जिणदेव सूरीं ढिल्लिय बर प्रकटिदेसराऊ जेहिं कन्नाण मंडणू सामिऊँ पोर जिणु महमद राई सम छिउ थपिउ सुभलगनी सुभदिवसि । श्री जिणदेव सूरिंगीतम । रहला (अनु० हुसैन) परिशिष्ट जे, पृ० २६७. लिस्ट ऑफ इंस्कृप्शंस आफ नार्दर्न इण्डिया, डी० आर० भंडारकर, नं० ६३१, ६३३. विजयभान राज्ये तस्य प्रासाद पात्रेण विनय विवेक धैर्यदान शुभ कार्य निर्मल शीला, व्यद्भुतगुण मणि भयाभरणं आसुर गात्रेण श्री महम्मदं सुरत्राणं दत्त फरमाण साधु श्री गुण राज्य संघपति साहचर्य तीर्थ यात्रेण । भावनगर अभिलेख, जि० १, पृ० २०-२१. ******** Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण, वर्ष ५६, अंक १-६ जनवरी- जून २००५ राजपूत काल में जैन धर्म किसी भी प्रचलित सिद्धान्त में जब न्यूनता के चिह्न नजर आने लगते हैं, तब उन्हीं तत्त्वों में से ही प्रतिक्रिया स्वरूप कुछ नवीन सिद्धान्तों के बीज अंकुरित होकर धीरे-धीरे एक नवीन धारा के रूप में पल्लवित एवं विकसित होने लगते हैं। इस प्रतिक्रिया में प्रतिशोध की भावना की अपेक्षा सुधारवादी दृष्टिकोण की भावना का विकास अधिक होता है। किसी मूल सिद्धान्त की त्रुटियों को सुधार कर जिन विचारों के द्वारा उसे नया मोड़ दिया जाता है, वही नया सिद्धान्त कहलाता है। ठीक इसी प्रतिक्रिया स्वरूप भारत में अन्य धर्मों जैसे 'जैन धर्म' एवं 'बौद्ध धर्म' का प्रादुर्भाव हुआ। डॉ० महेश प्रताप सिंह * O १ जैन मतानुयायियों के अनुसार जैनधर्म प्रागैतिहासिक युग में भी विद्यमान था । उनका तर्क है कि मोहनजोदड़ो की खुदाई में जो योगी की प्रतिमा प्राप्त हुई है, वह उनके प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव की है। इतना ही नहीं बल्कि वेदों में आये 'आर्य' शब्दों को भी तीर्थंकरों से जोड़ा जाता है। ऋग्वेद में उल्लिखित " ऋषभ " " शब्द और अथर्ववेद एवं गोपथब्राह्मण में आये "स्वयंभू काश्यप २ शब्दों को ऋषभदेव से समीकृत किया जाता है । जिस पर अनुसंधान की आवश्यकता है। वस्तुतः महावीर के समय इस धर्म का विकास हुआ। महावीर स्वामी ने अपने क्रान्तिदर्शी विचारों से इसे नयी दिशा प्रदान किया। जैन धर्म में तीर्थंकरों का अस्तित्व ईश्वर के समान माना जाता है, यद्यपि इस धर्म में ईश्वर के लिए स्थान नहीं है, जिन्हें साधना के बाद ज्ञान प्राप्त हुआ उन्हें ‘तीर्थंकर' कहा गया। जैन धर्मानुयायियों के अनुसार उनमें चौबीस तीर्थंकर हुए थे जिन्होंने कालक्रमानुसार जैनधर्म का प्रचार और प्रसार किया। इस धर्म के अन्तर्गत दो प्रमुख शाखायें दिगम्बर तथा श्वेताम्बर थीं, इनके सिद्धान्तों में अत्यधिक अन्तर नहीं था । दिगम्बर सम्प्रदाय के लोग अवश्य ही मोक्ष में अत्यधिक विश्वास करते थे, लेकिन स्त्रियों के सम्बन्ध में नहीं। ये लोग जैन तीर्थंकरों की मूर्तियों की पूजा, पुष्प, धूप, वस्त्र के साथ नहीं करते थे, जैसा कि श्वेताम्बर सम्प्रदाय के लोग करते थे । उत्तर प्राचीन काल में बौद्ध धर्म की अपेक्षा जैन धर्म विशेष उन्नत अवस्था में था। इस समय इसका प्रमुख केन्द्र राजपूताना और गुजरात था। दक्षिण में जैनों को प्राध्यापक, इतिहास संस्कृति एवं पुरातत्त्व विभाग, डॉ०रा०म०लो० अवध विश्वविद्यालय, फैजाबाद Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२ : श्रमण, वर्ष ५६, अंक १-६/जनवरी-जून २००५ शैवों की कड़ी प्रतिद्वंद्विता का सामना करना पड़ा था। सम्भवतः इसलिए उत्पीड़न से त्रस्त होकर कुछ जैन गुजरात तथा राजस्थान में आ गये थे। इस युग के जैनधर्म के प्रमुख आचार्य हरिभद्रसूरि (७००-७७०) थे, जिन्होंने जैन धर्म को अन्य धर्मों की अपेक्षा अत्यधिक मानवीय समझकर अपनाया तथा इसके विकासार्थ यथासम्भव प्रयत्न किया। जिस समय इस विद्वान ब्राह्मण ने जैन धर्म को अंगीकार किया उस समय इसकी स्थिति दयनीय थी, तथा इस धर्म में भी वह सभी क्रिया-कलाप होता था, जो जैन धर्म के अन्तर्गत वर्जित था। हरिभद्रसूरि ने इस पाखण्ड के विरुद्ध आवाज उठाई और जैनधर्म पर १४०० पुस्तकें लिखीं। सम्भवतः यह अतिशयोक्ति हो, फिर भी इतना तो मानना ही पड़ेगा कि जैनधर्म के प्रचार हेतु जो कुछ उन्होंने किया वह किसी भी जैनधर्म प्रचारक से कम नहीं था। हरिभद्रसूरि ने जिस कार्य का शुभारम्भ किया, उसको उनके शिष्य उद्योतन और सिद्वर्षि सूरि ने आगे बढ़ाया। इस युग में गुजरात और विशेषरूप से वल्लभी श्वेताम्बर जैनियों का केन्द्र था। गुजरात के चालुक्य वंशी पूरी तरह से जैन धर्म के प्रति उदार थे । ऐसा कहा जाता है कि इस वंश के संस्थापक मूलराज ने अन्हिलवाड पाटन में मूलपष्ठिका नामक जैन मन्दिर का निर्माण कराया था। हरिभद्र ने आठवीं शताब्दी में जैनधर्म के प्रचार के लिये गुजरात में विशेष प्रयत्न किये। हस्तिकुण्डी वंशी राष्ट्रकूट नरेश विदग्धराज ने राजस्थान और गुजरात में कई जैन मन्दिरों का निर्माण कराया । मूलराज के उत्तराधिकारी चामुण्डराज ने भी "जिनबिम्ब" और "जिनपूजा' हेतु दान दिया था३। दुलर्भराज के दरबार में १०२४ ई० में जिनेश्वर और चैत्यवासियों में शास्त्रार्थ हुआ था। जिसमें जिनेश्वर ने चैत्यवासियों को हराया। दलर्भराज ने जैनधर्म के प्रति श्रद्धावनत हो जिनेश्वर को खरतर (तीव्र बुद्धि) की उपाधि से विभूषित किया। अन्हिलवाड के प्रसिद्व व्यापारी ने ऋषभदेव के मन्दिर का निर्माण कराया था। प्रतिहार शासक वत्सराज ने कन्नौज तथा ग्वालियर में महावीर स्वामी की भव्य मूर्तियों की स्थापना की थी। एक जैन ग्रन्थ में उन्हें अम्मा नाम से सम्बोधित किया गया था। गिरनार श्वेताम्बर जैनों का मुख्य तीर्थ था। सपादलक्ष, त्रिभुवनगिरी, अर्बुदाचल आदि में जैन अच्छी संख्या में रहते थे। भीम प्रथम के शासनकाल में उनके दण्डनायक विमल ने वर्द्धमान सूरि की प्रेरणा से आबू में सन् १०३१ ई० में आदिनाथ का प्रसिद्व जैनमन्दिर बनवाया। विमल को अपने शासनकाल का उदार संरक्षण और स्वीकृति निश्चय ही प्राप्त हुई होगी। जयसिंह सिद्धराज और उसके उत्तराधिकारी कुमारपाल चालुक्यों के काल में जैन धर्म गुजरात में और अधिक प्रभावशाली हो गया। सिद्धराज ने सोमनाथ से लौटते समय नेमिनाथ मन्दिर के दर्शन किये१८ तथा शत्रुजय तीर्थ को आर्थिक सहायता दी१९। उसने सिद्धपुर में महावीर चैत्य Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजपूत काल में जैन धर्म : ८३ भी बनवाया। इस प्रकार हम देखते हैं कि पूर्वमध्ययुग में (चालुक्य) गुजरात में जैनधर्म की विशेष उन्नति हुई। मालवा भी उत्तर प्राचीन काल में जैन धर्म का केन्द्र बन गया था। मालवा नियाड के धार, मांडव, नालन्दा, उज्जैन, ऊन आदि में कई जैन परिवार बसे हुए थे। दसवीं सदी में धार, उज्जैन, ऊन तथा मालवा के कई जैनों ने ऋषभदेव की पूजा हेतु शत्रुंजय तीर्थ की यात्रा की थी २१ । परमार नरेश नरवर्मनदेव (११३३ ई० ) के काल में जैन धर्म मालवा में विशेष प्रगतिशील था। नरवर्मनदेव आचार्य वल्लभसूरि का बड़ा आदर करते थे २२ । मालवा के जैन तीर्थंकरों के नाम पर उत्सवों और पर्वों का आयोजन भी करते थे । तीर्थंकर नेमिनाथ के नाम पर सन् १९३४ ई० में एक उत्सव का भी आयोजन किया गया था। इस प्रकार मालवा जैन धर्म के एक केन्द्र के रूप में ज्ञात है। राजस्थान में जैनों का अच्छा प्रभाव था। आबू और कुम्भारिया के जैन मन्दिर इसके साक्षी हैं। कई जैन राजस्थान के राजवंशों की सेवा में थे। उज्जैन के जैनाचार्य माधवचन्द्र द्वितीय ने बरन ( कोटा राजस्थान) को अपना केन्द्र बनाया। कुछ जैनाचार्य चित्तौड़ भी जा बसे थे। इनकी एक शाखा बघेरा में भी रहने लगी २४ । हरिभद्र और उनके समर्थकों ने कई पीढ़ियों तक राजस्थान को अपना कार्य क्षेत्र बनाये रखा। पूर्व मध्ययुगीन जैन आचार्यों में गुजरात के प्रसिद्ध आचार्य हेमचन्द्र की बड़ी गहरी छाप थी। इस आचार्य ने राजस्थान के धार्मिक राजनीतिक तथा सांस्कृतिक इतिहास को प्रभावित किया। अनेकों चाहमान शासकों तथा मंत्रियों ने जैनधर्म के प्रचारार्थ सहयोग प्रदान किया। चौहान नरेश पृथ्वीराज प्रथम ने रणथम्भौर के जैन मन्दिरों पर स्वर्णकलश चढ़ाया था २५ | पृथ्वीराज प्रथम के पुत्र अजयराज ने भी अजमेर में जैनियों को नये मन्दिर बनाने की अनुमति प्रदान की तथा श्वेताम्बर गुरु धर्मघोष सूरि और दिगम्बर गुरु गुणचन्द्र के मध्य वाद-विवाद प्रतियोगिता में न्यायाधीश का कार्य किया। अर्णोराज यद्यपि शैव मतावलम्बी था, फिर भी अन्य धर्मों के प्रति दयालु था, उसने पुष्कर में एक वाराह मन्दिर बनावाया २७ तथा खरतरगच्छ अनुयायियों को अजमेर में जैन मन्दिर बनाने हेतु भूमि प्रदान किया । उसने श्वेताम्बर जैन विद्वान धर्मघोषसूरि को आश्रम प्रदान किया । विग्रहराज चतुर्थ ने अपनी राजधानी अजमेर में न केवल एक जैन विहार का निर्माण करवाया था, अपितु अपने धर्मगुरु धर्मघोष सूरि के आदेशानुसार एकादशी के दिन पशुवध निषेध की आज्ञा भी प्रसारित किया २९ । राजपूत काल में धार्मिक सहिष्णुता का भी प्रमाण मिलता है। चाहमान वंश के अधिकांश शासक शैव धर्म के अनुयायी थे, लेकिन फिर भी उन्होंने शिव और Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४ : श्रमण, वर्ष ५६, अंक १-६/जनवरी-जून २००५ विष्णु मन्दिरों के पास जैननाथ और पार्श्वनाथ के मन्दिर बनाने की अनुमति प्रदान करके अपनी धार्मिक उदारता एवं सहिष्णुता का परिचय दिया। अजमेर और नडुल के चाहमान शासकों ने जैन धर्म को काफी संरक्षण प्रदान किया। सी०वी० वैद्य के अनुसार ग्यारहवीं-बारहवीं शताब्दी में राजस्थान, गुजरात, मालवा, कच्छ, काठियावाड में जैनधर्म का काफी प्रचार हुआ३० जो विभिन्न आचार्यों एवं हेमचन्द्र द्वारा किये गये सद्कार्यों का फल था। सन्दर्भ : १. ऋग्वेद, १.८९.६. २. अथर्ववेद, ११.५.२४-२६, गोपथ ब्राहमण, २.८. ३. , प्रा० भा० सा० इति०, जयशंकर मिश्र, प्र०सं०, पृ० ६६६. आन युवानच्वांग ट्रेवेल्स इन इंडिया, टामस वाटर्स, जि० १, पृ० २५. भारतीय संस्कृति का विकास, मथुरालाल शर्मा, पृ० २६४. लोकतत्त्वनिर्णय, श्लोक ३२-३३, देखिये, शर्मा, अ० चौ०डा०, पृ० २४९. सम्बोध-प्रकारण, हरिभद्रसूरि, श्लोक २७, ३४, ४६, ४९, ६१, ६३, ६८ इत्यादि। हरिभद्रसूरि की प्रमुख पुस्तकों के नाम इस प्रकार हैं - समराइच्चकहा, धूर्ताख्यान, द्विजवनचेपटा स्वोपज्ञ वृत्ति सहिता, अनेकान्तजयपताका, अनेकान्तवाद-प्रवेश, आवश्यकसूत्रवृहद्वृत्ति, दशैवकालिकसूत्रवृत्ति, नन्दीसूत्रवृत्ति, अनुयोगद्वारसूत्रवृत्ति, अष्टकप्रकरण, उपदेशप्रकरण, पंचाशकप्रकरण, लोकतत्त्वनिर्णय, शास्त्रवार्तासमुच्चय, सम्बोधप्रकरण, योगबिन्दु, योगदृष्टिसमुच्चय, षड्दर्शनसमुच्चय, न्याय-प्रवेशसूत्रवृत्ति, धर्मबिन्दु, धर्मसंग्रहणी। उपमितिभवप्रपंचकथा तथा कुवलयमालकहा का लेखक था। १०. भारत और मुस्लिम आक्रमण, कल्पनाथ शास्त्री, पृ० १२१, वैद्य, सी०वी०, हि० मे०हि० इ०, जि० ३ पृ० ४११. ११. द स्ट्रगल फार एम्पायर, मजूमदार, पृ० ४२६. १२. आर्कियोलाजी ऑफ गुजरात, पृ० २३५. १३. भारतीय विद्या, १.७३, हिन्दी। १४. खरतरगच्छ पट्टावली, इण्डियन हिस्टोरिक्ल क्वार्टी, दशरथ शर्मा, भाग ११, पृ० २४८. Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजपूत काल में जैन धर्म : ८५ १५. द एज ऑफ इम्पीरियल कनौज, पृ० २८९-९०. १६. प्रभावकचरित्र, सिन्धी जैन सिरीज, पृ० ८५. १७. एपिग्राफिका इण्डिका, भाग ९, पृ० १४९. १८. द्वयाश्रय महाकाव्य, १५, ६९-७५. १९. राजर्षि कुमारपाल, मुनि जिनविजय, पृ० ६. २०. द्वयाश्रय महाकाव्य, १६.११५-१८. २१. द एज ऑफ इम्पीरियल कनौज, पृ० २९५. २२. युगयुगीन धार, वी०एन० लूनिया, पृ० २४-२५. २३. एपिग्राफिका इण्डिका, भाग २, पृ० ८०. २४. मालवा श्रू द एजेज, के०सी० जैन, पृ० ४००. २५. जिनपाल कृत खरतरगच्छ पट्टावली, पृ० १६. २६. वही, पृ० १६. २७. थ्री लेक्चरर्स ऑन अजमेर एण्ड वन ऑन पुष्कर, ओझा, पृ० १३६. २८. अपभ्रंश काव्यत्रयी, गजधर सार्थसतक वृहदवृत्ति 'भूमिका', पृ० ४६. २९. अ० चौ० डा०, दशरथ शर्मा, पृ० ६४-६५. ३०. हि० मि० हिन्दू इण्डिया, सी०वी० वैद्य, जि० ३, पृ० ४११. Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - श्रमण, वर्ष ५६, अंक १-६ जनवरी-जून २००५ जौनपुर की बड़ी मस्जिद क्या जैन मन्दिर है? __ अगरचंद नाहटा* काल की बड़ी विचित्रता है। जहाँ किसी समय बड़े-बड़े नगर थे, वहाँ आज सुनसान जंगल हैं। जहाँ जंगल था, वहाँ बड़े-बड़े नगर बस गये हैं। जहाँ हजारों समृद्धिशाली जैन परिवार रहते थे, वहाँ आज एक भी जैन नहीं है। जहाँ विशाल और कलापूर्ण जैन मन्दिर एवं सैकड़ों मूर्तियाँ थीं, वहाँ आज जैन मन्दिरों और मूर्तियों का नामों निशान तक नहीं रहा। जैन ग्रंथों में अनेक ऐसे तीर्थों, मन्दिरों एवं मूर्तियों का उल्लेख प्राप्त होता है। वहां के जैनियों के विशिष्ट कार्य-कलापों का भी विवरण मिलता है पर आज वह केवल इतिहास का विषय बन गया है। वहां की सारी स्थिति बदल गयी है, अत: उन ऐतिहासिक उल्लेखों पर विश्वास करना भी कठिन होता जा रहा है। उत्तर प्रदेश के जौनपुर का किसी समय बहुत महत्त्व था। वहाँ का इतिहास बहुत ही उज्ज्वल रहा है। हिन्दी में जौनपुर सम्बन्धी एक बड़ा ग्रंथ' भी प्रकाशित हो चुका है परन्तु उसमें मुसलमानकालीन शासकों का ही विवरण अधिक दिया है, हिन्दू व जैनों के इतिहास की उपेक्षा की गई है। जौनपुर सम्बन्धी जैन विवरण काफी प्राप्त होता है। जैनतीर्थमाला में उल्लेख है कि वहाँ १८वीं शताब्दी में भी दो जैन मंदिर थे जिनमें १०७ जैन प्रतिमाएँ थीं। अनुक्रमे जउणपुरी आविया, जिन पूजा भावना भावीय, दोई-देहरे प्रतिमा विख्यात, पजु भावइ अकसो-सात। (प्राचीन जैन तीर्थमाला संग्रह, पृ० ३१) जौनपुर काशी से ३५ मील दूर है। पर जैनों का अब वहाँ एक भी घर नहीं है और न कोई मंदिर-मूर्तियाँ ही हैं। इसलिए जैन साधु-साध्वी एवं श्रावकों का वहाँ प्राय: जाना नहीं होता। अतएव वहाँ के प्राचीन जैन अवशेषों के सम्बन्ध में इस समय हमें कोई जानकारी नहीं है। पर अब से ३० वर्ष पहले अहमदाबाद से प्रकाशित मुनिश्री न्यायविजय जी (त्रिपुटी) के जैन तीर्थोनो इतिहास नामक ग्रंथ के अन्त में “विच्छी तीर्थो' के अन्तर्गत जौनपुर का कुछ विवरण प्रकाशित हुआ है। उसमें * नाहटा की गवाड़, बीकानेर Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जौनपुर की बड़ी मस्जिद क्या जैन मन्दिर है ? : ८७ मुनिश्री ने लिखा है कि “यहाँ कभी जैनधर्म का साम्राज्य रहा है। इसका पुराना नाम 'जैनपुरी' था। गोमती नदी के किनारे जैन मन्दिर थे । यहाँ खुदाई करते समय अनेक जैन मूर्तियाँ निकली हैं, उनमें से बहुत-सी जैन मूर्तियाँ काशी के जैन मंदिर में हैं। " यहाँ एक विशाल मस्जिद है जो कभी १०८ कुलिकाओं वाला जैन मंदिर था। उस गगनचुम्बी भव्य जैन मंदिर को ही मस्जिद रूप में परिवर्तित किया गया है। बाहरी भाग में तो कई जगह शुद्धि - वृद्धि किया गया है परन्तु आन्तरिक भाग से जैन मंदिर का घाट साफ-साफ दिखाई देता है। इस मस्जिद में एक बड़ा भंवरा है, जिसमें अनेक खण्डित - अखण्डित जैन मूर्तियाँ हैं। मंदिर का स्थापत्य और शिल्प आश्चर्यचकित कर देने वाला है । वहाँ के एक-दो मुसलमानों से पूछने पर ज्ञात हुआ कि यहाँ पहले जैनियों का एक बड़ा मन्दिर था, जिसे बादशाह ने तुड़वाकर मस्जिद बनवा दी। एक-दो ब्राह्मण पंडितों से पूछने पर मालूम हुआ कि इस शहर का नाम पहले 'जैनपुरी' था, उसी शब्द से जैनाबाद, जौनाबाद और अन्त में जौनपुर प्रसिद्ध हुआ । इस प्रान्त में ऐसा विशाल जैन मन्दिर एक ही था। आगरा से लेकर कलकत्ता तक के मार्ग में ऐसा विशाल मंदिर हमारे देखने में नहीं आया। यहाँ कभी हजारों जैन बस्तियाँ थीं, पर आज एक भी घर जैनों का नहीं है। १५वीं से १७वीं शताब्दी तक के जौनपुर सम्बन्धी अनेक जैन उल्लेख हमारी जानकारी में हैं और उनमें से कुछ तो प्रकाशित भी हो चुके हैं। उन सबका संग्रह करके यहाँ के जैन इतिहास पर एक बड़ा निबन्ध लिखा जाना आवश्यक है। यहाँ के जैनों का कला के क्षेत्र में भी उल्लेखनीय योगदान रहा है । उदयपुर विश्वविद्यालय के प्रोफेसर परमानन्द गोयल का एक लेख विश्वविद्यालय में आयोजित संगोष्ठी में पढ़ा गया था। वह लेख जैन विद्या का सांस्कृतिक अवदान नामक ग्रन्थ के पृष्ठ १५० में प्रकाशित हुआ है। 'जैन कला का योगदान' नामक इस निबन्ध में लिखा है कि जौनपुर में वेणीदास गौड़ नामक चित्रकार ने कल्पसूत्र के चित्र बनाये थे। जौनपुर के और भी ३ कल्पसूत्र प्राप्त हुए हैं, जिनमें से एक तो स्वर्णाक्षरों में लिखा हुआ है। उसकी प्रति इस समय बड़ौदा के जैन ज्ञानमंदिर में है। श्री साराभाई नवाब के जैन चित्र कल्पद्रुम में यहाँ के एक सचित्र कल्पसूत्र के चित्र छपे हैं और उस प्रति का विवरण भी इस ग्रन्थ में दिया गया है। पाठकों की जानकारी के लिए मैं यहाँ एक नयी सूचना भी देना आवश्यक समझता हूँ कि जौनपुर के धनिक श्रावकों के लिए लिखी हुई कल्पसूत्र की गुटकाकार बड़ी प्रति हमारे संग्रह में सेठ शंकरदान नाहटा कलाभवन में है, जो लेखनकला की Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८ : श्रमण, वर्ष ५६, अंक १-६/जनवरी-जून २००५ दृष्टि से अनुपम है। उसमें कई पत्र स्वर्णाक्षरी हैं और साथ ही इसमें कई चित्र भी हैं। इससे १९वीं शताब्दी में अपभ्रंश चित्रशैली के बाद जो जैन चित्रकला-शैली का विकास हुआ, उसकी जानकारी प्राप्त होती है। प्रस्तुत लेख में तो केवल जौनपुर के जैन मन्दिर एवं मूर्तियों के सम्बन्ध में ही प्रकाश डालना अभीष्ट है। वहाँ की उस बड़ी मस्जिद का जैन दृष्टि से अध्ययन होना चाहिये और उसके भंवरे में जो भी जैन मूर्तियाँ हों, उन्हें पुरातत्त्व विभाग के सहयोग से बाहर निकलवाकर उनके चित्र व प्रतिमालेख शीघ्र ही प्रकाशित किये जाने चाहिये। काशी के भी जैन मन्दिरों में यहाँ की जो जैन मूर्तियाँ गई हों, उनके भी लेख प्रकाशित किये जायें। यह स्थान खरतरगच्छ और श्रीमाल जाति से विशेष रूप से सम्बन्धित रहा है। सन्दर्भ: शर्की राज्य का इतिहास : लेखक - सैय्यद एकबाल अहमद जौनपुरी, प्रकाशक - शीराज हिन्द प्रकाशन भवन, ११५, रिजवी खाँ, जौनपुर। जौनपुर इतिहास के पृष्ठ ५०३ में हड़यान मन्दिरं के परिच्छेद में लिखा है कि इस मन्दिर के पश्चिम-दक्षिण तथा शिवजी के मन्दिर के दक्षिण गोमती नदी के तट पर आलोकेश्वर जी की मूर्ति पृथ्वी के नीचे से प्रगट प्राप्त हुई है जो जैनियों के देवता कहे जाते हैं। इस स्थान पर यदि खुदाई की जाय तो जैनियों के मन्दिर तथा मूर्तियाँ मिल सकती हैं। Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण, वर्ष ५६, अंक १-६ जनवरी- जून २००५ आनन्दजी कल्याणजी पेढी के संस्थापक युगपुरुष श्रीमद् देवचन्द्र जी महाराज मुनि पीयूष सागर * आर्य संस्कृति में आध्यात्मिक जागरण और सामाजिक क्रान्ति के इतिहास में श्रमण परम्परा का अविस्मणीय योगदान रहा है । इसी वसुंधरा पर समय-समय पर तीर्थंकर, केवली, गणधर, युगप्रधान आचार्य, उपाध्याय जैसे अनेकानेक ज्योतिर्धर मूर्धन्य दार्शनिक संत मनीषियों का अवतरण होता रहा है। ऋषि-मुनियों संत महात्माओं के कारण आर्य संस्कृति को ज्ञान का दिव्य प्रकाश और अखंड निजानन्द धर्म का अमर संदेश मिलता रहा, इसी कारण से आर्य देश केवल कृषि प्रधान ही नहीं बल्कि ऋषि प्रधान भी रहा है। राजस्थान की वीर प्रसवा भूमि में समय-समय पर नर रत्नों का जन्म होता रहा है। इसी स्वर्णिम शृंखला में १८वीं शताब्दी के अन्तर्गत स्याद्वाद शैली के द्वारा जनमानस के अन्तर्मन में अभिनव चेतना का संचरण करने वाले एकावतारी देवचन्द्र जी का जन्म वि०सं० १७४६ में बीकानेर (राज०) जनपद के शोभासर गांव में श्रद्धावान श्रावक तुलसी दास जी के घर आंगन में सुश्राविका धन देवी की कुक्षि से हुआ। माता के गर्भ में च्यवन होने के पश्चात् एक दिन अरुणोदय के समय में सगर्भा माता ने परमात्मा के जन्माभिषेक महोत्सव का परिदृश्य स्वप्न रूप में देखा । सौभाग्य सूचक स्वप्न का फल जानने के लिए श्री जिनरत्न सूरि के पट्टधर आचार्य जिनचन्द्र सूरि के समक्ष स्वप्न का वर्णन किया। पू० आचार्य प्रवर ने धनबाई से कहा कि तुमने ब्रह्ममुहूर्त में जो स्वप्न देखा तद्नुसार तुम्हारा भावी पुत्र छत्रपति (राजा) या धर्मपति बनेगा । गर्भकाल परिपक्व होने पर बालक का जन्म हुआ। जन्म से पूर्व स्वप्न में देवदर्शन होने के कारण बालक का नाम देवचन्द्र रखा। जिनशासन के प्रति पूर्ण समर्पित माता-पिता ने पुत्र जन्म के पूर्व ही वाचक राजसागर जी म० के समक्ष प्रतिज्ञा की थी कि यदि उनके घर में बालक का जन्म हुआ तो उसे जिनशासन के संवर्धन एवं स्वपर आत्म-कल्याण हेतु समर्पित करेंगे। माता-पिता ने बालक देवचन्द्र में धार्मिक संस्कारों का बीजारोपण शैशवकाल से ही करना शुरू कर दिया। पूर्व पुण्य बल से धार्मिक संस्कार * श्री ऋषभदेव जैन श्वेताम्बर मन्दिर, नवापारा, राजिम, रायपुर, छत्तीसगढ़ Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९० : श्रमण, वर्ष ५६, अंक १-६/जनवरी-जून २००५ अति अल्प समय में वट वृक्ष का रूप लेने लगे। माता-पिता अपने पूर्व संकल्पानुसार अपने ८ वर्ष के बालक को उपा० राजसागर जी को समर्पित कर दिया १० वर्ष की आयु में वि० सं०१७५६ में उपा० राजसागर जी ने बालक देवचन्द्र को श्रमण दीक्षा देकर राजविमल नाम प्रदान किया। शीघ्र ही गच्छनायक आचार्य जिनचन्द्र सूरि ने राजविमल को बड़ी दीक्षा प्रदान की। विशेष - (देवचन्द्र जी के जीवन से सम्बन्धित प्राप्त साहित्यों से ज्ञात होता है कि देवचन्द्र जी की छोटी दीक्षा उपा० राजसागर जी के कर-कमलों से संपन्न हुई, बड़ी दीक्षा गच्छ नायक जिनचन्द्र सूरि जी के द्वारा प्रदान की गई। पर गुरु के रूप में कहीं-कहीं पर पाठक दीपचन्द्र जी का व कहीं-कहीं पर उपा० राजसागर जी का उल्लेख मिलता है। अत: द्वादशांगी का तृतीय अंग-स्थानांगसूत्र के चतुर्थ स्थानतृतीय उद्देश सूत्र नं ४२४ एवं देवचन्द्र जी द्वारा स्वीकृत किए गुरुत्व को दूरदर्शिता, निष्पक्षता से परिशीलन करने पर ज्ञात होता है कि साधक, आत्मोत्कर्ष की दृष्टि से किसी भी साधक आत्मा को गुरु के रूप में स्वीकार करने हेतु स्वतंत्र है।) श्रमण बनने के पश्चात् मुनि राजविमल म० ने संयम जीवन के तीन प्रमुख लक्ष्य बनाए - १. उत्कृष्ट संयम साधना, २. आत्मज्ञानाराधाना, ३. समर्पण भाव से गुरु-सेवा। सभी धर्म दर्शनों में यह माना है कि गुरु के बिना ज्ञान असम्भव है, इसलिए कहा गया है कि "अज्ञान तिमिरान्धानां ज्ञानाञ्जनशलाकया नेत्रमुन्वीलितं येन, तस्मै श्री गुरवे नमः। तित्थयरा समो सूरी" अत: बाल्यावस्था में स्मरण शक्ति विशेष तेज होती है। तीक्ष्ण बुद्धि, विद्या-अध्ययन के प्रति अगाध प्रेम देखकर दीक्षादाता राजसागर जी म० ने अपने स्वयं के द्वारा पूर्व सिद्ध शारदा मंत्र मुनि राजविमल जी म० को प्रदान किया। गुरुगम से प्राप्त मंत्र की साधना बेनातट (बिलाड़ा-राज) ग्राम में एकान्त भूमि में सिद्ध किया। मां भगवती ने अपनी अनन्त असीम कृपा का सागर उड़ेल कर प्रज्ञा-प्रतिमा को पूर्ण प्रौढ़ व निर्मल बना दिया। उसी कारण से जिस विषय का अध्ययन किया उसमें उनकी पारंगतता अप्रतिम सिद्ध हुई। त्रिवेणी गुरु (वाचक राजसागर जी, पाठक ज्ञान धर्म एवं दीपचंद जी म०) के ज्ञान गंगा में स्वयं को निमज्जित किया। अलौकिक ज्ञान रश्मियों से मात्र उन्नीस वर्ष की किशोरावस्था में ध्यान जैसे आध्यात्मिक, काव्यात्मक एवं वैदुष्यपूर्ण ग्रन्थ की अनुपम रचना कर डाली। अगाध अपरिमित ज्ञान गाम्भीर्य से प्रवाहित होकर धर्म संघ ने नमस्कार महामंत्र के चतुर्थ पद (उपाध्याय) से आपका बहुमान किया। आपश्री के जीवन में सबसे बड़ा सद्गुण विद्यादान था उसमें गच्छ/पंथ/ संप्रदाय की संकुचितता, संकीर्णता का अभाव था। साम्प्रदायिक औदार्य एवं Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आनन्दजी कल्याणजी पेढी के संस्थापक युगपुरुष श्रीमद् देवचन्द्र जी... : ९१ अनाग्रहशीलता आपके प्राणों के आधार थे। प्राप्त कृतियों से ज्ञात होता है कि आपश्री के पास विद्याध्ययन हेतु श्रमण परम्परा के सभी आम्नायों के मुनिजन आया करते थे। तपागच्छ में दीक्षित प्रसिद्ध साहित्यकार पं० मुनि जिनविजय, मुनि उत्तमविजय, मुनि विवेकविजय जी ने अपनी रचनाओं में देवचन्द्र जी द्वारा प्रदत्त विद्यादान के प्रति श्रद्धा पूर्वक आभार ज्ञापन किया है। (जिन विजय जी द्वारा कृतज्ञता ज्ञात करने वाला पद महाभाष्य अमृत लह्यो देवचन्द्र गणि पास) ___आपश्री परम शास्त्रज्ञ होने के साथ-साथ आदर्श तर्कवादी थे। आप संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, गुजराती, राजस्थानी, सिंधी आदि अनेकानेक भाषाओं के आयामों से सम्पृक्त थे। प्रसिद्ध पाश्चात्य विचारक बेकन ने लिखा है कि -"रीडिंग मेक्स ए फुल मैन, स्पीकिंग ए परफैक्ट मैन, राइटिंग ऐन एग्जेक्ट मैन" अर्थात् - अध्ययन मनुष्य को पूर्ण बनाता है, भाषण उसे परिपूर्णता देता है और लेखन उसे प्रमाणिक बनाता है। अतः आपश्री भी विद्वर्य व्याख्याता, लेखक, प्रवक्ता, दार्शनिक तत्त्व-चिंतक, महिमामंडित शीर्ष पुरुष थे। शब्द शैली की उच्चता और विश्लेषण की तलस्पर्शता उनके ज्ञान, व्यक्तित्व की अप्रतिम विशेषता रही है। अंतरंग कूप से प्रस्फुटित, आध्यात्मिक रस से आप्लावित उनके मधुर गीत समग्र अध्यात्म जगत् में उज्ज्वल मोतियों की तरह विकीर्ण हैं। वि०सं० १७७७ में पाटण में शाहीपोल के चौमुखवाड़ी पार्श्वनाथ जिनालय में सत्तरभेदी पूजा के अन्तर्गत श्रीमाल ज्ञातीय नगरसेठ तेजसी डोसी ने आचार्य ज्ञानविमल सूरि से सहस्त्रकूट के हजार नाम पूछे - आचार्य श्री ने कहा - सहस्त्रकूट के जिन नाम लुप्त हो गए। आचार्य श्री के समीप आसीन उपाध्याय देवचन्द्र जी ने तत्क्षण कहा कि -सूरि पद में रहते हुए सत्य महाव्रत का खण्डन न करें। देवचन्द्र जी के मुखाग्र से व अभिमान को चुनौती देने वाले संवाद को सुनकर आचार्य ज्ञानविमल सूरि बोले- “तुम मरुस्थलीय लोग शास्त्रीय रहस्यों को क्या जानो?" तुमने मेरे कथन को मृषा भाषण कहा - यदि तुम्हें सहस्त्रकूट के नाम मालूम हों तो बताओ। देवचन्द्र जी ने अपने शिष्य को आदेश देते हुए कहा कि ज्ञान भंडार में से सहस्त्रकूट जिन नाम ग्रंथ की पाण्डुलिपि ले आओ। गुरु आज्ञा शिरोधार्य कर शिष्य पाण्डुलिपि लेकर आया। देवचन्द्र जी ने जब नामावलि पढ़कर सुनाई तब ज्ञानविमल सूरि व तत्त्वज्ञ तेजसी डोसी विस्मित हुए और बहुत प्रभावित हुए। विश्रुत विद्वता के कारण संघ एवं गुरुजनों ने अन्तस् उर्मियों से गणि, उपाध्याय, विद्या-विशारद, जैनसिद्धान्त-शिरोमणि, गीतार्थ, वाचक, विद्या दानेश्वर आदि गरिमामय संबोधन से ज्ञान रश्मियों व पद की महिमा का सम्मान किया फिर भी आप श्री पद-प्रतिष्ठा, यशकीर्ति, मान-सम्मान के विष से अप्रभावित रहे। Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९२ : श्रमण, वर्ष ५६, अंक १-६ / जनवरी - जून २००५ आगम आचार-संहिता के अनुरूप ग्रामानुग्राम विचरण कर जीवन निर्माण व आत्मोत्कर्ष हेतु नैतिक आचार-विचार युक्त आध्यात्मिक गंगा-यमुना जन मानस के अन्तर में बहाई । "सवि जीव करूं शासन रसि ऐसी भाव दया मन उल्लसी" के भावों से धर्म-ध्वजा फहराते हुए उत्तरोत्तर निज चरित्र की निर्मलता हेतु जिन तीर्थों की यात्रा कर भव यात्रा का परिच्छेद किया। जिन प्रतिमा व अतिशय मंडित तीर्थों के प्रति अगाध श्रद्धा का वेग सदैव उमड़ता रहता था। भारत के विविध अंचलों को पद्कमलों से पवित्र करते हुए मूर्ति पूजा विरोधियों की गतिविधियों का उन्मूलन कर "जिन प्रतिमा जिन सारखी" का अभियान बुलंद किया। आपने शाश्वत तीर्थाधिराज शत्रुंजय की अनेकों बार यात्रा कर आभ्यन्तर शत्रु को परास्त करने का आत्म सम्बल प्राप्त किया। अनेक बार छ:, रि पालित संघ निकलवाए | मूर्ति विरोध के निमित्त से खण्डहर बन रहे अनेक जिन मन्दिरों का जिर्णोद्धार और नवीनीकरण कराया। नयनाभिराम सैकड़ों जिन प्रतिमाओं की अंजनशलाका व प्राण प्रतिष्ठा करवाई । जे जिन बिंब स्वरूप न जाणे, ते कहिये किम जागे । भूला तेह अज्ञाने भरिया, नहीं तिहां तत्त्व पिछाणे रे ।। इन भावों से अहमदाबाद में जोधपुर के श्री रतनसिंह भंडारी सूबेदार जी को व अहमदाबाद के तत्त्वज्ञ सेठ शाह आनंदराम जी को जिन प्रतिमा का माहात्म्य ज्ञात कराकर अपूर्व शासन प्रभावना करवाई। एक दिन जिन मन्दिर में उपा० साधु कीर्ति द्वारा सत्तर भेदी पूजा चल रही थी, तेरहवीं अष्ट मंगल पूजा के अन्त में भाव-विभोर हृदय से "आणंद कल्याण सुख रस में" जैसे शब्द भंगिया में भक्तों को आनंद के महासागर में तल्लीन कर दिया। देवचन्द्र जी ने शत्रुंजय तीर्थ के समुचित प्रबन्ध हेतु सुव्यवस्थित समृद्धशाली संस्था के निर्माण हेतु परम गुरु भक्त रतन सिंह जी भंडारी को कहा परमात्म भक्ति के रस से ग्रसित मन ने उसी क्षण गुरु वचनों को तहत्ति किया - संस्था का नामकरण "आनन्द जी कल्याण जी कारखाना" रखा गया । ओजस्वी महापुरुष के द्वारा स्थापित पेढ़ी के वट वृक्ष की जड़ें आज इतनी गहरी हो गईं हैं कि वह देश की सर्वाधिक धनाढ्य, कार्यदक्ष नेतृत्व संपन्न समिति के रूप में जैन संस्कृति - संस्कारों की आन-बान-शान में चार चांद लगाए हुए है। - बहुआयामी, बहुमुखी प्रतिभा सम्पन्न साहित्य स्रष्टा ने जिनवाणी के गूढ़ रहस्यों को अनेकान्तवाद शैली द्वारा सहज सरल सुबोध भाषा में गद्य-पद्य का रूप देकर जनभोग्य बनाया। जिन चौबीसी, व विहरमान जिनवीसी, अनेकानेक सज्झायों को आत्मनिष्ठा एवं तत्त्वमीमांसा से अनुगुंजित किया और मर्मस्पर्शी रचनाओं को इतना Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आनन्दजी कल्याणजी पेढी के संस्थापक युगपुरुष श्रीमद् देवचन्द्र जी... : ९३ गेयात्मक बनाया कि मोक्षाभिलाषी आत्मसाक्षात्कार कर अपना मार्ग प्रशस्त कर सकता है। प्रमाण- नय, स्याद्वाद, निक्षेप त्रिपदी के आलम्बन से दार्शनिक भावों को तर्क और आगम सम्मत मौलिक तथा मनोवैज्ञानिक ढंग से नवीन ग्रंथों के प्रस्तुतीकरण से ऊपर चढ़ते हुए साधक अन्त में ऐसी आत्म- अनुभूति करता है कि मानो वह किसी शरणप्रद ताप - नियन्त्रक प्रांजल सर्वसौविध्य सम्पन्न कक्ष में पहुंच गया हो। आपने माताश्री धनदेवी के स्वप्न दर्शन को भावों द्वारा मूर्तरूप प्रदान करने एवं जिन श्रद्धालुओं के चित्त- विशुद्धि हेतु स्नात्रपूजा की सर्वोत्कृष्ट रचना की । भक्ति का यथार्थ अर्थ व्यक्त करते हुए आपने कहा कि अपने आराध्य के बताए मार्ग का अनुकरण करना ही वास्तविक आदर्शमय भक्ति है। वि०सं० १८१२ भाद्रपद अमावस्या को अहमदाबाद में ९९ वर्ष की आयु में आपका देवलोकगमन हुआ। अहमदाबाद स्थित हरिपुरा उपाश्रय में आपके चरण चिन्ह प्रतिष्ठापित हैं । गतवर्ष २००३ में मुझे भी उसके दर्शन का सौभाग्य मिला। आकृति को कागज में उतारने में जितनी कठिनाईयां होती हैं, उनसे कहीं अधिक विराट व्यक्तित्व को कागज पर लेखनी द्वारा समेटने में होती है। क्योंकि आकृति साकार होती है और व्यक्तित्व अनाकार । यहां जो कुछ भी लिखा गया है वह भावुकता के प्रवाह में नहीं लिखा गया अपितु आपश्री के जीवन दर्शन से सन्दर्भित कृतियों का अवलोकन कर आपके प्रवर्तमान २५०वीं पुण्य तिथि पर अपने भावसुमनों को अर्पण करने का लघु प्रयास है। शुभम् भवतु....!! Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ English Section The Jaina Manuscript and Miniature Tradition Mathematical Formulary of Jinistic Precepts Scientific Thought Evident in the Labdhisāra VA EE Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Śramana, Vol. 56, No. 1-6 January-June 2005 THE JAINA MANUSCRIPT AND MINIATURE TRADITION Lalit Kumar* This article was originally published in “Steps to Liberation- 2500 years of Jain Art and Religion” by Jan Van Alphen (ed.), Antwerpen, 2000. As it is an important source material on the subject it is reproduced here for the benefit of the Indian students of Art, history and manuscriptology. -Editor Austerity and non-possession were among the most important features of the Jaina religion. But there was an important shift of emphasis during the first centuries. Among the changes was the worship of images, as evidenced from the sculptural remains of the Kuşāņa period (c. first to third century) recovered from Mathura. The Paumacariya of Vimalasūri (c. fifth century) extolled the merits of building Jaina temples and making images. The Avaśyaka Niryukti in the early sixth century also provides evidence for the worship of Jina images. Gradually a body of literature developed, which provided norms of ethical behaviour for the laity, called Srāvakācāra. It ordained that the gifting of temples, images and books are the three great acts of donation (dāna). Consequently, a large number of Jaina temples were built, images of stone and bronze made, and manuscripts commissioned. Most of these were coinmissioned for the benefit (śreyortham) of the donor and his deceased relatives. A statement to this effect was frequently added at the end of a manuscript or to an image to explain the purpose of such commissions. In this way the Jaina community could help to preserve the holy books in their original form. They are the objects of veneration. The art of book illustration brought * Former Curator, Lalbhai Dalpatbhai Museum, Ahmedabad Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 96 : Śramaṇa, Vol 56, No. 1-6/January-June 2005 about changes in the production of manuscripts. For example, to accrue greater spiritual benefits manuscripts written in gold ink were prepared. Jainism is the only religion in India, which systematically patronized the writing of manuscripts. This has been particularly the case in the Svetambara community. The manuscript folios and other objects in this exhibition of Jaina art and culture should be viewed in this larger context. They are not only products of the religio-aesthetic sensibility of the religion. Furthermore, to understand a living religion like Jainism can we afford to ignore the material evidences in favour of the text?' This essay discusses various aspects of the manuscript and its structure, especially writing and paintings. The oral and writing traditions The tradition of writing in India begins in the Harappan Civilisation (c. 2500-1500 BCE). Alas, the script remains undeciphered, so far. No remains have survived to indicate the existence of manuscripts prior to the practice of the oral tradition (śruta paramparā) by which knowledge was transferred from preceptor to disciple; it was memorised by recitation following the mnemonic system, as is evident from the Vedic literature. The oral tradition, adopted by both Jains and Buddhists, continued for so long because it could preserve the sanctity of the sacred word from misinterpretation. But it is said that Jains did not commit their teachings to writing for the simple reason of the vow of nonpossession (aparigraha; one of the five great vows taken by monks). This is also attested by Jaina literature, which denounces monks who read or possessed books. 2 But the inherent drawback of the oral tradition was very soon realised when the knowledge suffered during the twelve-year famine in Bihar in the fourth century BCE. A large number of Jaina monks migrated to Karnataka in South India. Those who remained in the North began to systematise the teachings of Mahāvīra. After the famine those who had migrated to the south returned. They did not accept the compilation as authentic. According Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ The Jain Manuscript and Miniature Tradition : 97 to them, most of the original teachings were lost during the adverse conditions in which monks, due to malnutrition, had suffered from memory lapses. This difference and some other factors created a schism in the Jaina monastic establishment and finally the community was divided into two sects - Digambara ("sky clad" or naked) and Svetāmbara ("white clad" that is to say, dressed in white). Both sects have differing and contradictory accounts of this period. The redaction of the scriptures The process of the systematic compilation and redaction of the Jaina scriptures (āgama) offers tacit evidence of the beginning of manuscript writing. The crystallization and organization of the Jaina canonical literature was achieved in three different councils. The first of these was held in Mathura (near Delhi) under the leadership of Skandilācārya. Concurrent with it was the second council at Valabhi (in the Saurashtra region of Gujarat) under the direction of Nāgārjuna. Both took place in the fourth century. The two leaders did not meet and, therefore, had different versions of the canon. Finally, in the following century at Valabhi, reconciliation between the two versions was brought about under the guidance of Devarddhi Gaņi Kşamāśramaņa. The existing Svetāmbara canonical literature is attributed to his efforts. On the other hand, the Digambaras inherited a different canon, compiled by Dharasena.? The writing media The history of manuscript writing in India is revealed in the history of the various materials used to write on. Palm-leaf, birchbark, cloth, and paper were the favourite writing media in ancient India. Copper and gold leaves were also, though rarely, used for writing. Palm-leaf The leaves of both talipot (Corypha umbraculifera) and palmyra (Borassus flabellifer) were used as writing surfaces. Talipot grew in Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : Śramana, Vol 56, No. 1-6/January-June 2005 the wet climate of Ceylon and the Malabar Coast, whereas palmyra grew in the dry environment of North India. Palmyra also came from East Africa. The talipot leaf is thin and more flexible than palmyra, which is also coarser and has a narrower blade; hence they are called śrītala and kharatala respectively. At one time talipot was in vogue throughout the country, which is why a majority of the early manuscripts were written on this leaf. From the sixteenth century onwards, however, manuscripts were mostly written on palmyra. 98 In its natural state the talipot leaf is arranged in a fan-like shape. The blades were cut from the ribs (the latter are used in making brooms) and processed in different ways. This involved the indirect slow heating of palm leaves in a kiln or fire, causing the leaf to exude oil-like substances, which were wiped off with cloth. Turmeric water was also used on the blades to make them suitable for writing. After processing the leaves were sandwiched in a wooden template to cut and shape them to equal size. Usually, the full length of the leaf was used for writing the scriptures. The length of such leaves can be seen in some preaching scenes depicted in palm-leaf manuscripts. 4 Although the Jaina sculpture of Sarasvati, dated 231 (?) from Mathura, shows the use of palm-leaf in manuscript writing, the oldest extant example of a palm-leaf manuscript cannot be dated earlier than the eleventh century in North India. Birch-bark The birch tree (Betula utilis) grows in the Himalayas at a height of 4,000 m. Its bark grows in thin layers, with a brownish inner side and a whitish outer side. It is a delicate yet fine medium for writing. Both Rajasekhara (10th century) and Alberuni (a 12th century Arab traveller) have referred to the use of birch-bark in ancient India. The oldest extant examples of birch-bark manuscript folios have been recovered from a stūpa in Gilgit. They are written in a script of Indian origin dating from the fourth to eighth centuries. Some folios are narrow, others are broad in shape, but all follow the pothi (books Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ The Jain Manuscript and Miniature Tradition : 99 in an oblong format) style. The bark of the aloe tree (sanci, Aquilaria agallocha) was also used in the Assam region but no remains have survived which predate the eighteenth century. Cloth Cotton and silk were also used for writing manuscripts. A folio of a pothi written on silk said to be of Indian origin is the only example recovered, from Sinkiang in North-west China. Palaeographically it has been dated to around the eighth century. A complete manuscript of the Dharmavidhi-prakaraņa, a Jaina text dated 1361, is another extant example written on cotton in the Hemacandrācārya Jñāna Bhandāra, Patan (Gujarat). Paper Paper was invented in China in 105 CE. It must have travelled via the silk route to Iran and should have been known in India. The above-mentioned Gilgit treasure has revealed the existence of paper manuscripts, which were produced in Kashmir in the sixth century. Paper was also produced in Nepal, as is evident from two manuscripts of 1105 and 1185 in the Ashutosh Museum, Kolkutta (Calcutta). The Jaisalmer bhaņdāra also has a paper manuscript dated 1189. Muni Punyavijaya reported a Kalpasūtra manuscript dated 1360 in the Ujjamphoi Collection, Ahmedabad, which was copied from a manuscript dated 870, according to the colophon. In earlier times, paper was imported from Persia. From the sixteenth century Daulatabad, Ahmedabad, Kashmir and Karachi became the major production centres for paper. After its introduction in India paper continued to be used in the narrow pothi format of the palm-leaf. It was only from the fifteenth century that manuscripts became broader. Gold Leaves of gold were also used for writing. But this was not common, for gold has always been a precious metal. An inscribed gold leaf that was found in a Buddhist casket is written in Kharosthī, a script used in Gandhara in the Northwest (modern Afghanistan) Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 100: Śramaņa, Vol 56, No. 1-6/January-June 2005 and ascribed to the mid-first century. ' It also follows the pothi format; the antiquity of the manuscript tradition can therefore be pushed back to the first century. The writing implements The Rājapraśniyasūtra (late 3rd century), a Jaina canonical text written in Prakrit, refers to the various items needed for writing. They are leaf (patta; most probably the word refers to palm-leaf), a pair of book covers or wooden strips (kambika), a cord (dore; to string the folios), a pair of buttons (ganthi; to hold the end of the cord from slipping through the string-holes), a writing board (lippasana; on which the folio was placed for writing), net (chandana; hanging ink-pot rest), noose (sankala; for the safe carrying of the ink in the ink-pot), inkpot (masi), and pen (lahani). Additional implements were used by the scribes. Among these were a sort of forked pen made of iron (yujavala or jujavala) to draw thick lines on the margin, a pair of compasses with a forked pen for drawing circles, a burnishing stone of agate to make the surface of the paper smooth and non-absorbent, a ruling plate for drawing lines (phantiyun or oliyun), and an ivory ruler (kambika). Ink-pots made, of brass were animal-shaped or plain; figures of gods were sometimes depicted on the latter. Some ink-pots were provided with barrels for storing pens. Ink-pots made of shell were used mostly for keeping red ink. It was cut into the middle and the open mouth of the shell was removed. It was then embedded in a papier-mache mould, which was usually heart-shaped. Beautifully painted pen boxes with compartments were made of wood or papier-mache. An iron stylus (loha lekhini) was used to incise writing on palm-leaf in ancient India. To make the writing visible on the surface a muslin pouch filled with lamblack was rubbed over the incised characters. In North India writing was done with a reed pen and ink. In order to maintain a straight line an ingenious method for ruling on paper was invented, also in the North, India. This was done with the help of a ruling plate (phantiyun or rekhāpatti), which was prepared Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ The Jain Manuscript and Miniature Tradition : 101 by stretching equidistant parallel rows of thin string through series of holes made at each side of a wooden plate or paperboard. The strings were pasted on the board with lac or gum. To create rulings a sheet of paper was placed on the ruling plate and rubbed with the fingertips to produce impressions of the thread on the paper. The same process was repeated on the reverse back matching the lines. The embossed rulings later disappeared under pressure once the manuscript was wrapped. Before writing a manuscript a suitable ruling plate was prepared, sometimes with a blank space created in the middle to accommodate roundels or other decorations. The scribes and the art of calligraphy In Western India the scribes are called lehiyās. The yatis, class of lay monks, were also professional scribes. 'Fine writing (sulekha) was practised but it was not a well-developed art like Islamic calligraphy. The syllabary plate (kakkaki pati) was used to practise writing and to standardise the script. This left very little scope for calligraphic artistry. . However, the calligraphy of the early Devanāgarī script of the eleventh to fourteenth centuries, for instance, differs from that of the later centuries, for the script was still developing. By the sixteenth century it had become standardised. The specific way of adding diphthongal signs (mātrās) continued. These were put before the letter in the case of e and o) or both before and above (ai and au) because there was insufficient space between the lines. However, the scribes took full liberty in drawing fanciful mātrās on the first line of every folio as they had ample space above it in the top margin. This was a distinct characteristic of Jaina Devanāgarī. But from the seventeenth century the modern practice of putting the mātrās above the letter joining line (sirşa rekhā) began. Though yatis, and certain groups of scribes belonging to particular ascetic lineage (gacchas), were able to leave their individual mark in their writing, nevertheless, they followed the standard calligraphy of the Devanāgarī script. Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 102: Śramaņa, Vol 56, No. 1-6/January-June 2005 Creating forms of the swastika, thunderbolt (vajra), canopy (chatra), or diamond by leaving blank spaces in the writing was part of the Jaina calligraphy. The manuscripts were decorated with border ornamentation, including cartouches or scrolls. During the paper period two types of calligraphic writing emerged. Bold or large letters (sthūla akşara) were used for holy books, and smaller letters (sükşma akşara) for non-canonical and other texts. The holy look of the Kalpasūtra-Kālakācāryakathā was always written in bold letters, perhaps for convenience of recitation during the Paryūşana festival. These two styles seem to have begun with the introduction of commentary into the main text of the manuscript. In earlier times the commentary was written separately. Thus, when the text includes the commentary the main text was always written in bold letters and the commentary in smaller letters. Indian writing had also been characterised by scriptura continua (without word separation). Lack of space is believed to be a main reason for this. It also seems to have been done deliberately, in conformity with the ancient oral tradition in which knowledge was always transferred from teacher to disciple, thus preserving the sanctity of the scripture from misinterpretation: this is still practised in some religious institutions. The manuscript tradition in India, as elsewhere, started primarily to preserve the knowledge. Only experts in the subject used manuscripts for reading or reference and for imparting knowledge. In ancient times teachers used to recite the text then give explanation to the students. Sanskrit, the mother of all the Indian languages, must have also contributed to the use of scriptura continua as word coalescence is a feature of this language. The practice of word separation began only in the writing of the twentieth century. (In Western writing, in the first and second centuries. word separation began with a dot. In the following centuries this was abandoned and the script became continuous. However, word separation became a normal feature of Western writing from the twelfth century). 10 Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ The Jain Manuscript and Miniature Tradition : 103 The numbering of the folios Each folio of the manuscript was numbered on the reverse. In early manuscripts (prior to the fourteenth century) foliation was done in both letter symbols and numbers, but from the fifteenth century numbering appeared only in numerals. The numbering of folios in letter symbols followed a fascinating system. With the exception of the numbers from one to nine there were letter symbols for the tens and hundreds. Double-digit numbers were written in vertical order, thus the top letter symbol stands for the highest denomination. It is difficult to trace the origin of this system of numbering, but the Jains had evolved letter symbols up to ten thousand. " This practice of foliation in letter symbol and numerals brought into being two extra roundels in the margins on the verso, which were used for this purpose. The practice of three roundels continued even after this system of foliation was abandoned in favour of numbers, which were now written on the right side of the margin underneath the roundel. Sometimes ornamentation was added around the number. While reading a manuscript the folios are turned upwards (unlike the codex style in which the pages of a book are turned over sideways). This also explains why the foliation in a manuscript appears on the reverse side. How the authors used to work An author would either write himself or dictate his new work to his disciple or a scribe. Dictation was taken on a stone slate or traditional wooden writing board. The first editing of the work was done at this stage. When it had taken final shape the verse was written on palm-leaf or paper. However, even the so-called final copy would have several corrections and alterations. From this the final or fair copy of the original work was prepared. This was called the model copy (ādarśa prata; the manuscripts are also referred to as prati, derived from the Sanskrit pratikrti, meaning 'copy', which is shortened to prata). From this model copy more copies of the manuscripts were made and distributed for dissemination. Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Śramaṇa, Vol 56, No. 1-6/January-June 2005 Jaina teachers (ācāryas) preferred to reside in monk's dwellings (pośadhaśālās, upāśrayas or caitya mandiras) situated in the neighbourhood of the wealthy laity. They preferred such places fortwo reasons: firstly, they were well taken care of, along with their disciples and scribes, and secondly, such places were always well equipped with good libraries, which they needed for their reference work. The classification of manuscripts The Niśīthacurṇi (c. 6th century), a Jaina work, gives an ancient classification of manuscripts in five categories, 2 based mostly on their shapes and sizes. A squarish manuscript was called gandi. The kacchapi was turtle shaped." (There is an eighteenth century palmleaf manuscript in the shape of a turtle in the British Library, London.) The muşti were small manuscripts or scrolls, which could be accommodated in the fist. The samputa phalaka were perhaps books written on wooden panels. This might also have included manuscripts written in the form of copperplate grants or charters, sometimes fastened with a metal ring. The Vasudevahiṇḍī refers to thin folios of copper manuscript, which were stored in a copper box. No example of this has survived. The chedapati were the regular manuscripts with string-holes. Palm-leaf and paper manuscripts belong to this category. The size of the work 104 : The size of a work was never measured in terms of the number of folios but by the number of the verses contained in it. The learned monks counted the verses: thirty-two characters usually formed one verse. The total number of verses (sarvagranthägraor granthāgra) was always indicated at the end of the text. But sometimes the numbers of verses are seen written at the end of every 100, 500 or 1000 verses. Binding A manuscript was never bound like an Islamic or European codex. In palm-leaf manuscripts the folios were strung, using one or two string-holes depending on the size of the folio. The same cord was also used to secure them in their wooden covers. A similar Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ The Jain Manuscript and Miniature Tradition 40 105 practice is found in the Gilgit birch-bark manuscripts. When paper came into vogue it was not only cut in the same narrow format but also provided with roundels where the string-holes would be. Curiously enough, some paper manuscripts of the early fifteenth century have a small redundant hole, a vestige of the palm-leaf tradition, in the centre of the roundels. Paper manuscripts are always found in the form of loose leaves. From the sixteenth century some of the books of compilations have been bound in volumes. In these, the paper was always folded in the middle and then stitched. Such bound volumes are called handbooks (guṭakās). Black inks Ink was most often prepared by making a suspension of fine particles of soot or lampblack in gum arabic, which was first dissolved. Most of the known recipes for the preparation of inks come from nineteenth century loose and stray folios. In all these recipes the preparation of ink looks very complicated in comparison to older practices. It was found that the early inks do not dissolve in water, unlike the inks used on the later manuscripts. The later recipes contain some deleterious ingredients like die maroon dye, alta, made from the gum of the pipal tree (Ficus religiosa), iron shavings, and herbs like kalabhangra (Eclipta erecta). The ink was made in copper vessels. Consequently most of the manuscripts from the eighteenth and nineteenth centuries are in a poor state of preservation. In a majority of these manuscripts the black ink has charred the paper, which crumbles at the slightest touch, leaving behind perforations in place of the writing. This kind of damage, owing to poor quality ink, is never seen in older manuscripts. It is not known why the recipes for making ink changed with time. Alas, the later ink makers could not have suspected that their experimenting would destroy the text written with their products. Red Ink Red ink was prepared from a mineral rock called hingado, a mercuric compound. It was used in drawing the lines on the margin and sometimes for writing commentary, colophon, and verse number. Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 106 : Śramaņa, Vol 56, No. 1-6/January-June 2005 Gold and silver ink The manuscripts written in gold and silver ink are called suvarņākşarī or raupyākşarī respectively. These two inks were mainly used for writing the Kalpasūtra and Kālakācāryakathā. To make the ink, gold and silver foils were used. The foil was ground on a special flat agate mortar, in honey or thick sugar syrup. The latter was preferred by the Jains. These mediums were used for two reasons. Firstly, they held the precious metal foil to the mortar because they remained wet for a long time. Secondly, they were viscous and thus helped in the proper grinding of the metal foil. A well-pulverised mixture of metal in honey or sugar solution was finally washed in water. The fine powder of gold was allowed to settle in the water, and was then separated by decantation and mixed with gum arabic to prepare the ink. These inks were used against a deep red, indigo blue or black background on paper. After writing the letters were burnished with agate to bring up the metallic lustre. The preservation of manuscripts Manuscripts were protected against dust, light, humidity and insects. An extra leaf, beautifully decorated with designs and patterns, was provided to protect both the first and the last folio of the manuscript against friction from the book-covers. The book cover in turn, protected the manuscripts from creasing and other damage. The covers were made either of wood or paperboard. Most of the wooden book-covers were plain but some of the early ones carried beautiful paintings on them. The wooden book covers of palm-leaf manuscripts were tied with string. First, the string was wound several times around the middle. Then it was taken diagonally across to one end, where it was wound in a similar way. After that it was brought back to the centre, then taken over to the opposite side. Finally the end was fastened with a loop. In this way equal pressure was distributed over the entire surface of the manuscript. These palm-leaf manuscripts were tightly tied. The paper manuscripts, on the other hand, were never strung or tied. A great deal of attention was given to the paperboard covers. Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ The Jain Manuscript and Miniature Tradition : 107 They were usually covered with a variety of fabrics, including printed cotton or brocaded silk etc. Very often they were embalmed with embroidered textiles. Some book covers carried good examples of paper cutting on their interior side. These manuscripts were wrapped; in a square piece of red cloth tied with a braid, sometimes with verses or the name of the owner woven into it. To protect the manuscript from direct contact with hands (sweat and dirt), manuscript folders (puthun) were used. They have one broad and one narrow side. Such folders were made of sandalwood, wood covered with richly ornamented sheet silver, or paperboard covered with velvet or brocaded silk. Certain aromatic herbs were used as insect repellent, such as neema leaves (Azadirachta indica), tobacco leaves (Nicotiana tabacum), and ghoḍavaj (Acarus calamus). The warpped manuscripts were stored in tightly closing wooden boxes painted with lacquer and having beautiful floral designs. These wooden boxes were larger than those made of papier-mache or leather. The papier-mache boxes, which are known from the early seventeenth century, were also illuminated with miniatures. The so-called leather boxes are actually made of paperboard but covered with hide. Other manuscript boxes were made of plain or carved sandalwood or copper. The latter is referred to in the Vasudevahindi (c. sixth century). Such metal boxes can still be seen in some manuscript libraries, or bhaṇḍāras. The scribes also cared for the manuscripts by writing oftrepeated verses at the end of a work to remind the reader to protect it, since it had been written with great toil. One such verse reads, "Protect (me) from oil, protect (me) from water, protect (me) from loose binding; and never let a fool (careless person) handle (me), so says the manuscript. "In another variant of the same verse the manuscript calls for protection against fire and rodents. Some verses have used similes to demand their care. One such verse says. "Bedeck (the manuscript) like your own beloved child; guard (it) from others' hands like your own virtuous wife; treat (it) like a wounded limb of Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Śramaṇa, Vol 56, No. 1-6/January-June 2005 your own body; look up (at it) every day like a dear friend; tie (it) up like a prisoner with strong string, and always think (of it) like the name of god; if one follows this the book will never come to grief." 108 : The numbering of manuscript boxes in libraries (bhaṇḍāras) The manuscript boxes were either numbered in a serial order or given the name of one of the twenty-four Tirthankaras. If there were more than twenty-four, the following boxes were also named after twenty Viharamāna Tīrthankaras (those dwelling in the Mahāvideha region as defined in Jaina cosmology). These boxes were traditionally kept in wooden cupboards. Nowadays these have been replaced with steel cupboards. The formatting of manuscripts The traditional method of formatting a manuscript was to divide the folio into two or three columns with vertical lines. The space between the columns was reserved for the string-holes. The large surface of the paper made it possible to incorporate commentaries with the main text in the manuscripts. There were two main ways of doing this. Either the main text was written in the middle of the folio and the commentary in the upper and lower margins - this was called tripatha, or 'three texts formatting'. Or the main text was surrounded by the commentary on all four sides, which was referred to as pañcapāṭha, or 'five texts formatting'. Sometimes the text and commentary were written on alternate lines. The text and the commentary were always accommodated around the roundels. In the case of an illustrated manuscript, blank spaces were left for the painting. Scribal notes or legends in the margin indicated the subject of the illustration, or sometimes a small quick sketch was drawn in the margin to indicate the theme of the painting for the artist. Such quick but fine sketches can be seen only in manuscripts of the fourteenth and early fifteenth centuries. The artists always used the full height of the folio for the painting. Sometimes the name of the text is also mentioned on the top corner of the left hand margin. Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ The Jain Manuscript and Miniature Tradition : 109 Begins with 'bhale' and ends with 'cha' A manuscript always begins with the comma-like, or Devanagari number-like symbols which resemble 60, 70, or 90. This is an auspicious symbol, which was called siddham in the North, but in Western India the Jains called it bhale. 14 It has several forms and shapes. It symbolizes the beginning of a text and is generally followed by an obeisance to a god or Tirthankara. Because of the great demand for manuscripts some scribes used to keep ready-written stocks on hand in which the beginning of the manuscript was left blank, to be filled in with the name of the deity or Tirthankara to whom the patron wished to pay obeisance. A manuscript ends with the Devanagari letter cha, which symbolizes the end. Some other symbols were also used to indicate the end of the text. Very often the scribes preferred to complete a line with a repetition of such symbols rather than leave a blank space. Another scribal idiosyncrasy is found in the illustrated manuscripts of the Sangrahaṇīsūtras of the sixteenth to seventeenth centuries. Whenever the scribes were short of text they filled the line with the name of the place in which the manuscript was copied - matar grāma madhye, for instance, [completed] in the village of Matar. 15 The colophon and disclaimer A manuscript usually ends with a colophon. Occasionally a eulogy is also included at the end. The colophon contains much valuable information, for instance, the name of the manuscript, the names of the author and scribe with their lineage, the date of the work, the date it was copied and where, the size of the work and the name of the patron. The date was usually written in numerals but at other times in the form of a chronogram, which represented the date in words. In the latter style the symbols of the date are always read in reverse order to determine the year. Very often a scribe ended a manuscript with a disclaimer that he was not to be blamed for making errors. A typical disclaimer reads, "He has copied the manuscript as he saw, he should not be blamed for any act of omission or commission". Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 110: Śramaņa, Vol 56, No. 1-6/January-June 2005 Jaina libraries (bharļāras) The establishment of Jaina manuscript libraries (śāstra bhandāras) and the religious merit which was gained by gifts of manuscripts (śāstradāna) were the two major factors in the development of both Digambara and Śvetāmbara manuscript production in Western India. These libraries have not only helped in preserving Jaina literature but Indian literature as a whole. A vast body of ancient Indian Sanskrit literature has been preserved in the Jaina bhandāras. Thanks to the diverse interests of the Jaina monks and their tremendous quest for knowledge. This work started sometime in the eighth century when, due to generous patronage and endowments the originally itinerant Jaina monks found themselves the owners of properties and temples. The management of these religious establishments was entrusted to a senior monk, who came to be called the bhattāraka, "one of whose main responsibilities was the establishing of temple libraries. First the Digambaras then, in the late eighth century, the Svetāmbaras established libraries. Tradition has it that Kumārapāla (1143-1172), the Cālukya ruler of Gujarat, was responsible for the establishment of no less than twenty-one libraries in his capital. Annhilapataka (modern Patan). Vastupāla, the Prime Minister and co-builder of the Dilvara Jạina temples at Mount Abu in Rajasthan, is said to have established libraries at Patan, Khambhat (Cambay) and Broach. A rare palm-leaf manuscript of the Dharmābhyudaya, also known as Sarighapaticaritra or Sanghādipaticaritra, copied by Vastupāla himself in 1233, has survived in the Sāntinātha Bhandāra, Khambhat. It shows the minister's love not only for writing but also for the śāstradāna. The bhandāras in the desert town of Jaisalmer are the most celebrated, for many precious manuscripts from Gujarat were taken there to save them from the Muslim onslaught. A majority of the palm-leaf manuscripts in the Jaisalmer bhandāras once belonged to the Patan libraries. Interestingly, the Jaina libraries have also maintained a sort of catalogue (called tipas) of their holdings, mostly prepared by the Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ The Jain Manuscript and Miniature Tradition : 111 monks. One of the oldest checklists is dated 1383.16 These lists documented information such as the box number, manuscript number, title, and total number of folios. Sometimes they also included the name of the authors. The worship of scriptures on Jnana Pañcami: Jñāna Pañcami, or "Knowledge Fifth", is a Śvetämbara Jaina festival closely associated with the promotion, propagation and preservation of manuscripts and the tradition of writing. It is a unique festival celebrated on the fifth day of the bright half of the month of Kārtika (October-November). It is said to have been started by Devardhi Gani Kṣamāśramana, who was responsible for the final redaction of the Śvetāmbara Jaina canon at Valabhi. This date is well-chosen, coming after the rainy season when the climate is relatively dry and suitable for taking the manuscripts out for inspection. On this day pious Jains spruce up the bhanḍāra and the manuscript collection. The manuscripts are spread in the sunshine to dry out, dusted down and folios, which have stuck together, are carefully separated. A fresh supply of the insect repelling herb ghoḍavaja is also put in the boxes or cupboards. New cloth-wraps, book covers, or anything else, which needs replacement, is usually attended to on this day. The worship of the books (Jñāna-pūjā) is also performed on this day." A similar festival, Śruta Pañcami, or "Scripture Fifth" is observed by the Digambaras in the month of May. II Jaina Miniatures of the Western Indian Style: The art of painting was very much in vogue in ancient India, as literary and archaeological evidence shows. The earliest indirect reference to painting lies in the tradition of the professional storytellers (mamkhas) who used to narrate their tales with the help of a picture board. They were popular in Eastern India in the sixth century BCE, the period of Mahāvīra and Buddha. Mańkhali Gośālaka, an adversary of Mahāvīra, was the son of such a mamkha. 18 A more tangible Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 112 : Śramana, Vol 56, No. 1-6/January-June 2005 reference to the art of painting is seen in the gateways (torana) of the Sanchi stūpa (Madhya Pradesh, second century BCE 50 CE) where the architrave, with its voluted ends, is carved like a painted scroll upon which the story unfolds. Literature abounds with references to the tradition of painting in ancient India but nowhere is the art of manuscript illustration mentioned. Most references are to the mural tradition, of which the frescoes of Ajanta, Ellora (Maharashtra) and Sittanavasal (near Tanjavur in Tamilnadu) are prominent examples. They are dated up to the ninth century and represent a pan-Indian style. The Ajanta murals are remarkable for the depiction of nature and human figures in architectural and landscape compositions. The use of devices such as foreshortening, perspective, and modelling have given them a plastic, naturalistic quality. Later, the Ajantasque style gave way to linear conventions; forms were created with controlled lines infilled with flat patches of colour and with no attempt towards modelling. The beginning of the Western Indian style of painting can, in fact, be seen in the engraved drawings on the copper plate grants dating back to the mid-tenth century, but no manuscript from this period survives. The earliest illustrated manuscripts also suggest a late beginning of the art of book illustration in India. The Ogha Niryukti, on the rules of conduct for Jaina monks, dated 1060 is the earliest manuscript on palm-leaf to carry beautiful drawings of an auspicious vase (kalasa), of Laksmi, the goddess of riches, and Kamadeva, the god of love. Similarly, other early books containing illustrations representing gods and goddesses, though they have no relation to the text, also suggest the modest beginnings of the art of book illustration in India. For instance, the Digambara Satkhanḍāgama ("Scripture of Six Works") of 1112 is the earliest illustrated manuscript to show a preaching scene a Jina, the goddess Cakreśvari and some decorative motifs. Hagiographical works like the Mahāvīra Carita dated 1185, and the tenth canto of Hemacandrācārya's Triśaṣṭiśalākāpuruṣa dated - Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ The Jain Manuscript and Miniature Tradition : 113 1237, also depict the figure of a Jina, monks and lay people. The Neminātha Carita of 1-42 depicts the Jina Neminātha, the goddess Ambikā and laywomen. The earliest extant example of an illustrated Kalpasūtra-Kālakācāryakathā, the most revered Svetāmbara text, is dated 1278. Yet another is dated 1279, also bearing paintings of iconic interest only. Most of these illustrations are not related to the text but seem to have an auspicious, decorative or magical purpose, as was also the case with Buddhist manuscripts from Eastern India, which predate the Jaina by half a century. The narrative scenes illustrated on the wooden book covers of palm-leaf manuscripts do not indicate the beginning of a new painting era. They mostly commemorate specific events of great historical importance for the community and the patrons - the book cover depicting the debate between Kumudacandra, a Digambara monk and the Svetāmbara monk Vādideva, which took place at Patan in the time of Jayasiṁha Siddharāja (1094-1144) of Gujarat is such an example. Similar book covers represent Jinadatta Sūri (active 112254). The ancient Indian narrative tradition is used in these paintings, a tradition seen even in the earliest manuscript illustrations. The earliest manuscript to establish a relationship between illustration and text is the Subāhukathā and seven other stories (dated 1288). It has 23 miniature paintings. These miniatures are not iconic in their composition: for the first time the locales in which the scenes take place are indicated in the paintings, either by pavilions or landscape compositions. These compositions became more complex in the later miniatures. Interestingly, they follow the ancient tradition of narrative art, in which locale is suggested but time is eliminated, a tradition the painters must have known about from early cloth paintings and temple relief sculptures, and which is also used on the wooden book covers mentioned above. The introduction of narrative painting in Indian manuscripts was probably inspired by Persian examples, for as we have seen, there was no early tradition of manuscript illustration in India. But the Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 114 : Śramaņa, Vol 56, No. 1-6/January-June 2005 technique and style of the narrative composition continued to be wholly Indian. The palm-leaf Kalpasūtra painted in 1370 with only six miniatures is the earliest extant example ofthe first illustrated version of the holy book. All the folios are now in the Sarabhai Foundation, Ahmedabad. They depict a Jina, a preaching scene, the birth of a Jina, a Perfected being (siddha) and the symbol of omniscience. The Kalpasūtra-Kālakācāryakathā now in the Palitana collection, painted in 1382 with its fifty-six miniatures, roughly completes the compositions of the narratives. There is an early attempt to divide the scenes into registers to accommodate more than one episode in a single painting. Such attempts had occasionally been made in the previous century, butby the fourteenth centuryithad become imperative for the artists in order to keep the illustrations as close to the text as possible. These manuscript paintings represent the finest expression of the style. The Kalpasūtra of Idar, in which the use of gold is seen in the miniature for the first time, dates from approximately the same period. These paintings show the complete crystallisation of the Gujarati Jaina painting style in the fourteenth century. The Kalpasūtra describes the lives of the four most important Tīrthankaras, Ķsabhadeva, Neminātha, Parsvanātha and Mahāvīra. It also contains rules for the monastic establishment. The Kālakācāryakathā tells the story of Kālaka, the great Jaina teacher, who sought the help of the Sahis who ruled across Sind (in the NorthWest frontier) to punish the wicked ruler of Ujjain. The story is not related to the Kalpasūtra, but it was appended to the text for the simple reason that Kālaka was responsible for the moving of the date of the Paryūṣaṇa festival, when the Kalpasūtra is ritually read. The Kālakācāryakathā painted at Yoginipur (Delhi) in 1366 is the earliest illustrated version of this text. Unlike the painting style used on book covers, where a slight attempt was made towards modelling, the manuscript painting style remained strictly two-dimensional. Its hallmark - the beginnings of which can be foundin Ellora painting-is the face shown in three-quarter profile with the characteristic protruding eye. This new style can already Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ The Jain Manuscript and Miniature Tradition : 115 be seen in the figural engraving on the copper plate grants dating from the mid-tenth century. The Vidyādevībook cover(ca. twelfth century) of the Lalbhai Dalpatbhai Institute of Indology, Ahmedabad, shows this feature in the figures of the donors painted on it. Several attempts have been made to explain the protruding eye, which is such a notable characteristic of the Western Indian painting style. It has been suggested that it was due to the artist's inability to draw the face in the desired profile. However, this characteristic feature can also be perceived in contemporary stone sculptures, whose slightly bulging eyes appear to protrude when viewed in three-quarter profile20 and which can be well compared with the early paintings where the farther eye is seen, complete with eyelashes, protruding into space. It had nothing to do with the Svetāmbara tradition in which extra eyes were added to the Jina images, as has also been suggested, but was, in fact, a faithful rendering of the sculpted face in three-quarter profile by the early painters. But the protruding eye suffered a different fate at the hand of those later artists who lacked this understanding of its origin. It began to protrude from threequarter profile until all organic relationship was lost. Very soon it. had become a clichê. We also find distortions of the body in Gujarati Jaina paintings. The limbs look thin and tubular and the chest abnormally swollen. Again, this feature is encountered in contemporary sculptures, in which the torso is carved in analogy with the cow's face (gomukha), following the outline of the bovine head. When viewed in threequarter profile the bulging chest and narrow waist are evident. The Gujarati painters seem to have based the painted figures on the sculptural models. In ancient India, the painting tradition paved the way for sculptors but in the medieval period this was apparently reversed. A square face, sharply pointed nose, protruding farther eye, thin lips, and double chin are some of the facial features common to both art forms. Workmanship, however, differed according to the artist's skill. Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 116 : śramaņa, Vol 56, No. 1-6/January-June 2005 The fourteenth century also saw the use of rich colours like ultramarine, crimson, gold and silver, and the artist's rediscovery of the ancient technique of representing water by the basket-weave pattern. This technique was created in the fifth century by the Guptā sculptors 2' but had been lost for centuries, only to reappear in the fourteenth century Jaina miniatures. The appearance of Sahi figures of Mongol origin in the Kālakācāryakathā is directly inspired by Persian art. Other extraneous influences can be seen in the KalpasūtraKālakācāryakathāin the Devasana-pada Bhandara, Ahmedabad. It is written in rich gold ink and has lavish border decoration, which puts this manuscript in the 'opulent' category. The paintings follow the hieratic style except for the border decoration. The borders are sumptuously embellished with geometrical and floral designs, which are mostly drawn from contemporary fabrics and carpets. Other scenes include people bathing in a pool, dancing girls, a ship in high seas, and Rāga-Rāginis (the musical modes) represented by female figures; foreign soldiers, animal trainers and episodes from Persian epics are also portrayed. All the foreigners look like the Mongol Sahi figures; the trees have been drawn directly from Persian paintings. Such border decorations can also be seen in yet another opulent Kalpasūtra manuscript painted at Patan in 1501 and now in the Jamnagar collection. The border decoration shows the beginning of a new trendthe composite figure,22 a favourite theme of the later schools of Rajasthani painting. The fifteenth century Jaina miniatures exhibit an exceedingly lavish use of gold pigment. This was perhaps due to the belief that manuscripts written and painted in gold ink would earn greater religious merit for their patrons. Unfortunately, the aesthetic beauty of the paintings was a major victim of this new trend. The miniatures lost the richness of their colours, the textile designs and the fine lines. Nevertheless, Jaina painting had a ritual role to play. Jaina miniatures were mass-produced or commissioned in order to gain Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ The Jain Manuscript and Miniature Tradition : 117 religious merit and therefore aesthetic considerations were subordinate to their religious function. Outside the geographical boundaries of Gujarat Jaina painting remained as vibrant and alive as it had been in the previous century. It was neither repetitive nor full of clichs, as seen in Gujarat in the fifteenth century: The paintings of the Mandu region (Central India) represent the development of a new awareness. The Kalpasūtra painted in Mandu in 1439 marks a new beginning, in which the painter rediscovered the lost tradition of the typical Indian eye. Large and vacuous, it covers almost the entire width of the face in profile. This was a stylistic turning point. The face is now seen not in threequarter, but in true profile with the protruding eye floating in space, completely unattached to the face. Costumes, textile patterns and architectural details are also rendered in a different way. This new style of the Mandu Kalpasūtra was not a sudden development however. The Kālakācāryakathā of the Lalbhai Dalpatbhai Institute of Indology Museum in Ahmedabad dated ca. 1430 shows an intermediary stage of development. One can also perceive the beginning of this style in the Coomaraswamy Kalpasūtra in the Boston Museum23 and the Kalpasūtra painted in 1465 at Jaunpur (Uttar Pradesh). Some scholars argue that this change in style was due to the impact of an indigenous non-hieratic painting style, 24 which is sometimes referred to as the Caurapañcāśikā style. But such an early existence of this style in the Mandu region is not proven. The Mahāpurāņa dating from the last quarter of the fifteenth century in the Digambara Naya Mandir, Delhi, is a well-known Digambara manuscript which represents the popularity of this same style in Delhi. The illustrations have been ambitiously executed though the lines are weak. The figures are not confined to small panels but spread over a larger area, sometimes covering the entire folio. Regional elements can be seen in the costumes and other decorative details. In the Gwalior region (Madhya Pradesh) a large number of Digambara manuscripts, such as the Yasodharaçariu, Jasaharacariu and Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 118 4. Śramaṇa, Vol 56, No. 1-6/January-June 2005 Pāsaṇāhacariu were painted in the same style. 25 They are not very impressive for their lines are weak the palette limited and the miniatures are smaller. The figures have unusually large heads and some of them also show the large eye seen in the Mandu idiom. The Jaina painting style is described as 'Western Indian' or 'Gujarati' for lack of a better general term. 26 It was, however, a style prevalent over a large area and served not only the Jains but other religions too. The Hindu Bālagopālastuti (in praise of the youthful Kṛṣṇa), for instance, was a popular manuscript illustrated in the Western Indian style. Nor was the style restricted to religious subjects; it served secular themes as well, as can be seen in the Vasanta Vilāsa ('Celebration of the Spring'), painted at Ahmedabad in 1451. These miniatures painted on cloth contain a vivid depiction of nature. The artist was far removed from the restraints of hieratic injunctions and could enjoy the freedom to express himself to a much greater degree, given the theme of his work. The paintings illuminate the mood and joie de vivre of nature in a way rarely seen before. Very sirailar in spirit is the Jayatra Yantra also painted in Ahmedabad in 1455. Outside Gujarat, too, some remarkable illustrated manuscripts were produced; the Śāhanāmā, the Persian Book of Kings, was painted by an indigenous artist working in the Jaina painting style.27 In the fifteenth century the style became somewhat repetitive and devoid of energy. Lines became weak and composition degenerated. But from the sixteenth century the Jaina painting style began to undergo certain changes. The turning of the face in strict profile without the protruding eye, seen for the first time in the Sangrahaṇīsūtra painted by Govinda in 1583 at Matar, near Ahmedabad, is the most important departure from the old style. This change has been attributed to the influence of Mughal paintings. 28 These miniatures show a special sartorial type, the four pointed jama, which was introduced by the Mughal emperor Akbar.29 But apart from this there is hardly any other feature to show the Mughal influence on the style. Moreover, the fourpointed jamacan also be seen in the Caurapañcāsikästyle, 30 an equally possible source of influence. Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ The Jain Manuscript and Miniature Tradition : 119 Be that as it may, the first attempt towards a development in the Gujarati style was made long before the establishment of the Mughal style, as can be seen in the Uttarādhyayana-sutra (an early Jaina canonical text containing advice and admonitions to the monastic community) painted at Singanapur, a suburb of Surat, in 1537-38." The two introductory paintings show the faces in true profile without the protruding eye. It is not easy, given the present state of knowledge on the subject, to determine the source of such a change. But it is difficult to believe that the Gujarati painters were unaware of the stylistic developments taking place in the North. The Pascākhyāna("Five Stories") now in the Maharaja Sayajirao University, Baroda, and dated to ca. 1570-75 is the next manuscript in which the new progressive style was introduced. The miniatures contain several features - the inclusion of the kulahadara, or turban, in the figures' costumes, for instance - which were not seen before in Gujarat, 52 although they are commonly seen in the Caurapañcāśikä painting style. Some of these miniatures also carry over the old convention of the protruding eye to the new facial type. Thus, they belong to a transitional phase. The Sangrahaņīsūtra in the Sidhu Collection in New York belongs to this period. 33 A large almond shaped eye, a hallmark of the Caurapancāśikā style, is also a conspicuous feature of this new idiom of the Gujarati Jaina painting style. The most likely route by which these influences reached Gujarat would seem to be Malwa, a region where the important Adhāidvīpa pata (a Jaina cosmological diagram depicting the 'two and a half continents) of the Khajanchi collection was painted in ca. 1570.34 The style does not differ much from its parent Gujarati Jaina painting style, but for the impact of the Caurapañcāśikā style which is apparent. ** Some fabulous aquatic creatures were also introduced here for the first time. The Abhidhānacintāmaņi Nāmamālā, a lexicon by Hemacandrācārya painted in 1573 at Nulahi Nagar in Malwa, also shows the development, which was taking place in the Malwa region,36 as does the Dhanañjaya Nāmamālā, another lexicon, in the collection of the Lalbhai Dalpatbhai Institute. It was executed in 1575, most Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 120 : śramaņa, Vol 56, No. 1-6/January-June 2005 probably in the same region, and contains some sketches, in one of which a royal figure is wearing a turban with a tall kulaha (a conical projection) on top. For convenience this new style can be referred to as the Neo-Gujarati Jaina painting style; to distinguish it from the old style. The Uttarādhyayana-sūtra painted in 1590, and several other manuscripts, also follow this new style, including the famous Gita Govinda (by the twelfth century poet Jayadeva) of the City Palace Museum, Jaipur, and the one in the N.C. Mehta Collection, Ahmedabad, and the Bhagavata Daśam Skandha(the tenth canto of the Brahmanical scripture extolling Vişņu as the Supreme Lord of the universe) which was painted by Govinda, the son of Narad, in 1610. The Mughal style had in fact only begun to exert its influences on the Gujarati painting style from the beginning of the seventeenth century. It can be attributed to painters discharged from the royal atelier who had begun to work for a lesser clientele. One of the royal painters whose works have survived was Ustad Salivahan. He worked for the Jaina community in Agra and from his hand came the famous letter of invitation (Vijñaptipatra), which was sent, from Agra in 1610, to Vijayasensūri, who was then resident in Patan. The style of this painting and others by such royal painters working for the rich is known as the popular Mughal style. Somewhat simple in execution in comparison to the Mughal style, these paintings were done in less expensive pastel colours. The Sangrahaņisūtra painted in Agra in 1613, (now in Bharat Kala Bhavan in Varanasi), is another document in this style. The Jaisalmer Rāgamālā of 1604, and undated sets of the Nala Damayanti Rāsa in the Prince of Wales Museum, Mumbai (Bombay) and the Lalbhai Dalpatbhai Institute of Indology, Ahmedabad, are well known illustrated manuscripts of this style and were largely responsible for the spreading of the Mughal style to other regions, including Gujarat.3* These influences blended with local traditions and gave birth to new styles. The Mughal style was also absorbed by the Neo-Gujarati painting style. There are several Sangrahaņīsūtras painted in the Neo-Gujarati style where the Mughal Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ The Jain Manuscript and Miniature Tradition : 121 costumes are easily discernible, such as the Sangrahaṇīsūtras painted in 1630 in Wadhavan. The Mughal influence also brought about the significant change of the vacuous eye into a vivacious eye in the true profile. The Adhaïdvipa painted at Kheralu in North Gujarat in 1630 is an example of this hybridisation of the Neo-Gujarati and the Mughal painting styles. The cosmological diagram follows the same scheme as seen in the Aḍhāīdvipa of the Khajanchi collection. There are two such cosmological diagrams in the collection of Lalbhai Dalpatbhai Institute, Ahmedabad. The Popular Mughal style had also influenced the older Gujarati Jaina painting style at the beginning of the seventeenth century. The Uttarādhyayana-sūtra dated c. 1600-1610 in the Lalbhai Dalpatbhai Institute of Indology, Ahmedabad and similar ones in other collections show it direct influence especially in the costumes worn by the figures in the paintings. Some of these miniatures show the eyes in more than three quarter profile but the nose and lips in strict profile. From the first quarter of the seventeenth century however, the Gujarati Jaina painting style gradually began to lose its moorings, first under the impact of the Caurapañcāśikā style, followed by the Popular Mughal style, and then by the styles emerging from Rajasthan, especially the so called Sirohi style, which completely usurped it. The Sirohi style developed in the second' quarter of the seventeenth century and shows influences from the Mewar and Marwar schools of Rajasthani painting. The Jaina manuscript tradition preserved a vast body of Indian literature and gave new life to the waning tradition of Indian painting. It brought into being the Gujarati painting style, which had the longest survival span in the history of Indian miniatures, retained its strengths and character while absorbing outside influences and in its turn, played akey role in the development of other miniature painting styles, opening new possibilities for the growth after schools of painting. Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 122 : śramaņa, Vol 56, No. 1-6/January-June 2005 References: 1. For a further discussion of this question and related issues, see John E. Cort, 'Art, Religion, And Material Culture: Some Reflections On Method,' Journal of the American Academy of Religion, LXIVI/3, pp. 613-632. 2. Kapadia, Hirala Rasikdas, A History of the Canonical Literature of the Jains, Surat, 1941, p. 60. Dundas, Paul, The Jains, London & New York, 1992, p. 69. Muni, Punyavijaya (ed.), Pavitra Kalpasūra (text with Gujarati Trans.), Ahmedabad, 1952, fig. 25. 5. • Losty, Jeremiah P., The Art of the Book in India, The British Library, 1982, p. 9. Ibid., p. 15 7. Czuma, Stanislaw J., Kushana Sculpture: Images From Early India, Cleveland Museum of Art, 1985, p. 168, fig. Jaina Citrakalpadruma, in Gujarati, Sarabhai Nawab, Ahmedabad, 1936, p. 18. For a detailed account about Yatis see Cort, John E., 'The Shvetambara Murtipujak Jain Mendicant,' Man, Vol. 26, Number 4, December 1991, pp. 657-661. 10. My thanks are due to my friend Mr. Alfred M. Jacobsen for gathering this information from Prof. J. P. Gumbert, Leiden, Netherlands. 11. Jaina Citrakalpadruma, pp. 61-65. Ibid., pp. 22-24. 13. Losty, Jeremiah P., The Art of the Book in India, figure on p. 8. 14. Gouriswar, Bhattacharya, 'The bhale symbol of the Jains,' Berliner Indologische Studien, (BIS) 8.1995, pp. 201-228. 15. Kumar, Lalit, 'Gujarat; Painting of 16th-17th Century - A Reappraisal,' Nirgrantha, Vol. I, Ahmedabad, 1995, endnote 33. 16. Dundas, Paul, The Jains, p. 72. 12. Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ The Jain Manuscript and Miniature Tradition : 123 17. 18. 19. 0 21. 22. 23. On the performance of Jñāna Pañcami, see John E. Cort, 'Liberation and Wellbeing,' A Study of the Svetambar Murtipujak Jains of North Gujarat: Ph.D. Dissertation Harvard Univ., 1989, pp. 198-203. Kumar, Lalit, 'Citra-Kala in Jain Canonical Literature in K. R. Chandra (ed.), Jaina Agama Sāhitya Proceedings of a Seminar on Jaina Āgama, Ahmedabad, 1992, pp. 283-284. Shah, U. P., More Documents of Jain Paintings and Gujarati Paintings of the Sixteenth and Later Centuries, Ahmedabad, 1976, fig. 1-3. Cf. Brown, Norman, The Story of Kalaka, Washington, 1933, p. 16. Kumar, Lalit, 'The Water Imagery In Indian Art, Kală (Journal of the Indian History Congress), Vol. 4, 1997-98, pp. 89-92. Jaina Citrakalpadruma, fig. 143-147. Kumar, Lalit, 'Gleaning of the Mandu Idiom: the Coommaraswamy Kalpasutra and Kalakacaryakatha in Boston Museum: in the Vijaya Shankara Srivastava and M.L. Gupta (ed.), Rupankana: Recent Studies in Indian Pictorial Heritage (Padmasri Vijayavargiya Felicitation Volume), Jaipur, 1995, pp. 53-56. Doshi, Saryu, Masterpieces of Jain painting, Marg Publication, 1985, pp. 58 & 63. Ibid" p. 57. The nomenclature of the style has been discussed at length in the past. The current name of the style is used only for the sake of convenience. Nevertheless, the name of the style as Apabhraíía suggested by Rai Krishna Das is the most appropriate one. It truly characterizes the style because similar development had also been seen in the contemporary literature and referred to by the same name. Goswami, B. N., The Jainesque Sultanate Shah Nama and the Context of Pre-Mughal Painting in India, Zurich, 1988. 24. 26. 27. Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 124 : Śramaņa, Vol 56, No. 1-6/January-June 2005 28. 29. 30. 31. 32. 33. 34. Khandalavala, Karl, 'Leaves From Rajasthan,' Märga, Vol. IV; No. 3, Bombay, 1950, pp. 16-17. For the foreign origin of the costume see Lalit Kumar, 'A Dance Scene From the Devagarh Temple, Lalit Kalā, No. 28, pp.49-50. For a detailed discussion on this style see Lalit Kumar, 'The Caurapancashika Style: the Origin, Provenance, and Chronology of Documents,' Kalā (Journal of the Indian History Congress), Vol. VIII, New Delhi 2003, pp. 99-114 Losty, Jeremiah P., 'Some Illustrated Jain Manuscripts, 'The British Library Journal, 1/2, London, 1975, pp. 55-56, figs. 19-20. Shah, U. P., More Documents, fig. 56-57. For illustration see Pratapaditya Pal, The Peaceful Liberators: Jain Art of India, Thames and Hudson: Los Angeles County Museum, 1994, fig. Cat. 90 A, 90 B, and also see 91. Khandalavala, K., Chandra, M. and Chandra, P., Miniature Painting From the Sri Moti Chandra Khajanchi Collection, New Delhi, 2960, pp. 23-24. Ibid., fig. 14-17. Majmudar, M. R., "Two Manuscripts Illustrated in the Western Indian Style During Hiravijaya Suri's Time - Abhidhana "Namamala and Uttaradhyayana Sutra,' Bulletin of Baroda Museum and Picture Gallery, Vol. XV; Baroda, 1952, p.16. Kumar, Lalit, 'Gujarati Paintings of the 16th-17th Century,' p. 94. Ibid., pp. 98-99. Ibid., p. 99; also see Kumar, Lalit, 'On the Style of Adhaidvipa Cloth painting of the Sixteenth and Seventeenth Century,' in Pravin Parikh et al (ed.) Prof. H. G. Shastri Felicitation Volume, Ahmedabad 1994, pp. 142-145, fig. 1-5. The author is grateful to his friends Dr. John E. Cort (USA) and Mr. Alfred Jacobsen (Amsterdam) for their suggestions incorporated in this article. 35. 36. 37. 38. 39. Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ The Jain Manuscript and Miniature Tradition : 125 Bibliography Brown, Norman, The Story of Kalaka, Washington, 1933. Brown, Norman, A Descriptive and Illustrated Catalogue of Miniature Paintings of the Jain Kalpasutra, Washington, 1934. Punyavijayaji; Muni, Bhāratiya Jaina Šramana Sanskrti Aura Lekhana Kalā, in Sarabhai Nawab (Ed.) the Jain Citrakalpadruma, Ahmedabad, 1936. Khandalavala, K. and Chandra, M., New Documents of Indian Painting - A reappraisal, Bombay, 1969 Losty, Jeremiah P., The Art of the Book in India, British Library, 1982 Doshi, Saryu, Masterpieces of Jain Painting, Marg Publication, Bombay, 1985. Pal, Pratapaditya, The Peaceful Liberators: Jain Art of India, Thames and Hudson: Los Angeles County Museum of Art, 1994. Guy, John, Early Jain Painting: Sources and continuities, Oriental Art, Winter 1995/96, Vol. XLI, No.4, pp. 30-41 Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Śramana, Vol. 56, No. 1-6 January-June 2005 MATHEMATICAL FORMULARY OF JINISTIC PRECEPTS The coming century will be the century of science and technology. Only those systems will survive there, which have high scientificity involving intellectual and experimental verifications. The faith may be a secondary factor for attractions. The Jaina religion passes this test. It postulates realistic thoughts and rational behaviour. Its early texts encourage examination of religious concepts through intelligence. It encourages self-effort to make one's own destiny. It has an ideal of welfare of the self and of all the living beings. It defines religion both ways subjectively and objectively. It is that way of life, which leads to ultimate and spiritual happiness. It improves the individual, and betters the society. It has certain basic precepts on pluralistic realism, which could be expressed through easy mathematical formulae to make them scientifically verifiable. N.L. Jain* It is seen that simple physical laws are applicable to complex biological systems, which have made us learn about many complex phenomena of the life and the living. Why, similarly, the laws of abstract sciences like economics and psychology could not be applied to the spiritual systems? Yes, this could be done. A Jinistic formulary and graphery has been given here for understanding and, therefore, promoting the religious principles and practices of scientific basis. Precepts: The Physical World and Spiritual World The basic Jaina tenets regarding the cosmos are given below: 1. The Cosmos in General The cosmos is real and eternal. It consists of conglomeration of all that exists. It functions on natural laws without any external agency. It is a non-theo-centric system. Jaina Kendra, Rewa (M.P.) - 486 001 Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " Mathematical Formulary of Jinistic Precepts : 127 2. The Physical World Physically, it consists of six realities under two heads - (i) the living and (ii) non-living coexisting in (iii) space (iv-v) moving and stopping through the inert mediums of motion and rest with respect to (vi) time. It, thus, postulates a 4d existence. 3. The Spiritual World Spiritually, the path of happiness, H, is led through the accurate knowledge of seven reals. (i-ii) The living and the non-living combine together to lead to (iii-iv) the worldly existence through the influx and bonding of karmic aggregates with the living through its physical and psychological activities. However, the pure living has a longing for karmic decontaminations. Thus, we have: Worldly Living Pure living being (Soul) + Karma (Body etc.) = Or, Worldly living - Karmas Pure living or liberated soul. The aim of human life is to attain or create the state of (vii) ultimate happiness or liberation by zeroing the sufferings of the birth cycles or increasing the content of happiness. = 4. Formulary of Precepts: (a) Happiness and Religiosity This happiness, E, results in proportion to (v) loosening and stopping and (vi) shredding of karmic bondage through physical or psychical processes of abstention and austerities. The (vii) ultimate happiness is the last stage of human exaltation, which could also be designated as Religiosity, R. It is said that happiness, H is directly proportional to Religiosity, R, or Ha R The happiness is acquired by following the rationalistically coordinated path of gem-trio of right faith, knowledge and conduct in comparison to 1 or 2- way path. (b) Passions / Desires and Happiness The human world abounds in physical or psychological desires, D, ambitions, attachments, aversions, attainments etc. all forms of Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 128 : Śramaņa, Vol 56, No. 1-6/January-June 2005 delusion collectively called passions, P. These may be good or bad, limited and unlimited in numbers. The bad and, therefore, undesirable passions lead to sufferings. In fact, the world is a playground of passions resulting in a mixture of pleasures and pains. The religious path leads to minimising pains/passions to zero and maximising the pleasures (happiness) to infinity. Mathematically, one could say that passions, P or desires D are directly proportional to pains, W and inversely proportional to happiness, H. On one could, thus, express: Worldly Existence, D a P a W Or, Ha Ra I/P α l/w (c) World as a Cyclic Whirlpool The world is assumed to be a cyclic whirlpool. The centrifugal forces of passions and possessions are working upon it for strengthening the rebirth-cycles. In contrast, observance of vows and austerities are working against it to counteract the above process. It is clear that until the centrifugal forces have exceeded the quantum of centripetal forces, no ultimate happiness or salvation will crystallize. Hence, for happiness; Centrifugal forces of non-attachments >> centripetal forces of passions (d) Volitional Purity, Destinities and Karmic Density: There are four destinities, Dy-infernal, sub-human, human and celestial-for the living beings in order of decreasing karmic density, Dk and increasing volitional purity of the living beings is inversely proportional to karmic density, Dk and destinity. The Jaina system encourages, the living beings to mutate their quality of purity to higher and higher levels through the process of reducing karmic density. Thus, combining the earlier formulae, we have, Volitional purity, VP a I/Dk Or, Higher destinity, Dy a I/Dk Or, Inner Purity a 1/Dy a 1/Dk α H Thus, the inner purity is directly proportional to happiness. Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Mathematical Formulary of Jinistic Precepts : 129 (e) Happiness and Karmic Density Inorder to attain the highest state of happiness, one must have Dk tending to zero, so that H becomes infinity. Thus, if H is defined as H = No. of desires fulfilled, D/Total no. of desires, Di, then H=D/Di = 1/Dk where D is desires or passions; Di is the total number of desires which is normally infinite; Dk is karmic density. The religion has an objective to have H= infinity. The common man can only imagine the realisability of such a condition. Hence, he feels his mission of worldly life is to try to attain such a condition. This is easily surmisable that it is easier to reduce the number of desires to the minimum or zero to attain H=infinity, as the fulfillment of desires is virtually limited and constant. This is what the Jaina! religion postulates - limitation of desires results in happiness. The reduction in desires / passions could be effected by many voluntary controls and cultivation of good number of virtues checking the karmic influx and reducing Dk. Similarly, lower the karmic density, higher will be the H. As passions, P are proportional to D,P can be substituted. for D in the above equation. (f) Satisfaction / Contentment and Happiness or Karmic Density Like happiness, contentment, C is also a desirable quality in worldly life. Both of these qualities are directly related with each other. The economists define C as below: C = Acquirement of desired objects, S/Total number of desired objects, Si =S / Si Ca Ha Ra 1/Dk and, where S and Si represent the acquired number of objects and total number of desired objects. This formula is similar to earlier Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 130 : śramaņa, Vol 56, No. 1-6/January-June 2005 formula for happiness. Thus, if we reduce the number of desired objects, Si, we would be more content and happy. (g) Spiritual Mathematics In order to effect better H or C, the Jaina saints have advised to follow many primary and secondary vows. During practicing these vows, the aspirant learns about the specific spiritual mathematics where the sum of qualities results in the multiple of the qualities in effect in individual, social and spiritual levels. This could be expressed in three formulae as below: (i) Non-violence, N1 + Non-absolutism, N2 + Nonpossessions, N3 = N).N2.N3. (ii) Sweating, S1 + Self-sufficiency, S2 + Sameness, S3 = S1.S2.S3 (iii)Right (Knowledge, K + Faith, F + Conduct, C) = Right (K. F. C). (h) The Theory of Karma Karmavāda is the important theory of Jainism. It is one of the most scientific, philosophical and psychological theory which is capable 01: (i) giving strength to bear the worldly strains (ii) reducing the number and intensity of pains and (iii) encouraging to work towards better future. It is an old form of the law of cause and effect which has been verified by the psychologists in terms of relationship, between stimulants, S and effects, R in medium ranges through a formula: S = K in R which indicates that specific stimulants (physical, vocal or psychical emotions etc. or karmas) of internal or external nature have specific effects. Normally, karmas are said to be a form of fine but strong force, whose bonding effects our actions and normal life. Of course, this is not a complete formula as there are many other factors affecting the results. However, research could be undertaken to improve and verify this formula on karma theory at least on the physical and chemical effects caused by different passions. Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Mathematical Formulary of Jinistic Precepts : 131 (i) The Theory of Anekānta and Nayas (Aspects) The theory of manifold predications (Anekānta) is also a very important contribution of the Jainas. It was developed on philosophical basis, but it could now be verified scientifically applying it to many physical phenomena. It states that an entity is multi-aspectal and a common man can study it only relatively with respect to some aspects, P. The absolute truth, T is, in fact, indescribable (because of language limitations and other factors). If the overall nature of an entity is A, the number of aspects is P, we have: A = ΣP T As P is infinite, we can integrate it to find the value of T as below: P dp = T = 0 This theory has a septadic form of expression. On this basis, an alternative expression could also be written: P dp = T = 24 where the parameters 0 or 24 are virtually insoluble leading to T as indescribable. However, statistically, it could be shown that the septadic nature of describing an entity could be obtained in the form of the following equations: 3C1 + 3C2 + 3C3 = (3 + 3 + 1) = 7 This principle has a very large number of beneficial applications in our life. We need not go into details. The important point is that it has acquired scientificity and verifiability. 5. Graphical Representation of Some Precepts (a) Linear Path of Higher States of Human Beings The Jainas have two-fold religion - one for the householders and the other for the ascetics a continued higher stage of the householders. Both the classes of followers have to observe certain Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 132 : Śramaņa, Vol 56, No. 1-6/January-June 2005 practices and develop the corresponding attributes. There are two kinds' of householders (1) inclined (Naişthikas) and (2) pledged (Päksika) who have to follow eight basic restraints (Mūlagunas) and eleven kinds of mental resolves (Pratimās). The ascetics have five varieties called paragons (Paramesthis) named as Arhats (Enlightened venerable-46), Siddhas (Salvated-8), Ācāryas (Order-Leaders-36), Upadhyāyas (Preceptors-25) and Sadhus (Saints-36) whose attributes are shown against them. Thus, if one plots the number of attributes against the different states of the living beings, one gets a straight line showing that the path of spiritual or inner progress is linear and not zigzag. The linear path is simplest one and refutes the charge of harsh path by the West. Saluated Enlightened Minister Preoeptor Saint Peadged Groge 20 40 60 80 100 120 QUALITIES, NUMBER 140 160 180 Fig. 1 : Attributes and different states of human beings. (b) The Theory of Spiritual Stages (Guņasthānas) The Jainas have developed the psychological theory of 14 spiritual stages (from wrong faith to static omniscient stage) depending on the gradually growing nature of volitional inner purity due to observance of vows and austerities. This purity may also be - called as stages of spiritual, progress for the uplevelling the society and the individual himself. It moves oneself away from one's own home and moves one towards a universal home. Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Mathematical Formulary of Jinistic Precepts : 133 (11) (10) (5) Humans Lower life Higher lite 2 Fig. 2 : Serpant Ladder of Spiritual Stages. This purity depends inversely on karmic density. Thus, the spiritual stages reduce the karmic density gradually leading to better and better happiness. These stages represent the fluctuations and improvements of mental yolitions of the living beings. It is observed that they form a ladder from which a person may fall or move upwards based on the nature of his volitions. A ladder, therefore, could be framed to understand this theory. There are many such ladders out of which one a serpent-ladder is shown in Fig. 2 as per Mardia. It indicates a person may fall from stage 7 to 2 and 11 to 5 and may move upward from stage 5 to 8, 10 to 12 and 1 to 3. The elaboration of this theory needs another article. One can, thus, see that many basic Jaina postulates can be mathematically and graphically expressed. This approach may lead to better understanding the religion in comparison to expressing them in traditional way. It is hoped that many such formulae can be developed for many other tenets of Jaina religion. Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Śramaņa, Vol. 56, No..1-6 January-June 2005 SCIENTIFIC THOUGHT EVIDENT IN THE LABDHISĀRA L.C. Jain* The Labdhisāra is a celebrated text in the metaphysicoontological literature of the Digambara Jaina School. For about a thousand years, this text alongwith its companion texts, the Gommațasāra Jivakānda and the Gommațasāra karmakānda, as well as the Kșapaņāsāra, succeeded in holding the field of study of functional theory (karma-theory). These texts were regarded as the most popular and handy work for memorizing the intricate and deep theory through Prakrit verses, which contained mathematicophilosophical material.' It appears that the study of these, meant for the laymen, had in a way eclipsed the study of their source material, Şarkhandāgama and its Dhavalā commentary, the Mahābandha or the Mahādhavalā, and the Kaşāyapāhuda and its Jayadhavalā commentary in Prakrit language, conventionally meant for voluminous study by the ascetics. The voluminous source material of the summary texts has been translated into Hindi during the last fifty years, and this has paved the way for study of mathematical and scientific contents and material embedded in these volumes. The foundational mathematical material is found in the Tiloyapaņņatti of Yativrşabhācārya. This is elaborated in the Dhavalā. The Labdhisāra, including the Ksapanāsăra, as already seen, is to be studied after a thorough knowledge of the Trilokasāra and the Gommațasāra, the former being a text of the Karaṇānuyoga group and the latter being the text of the Drvyānuyoga group; all these texts having been written by the same author, Nemicandra Siddhānta Cakravartī (later half of the 10th and first half of the 11th century, *554, Sarafa, Jabalpur - 482002 Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Scientific Thought Evident in the Labdhisāra : 135 A.D.). Hence it is desirable to introduce the author and his earlier texts for an easy access to the description of the Labdhisāra and its mathematical contents. There is a political history in the background of the writing of texts, specifically the Gommațasāra, for Cāmuṇdarāya, his devotee, also known as Gommațarāya, who was the prime minister and commander in chief of king Rāyamalla of the Ganga dynasty. The Gangas of the west were among the ancient royal dynasties of India. They were devoted followers of Jainism. The first king of the Ganga dynasty was Śivamāra who was helped by a Jaina preceptor, Simhanandi, who belonged to Nandigana. The Repertoire d'epigraphic Jaina“ (A.A. Guerinot), inscriptions nos. 213, 214 mention that Śivamāra Kongunivarā was the disciple of Simhanandi. The inscription’ in Pārsvanātha Basti on Candragiri Hill, Shravana Belgola, Mysore, no. 54, also confirms this. From the Manual of the Salem district, it is found that the race of the Gangas prosperred through the sage Simhanandi. Of this dynasty, we know about King Mārasimha II who won over the Ceras, the Colas, the Pandyas and the Pallawas of the Nolambadi country. He defeated the invincible Vajjala-deva and through his fierce battles of Gonura and Uchchangi, he became noted all over. After the glorious reign, he abdicated his throne and is said to have given up his life by a three day's fast according to doctrines of Jainism (sallekhanā), at the feet of his preceptor, the great Ajitasena, at Bankapur, in district Dharwar. Cāmundarāya'' was the reputed minister of this great king, and the credit of being victorious in the terrible battles goes to the heroic loyalty of Cāmundarāya. According to his composition, the Cāmundarāya Purāņa, there is an opening colophon with an autobiographical note, mentioning that his lord was the Ganga-kulacūdāmani Jagadekavīra Nolambakulantaka-deva, and that he was born in the Brahma-Kșatravaṁśa. There is a colophon at the concluding chapter in which he is noted as disciple of Ajitsena bearing several Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 136 : Sramana, Vol 56, No. 1-6/January-June 2005 titles for the victory in pitched wars as well as battles." After the death of Mārasimha II of the Ganga dynasty, Pañcala-deva ascended the throne, succeeded by King Rācamalla or Rājamalla II, and Cāmundarāya still continued to be minister. 12 The historic place Shravana Belagola (white-lake, in Kannada) is a village in the Channarayapatna taluq of the Hassan district of Mysore. It is surrounded by the Candragiri hill in the north and Vindhyagiri hill in the south, having several temples, images and inscriptions of the Digambara Jaina School. According to Mrs. Sinclair Stevenson, in her work, The Heart of Jainism'3 as well as Epigraphia Carnatika, vol. II, 14 the following tradition has been high lighted: According to the tradition, Candragiri derives its name from the emperor Candragupta who is said to have followed his spiritual teacher, Bhadrabāhu, when the latter moved towards the south with his twelve thousand disciples owing to approach of a terrible famine in the northern India, leaving Pāțlīputra. Bhadrabahu is said to have left his mortal body on the Candragiri in the presence of the emperor Candragupta who has been none else than the celebrated Maurya emperor of the same name according to Digambara Jaina tradition. This fact of political history has been till now a controversial one. On this historically important Candragiri hill, Cāmundarāya erected a grand and magnificent temple containing the image of the twenty-second Jaina Tīrthařkara [fordfounder), Neminātha (contemporary of Lord Krsna), the upper storey being installed in with the image of twenty-third Tīrthankara, Pārsvanātha (about 250 years before Tīrthankara Vardhamăna Mahāvīra), by his son. Further, on Vindhyagiri, Cāmundarāya erected a world famous colossal image of Bāhubali, known as Gommateśvara, standing 56 1/2 feet high with a width of 13 feet across the hips, and cut out of a solid block of gneiss, apparently wrought in aitu, facing the north, the feet stand being carved to represent an open lotus.is Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Scientific Thought Evident in the Labdhisāra : 137 The mathematical contents of the Labdhisāra bear testimony to evolution of a scientific spirit from the period of the source material (c. 1st century A.D.) and even from still remoter period, in India, specifically in the Jaina School of Mathematics, where the Karma theory became predominant, flourishing in various schools of thought. The Digambara Jaina School took the lead in its mathematical exposition, not only through semantics but also through symbolism. According to Russell, “Most sciences, at their inception, have been connected with some form of false belief, which gave them a fictitious value. Astronomy was connected with astrology, chemistry with alchemy. Mathematics was associated with a more refined type of error. Mathematical knowledge appeared to be certain, exact, and applicable to the real world: moreover it was obtained by mere thinking without the need of observation .......... This form of philosophy begins with Pythagoras."'16 At this threshold, we pause to give a thought to the evolution of the theory of Karma as naive scientific thought in India with Vardhamāna Mahāvīra. We wish to go through, in brief, the underlying concepts, methods and procedures in the vast literature available specifically with the Digambara Jaina School. No doubt, these might have been intermingled with astrology, alchemy, metaphysics, and so on, through various passages, yet the precision in the Digambara Jaina School draws special attention owing to the following descriptions which may be compared with their analogous set up in modern science. [Vide Volodarski, A.I., 1968, 1971, 1975, 1983, 1985 BR, and other papers in BR in "Exact Sciences in the Karma Antiquity” for a brief survey). A. Sets (Rāśis) In the Labdhisāra the terms numerate (samkhyeya), innumerable (asamkhyeya) and infinite (ananta) appear as numbermeasure (samkhyā-pramāna). These are minimal (jaghanya), intermediate (madhyama) and maximal (utkrsta). Terms like pit (palya) and sea (sāgara) are sets of instants and universe (loka) is a Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 138 : śramaņa, Vol 56, No. 1-6/January-June 2005 set of points (pradeśas), which are classified under the simile measure (upamā pramāņa)." Instant (samaya) is indivisible and so also point (pradeśa), which are the fundamental principle-theoretic units. Then indivisiblecorresponding section (avibhāgi praticcheda) form the fundamental unit for objects like knowledge (jñāna), operators like volition (yoga), and so on. Other sets of instants are the trail (ävali) and inter muhūta (antarmuhūrta). Set of ultimate-particles, bound at an instant is instant-effective-bond (samaya-prabaddha). Then set of souls (jīvas), and so on, also has been applied. - We have seen in the source material and the GJK, GKK and various commentaries, how these sets have been handled in order that paradoxes or antinomies may not arise. Their topologies have been considered through comparability as well as divergent sequences as detailed by Jain, 18 for their analytical methods as well as history. The role of sets has its own story. 19 B. Structure (Yantra) The trend of presentation of the Karma theory from simple to complex form may be assessed in studies from GJK to GKK and then LDS and KNS. The structure of the Karma theory appears as a totality, with laws of its own. This structure contains a system of operations (karaņas) whose combinations transform one object or element into another. It has also self-regulator property. These three are the characteristic properties of a structure. [Vide papers by Gershenowitz., H. (1983, BR, in the "Exact Sciences in the Karma Antiquity”) for comparison). In the Labdhisāra, the dynamical theory of karma appears as mathematical structures through numerical, algebraic and geometric figure. The structures are thus represented through various types of matrices, for example the state matrix is a triangular matrix (trikoņa yantra), which is ultimately to be reduced to a null matrix of karmabound matter-particles through various passages of transformations.20 Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Scientific Thought Evident in the Labdhisāra : 139 It may also be noted that the organism structure has been shown to consist of several substructures, which comprise of the cosmological structure, linguistic structure, psychological structure and various others, ultimately having a constructive role to develop an organism in its capacity of the knowledge-set. Actually, the aim is to attain ultimately the supreme existential setof indivisibilble-correspondingsections of omniscience (kevala jñāna), which is the supreme construction set in the divergent sequences of various types ofexistential and constructive sets passing in the description of various station (sthānas) all relevant to the development of an organismic knowledge. 21 C. Systems Concepts The technological method of information processing and decision-making has made it possible to deal with various types of systems, their behaviour, transformations, controls, etc. Similarly, in the GJK, GKK and LDS, KNS, the karma system theory has been dealt with types of way-ward-stations (mārgaņā-sthānas) and controlstations (guņa-sthānas).22 As we have already seen that cause-effect relations have been maintained through āsrava, saṁvara, nirjarā, which form inputs and out puts of the karma system. A stage reaches in the bios or organism, when it becomes a goal-seeking system, or a control system when it plays the role of decision making for attaining more and more of knowledge through various controls, as the above two types of stations: The above theory of karma system was thus applied by the Jaina school to their own situations where scientific and management achievement were concerned. D. Symmetry Concepts In the theory of elementary particles, symmetry concepts have played a fundamental role, through group theory, Yang and Wigner spelt out that group theory lies in the basic postulate of quantum theory that the quantum states of a physical system form a linear manifold. 23 We have seen in the Digambara Jaina School, how various Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 140: Śramaņa, Vol 56, No. 1-6/January-June 2005 types of sets have been formed as quantum states, through indivisible corresponding sections, instants (samayas) and points (pradeśas) and the quanta of Yoga and Kaşāya operators. The four characteristic properties of bonding, state, rise, etc., as we have seen, lie in the four types of structures: configurations (prakstis), particle numbers (pradeśa-rāśis), energy (anubhāga), and life-time (sthiti). Charges appear as unctuousness (snigdhatva) and anti-unctuousness (ruksatva), measured in quantum levels of integers, odd and even, from zero to infinity.24 Now one has to concentrate on the operations in the Karmatheory, under which the above intrinsic properties change into one another of one types - class or remain invariant. The Digambara Jaina School had a very deep study of this type of symmetryoperations, and dealt with various types of creation and annihilation of matter in bond associated with the above intrinsic and other properties, and knew well as to when they remained invariant or otherwise. At present it cannot be said, how far they were acquainted with the group-properties of such operators and transformations but they knew as when, and what remained invariant or changed under what operations in the time series of instants.25 Thie problem of invention of Brāhmi and the Kharosthĩ alphabets and numerals has also not been solved. Although late, some of the ancient artha samdrsțis, may give a connecting link about the source. [Vide Das gupta, c.c., 1950 BR, in the "Exact Sciences in the Karma Antiquity'). Thus a study into the semantics of the samdęstis is essential from various aspects, from the language used in the commentaries of GJK, LDS and KNS, and through appearance of various signs and symbols in most of the sentences, for various operations to be performed alongwith mutual relations and their sequence. 26 Signs for the constellations (nakşatras) also appear in the TPT, in words, along the Zodiac. 27 Place value system has not only been used in writing big numbers, but also in methodical process of subtraction and addition of terms into certain factors of an expression.28 Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Scientific Thought Evident in the Labdhisāra : 141 E. Sign and Symbol (Samdṛşti) In considering cognitive processes and communication processes, which are linked reciprocal and interlocked, as well as semiotics, the role of signs has been given importance. In the Digambara Jaina School, symbolism is seen developed as numerical (anka), algebrical (artha) and geometrical (ākāra).29 Abbreviations have also been used. These are classified under samdṛṣṭi or sahanānī. Altough these appear in their full from, developed in the period after 15th century A.D., traces of their existence appear in earlier works. It is a problem of history of science to see as to when these were developed, because the earlier source material is so deep and complex in its Dhavalā and Jayadhavalā commentaries that it does not appear possible that their teaching in the centuries after Vardhamana Mahāvīra could have been without use of signs. The problem regarding earlier script, prior to them also remains to be solved for its invention. F. Cybernetic Contents Norbert Wiener30 appears to have started a unique study of control and communication in the animal and machine, published in the name of 'Cybernetics' (1948). The names of his predecessors, A.M. Ampere, Pascal, Leibnitz, Gauss, Faraday, Darwin, may be associated with the concept. Mathematical apparatus is associated with names of Cantor, Russell, Whilehead, Hilbert and Weyl. Then Shannon, Turing, Pitts, Rashevsky, Rosen blueth, Bush, Von Neumann, Goldstine, Mc Culloch, Lorentz, Weaver and so on, along with Wiener may also be associated with the endeavour.31 31 Cybernetics has turned to the study of self-regulating systems and to self-organizing systems for its insights. We wish to see how far the Karma theory contains these insights. 1. Algorithm The Labdhisāra gives the solution to the problem of rising above the first-control-station (guṇasthāna) for bios. The mathematical apparatus useful in this adventure is given in the following form: Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 142: śramaņa, Vol 56, No. 1-6/January-June 2005 (a) Time series as lapsing of indivisible instants from ab-aeterno to ad-infinitum, with which events (paryāyas) of various fluents (dravyas) correspond, for each of their controls (guņas). (b) Triangular matrix with columns of arithmetico-geometric sequences of number of bound ultimate-particles and levels of their energy, respectively, denote the state (sattva) in the time-dependent picture as functional-life-time-structure (karma-sthiti-racanā). (c) Column-matrix or a multiple there of, as instant-effectivebond, or its multiple in the similar arithmetico-geometric sequences, denote the input (āsrva) of karma-bound ultimate-particles. , (d) Similarly, the row matrix or a multiple there of, as instanteffective-bond or its multiple, denote the rise and disintegration (udaya and nirjarā). (e) The above along with time lag (abādhā) data, are described in 8 primary or 148 secondary types of functionals (karmas), according to rule. (f) The elements of the matrices are nisusus (nişekas) associated with configuration (prakrtis), number of matter-particles (pradeśa), energy (anubhāga) and life-time (sthiti). There are various types of creation and annihilation of these nişusus (nişekas) owing to various operations according to a set of rules. 2. Operations and Feedback For attaining 13 control stations (gunasthānas), first of all the volition (yoga) and affection (kaṣāya) operators associated with their mathematical representations are required to be regulated for effecting the state (sattva) matrix, of a bios.33 It may be noted that configurations (praksti) and mass-number (pradeşa) bonding for an instant depend on volition (yoga) and the energy (anubhāga); and life-time (sthiti) bonding depend upon affection (kaşāya). The cycle of bonding, ever, has been going on through the first control alone, along the wheel of births and rebirths. In suitable circumstances, described in the text, rise above first control, to attain the fourth Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Scientific Thought Evident in the Labdhisāra control, for the first time, three operations, in mathematical representation of sequences of transforms (pariņāmas), elevated through the efforts of the bios itself, creates a self-regulating process, for the acquirement target. Note that these three types of operations are to be given feedback again according to the information gained from the out-put. These are - a) the low tended operation (adhaḥpravṛtta-karaṇa) b) the unprecedented operation (apūrva-karaṇa) c) the invariant operation (anivṛtti-karaṇa) : The mathematical effects in the state matrix (sattva-yantra) owing to the last two above causal operations are shown mathematically through the following in full details: a) geometric-series (guṇaśreņi) b) geometric-transition (guṇasankramaṇa) c) life-time split-destruction (sthiti-kāṇḍaka-ghāta) d) energy-cutting (anubhāga-khandana) In the above arithmetical and geometrical sequences, down traction (apakarṣaṇa) and injection (nikṣepaṇa) of ultimate-particles, as well as their minimal and maximal over-installation (atisthāpana), and other processes happen to be in the state-matrix (sattva-yantra). These are all timed and well-defined through comparability (alpabahutva). vṛddhi) 143 To name other operation etc. they are: a) interval opertion (antara-karaṇa) b) life time bond and energy bond termination or regression (sthiti-bandha, anubhāga bandha-apasaraṇa) c) configuration-bond termination (prakṛti-apasaraṇa) d) six-stationed-cascade regression or increase (sat sthāna patita Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 144 : śramaņa, Vol 56, No. 1-6/January-June 2005 e) order operation (krama-karaṇa) f) partial - destruction - operation (deśa-ghāti-karaña) g) subsidence-operation (upaśama-karaņa) The KNS describes some more operations, as tract-operation (krsti-karana), etc. The feedback operations are described as mentioned earlier. 3. Self-Regulation and Self-Reproduction Both of the functions depend upon the eight-fold-way of the functionals (karmas), represented mathematically as shown earlier. Phases (Bhāvas) of five types, of the bios have the fundamental role to play in this connection, which are either dependent upon or independent of the functionals (karmas). Communication of information for adoption of controls corresponding to various situations of bond, rise, termination of karma configurations (prakstis), at various way-ward (mārgaņā) stations (sthānas) has already been detailed earlier. 4. Linguistics Exposition of the theory of functionals (karmas) in the Digambara Jaina School has been through three types of symbolism: numerical, algebraic and geometric froms. Place-value notation has been used for writing of numbers, subtraction and additions of quantities corresponding to factors. All these have formed fundamental TM tools expressions, which are mathematical. The details of language and its function are contained in the theory of knowledge, where scriptural knowledge is concerned. This is also expressed through mathematical expressions.34 5. Calculation Mathematics The mathematical contents of the Labdhisāra have been detailed earlier, versewise. There are several methods and procedures adopted by the Digambara Jaina School to handle them. A.N. Singhs as well Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Scientific Thought Evident in the Labdhisāra : 145 as B. B. Datta 36 has given them in details. Some methods given in the GJK and GKK have not been exposed so far. Similarly, details have been given in the LDS and KNS regarding manipulation of the various types of Karma data in form of matrices. 37 All these deserve place in the history of science. Concluding Remarks It is now evident that the Digambara Jaina School paid special. attention to the study of the Karma theory and developed it through mathematical manoeuvre in their own way. This tradition in writing seems to have started some where in the first century A.D., ranging up to the eighteenth century A.D. Most of the fundamental work appears to have been done in the South India, where Mahavīrācārya compiled his Ganita-sära-samgraha, and perhaps most of the methods and procedures based on the mathematical contents of the Agama might have given him an urge for the compilation. Through the present project, the whole material relevant to that of the Labdhisāra, and that of the Labdhisāra itself has been systematically compiled, for an easy access and survey of this unified work of about eighteen hundred years of a continuous tradition of the Digambara Jaina School, which had been all along distinguishing, isolated and unexposed for several years after the publication of the Gamita-sāra-samgraha: The project may bring to the notice of scholars, not only the mathematical contents of the Labdhisāra and of its relevant texts, but also the way in which it was applied to the theory of karma. It is upto the scholars to see what methods and procedures adopted in these texts and their commentaries, interlinked together, might have been originated or developed in this school, pursuing the same model of Karma theory all along. The author should apologize for any short coming in this project accomplishment owing to his pursuit of this eighteen hundred years of traditional learning in order to give a unified survey of it, along Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Śramaṇa, Vol 56, No. 1-6/January-June 2005 with details of the Labdhisara, its mathematics as well as other scientific contents. 146 : In the above description various aspects have been touched as contents of the LDS: symbols, place-value notation for addition and subtraction, algebraic symbols, geometric symbols, combinations, theory of measure, eight basic operations, logarithm, counting-rod, rule of three sets, fractions, positive and negative numbers, geometrical methods, matrices, series and sequences, algorithmic verses, maxims, set concepts, logical decisions, structure concept, systems concepts and cybernetics, symbolic method, symmetry concepts and operational procedures.38 However, there have remained other aspects of study into the impact on the socio economic, socio logical, managerial as well as ecological life on the Indian nation and country, of the deep rooted karma systems eleborated in various philosophic schools of India, and perhaps abroad, in various maxims of the Bible as well as the Quran and other holy texts, whenever merits and demerits of bios got through a scientific trend of introspection. It is strange, to find that in such a remote past, the Karma theory in the Digambara Jaina School of thought could be pursued through mathematical as well as symbolic manoeuver, with an unbroken tradition of about eighteen hundred years. It also remains to be find whether in the karma systems, the dialectical materialism was present to play its decisive role. References: • 1. The Digambara Jaina School needed mathematical manoeuvre for the deep and extensive philosophy of its functional-theory (karma theory) which was a set up comparable with the modern system theory. The dialectic method of the Syāt-vāda system of predication in this school is comparable with that of Hegel who claims that the substance of all previous philosophies is contained, preserved, and observed, in his own system. (Vide Stace, W.T., (1955, BB), pp. 3, 92, 95 and so on. The proper infinities applied in the theory of karma needed a mathematical logic for avoiding paradoxes and antinomies. Cf. Jain, L.C. (may 1977, BR). Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2. 3. 4. 5. 6. 7. 8. 9. 10. 11. Scientific Thought Evident in the Labdhisara : 147 Cf. DVL, vol. 1 (1973), editorial, p.1. Cf. DVL, vol. 2 (1976), Introduction, pp. 1-4 For a preliminary description of the mathematical contents, etc., of the Satkhanḍāgama and the Kaṣāyapahudḍa, as well as their commentaries, vide The Tao of Jaina Sciences, Delhi, 1992. Cf. DVL, vol. 3 (1941) and vol. 4 (1942), in particular. Note: ajja jjasenaguṇagaṇasamūha saṇdhāṁ ajiyaseṇagurū/ bhuvaṇaguru so rão gommato jayadul/GKK, v. 735// gommaṭasuttallihaṇa gommaṭarāyeṇa jākayādesi/sorão cirakālaṁabāmeṇa ya viramarataṇḍil/GKK, v. 972// Abhaya Saiddhanti, in the colophon of his Mandaprabodhini commentary, confirms the same as above, vide p. 3. Publications de l'E' cole Fracaise d'Extre'me Orient, vol. X, Paris, 1908. This was compiled by Lewis Rice, p. 52, Mysore and Coorg Inscriptions at Shravana Belogola, Bangalore, 1989. Manual of Salem district, by Rev. T. Foulkes, II, 369. From fourth to twelfth century A.D., there have been found in Epigraphia Carnatika, various inscriptions which testify to the building of Jaina temples, consecration of Jaina images of worship, hollowing out caves for the Jaina asceties and grant to the Jaina preceptors by the Ganga dynasty rulers. Cf. Epigraphia Carnatika, inscription no. 38, compiled by Lewis Rice, containing the epitaph of this King, According to Epigraphica Indica. vol. V inscription no. 18, the king died in 975 A.D. Cf. also Jaina Šilalekha Samgraha, Bombay, 1928, I, no. 38/59. According to the Inscriptions at Shravan Belagola, by Lewis Rice, (op. cit), p. 2, Camuṇḍaraya composed a work called Camundaraya Purāṇa, which contains an epitome of the history of 24 Tīrthankaras, ending with the date Śaka 900, or 978 A.D. The titles are, "Samara dhurandhara, Vīramārtaṇḍa, Raṇaranga, sima, Vairikulakāladaṇḍa, Bhiya vikrama, Chaldenka Ganga, Samara-Parsurama, Pratipakṣa-rākṣasa, Bhața-māri, Guṇavan kavi, Samyaktva-ratnākara, Śaucābharaṇa, Satya-yudhisthara, Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 148 12. 13. 14. 15. 16. : Śramana, Vol 56, No. 1-6/January-June 2005 17. Cf. Introduction, pp. 1-14, Bangalore, 1889. Cf. also Jain, H.L., (1928, BB), pp. 54-70 (Shravanabelagola ke Smaraka), in support of the statement. Vide also Desai P.B., (1957, BB), pp. 201-202. Cf. Vincent Smith, A History of Fine Arts in India and Ceylon, p. 288. Cf. also Epigraphia Carnatika, vol. II, intr -p. 29. Cf. also Homage to Shravana Belagola. ed. Saryu Doshi, Marg., Bombay 1981. For details of various measurements of structures, Cf. "Śravana Belagola" by S. Settar, Ruvari. Dharwad, as well as his thesis Śravana Belgola Monumets (1967) from Karnatak University, and second thesis, Stoyasala Monuments (1970), Cambridge University. Cf. also Jaina Art and Architecture, vol. II, New Delhi, 1975, Cf. also Desai, P.B., (1957, BB), p. 103. Russell, B., History of Western Philosophy (1957, BB), p. 53, Cf. also Berka, K (1977, BR) Cf. Rucker (1982-86), chapters 1 and 2 on infinity" and on "all the numbers". 18. Cf. Jain, L.C., (1973, 1976, 1977, BR). 19. The abstract set theory was developed in the nineteenth and twentieth centuries by Bolzano (1781-1848), Cantor (1845-1918), Frege (1848-1925). Antimonies were published by Russell and Burali Forti, Heijencort and Richard. Various foundations were laid by Zermelo-Fraenkel, Von-Neumann-Bernays-Gödel, Russell, Whitehead, Morse-Kelley and Quine, and so on (cf. Mouton, 1972, pp. 1-34. The Digambara Jaina School applied the set theory to their karma theory, through various foundational Subhata-cūḍāmaņi, Kavijana-sekhara, Mahāmātya and Asahāyaparakrama". Cf. inscription at Bhandari Basti, Lewis Rice, op.cit., p. 103, and cf. also inscription to the left of Dvarapala ka gateway, Lews Rice, ibid., p. 67. Cf. also Vahubali-Caritra, and commentary of the Gommaṭasara by Abhayacandra Traividya Cakravarti. Cf. Heart of Jainism, Oxford, 1915. Cf. also Jain, H.L., (1928, BB), pp. I et seq. (Candragiri Parvata ke Śilālekha). means. Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Scientific Thought Evident in the Labdhisāra : 149 20. 21. 24. 25. Cf. ASL, The karma structures have a great period of stability, as also of very low periods of life-time. These could be compared with modern set of atomic structure and molecular structure. Structuralism, does not necessarily rule out, any considerations of history, genesis, functioning, and a subject activities. “Any structure is always located at the intersection of a multiplicity of disparate disciplines, so that no general theory of structures can possibly escape the requirement that it be not simply multi-disciplinary but authenticity into disciplinary. "Cf. Mouton (972, BB), p. 54, as observed by Jean Piaget. Cf. Kedrov, B.M. and Volodarsky, A.S.(1971, BR), Cf. also System Research Yearbooks (Moscow), 1971, 1976-78, 981, 1985 and various other papers mentioned in the BR. Cf. Salam, (Mouton, 1972 BB), p. 71. Cf. ASG, relevant topic. This may well be seen in their topic on various types of transitions (sankramaņas), and operations (karmas). Cf. LDS, vv. 49, et seq., and vv 68, et seq. Cf. GJK, GKK, LDS, KNS and their commentaries, Cf. also ASG and ASL, Cf. also Channabasappa, M.N. (1984, BR). Cf. TPT, vol.2 ch. 7, vv. 465-467, p. 737 (1951). Cf. ASG, and ASL. Cf. ASG and ASL: Cf. also Dantzig, T. (1954, BB), chapter 5, on "symbols”, for development of algebra in three stages : the rhetorical, the syncopated and the symbolic. Cf. Bhandarkar, A.S. (1954 BR Das S.R.) (1927, BR), Datta, B.B (1936, 1929, 1931, BR), Heel, J.F. (1911 BR), Ganguly, S.K. (1932 BR), and so on in the BR Wienar, N., (1948 or 1957 end. BB). Cf. ibid, Introduction, p.p. 7-39. Now cybernetics implies application of information theory to comparison of mechanical or electrical controls with biological equivalents. The logical decisions may also be noted: (i) The maxim of the lion's, vide LDS, v. 101; (ii) The maxim to denote the part as the whole (eka deśa viksta mananyavod-bhāvātīti nyāya), vide ibid, 26. 27. 28. 29. 30. 31. 32. Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 150 : Śramaņa, Vol 56, No. 1-6/January-June 2005 262; (iii) The maxim of the last lamp (anta dipaka nyāya), cf, ibid, v. 379. All these appear to have mathematical implication. 33. In Piaget's terms mental operation is an internatizer action, which is reversible: inversion and reciprocity. The Jaina term is karana, which is far wider in application, even beyond mind and each type of operator is defined through mathematics, involving time factor also. 34. For details of a little portion of the Jñāna-pravāda, cf. KSP, vol. 1, (1974), pp. 11-138. Cf. also GJK, vol. 2, (1979), pp. 505-680, Vide also Sikdar, J.C., (July, 1972 BR). 35. Vide the remark of Mahāvīrācārya in GSS (p. 70), “Thus the terminology is stated briefly by the great sages. What still remains to be said should be learnt in detail from the Agama.” 36. Singh, A.N. (1942, BB, 1949, BR, 1950, BR), Datta, B.B., (1929, BR, 1935, BR), cf. also Datta, B.B. and Singh, A.N., 1962, BB), Vide also Shukla, K.S., (1979, BR), Cf. Jain, L.C., (1958, BB, 1967, BR, 1976, BR, 1977, BR, 1981, BR, 1979 BR). 37. Singh, A.N. (1942, BB, 1949, BR, 1950, BR), Datta, B.B. (1929, BR, 1935, BR), cf. also Datta, B.B. and Singh, A.N., 1962, BB), Vide also Shukla, K.S., (1979, BR), Cf. Jain, L.C., (1958, BB, 1967, BR, 1976, BR, 1977, BR, 1981, BR, 1979 BR). 38. Vide Report on the research project on "The Labdhisāra of Nemicandra Siddhānta Cakravarti" (1984-1987), submitted at the Indian National Science Academy, New Delhi. Abbreviations ASG Artha Sandrsti of the Gommatasāra ASL Artha Samdrsti of the Labdhisāra DVL The Dhavală GJK The Gommatasära Jiva Kända GKK The Gommațasāra Karma Kānda KNS The Ksapaņāsāra LDS The Labdhisāra 8. BB and BR Bibliography of Books and Research Papers, INSA project (1984-1987), New Delhi. inimowiono Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण, वर्ष ५६, अंक १-६ जनवरी - जून २००५ विद्यापीठ के प्रांगण में ग्रन्थों का रख-रखाव व प्रारम्भिक उपचार पर कार्यशाला १९-२१ फरवरी २००५ पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी, राष्ट्रीय पाण्डुलिपि मिशन, नई दिल्ली एवं इन्टैक, भारतीय संरक्षण संस्थान, लखनऊ द्वारा संयुक्त रूप से पार्श्वनाथ विद्यापीठ के प्रांगण में १९ - २१ फरवरी २००५ तक ग्रन्थों के रख-रखाव व प्रारम्भिक उपचार विषयक तीन दिवसीय कार्यशाला का आयोजन किया गया। कार्यशाला के उद्घाटन सत्र में मुख्य अतिथि पद से बोलते हुए विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के संयुक्त सचिव श्री एम० के० जैन ने कहा कि प्राचीन काल में श्रुत को लिपिकरण के द्वारा ही सुरक्षित रखा जाता था। आज वैज्ञानिक शोधों के चलते यह सरल हो गया है। इण्टैक इस दिशा में उल्लेखनीय कार्य कर रहा है। इस अवसर पर श्री जैन ने संस्थान द्वारा प्रकाशित एवं डा० के० वी० मरडिया (यू० के ० ) द्वारा लिखित पुस्तक 'जैन धर्म की वैज्ञानिक आधारशिला' का विमोचन किया तथा संस्थान के प्रकाशनों की गुणवत्ता की भूरि-भूरि प्रशंसा की। इस कार्यशाला के समापन के अवसर पर मुख्य अतिथि के रूप में बोलते हुए प्रो० सिद्धनाथ उपाध्याय, निदेशक, प्रौद्योगिक संस्थान (आई० आई०टी०) का० हि०वि०वि० ने कहा कि इस कार्यशाला के माध्यम से पुरावशेषों एवं पाण्डुलिपियों के संरक्षण के सम्बन्ध में जानकारी दी गयी, जो अत्यन्त उपयोगी है। आज की परिस्थिति में पुरावशेषों तथा हस्तलिखित ग्रन्थों को सुरक्षित रखने की महती आवश्यकता है। राष्ट्रीय पाण्डुलिपि मिशन, नई दिल्ली तथा इन्टैक, भारतीय संरक्षण संस्थान, लखनऊ इस दिशा में सराहनीय कार्य कर रहे हैं। यह कार्यशाला उसी महत्त्वपूर्ण कार्य की एक कड़ी है। उन्होंने प्रतिभागियों का आह्वान किया कि वे इस महत्त्वपूर्ण कार्य को आगे बढ़ायें। इस कार्यशाला में गुवाहाटी, ग्वालियर, सागर, फैजाबाद एवं जौनपुर सहित वाराणसी के विभिन्न शिक्षण संस्थाओं के लगभग ६० प्रतिभागियों ने भाग लिया। तीन दिन चली इस कार्यशाला में विभिन्न सत्रों के अन्तर्गत पाण्डुलिपियों के क्षरण के कारण एवं पहचान, कागज एवं ताड़पत्र बनाने की विधि, संरक्षण का महत्त्व एवं पुनरुद्धार, फंफूंदी और कीड़ों की रोकथाम, प्रकाश, नमीं और तापमान को मापने की विधि, संरक्षण के क्षेत्र में अभिलेखीकरण का महत्त्व, संकटकालीन आपदाओं-यथा आग एवं पानी पर नियंत्रण, भण्डारण का महत्त्व एवं पाण्डुलिपि रखने की विधि आदि विषयों पर इन्टैक, भारतीय संरक्षण Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ : श्रमण, वर्ष ५६, अंक १-६/जनवरी-जून २००५ संस्थान लखनऊ की निदेशक श्रीमती ममता मिश्रा तथा वरिष्ठ पुरावशेष संरक्षक श्री अशोक कुमार उपाध्याय ने प्रशिक्षार्थियों को प्रशिक्षण दिया। विशिष्ट अतिथि के रूप में पधारी महाराजकुमारी कृष्णप्रिया ने सहभागियों की बड़ी संख्या को देखते हुए कहा कि संरक्षण के कार्य की महत्ता को समझते हुए लोगों ने इसमें भाग लिया, जो सराहनीय है। इस अवसर पर डॉ० ओमप्रकाश सिंह, डॉ० विवेकानन्द जैन, डॉ० शिवप्रसाद आदि प्रशिक्षार्थियों ने कार्यशाला के अपने अनुभवों को बतलाया। पार्श्वनाथ विद्यापीठ के निदेशक प्रो० महेश्वरी प्रसाद ने शीघ्र ही इसी प्रकार की एक और कार्यशाला के आयोजन की सूचना दी। इस अवसर पर सभी ५८ सहभागियों को मुख्य अतिथि द्वारा प्रमाण पत्र प्रदान किया गया। कार्यक्रम का संचालन डॉ० श्रीप्रकाश पाण्डेय ने किया और इन्टैक, भारतीय संरक्षण संस्थान, लखनऊ की ओर से वरिष्ठ पुरावशेष संरक्षक श्री अशोक उपाध्याय ने धन्यवाद ज्ञापन किया। पार्श्वनाथ विद्यापीठ में मानव मिलन के प्रेरक प०पू० मणिभद्र मुनिजी 'सरल' का जन्मोत्सव हर्षोल्लास के साथ सम्पन्न ___ भीष्म पितामह मुनि श्री सुमतिप्रकाश जी म० सा०, युवाचार्य श्री विशालमुनि जी म०सा० व श्री आशीष मुनि जी के शिष्य मुनि श्री मणिभद्र जी म.सा. ठाणा ३ के साथ पूज्य श्री अचल मुनि जी म.सा. के सानिध्य में पार्श्वनाथ विद्यापीठ में विराज रहे हैं। पूजनीय सभी सन्तों का २००५ का वर्षावास श्री बनारस स्थानकवासी जैन संघ, बुलानाला, वाराणसी में है। पार्श्वनाथ विद्यापीठ प्रवास के दौरान आज दिनांक ८-४-२००५ को पार्श्वनाथ विद्यापीठ में अखिल भारतीय मानव मिलन के प्रेरक मुनि श्री मणिभद्र जी 'सरल' की ३९वीं जन्म जयन्ती बड़े ही धूम-धाम एवं हर्षोल्लास के साथ मनायी गयी। समारोह की अध्यक्षता कानपुर के भाजपा विधायक श्री सलिल विश्नोई ने की तथा मुख्य अतिथि थे श्री लालजी राय, नगर आयुक्त, वाराणसी। कार्यक्रम का प्रारम्भ प०पू० श्री अचल मुनि जी के मंगलाचरण से हुआ। कार्यक्रम के प्रारम्भ में पार्श्वनाथ विद्यापीठ के सहायक निदेशक डॉ० श्रीप्रकाश पाण्डेय ने पूज्य मुनि श्री का जीवन परिचय देते हुए मुनि श्री के दीर्घायु होने की कामना की। डॉ. विजय कुमार ने जीवन दर्शन के विभिन्न पक्षों पर प्रकाश डालते हुए मुनि श्री के जन्म दिन के अवसर पर महापुरुषों के आदर्शों को अपने जीवन में उतारने पर बल दिया। उत्तर प्रदेश तेरापंथ जैन संघ के अध्यक्ष श्री माणकचन्द भंसाली ने कहा कि सन्तों का जीवन हमें अध्यात्म की ओर अग्रसर होने की प्रेरणा देता है। मुनि श्री मणिभद्र जी 'सरल' का Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विद्यापीठ के प्रांगण में : १५३ जीवन भी हमें कुछ इसी प्रकार की प्रेरणा देता है। हिन्दी विभाग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के प्रो० राजमणि शर्मा जी ने श्रमण जीवन के कठिन मार्ग को विश्लेषित करते हुए साधु-सन्तों की जीवनचर्या पर प्रकाश डाला और मुनिश्री के सरलमना स्वभाव तथा उनके व्यक्तित्व की सराहना की। मानव मिलन की वाराणसीमुगलसराय शाखा के महामंत्री श्री किरीट कुमार शाह ने मुनि श्री के जीवन की मंगलकामना करते हुए वाराणसी-मुगलसराय शाखा द्वारा विगत वर्षों में किए गए कार्यों का विवरण प्रस्तुत किया। इस अवसर पर प्रसिद्ध संगीतकार पार्श्वगायक श्री रवीन्द्र जैन की शिष्या सुश्री स्तुति अतुल जैन ने अपने सुन्दर भजनों द्वारा सभी को मन्त्रमुग्ध कर दिया। प० पू० श्री पुनीत मुनिजी ने अपने स्वरचित कविता के माध्यम से मुनिश्री का स्वागत किया एवं उनके दीर्घजीवन की कामना की। पू० गुरुदेव के जन्मोत्सव समारोह में दिल्ली, कानपुर, झारखण्ड आदि सुदूरवर्ती स्थानों से भी अनेक श्रद्धालु पधारे थे। प०पू० मणिभद्र मुनिजी ने अपने आशीर्वचन में कहा कि आज मनुष्य की पहली आवश्यकता है कि वह एक अच्छा मानव बने तभी वह देवत्व को प्राप्त हो सकता है। प०पू० श्री अचल मुनि ने कहा कि किसी के जन्मदिन और मृत्यु दिन का कोई महत्त्व नहीं है, महत्त्व है तो उसके जीवन में उसके द्वारा किये सद्कर्मों का। . इस अवसर पर श्री लालजी राय के सान्निध्य में मानव मिलन की वाराणसीमुगलसराय शाखा द्वारा एक लावारिस शव वाहन (ट्राइसायकिल) मोक्ष काशी नामक संस्था को भेंट किया गया। कार्यक्रम का संचालन एवं धन्यवाद ज्ञापन संस्था के सहायक निदेशक एवं समारोह के संयोजक डा० श्रीप्रकाश पाण्डेय ने किया। " बालाचार्य प०पू० योगेन्द्र सागर जी म० पार्श्वनाथ विद्यापीठ में १४ जून, २००५ को श्रमणरत्न, व्याख्यानवाचस्पति, खण्डविद्या धुरन्धर श्री १०८ प० पू० बालाचार्य योगेन्द्रसागर जी म० पार्श्वनाथ विद्यापीठ में पधारे। आपश्री अपनी सम्मेद शिखर जी की यात्रा के दौरान पार्श्वप्रभु की जन्मभूमि, भेलूपर, वाराणसी में ससंघ दो दिन पूर्व ही पधारे थे। आपश्री की प्रेरणा से दिनांक १२-१३ जून, २००५ को “जैन शासन में यन्त्र-मन्त्र-तन्त्र, ज्योतिष एवं साधुओं की भूमिका" विषय पर National Non-violence Unity Trust Foundation, Ujjain के तत्त्वावधान में एक राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन किया गया था। संगोष्ठी के दूसरे दिन विद्यापीठ के सहायक निदेशक डॉ० श्रीप्रकाश पाण्डेय के निवेदन पर पधारे आचार्य श्री संस्थान के समृद्ध पुस्तकालय, संग्रहालय, पांडुलिपि-संग्रह एवं संस्था Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ : श्रमण, वर्ष ५६, अंक १-६ / जनवरी - जून २००५ द्वारा किये गये प्रकाशनों का अवलोकन किया तथा अन्य सम्बद्ध गतिविधियों की जानकारी प्राप्त की। आचार्य श्री ने संस्था द्वारा किये जा रहे कार्यों की मुक्तकंण्ठ से सराहना की। संस्थान में आचार्य श्री का स्वागत डॉ० श्रीप्रकाश पाण्डेय, डॉ० विजय • कुमार, डॉ० सुधा जैन, डॉ० संजीव सर्राफ एवं श्री ओम प्रकाश सिंह ने किया । डॉ० पाण्डेय ने आचार्यश्री को विद्यापीठ के कुछ नवीन प्रकाशन भेंट किया। 1, 2. 3. 4. 5. 6. 7. 8. 9. The important Visitors who visited the Vidyapeeth during last tow years On 2nd August 2002 Prof. Chiris Philpot from U.K. Visited the Vidyapeeth regarding his research work. On 22nd November 2002 Digambara Arya Ganini Mata Gyanmatiji visited the Vidyapeeth and stayed here for two days. On 19th December 2002 Barbina Bomhaff from Hamburg, Germany visited the Vidyapeeth regarding her research work. On 3rd January 2003 Shri D. R. Mehta, Formgr President SEBI visited the Vidyapeeth and had a fruitful discussions with the staff of the Vidyapeeth. On 4th January 2003 Prof. P. Ramchandra Rao, Vice Chancellor, BHU visited the Institute and gave a talk on 'Science Technology and Society'. On January 24, 2003 Mrs. Malti Shah and Mr. Manju Gala from TX. USA visited the Vidyapeeth. On January 24th, 2003 Mrs. Nirmal R. Shroff and Mrs. Anjana Vipin Dalal from USA visited the Vidyapeeth. On 2nd April, 2003, Miss Alie Sneder, Mr. U. Frolurda Snerder, Hege Marleussen and Mr. Jeanette Ohissat from Lund University visited the Vidyapeeth regarding their research work. On 24th January, 03 Mr. Kavora, Kinos Park, NY USA visited the Institute regarding some books. Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विद्यापीठ के प्रांगण में : १५५ 15. 10. On 15 March 03 Prof. Benjamin Fleming from Canada visited the Vidyapeeth regarding his research work. 11. On 30 April, 03 John Guy Laplente from USA visited the Vidyapeeth regarding his Study on Jainism. 12. On 24" March 04, Acharya Vijay Muktiprabha Suri visited the Vidyapeeth with his follower monks and appreciated the efforts made by Vidyapeeth towards the cause of Jainism. 13. On 6th August 2004, Shri Mohan Chand Dhadha, Shri Lalit Chand Nahta, Shri Vimal Chand Surana visited Vidyapeeth regarding a meeting of Kharatara Gachcha Sangha Officials called by Pujya Piyush Sagraji MS. 14. On 24th October Dr. Petre Flugel from SOAS, UK visited the Vidyapeeth regarding his research work. On 18 January, 05 Miss. Kyung-Seo research scholar working under of Prof. P. S. Jaini from California, visited the Vidyapeeth regarding her research work. 16. Prof. Cromwell Crawford, Chairman, School of Asian Studies, University of Hawaii, Honolulu (USA) visited the Vidyapeeth and presented a paper on 'Jaina Ahimsā and Modern Development in Science and Technology'in a symposium held by Parshwanath Vidyapeeth on 29th January, 2005. 17. On 9th Feb. 05 Prof. S. R. Vyas, Member Secretary, Indian Council of Philosophical Research, New Delhi visited the Vidyapeeth and discussed about some projects with the students and Staff members of Parshwanath Vidyapeeth. 18. On 16th March, 05 Miss. Yutaka Ishi and Mr. Kazuyoshi Hotta from Tokio Japan visited the Institute regarding their study on Jainism. 19. On 23 June, 05 Prof. B. Ram, Deputy Director, ICHR, New Delhi visited the Institute with his family members. Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-जगत् वैशाली में महावीर जयन्ती पर विद्वद्गोष्ठी सम्पन्न वैशाली, २२ अप्रैल, २००५, स्व० जगदीशचन्द्र माथुर स्मृति व्याख्यानमाला के क्रम में प्राकृत जैनशास्त्र और अहिंसा शोध संस्थान, बासोकुण्ड, वैशाली में दिनांक २२ अप्रैल, २००५ को "अहिंसा, शान्ति और जैनशास्त्र' विषयक एक विद्वद्गोष्ठी का आयोजन किया गया। जिसका शुभारम्भ डॉ० मंजुबाला एवं श्री रामकैलाश भक्त के प्राकृत और हिन्दी भाषा के सस्वर मंगलाचरण से हुआ। तत्पश्चात् प्रो० विजय कुमार ठाकर, प्रतिकुलपति, बी०बी०ए० बिहार विश्वविद्यालय, मुजफ्फरपुर तथा अन्य विद्वानों ने दीप प्रज्ज्वलित कर गोष्ठी का उदघाटन किया। संस्थान के निदेशक डॉ. ऋषभचन्द्र जैन एवं सहयोगी विद्वानों ने आगत अतिथियों का पुष्पमाला एवं साहित्य भेंट कर सम्मान किया। निदेशक ने आगत विद्वानों का परिचय कराते हुए गोष्ठी के विषय का प्रतिपादन किया। गोष्ठी के प्रमुख वक्ताओं में डा० आर०के० सिंह, दर्शन विभाग, लंगट सिंह कालेज, मुजफ्फरपर, डॉ० चितरंजन प्रसाद सिन्हा, पूर्व निदेशक, के०पी० जायसवाल शोध संस्थान, पटना, डॉ०देवनारायण शर्मा, पूर्व निदेशक, प्राकृत शोध संस्थान, वैशाली, प्रो० सतीश चन्द्र झा, अध्यक्ष, मानविकी संकाय, बी०बी०ए० बिहार विश्वविद्यालय, मुजफ्फरपुर, प्रो० सी०पी०एन० सिन्हा, पूर्व अध्यक्ष, इतिहास विभाग, तिलका माँझी भागलपुर विश्वविद्यालय, भागलपुर आदि विद्वानों ने गोष्ठी को सम्बोधित करते हुए अहिंसा के महत्त्व को रेखांकित किया। ___भारतवर्षीय दिगम्बर जैन महासभा के राष्ट्रीय अध्यक्ष दानवीर एवं संस्कृति प्रेमी श्री निर्मल कुमार सेठी ने मुख्य अतिथि के रूप में सम्बोधित करते हुए कहा कि हम संस्थान के विकास के लिए चिन्तित हैं, इसके लिए उन्होंने हर सम्भव सहयोग देने का आश्वासन दिया। गोष्ठी के अध्यक्ष प्रो० विजय कुमार ठाकुर ने कहा कि वैश्विक परिदृश्य में अहिंसा के व्यावहारिक पक्ष पर ध्यान देना सबके लिए आवश्यक है, इसी से सम्पूर्ण मानव समाज को सही दिशा प्राप्त हो सकती है। सभा का संचालन तथा धन्यवाद ज्ञापन निदेशक डा० जैन ने किया। इस अवसर पर डॉ० ऋषभचन्द्र जैन ने प्रथम जिला स्तरीय “महावीर एवं महात्मा" अवार्ड २००५ की घोषणा की। टाइम्स फाउण्डेशन, भारतीय जैन संगठन Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-जगत् : १५७ एवं फेडरेशन ऑफ एजुकेशनल इन्स्टीच्यूट द्वारा प्रारम्भ किया गया इस वर्ष का अवार्ड श्री रामचन्द्र सिंह, पूर्व शिक्षक, चकरमदास, वैशाली को दिया गया। श्री सिंह विगत ५० वर्षों से वैशाली महोत्सव से जुड़े हुए हैं। गोष्ठी के अध्यक्ष प्रो० विजय कुमार ठाकुर ने यह अवार्ड श्री सिंह को भेंट कर सम्मानित किया। उपस्थित सभी श्रोताओं एवं विद्वानों ने इस प्रोत्साहनपूर्ण विशिष्ट कार्य की मुक्तकंठ से प्रशंसा की। जैन भागवती दीक्षा बड़ा पाठ का आयोजन दिनांक १ मई २००५ को फरीदाबाद के जैन स्थानक में जैन भागवती दीक्षा का बड़ा पाठ घोर तपस्वी पंडित रत्न उपप्रवर्तक श्री नरेश मुनि जी म० सा० के सानिध्य में नवदीक्षित जालन्धर निवासी नवीन कुमार सुपुत्र श्री किशन लाल को पढ़ाया गया। आपकी छोटी दीक्षा २४ अप्रैल २००५ को अहिंसा विहार दिल्ली में एक सादे समारोह में हुई थी। संयम उपरान्त आपका नाम मुनि यशोभद्र रखा गया। मुनि यशोभद्र की बड़ी दीक्षा पाठ की अनुमोदना हेतु दिल्ली, हरियाणा, (उ०प्र०), 'पंजाब एवं राजस्थान के लगभग ४०० श्रद्धालु उपस्थित थे। सभा के सचिव श्री अजित पटवा ने सम्पूर्ण कार्यक्रम का कुशल संचालन किया तथा श्री सुशील जैन ने आगन्तुकों एवं गुरुजी का धन्यवाद ज्ञापन किया। इस मांगलिक अवसर पर श्री रोशनलाल जैन, उपाध्यक्ष, हरियाणा, एस०एस० जैन सभा द्वारा नवकार मंत्र के चित्र द्वारा सभी विशिष्ट आगन्तुकों का स्वागत किया गया। स्वामी वात्सल्य की सुन्दर व्यवस्था श्री पवन विजय लक्ष्मी जैन (आगरवा वाले) फरीदाबाद द्वारा की गयी। The First International Summer School for Jaina Studies Successfully Completed With great efforts of Dr. Sulekh Jain, Chairman ASJNA, Texas (USA) and Prof. Cromwell Crawford, Chairman, Department of Religion, University of Hawaii (USA) an International Summer School for Jaina a Studies was organized in India from June 1s to July 31st,2005. The purpose of this school is to boost the study of Jainism across the boundaries of India. The Teachings of Lord Mahāvīra due to its philosophy of non-violence and non-absolutism is now Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ : श्रमण, वर्ष ५६, अंक १-६ / जनवरी - जून २००५ spreading very fast in the world. Indian studies have now become part and parcel of South Asian Studies, which is making rapid advances in the universities all over the globe. In American universities because of the new pluralistic outlook, an increasing number of faculty of Indian origin and the felt need of think globally, the study of Indian religions has emerged as a great discipline. Though Jainism is the oldest of Indian traditions and presents a rich field of scholarship, it has comparatively miniscule status in academia in North America. This made anxious to Prof. Cromwell Crawford and he decided to work for the promotion of Jainism. With the help of Dr. Sulekh Jain who is known as a pioneer of Jaina Studies in western countries, Dr. Crawford worked out a programe of reciprocal collaboration and exchange of students and faculty members between Indian Jaina Institutions and Hawaii University, Honolulu, USA. With a view to shape his dreams of promotion of Jaina Studies in abroad, Prof. Crawford arrived India on 21st December, 2004. He was given warm welcome by Shri Indrabhooti Barar Joint Secretary, and Shri B. N. Jain, Former Secretary to Parshwanath Vidyapeeth, along with their family members. During his stay of total thirteen days in India, he visited all the prominent Jaina Institutions of India to explore the possibilities of infrastructurs needed for the course. He, along with Dr. Shripraksh Pandey, Asst. Director at Parshwanath Vidyapeeth, visited Jaina Vishva Bharati, Ladnun; Kundakund Jnanapeeth, Inodore; Vidyasagra Institute of Management, Bhopal; BLII, Delhi; Ahimsa Foundation, Delhi and Parshwanath Vidyapeeth, Varanasi. At Parshwanath Vidyapeeth, he addressed a symposium organized on "Jaina Ahimsa and Development in Medicine, Science & Technology' and delivered a talk on "The Role of Ahimsa in Health Care Ethics". After, due discussions with many of the scholars of Banaras Hindu University, philanthropists, business men and heads of the Jaina Institutions, he decided to send a group of the seven American scholars including faculty members to India for Jaina studies for at least eight weeks. Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 347-GHTCI : 848 PERS 2 Prof. Cromwell with Dr. Sulekh Jain, Shri Indrabhooti Barar and Mrs. Pinki Barar at the Parswanath Vidyapeeth campus As a result the first annual International Summer School for Jain Studies took place this summer in several cities of India, including Delhi, Jaipur, Ladnun, and Indore. Eight scholars including Prof. James L. Fredericks, Robin Brinkmann, Sarah Hadmack, Christopher Handy, Tim Helton, Laura Newberry and Mercel Parent arrived at New Delhi on Junc 19.2 005 from the United States and Canada to join the enriching program on Jaina studies to be organised from June 1'!.10 July 31", 2005. The group was given hearty welcome by Shri Shugan Chand Jain, India Director, International Summer School for Jaina Studies along withotherlocal Jaina Scholars as well as individuals. Inaugural function of the school was organized at India International Centre on June 2nd, 2005. Due to being pre-occupied Prof. Crawford could not come to India. In his absence his following message was read at the function: Dear Members of the Class of 2005 of the International Summer School for Jain Studies Welcome to India! We congratulate you as the vanguard of other scholars who will follow in your steps in years to come, and we honor your love of learning. Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 880: Hut, qof 4€, 310 8-E/F-23-poou In India the search for knowledge is incumbent upon every human being. The most important knowledge is spiritual wisdom, which both enlightens the intellect while it elevates the spirit and fosters good will. In the words of the Dhammapada, “A disciple in training will investigate the well-thought path of virtue, even as an expert garland-maker picks flowers.” And for a Jaina seeker after knowledge, there are three things that occasion sorrow: If there be any subject of which he or she has not heard, and cannot get to hear of it; if he or she hears of it, and cannot get to learn it; if he or she has learned it, and cannot get to carry it out in practice. All religions distinguish between intellectual study and the apprehension of spiritual knowledge. As an academic programe, our only endeavor here is intellectual study; but this is not to doubt or deny the apprehension of spiritual knowledge. In Jainism, sensory and rational knowledge are indeed valid forms of knowledge, though they are considered indirect. The Tattvārtha-sūtra 1.19-29 states: Knowledge is of five kinds, namely: sensory knowledge, scriptural knowledge, clairvoyance, telepathy, and omniscience. These five kinds of knowledge are of two types: the first two kinds are indirect knowledge and the remaining three constitute direct knowledge. In sensory knowledge there is only the apprehension of indistinct things. But clairvoyance, telepathy, and omniscience is direct knowledge; it is perceived by the soul in a vivid manner without the intermediary of the senses or the scriptures. So far your encounter with Jainism has been through books, libraries, and classrooms. Now that has changed. You are in the land of Mahāvīra, and you can see Jainism, you can hear Jainism, you can touch it, taste it, smell it in gardens and groves, in art and architecture, in song and dance, and among people and places. Most importantly - YOU WILL FIND JAINISM IN YOURSELF! Jainism is not alien to life, and all there is to life is in Jainism. If this project be likened to constructing a building, we the organizers have simply assembled a clumsy heap of bricks and mortar; Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -UTC : 888 it is for you young scholars to take the material and give it shape, so that in 8 weeks it begins to looks life a temple of learning. One thing about Indian temples - they are never finished, so you have unwittingly made this summer programe into a life-long project! Let me tell you a secret about India, and I speak as one whose British family came to these shores in 1761: you may leave India, but India will never leave you. For better or for worse, you are stuck! You will return home, taking India to Montreal, to Vermont, to California, and to Hawaii. What will be the consequences? For one thing: Jainism is an ancient religion, yet it is a religion struggling to be born - born among new people and places, propitious to its myriad potentialities. Who knows - the next Mahāvīra may be sitting in this' class! To members of the Jain community assembled here you who are proud possessors of one of the most ancient traditions known to humankind: your sacred duty now is to hand over the riches of your tradition. What is tradition? According to G. K. Chesterton, it is giving votes to our ancestors. “It is the democracy of the dead." That is true for many religious people. They cling to tradition as something, which has been perfected in the past and must never suffer change. Tradition then becomes a form of salvation by ossification. Their tradition is a clock, which tells what time it, was. The correct meaning of the word tradition is fascinating. It comes from the Latin word tradere, "to hand over. "On the one hand it evokes rich images of personal, institutional, and social achievements of the past; on the other it points to new development and continuity in the future. In this sense tradition is a living social process, constantly changing, constantly in need of criticism, but constant also as the continuing value system of a society. Sisters and brothers, at this Inauguration, by lighting the flame of knowledge by which the history, philosophy and culture of Jainism will be studied, you are taking the tradition of learning handed over Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ : श्रमण, वर्ष ५६, अंक १-६/जनवरी-जून २००५ by your fathers and mothers, and by infusing it with the substance and energy of your own time and place, you are handing it over to future generations through the enlightened minds of these young people who will be the future educators of hundreds of students in America and Canada. This is a wondrous event, as Jains hand over their tradition to non-Jains; but this is possible because Jainism prizes high scholarship above narrow sectarianism. Even more: Anekāntavāda teaches, not beauty alone, but wisdom also is in the eye of the beholder; it is therefore possible that when Jainism is viewed through the eyes of Westerners, they will find something new which will continue the tradition in many creative forms, appropriate for the modern world. If India is poised to undergo a renaissance upon the world stage, then a renaissance of Jainism cannot be too far behinds. Finally, my sincere thanks to Dr. Sulekh Jain who brought me into this programe and has caused me endless dukkha; but seeing you in this assembly has turned dukkha to sukha. Thanks also to all donors without whose generous gifts none of this would be possible, and to all volunteers for serving with tana, mana, and dhana Dhanyavāda and Aloha. Cromwell Crawford Honolulu, Hawaii Study Programme As per schedule the course was organized first at Delhi. There they were delivered lectures on different aspects of Jainism by different scholars. The prominent scholars who engaged the classes at Delhi were Prof. P. N. Somani, Jaipur. Prof. V. P. Jain, BLII, Prof, Maheshwari Prasad, Parshwanath Vidyapeeth, Varanasi and Dr. N. L. Jain, Rewa. From Delhi the group went to Jaina Vishwa Bharati, Ladnun (Rajasthan) where the summer school was organized from June 30 to July 08, 2005. At Vishwa Bharati they were delivered lectures by Prof. Hampa Nagrajaiya, Prof. M. R. Gelra, Dr. Samani Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-जगत् : १६३ Chaitanya Prajya, Samani Shashi Pragya, Prof. Arun Mukerjee, Prof. S. R. Benerjee, Prof. D. N. Bhargava and Dr. J. R. Bhattacharya. From Vishwa Bharati they went to Indore. There, they visited Kundakund Jnanapeeth and other Jaina Institutions and some of the important Jaina Temples and sights. The prominent Jaina scholars who taught Jainism to the group at Indore were Prof. Sagarmal Jain, Prof. S. R. Bhatta, Dr. Anupam Jain, Shri M. P. Jain, Colnl. D. S. Baya and Shri Manmath Patani. From Indore, they returned to Delhi. During their visits to the different places they also visited the houses of Jaina hosts and as a family they studied thoroughly the way of living, food habits, religious performances, rituals and worship, marriages and other cultural activities. With the valedictory function held at Delhi the programe was ended. It was really a very fruitful programe. All the students were fully satisfied with the study they did and experience they gathered during eight weeks. Here are some observations made by the scholars of the University of Hawaii: "The curriculum from the International Summer School for Jaina Studies was vast and covered a lot of material. We were able to study with some of the most prominent and well known scholars in Jainism, who taught us Jaina philosophy, ontology, epistemology, science, mathematics, art and sculpture, karma theory, ascetic life, and others to name a few. We also had the honour of spending hours with some of the most auspicious and beloved Jain Acharyas, Gurus, monks (Munis), and nuns (Sadhvis) from each sect. Beyond the curriculum, the scholars engaged, interacted, and learned from the Jaina perspective. We were living the Jaina lifestyle! The scholars, though many of them already are, became full Jaina vegetarians and adopted the custom of not eating after sunset.'' Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ : श्रमण, वर्ष ५६, अंक १-६/जनवरी-जून २००५ “Jainism is more than a religion it is a way of living, in which we honour and value lite, perspective, honesty, and purity. Jainism is part of each idea, action, task, and interaction”. Jim Fredericks “'India is, the cradle of the human race, the birthplace of human speech, the mother of history, the grandmother of legend, and the great grand mother of tradition. Our most valuable and most instructive materials in the history of man are treasured up in India only." - Mark Twain Faulty Members and Students from Hawaii University who participated in the first ISSJS 1. Prof. James L. Fredericks, Ph.D. Los Angles, California Prof. Fredricks holds doctorate in theology from the University of Chicago and has been a member of the Department of Theological Studies at Loyola Marymount University for 14 years. He is a specialist in inter-religious dialogue. Jim is also Roman Catholic priest of the Archdiocese at San Francisco. Jim's interest in Jain studies comes through his work on Buddhist Christian Dialogue. 2. Robin Brinkmann, Claremont, California She is a Ph.D. student at the Claremont Graduate University in California in the department of the Philosophy of Religion and Theology, conducting research that will lead to greater communication between Christianity and South Asian religious systems. She has been a teacher of Bhagavad Gitā, Bhāgavat Purāņa, and Caitanya Caritāmsta for the past 30 years as Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ sta-MICI : 884 affiliates of the International Society for Krishna Consciousness. She is interested in studying Jainism, as she would eventually like to do an in-depth comparative study of Jainism and Vaišņavism as a possible dissertation topic. 3. Sarah Hadmack, Manoa, Hawaii She is a second year Graduate Student in Religious Studies at the University of Hawaii at Manoa, Hawaii, USA. Her special focus is in Jainism: asceticism, diasporic communities, temple worship, relationship to ecology, lay communities, promotion of education of Jainism in America, especially in college of religious studies and comparative religion departments. 4. Christopher Handy, Honolulu, Hawaii He is currently working towards an M.A. degree in Religion at the University of Hawaii Honolulu, Hawaii, USA. His focus is on religious practices in India; ascetic practices and mysticism. His career goal is to teach Jainism among world religions at the University level. 5. Tim Helton, Claremont, California He is doing Master of Arts in Theological Studies with emphasis on Philosophy of Religion from University of Claremont School of Theology. He has interest in Jainism. He is of opinion that ahiṁsā at the core of Jainism carries with it a radical respect for the autonomy of others. Jainism is relatively unfamiliar to those in the West; it could also be for many, an object of study But focusing on Jainism as another religion” with non-violence as its centre, an instructor might lead students to consider a non-absolutist approach and to practice that approach on another religions. Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ : श्रमण, वर्ष ५६, अंक १-६/जनवरी-जून २००५ 6. Laura Newberry, Claremont, California She is currently working on her Ph.D. at Claremont Graduate University in the Women's Studies in Religion program at Claramount, California, USA. She holds a B.A., in Classical Studies and Spanish form the College of Wooster in Ohio. Her current research interests are primarily focused within the realm of South Asian Religions particularly Hindu Goddesses and Jainism. She has done extensive research on Homeric expressions of time, women roles in Spanish and Classical contexts, and pilgrimages of Jainism. She is particularly drawn to Jainism forits commitment to non-violence (ahiṁsā) and its devotion to the value of all living things. 7. Mercel Parent, Montreal, Canada He is presently in the Ph.D. program at Concordia University in Montreal, Canada. He is an expert in Buddhist and Jaina Studies, Indian Philosophy and 20h century French and German philosophy. His interest in Jainism is due to both its place and influential discipline in the South Asian context and also due to its long history of anti-foundationalism and perspectivalism. His own project is to examine these themes in their historical context, but also their applicability in a global setting where he feels Jaina thought needs more of voice. 'जैन शासन में यन्त्र-मन्त्र-तन्त्र, ज्योतिष एवं साधुओं की भूमिका' विषयक राष्ट्रीय संगोष्ठी सम्पन्न 7 वाराणसी, १२-१३ जून, २००५। प०पू० श्रमणरत्न, व्याख्यानवाचस्पति, खण्डविद्या धुरन्धर श्री १०८ बालाचार्य योगेन्द्रसागर जी म० की प्रेरणा से पार्श्वप्रभु की जन्मभूमि, भेलूपर, वाराणसी में दिनांक १२ १३ जून, २००५ को "जैन शासन में यन्त्र-मन्त्र-तन्त्र, ज्योतिष एवं साधुओं की भूमिका' विषय पर National Non-violence Unity Trust Foundation, Ujjain के तत्त्वावधान में एक राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-जगत् : १६७ किया गया। आचार्य योगेन्द्र सागर जी ने कहा कि तपस्वी बने बिना यशस्वी बनना सम्भव नहीं है । श्रद्धा जब गहराती है तो वह समर्पण बन जाती है । आपने जैन आगमों में यन्त्र-मन्त्र-तन्त्र और ज्योतिष के उदाहरणों का उल्लेख करते हुए कहा कि जैन साधुओं द्वारा इनका उपयोग करने में कहीं कुछ भी गलत नहीं है बशर्ते इनका उपयोग आजीविका के लिये न कर सत्य को उद्घाटित करने एवं मानव-कल्याणार्थ किया जाय। ध्यातव्य है कि आचार्यश्री ने इस विद्या से अनेक असाध्य रोगों का उपचार कर अनेक लोगों को स्वास्थ्य लाभ कराया है। अनेकों आदिवासियों को शाकाहार की जीवनशैली अपनाने की प्रेरणा दी है। संगोष्ठी का विषय प्रवर्तन करते हुए श्री सत्येन्द्र मोहन जैन ने ज्वालामालिनीकल्प, सरस्वतीकल्प, नागकुमार काव्य आदि जैन ग्रन्थों का उल्लेख करते हुए स्पष्ट किया कि यन्त्र-मन्त्र-तन्त्र एवं ज्योतिष का उपयोग जिनधर्म की प्रभावना एवं मानव कल्याणार्थ किया जाना चाहिये । संगोष्ठी के मुख्य अतिथि डा० विश्वनाथ पाण्डेय, जनसम्पर्क अधिकारी, का० हि० वि० वि० ने जैन धर्म के कतिपय सिद्धान्तों की महत्ता को रेखांकित करते हुए अहिंसा को जीवन में उतारने तथा शाकाहार जीवन-शैली को अपनाने की बात पर जोर दिया। संगोष्ठी की निदेशक एवं National Non-violence Unity Trust Foundation, Ujjain की अध्यक्षा डा० सविता जैन ने ॐकारध्वनि तथा ॐ शब्द की उपयोगिता एवं नवकार मन्त्र की प्राचीनता तथा महत्त्व पर प्रकाश डाला। संगोष्ठी के संयोजक डा. संजीव सर्राफ ने विशिष्ट अतिथिगण- प्रो० सुदर्शन लाल जैन, डा० कमलेश जैन, डा० श्रीप्रकाश पाण्डेय, डा० मुकुलराज मेहता के साथ-साथ बाहर से पधारे विद्वानों का माल्यार्पण कर स्वागत किया। इस संगोष्ठी में जिन विद्वानों ने अपने शोध-पत्रों का वाचन किया उनमें मुख्य हैं- डा० अभय प्रकाश जैन (ग्वालियर), पं० वीरेन्द्र शास्त्री (आगरा), पं० विमलमप्रकाश शास्त्री (सागवाडा) , डा० सुदर्शनलाल जैन, डा० कमलेश जैन, विनय भूषण जैन (वाराणसी), डा० मुकेश जैन (जबलपुर), डा० रीता पाण्डेय (जबलपुर) एवं डा० कृष्णा जैन (ग्वालियर)। वाराणसी दिगम्बर जैनसंघ के अध्यक्ष-श्री ऋषभदास जैन, श्री चन्द्रभान जैन (उपाध्यक्ष), श्री प्रदीप जैन (महामन्त्री) एवं श्री विनोद जैन (मन्त्री) ने संगोष्ठी को सम्पन्न कराने में अपना पूर्ण सहयोग दिया। संगोष्ठी का कुशल संचालन डा० संजीव सर्राफ एवं श्री विवेकानन्द जैन ने किया जिनके सद्प्रयासों के बिना संगोष्ठी का आयोजन सम्भव नहीं था। नौंवा महावीर पुरस्कार वितरण समारोह सम्पन्न भगवान महावीर फाउण्डेशन के सौजन्य से १४ फरवरी २००५ को नौंवा महावीर पुरस्कार वितरण समारोह चेन्नई के कलैवानर आरंगम में आयोजित किया गया। समारोह के मुख्य अतिथि तमिलनाडु के राज्यपाल श्री सुरजीत सिंह बरनाला Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ : श्रमण, वर्ष ५६, अंक १-६/जनवरी-जून २००५ . थे। राज्यपाल ने यह पुरस्कार श्री सिद्धराज ढड्डा, जयपुर को अहिंसा एवं शाकाहार के क्षेत्र में की गई उत्कृष्ट सेवाओं के लिए प्रदान किया। इसी प्रकार उत्तराखण्ड सेवा निधि पर्यावरण शिक्षण संस्थान, अलमोड़ा (उत्तरांचल) को शिक्षा एवं चिकित्सा के क्षेत्र में की गई उत्कृष्ट सेवाओं के लिए, स्वामी विवेकानन्द यूथ मूवमेन्ट, मैसूर को सामाजिक एवं सामुदायिक क्षेत्र में की गई उत्कृष्ट सेवाओं के लिए यह पुरस्कार प्रदान किया गया। तीनों पुरस्कारों में प्रत्येक को पाँच लाख रुपये, प्रशस्ति पत्र एवं स्मृति चिह्न प्रदान किये गये। फाउण्डेशन के प्रबन्धकीय प्रन्यासी एन० सुगालचन्द जैन ने आगन्तुकों का स्वागत किया। प्रो० लोढा ने जोधपुर विश्वविद्यालय को स्वर्णपदक हेतु एक लाख की राशि प्रदान की श्री जैन रत्न हितैषी श्रावक संघ, कोलकाता के अध्यक्ष, विश्रुत साहित्यकार, कोलकाता विश्वविद्यालय के हिन्दी-विभाग के पूर्व अध्यक्ष एवं जोधपुर विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति प्रोफेसर कल्याणमल लोढा ने जयनारायण व्यास विश्वविद्यालय में १६ मार्च २००५ को आयोजित एक समारोह में विश्वविद्यालय की कुलपति श्रीमती नसीम भाटिया को अपने पिता श्री चन्दनमल लोढा की स्मृति में स्वर्णपदक प्रारम्भ करने हेतु एक लाख रुपये का ड्राफ्ट प्रदान किया। इस राशि के ब्याज से कला संकाय की स्नातकोत्तर कक्षाओं में सर्वोच्च अंक प्राप्त करने वाले विद्यार्थी को 'चन्दनमल लोढा स्मृति पदक' विश्वविद्यालय द्वारा प्रदान किया जाएगा। पुरस्कार सूचना भगवान महावीर फाउण्डेशन ने 'शाकाहार' विषय की सर्वोत्तम पुस्तक पर ५१०००/- रुपए के दो पुरस्कार हिन्दी एवं अंग्रजी भाषाओं में देने का निर्णय लिया है। नियमावली :- १. यह पुरस्कार प्रकाशित अथवा अप्रकाशित पुस्तक पर प्रदान किया जायेगा किन्तु १० वर्ष पूर्व (अर्थात् ३१.१२.१९९४ से पूर्व) प्रकाशित पुस्तक पर नहीं दिया जायेगा। २. पुस्तक 'शाकाहार' विषय पर होनी चाहिए। अन्य विषय की पुस्तक पुरस्कृत नहीं की जायेगी। ३. पुस्तक में 'शाकाहार' विषय पर वैज्ञानिक तथ्यात्मक जानकारी हो तथा आधुनिक युग में 'शाकाहार' की महत्ता का प्रतिपादन हो। ४. पुस्तक की भाषा सहज, सरल एवं शैली सबोधगम्य हो ताकि सामान्य व्यक्ति भी उसका आशय भलीभांति समझ सके। ५. पुस्तक के विषय को अधिक सुगम बनाने के लिए चित्र एवं रेखाचित्र दिये जा सकते हैं। ६. पुस्तक का शीर्षक अत्यन्त आकर्षक हो। ७. पुस्तक की पृष्ठ संख्या १०० से १५० तक हो। ८. पुस्तक लेखक की मौलिक कृति हो। लेखक पुस्तक के साथ अपना प्रमाण-पत्र दें कि यह Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-जगत् : १६९ उनकी मौलिक कृति है। ९. पुस्तक पर लेखक का सर्वाधिकार होगा। १०. पुस्तक का चयन फाउण्डेशन द्वारा स्थापित एक समिति द्वारा किया जायेगा। पुरस्कार हेतु पुस्तक की गुणवत्ता के बारे में चयन समिति का निर्णय अंतिम होगा तथा लेखक को भी मान्य होगा। ११. लेखक अपनी प्रकाशित अथवा अप्रकाशित पुस्तक की ४ प्रतियाँ फाउण्डेशन को दिनांक ३०-०९-२००५ तक प्रेषित करें। फाउण्डेशन ३१-१२-२००५ तक पुरस्कार विजेताओं के नाम घोषित करेगी। १२. पुरस्कार तथा किसी भी विवाद के बारे में न्यायालय का क्षेत्र चेनई ही होगा। दुलीचन्द जैन, ११, पोन्नप्पा लेन, त्रिपलीकेन, चेनई- ६००००५ डा० नन्दलाल जैनः चीन में आयोजित बाइसवीं अन्तर्राष्ट्रीय विज्ञान-इतिहास कांग्रेस में जैन दर्शन एवं विज्ञान के बहुश्रुत विद्वान डा० नन्दलाल जैन ने बीजिंग (चीन) में सम्पन्न बाइसवीं अन्तर्राष्ट्रीय विज्ञान-इतिहास कांग्रेस के अधिवेशन में 'मानव एवं प्रकृति खण्ड' की अध्यक्षता की । इस खण्ड में पांच देशों के सात वैज्ञानिकों ने अपने शोध-पत्र प्रस्तुत किये । डा० जैन ने 'जैन विद्याओं में वनस्पति विज्ञान' विषय पर अपना शोध-पत्र प्रस्तुत किया। इस कांग्रेस में ६९ देशों के कुल ११०० विद्वानों ने भाग लिया । उल्लेखनीय है कि इनमें डा० जैन एकमात्र जैन थे । विद्यापीठ परिवार से अभिन्न रूप से जुडे डा० जैन को इस सम्मान के लिये बहुत-बहुत बधाई। महावीर पुरस्कार वर्ष २००५ एवं ब्र० पूरणचन्द रिद्धिलता लुहाड़िया पुरस्कार २००५ प्रबन्धकारिणी कमेटी, दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्री महावीरजी द्वारा संचालित जैनविद्या संस्थान, श्री महावीरजी के वर्ष-२००५ के महावीर पुरस्कार के लिए जैनधर्म, दर्शन, इतिहास, साहित्य, संस्कृति आदि से सम्बन्धित किसी भी विषय की पुस्तक/शोध-प्रबन्ध की चार प्रतियाँ दिनांक ३०सितम्बर २००५ तक आमन्त्रित हैं। इस पुरस्कार में प्रथम स्थान प्राप्त कृति को २१००१/- एवं प्रशस्ति पत्र प्रदान किया जायेगा तथा द्वितीय स्थान प्राप्त कृति को ब्र० पूरणचन्द रिद्धिलता लुहाड़िया साहित्य पुरस्कार ५००१/- एवं प्रशस्ति पत्र प्रदान किया जायेगा। ३१ दिसम्बर २००१ के पश्चात् प्रकाशित पुस्तक ही इसमें सम्मिलित की जा सकती हैं। यह सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि वर्ष २००४ का महावीर पुरस्कार प्रो० लक्ष्मीचन्द जैन को उनकी कृति Exact Sciences in the Karma Antiquity तथा ब्र० पूरणचन्द रिद्धिलता लुहाड़िया साहित्य पुरस्कार डॉ०(श्रीमती) मुन्नी जैन Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० : श्रमण, वर्ष ५६, अंक १-६/जनवरी-जून २००५ वाराणसी को उनकी कृति हिन्दी गद्य के विकास में जैन मनीषी पं० सदासुखदास का योगदान पर दिनांक २५ अप्रैल २००५ को श्री महावीरजी में महावीर जयन्ती के वार्षिक मेले के अवसर पर प्रदान किया गया। उल्लेखनीय है कि डा० (श्रीमती) मुन्नी पुष्पा जैन कृत उक्त पुस्तक पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी से प्रकाशित है। नियमावली तथा आवेदन-पत्र का प्रारूप प्राप्त करने के लिए संस्थान कार्यालय, दिगम्बर जैन नसियाँ भट्टारकजी, सवाई रामसिंह रोड, जयपुर-४ से पत्र व्यवहार करें। स्वयंभू पुरस्कार - २००५ .. दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्री महावीरजी द्वारा संचालित अपभ्रंश साहित्य अकादमी, जयपुर के वर्ष-२००५ के स्वयंभू पुरस्कार के लिए अपभ्रंश से सम्बन्धित विषय पर हिन्दी अथवा अंग्रेजी में रचित रचनाओं की चार प्रतियाँ ३० सितम्बर, २००५ तक आमन्त्रित हैं। इस पुरस्कार में २१००१/- एवं प्रशस्ति-पत्र प्रदान किया जायेगा। ३१ दिसम्बर, २००१ से पूर्व प्रकाशित तथा पहले से पुरस्कृत कृतियाँ सम्मिलित नहीं की जायेंगी। नियमावली तथा आवेदन पत्र का प्रारूप प्राप्त करने के लिए अकादमी कार्यालय, दिगम्बर जैन नसियाँ भट्टारकजी, सवाई रामसिंह रोड, जयपुर-४ से पत्र व्यवहार करें। संस्कृत, प्राकृत के विद्वान पंडितों की आवश्यकता जिनशासन के प्रचार-प्रसार एवं सम्यग्ज्ञान दर्शन चारित्र में रत साधु-साध्वियों के शिक्षण-प्रशिक्षण एवं आगम शोधन हेतु संस्कृत, प्राकृत एवं जैन दर्शन के सुयोग्य पंडितों की आवश्यकता है। जो भी विद्वत्जन सेवा के पुनीत कार्य में सेवा देना चाहते हैं वे कृपया अपनी योग्यता के साथ सम्पर्क करें। साक्षात्कार के लिए आवेदनकर्ता को आने जाने का द्वितीय श्रेणी का मार्गव्यय दिया जायेगा। चयन होने पर उचित मानदेय दिया जायेगा। सम्पर्क करें - ShriSohanlalji Sipani No. 831, 13th Main Road, 3rd Block Koramangala, Bangalore - 560 034 Phone:080-25537878,9880004449,9845007878 Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-जगत् : १७१ शोक-संदेश परम धर्मनिष्ठ सुश्रावक श्री तोलाराम जी जैन को विनम्र भावाञ्जलि श्री आत्मानन्द जैन सभा - फरीदाबाद की कार्यकारिणी व श्री महावीर स्वामी जैन श्वेताम्बर मन्दिर ट्रस्ट - फरीदाबाद के वरिष्ठ सदस्य परम श्रद्धेय व परम धर्मनिष्ठ सुश्रावक श्री तोलाराम जी जैन, जो प्राय: श्री टी०आर० जैन के नाम से प्रसिद्ध थे, का मात्र ७२ वर्ष की आयुष्य में अल्पकालीन रुग्णावस्था के उपरान्त मंगलवार, दिनांक १७ मई २००५ को अर्धरात्रि लगभग ०.३० बजे आकस्मिक हृदयगति रुक जाने से देहावसान हो गया। आपका जन्म उत्तर प्रदेश के हापुड़ नगर के लब्धप्रतिष्ठित श्री मोतीलाल कन्हैयालाल जी जैन बुरड़ परिवार के अनन्य धार्मिक एवं संस्कार-सम्पन्न सुश्रावक लाला कन्हैयालाल जी की अत्यन्त धर्मपरायण अर्धांगिनी सुश्राविका श्री मोना देवी जी की पावन कुक्षि से दिनांक १ मई १९३३ के दिन हुआ। बाल्यावस्था से ही आप अत्यन्त कुशाग्र बुद्धि के विद्यार्थी थे तथा युवावस्था में पहुंचने तक आपने अर्थशास्त्र व अंग्रेजी में स्नातकोत्तर की शिक्षा ग्रहण कर ली। शिक्षा-दीक्षा के उपरान्त आप भारत सरकार के विदेश मंत्रालय में अर्थशास्त्री के रूप में कार्यरत रहे तथा इसी अवधि में राजस्थान के झुंझनू नगर के परमधर्मनिष्ठ सुश्रावक दम्पत्ति श्री मोतीलाल-मैनादेवी जी की संस्कार सम्पन्न सुपुत्री विमला जी से आपका १ फरवरी १९५९ के दिन पाणिग्रहण हुआ। सन् १९६१ में विदेश मंत्रालय छोड़कर आप हरियाणा के अग्रणी व श्री आत्मवल्लभ समुदाय के अत्यन्त गौरवशाली शिक्षण-संस्थान एस०ए० जैन कालेज, अम्बाला (श्री आत्मानन्द जैन महाविद्यालय) में अर्थशास्त्र के प्राध्यापक के रूप में नियुक्त हुए जहाँ सन् १९८० में आप कालेज के प्राधानाचार्य (प्रिंसिपल) के रूप में पदोनत हुए। सन् १९९० में कालेज से स्वैच्छिक सेवा निवृत्ति लेकर आप अपने पारिवारिक पुस्तक प्रकाशन के व्यवसाय में सम्मलित हो गये। फरीदाबाद आगमन के उपरान्त श्री आत्मानन्द जैन सभा एवं श्री महावीरस्वामी जैन श्वेताम्बर मन्दिर ट्रस्ट, फरीदाबाद के आप संस्थापक सदस्य थे तथा लगभग एक दशक तक आप सभा के वरिष्ठ उपाध्यक्ष व तदोपरान्त कार्यकारिणी के वरिष्ठ सदस्य के रूप में सुशोभित रहे। इसी प्रकार मन्दिर ट्रस्ट के गठन के समय से ही आप इसके न्यासी रहे व सदैव श्री जिनमन्दिर निर्माण में विशिष्ट सहयोग प्रदान करते रहे। वास्तव में फरीदाबाद के जिन मन्दिर में चारों दादा गुरुदेवों की चरणपादुकाएं स्थापित करवाने का श्रेय माननीय श्री टी०आर० जैन की दादा गुरुदेवों के प्रति Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ : श्रमण, वर्ष ५६, अंक १-६/जनवरी-जून २००५ असीम श्रद्धा को जाता है। समाजसेवी संस्था महावीर इण्टरनेशनल के आप आजीवन सदस्य व फैलो मेम्बर थे। आप पार्श्वनाथ विद्यापीठ से वर्षों से जुड़े रहे । विद्यापीठ की प्रबन्ध-समिति के सम्मानित सदस्य के रूप में आपकी सेवायें हमारी धरोहर हैं । विद्यापीठ के समस्त क्रियाकलापों में आपकी सक्रिय सहभागिता रहती थी। आप लगभग तीन बार संस्थान पधार चुके थे । विद्यापीठ में चल रही कई परियोजनाओं हेतु आपने अनुदान एकत्र करवाने में हमारी प्रबन्ध-समिति की विशेष सहायता की थी । आज उनके आकस्मिक निधन से सम्पूर्ण विद्यापीठ परिवार शोकाकुल और स्तब्ध है। विद्यापीठ के हम सभी सदस्यगण निर्वेद, सन्तोष भाव से, दिवंगत पुण्यात्मा के श्रीचरणों में अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करते हए शोक संतप्त परिवार के प्रति हार्दिक संवेदना प्रकट करते हैं तथा आपके परिवारजनों को यह वियोग सहने की क्षमता प्रदान करने हेतु वीर प्रभु से मंगल कामना करते हैं। ॥ ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ।। प्रमुख समाज सेवी धर्मनिष्ठ श्री सीतलदासजी राक्यान का दुःखद स्वर्गवास दिल्ली के प्रमुख समाज सेवी, संत सेवी, मानवता प्रेमी, साउथ एक्सटेंशन स्थित छोटी दादाबाड़ी के पूर्ण विकास के प्रति समर्पित एवं अनेक संस्थाओं से गहराई से जुड़े हुए धर्मनिष्ठ श्री सीतलदासजी राक्यान का २७ जून २००५ को दिल्ली में आकस्मिक दुःखत निधन हो गया। श्री सीतलदासजी राक्यान का जन्म २१-१२-१९१४ को जयपुर में हुआ था। उनके पांच पुत्र एवं तीन पुत्रियां हैं जो आज अपने पिता एवं परिवार की परम्परा के अनुसार व्यवसाय से लेकर समाज तक एक आदर्श स्थापित किये हुए हैं। वे दादावाड़ी में दर्शन-पूजा किये बगैर अन्न-जल ग्रहण नहीं करते थे। दादावाड़ी के जीर्णोद्धार से आपने अपने को जोड़ लिया था। दिल्ली के बाहर से आने वाले विशेषकर चिकित्सा के लिए आने वाले लोगों के लिये आपने दादावाड़ी में ४६ कमरों का सर्व सविधायुक्त यात्री निवास एवं भोजशाला का निर्माण करवाया एवं एक धर्मार्थ चिकित्सालय की व्यवस्था करवायी। जिससे पूरे देश भर में दिल्ली छोटी दादाबाड़ी का नाम रोशन हुआ। ऐसे कर्मठ समाज सेवी, सरलमना श्री सीतलदासजी राक्यान साहब के निधन को समाज की अपूरणीय क्षति मानते हुए हम अपनी विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं। Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-जगत् : १७३ पार्श्वनाथ विद्यापीठ निबन्ध प्रतियोगिता - २००४-०५ उद्देश्यः नवयुवकों के बौद्धिक विकास एवं जैन धर्म दर्शन के प्रति उनकी जागरुकता को बनाये रखने के लिए प्रतिवर्ष एक निबन्ध प्रतियोगिता के आयोजन का पार्श्वनाथ विद्यापीठ का संकल्प है । जैन समाज लम्बे समय से यह अनुभव कर रहा है कि लोगों को जैन धर्म दर्शन एवं संस्कृति की यथार्थ जानकारी होनी चाहिये, क्योंकि जैन दर्शन में विश्व दर्शन बनने की क्षमता है । इस उद्देश्य को दृष्टिगत रखते हुए पार्श्वनाथ विद्यापीठ एक निबन्ध प्रतियोगिता का आयोजन कर रहा है, जिससे कि लोगों में पठन -पाठन एवं शोध के प्रति रुचि पैदा हो साथ ही विचारों का आदानप्रदान हो सके। सन् २०००, २००१ में विद्यापीठ ने क्रमश: 'जैन धर्म और पर्यावरण' तथा 'बीसवीं सदी में जैन धर्म की प्रासंगिकता' इन दो विषयों पर निबन्धप्रतियोगिता का आयोजन किया था । विजेता प्रतिभागियों को पुरस्कार प्रदान करने के अतिरिक्त चयनित निबन्धों को हमारी शोध-पत्रिका 'श्रमण' में प्रकाशित भी किया गया था। इसी कड़ी में सत्र २००४-२००५ में पुनः एक निबन्ध-प्रतियोगिता का आयोजन किया जा रहा है। विषय : “विज्ञान के क्षेत्र में अहिंसा की प्रासंगिकता" कौन प्रतियोगी हो सकते हैं - कोई भी व्यक्ति चाहे वह किसी भी धर्म,जाति,सम्प्रदाय का हो या किसी भी उम्र का हो इस प्रतियोगिता में भाग ले सकता है । पार्श्वनाथ विद्यापीठ एवं उसकी सहयोगी संस्थाओं के कर्मचारियों एवं उनके निकट सम्बन्धियों के लिये यह प्रतियोगिता प्रतिबन्धित है । निबन्ध के साथ प्रतिभागी की पासपोर्ट साइज फोटो, पूरे पते सहित अपनी शैक्षिक योग्यता का विवरण एवं हाई स्कूल सर्टिफिकेट की फोटो प्रति (xerox copy) भेजना अनिवार्य है। आयुवर्ग के आधार पर निबन्ध के लिए निर्धारित पृष्ठ संख्याः १. १८ वर्ष तक- डबल स्पेस में फुलस्केप साइज में टंकित (typed) पूरे चार पृष्ठ। २. १८ वर्ष के ऊपर-डबल स्पेस में फुलस्केप साइज में टंकित (typed) पूरे आठ पृष्ठ। Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ : श्रमण, वर्ष ५६, अंक १-६ / जनवरी- जून २००५ पुरस्कारः निर्णायक मण्डल द्वारा चयनित प्रतियोगी को निम्नानुसार पुरस्कार देय होगा १८ वर्ष तक के प्रतियोगी के लिये: प्रथम पुरस्कार द्वितीय पुरस्कार तृतीय पुरस्कार १८ वर्ष के ऊपर के प्रतियोगी के लिये: • प्रथम पुरस्कार - २५००रु. द्वितीय पुरस्कार - १५००रु. तृतीय पुरस्कार -१०००रु. प्रतियोगिता की भाषा - निबन्ध हिन्दी या अँग्रेजी दोनों भाषाओं में हो सकते हैं । चयन की प्रक्रिया के निर्धारित मानदण्डः - २५००रु. - १५००रु. -१०००रु. निबन्ध की गुणवत्ता, विचार सम्प्रेषण की स्पष्टता एवं विषय का सम्यक् प्रस्तुतीकरण | निबन्ध में अपने कथन का सप्रमाण प्रस्तुतीकरण एवं आवश्यक स्थलों पर मूल ग्रन्थों से सन्दर्भ | भाषा का स्तर: मूल्यांकनः प्रतियोगियों से प्राप्त निबन्धों का मूल्यांकन जैन विद्या के तीन लब्धप्रतिष्ठ विद्वानों द्वारा किया जायेगा । निबन्धों के मूल्यांकन के लिये परीक्षक समिति में सहयोग करने वाली संस्था का भी प्रतिनिधित्व रहेगा । चयन प्रक्रियाः समस्त निबन्धों की फोटो कॉपी बनायी जायेंगी तथा प्रतियोगियों के उम्रवर्ग के आधार पर उन्हें एक विशिष्ट कोड नं० दिया जायेगा । निबन्धों की फोटो प्रतियाँ (बिना लेखक के नाम के) जिनमें कोड नं० अंकित होगा, प्रत्येक निर्णायक को भेजी जायेंगी। निर्णायकों द्वारा अंकित निबन्ध प्राप्त होने पर उनमें क्रमशः प्रथम, द्वितीय एवं तृतीय पुरस्कार के लिए चयनित प्रतियोगियों की घोषणा की जायेगी। विजेता प्रतियोगियों के निबन्धों को पार्श्वनाथ विद्यापीठ से प्रकाशित होने वाली शोध-पत्रिका 'श्रमण' के सन् २००५ के अंक में प्रकाशित किया जायेगा। Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-जगत् : १७५ • विजेता प्रतियोगी को पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी में एक सादे समारोह के अन्तर्गत सम्मानित किया जायेगा। अन्तिम तिथिः इस निबन्ध प्रतियोगिता के लिये आलेख ३०अक्टूबर २००५ तक भेजे जा सकते हैं। निबन्ध भेजने का पता : संयोजक, निबन्ध प्रतियोगिता - २००४ पार्श्वनाथ विद्यापीठ, आई० टी० आई० रोड, करौंदी, वाराणसी-२२१००५ (उ.प्र.), दूरभाषः ०५४२-२५७५५२१,२५७५८९० नोटः जिन प्रतिभागियों ने इसके पहले के विज्ञापन के अनुसार अपना निबन्ध भेज दिया है, उन्हें पुनः निबन्ध भेजने की आवश्यकता नहीं है । यह विज्ञापन दुबारा हमें इस लिये करना पड़ रहा है क्योंकि ग्रुप "ए" में मात्र दो निबन्ध ही आ पाये थे । उन सभी प्रतिभागियों से हम क्षमा प्रार्थी हैं जिनके निबन्ध हमें प्राप्त हो चुके हैं किन्तु परिणाम अभी तक नहीं निकल पाया है । परहित प्रवृत्ति सबसे बड़ी योग्यता एक बड़े बौद्ध संघाराम के लिए कुलपति की नियुक्ति की जानी थी। उपयुक्त विद्या और विवेकवान आचार्य को छाँटने का ऊहापोह चल रहा था। तीन सत्पात्र सामने थे। उनमें से किसे प्रमुखता दी जाए, यह प्रश्न विचारणीय था। चुनाव का काम महाप्रज्ञ मौदगल्यायन को सौंपा गया। तीनों को प्रवास पर जाने का निर्देश हुआ। कुछ दूर पर उस मार्ग में काँटे बिछा दिए गए थे। संध्या होने तक तीनों उस क्षेत्र में पहुंचे। काँटे देखकर रुके। क्या किया जाए? इस प्रश्न के समाधान में एक ने रास्ता बदल लिया। दूसरे ने छलाँग लगाकर पार पाई। तीसरा रुककर बैठ गया और काँटे बुहारकर रास्ता साफ करने लगा, ताकि पीछे आने वालों के लिए वह मार्ग निष्कंटक रहे; भले ही अपने को देर लगे। परीक्षक मौदगल्यायन समीप की झाड़ी में छिपे बैठे थे। उन्होंने तीनों के कृत्य देखे और परीक्षाफल घोषित कर दिया। तीसरे की, दूसरों के लिए रास्ता साफ करने की विद्या सार्थक मानी गई और अधिष्ठाता की जिम्मेदारी उसी के कंधे पर गई। Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण, वर्ष ५६, अक १-६ जनवरी-जून २००५ साहित्य सत्कार १. विक्रम चरित्र (पूर्वार्द्ध), सम्पा० श्री प्रशान्तरत्न विजय जी म० सा० प्रका० श्री सौधर्म संदेश प्रकाशन ट्रस्ट, नवसारी, आकार- डिमाई, पृष्ठ-२०३/ प्रस्तुत पुस्तक महाराजा विक्रमादित्य के जीवन पर आधारित है। प्रस्तुत पुस्तक में कुल ३२ प्रकरण हैं जिसमें विक्रमादित्य जो राजा गन्धर्व सेन के पुत्र थे, के जीवन में घटित घटनाओं का बड़े ही रोचक ढंग से वर्णन किया गया है। अवन्ती राज्य के परिचय के साथ-साथ अन्य राजाओं के सम्बन्ध में वर्णन बड़ा ही सुरुचिपूर्ण ढंग से हुआ है। इस ऐतिहासिक पुस्तक में घटनाओं को कथा के माध्यम से प्रस्तुत कर रोचक बनाया गया है। पाठक इसे पढ़ कर सहज ही लाभान्वित होंगे। उनका ऐतिहासिक ज्ञान तो बढ़ेगा ही साथ-ही-साथ धार्मिक ज्ञान में भी वृद्धि होगी। आशा है पाठक इस छोटी सी पुस्तक को अवश्य पढ़ेंगे। - ज्योतिमा (शोध छात्रा) २.विक्रम चरित्र (उत्तरार्द्ध), सम्पा० श्री प्रशान्तरत्न विजय जी म०सा०, प्रका० श्री सौधर्म संदेश प्रकाशन ट्रस्ट, नवसारी, आकार- डिमाई, पृष्ठ-२१७/ प्रस्तुत पुस्तक उपर्युक्त पुस्तक का द्वितीय भाग है। इसमें तैंतीसवें प्रकरण से छियासठवें प्रकरण तक महाराजा विक्रमादित्य के जीवन-चरित्र का वर्णन है। इसमें सर्ग ८ से सर्ग १२ तक कुल तैंतीस प्रकरणों में विक्रमादित्य के जीवन में घटित घटनाओं को समेटने का प्रयास किया गया है। तीर्थ महिमा और शकराज चरित्र, कौमुदी महोत्सव में राजा का गमन, श्रीदत्त केवली का पूर्व-चरित्र, गांगलि ऋषि का राजसभा में आगमन, श्रीदत्त केवली द्वारा सूर के पूर्व जन्म का कथन आदि कथानकों का उचित दृष्टांत द्वारा रोचक वर्णन हुआ है। आशा है पाठकगण इस पुस्तक को पढ़कर लाभान्वित होंगे। ___ - ज्योतिमा (शोध-छात्रा) ३. बीसवीं शताब्दी की जैन विभूतियाँ, लेखक- श्री मांगीलाल भूतोड़िया, प्रका० प्राकृत भारती अकादमी, १३ ए०, मेन मालवीय नगर, जयपुर एवं प्रियदर्शी प्रकाशन ७, ओल्ड पोस्ट ऑफिस स्ट्रीट, कोलकाता, आकार-डिमाई, पृष्ठ- ४३९, मूल्य- ५००/ Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्य सत्कार : १७७ पुस्तक बीसवीं शताब्दी की जैन विभूतियाँ, लेखक की एक अनुपम कृति है। प्रस्तुत पुस्तक में बीसवीं शताब्दी के जैन विचारकों को एक सूत्र में समेटने का प्रयास किया गया है। पुस्तक तीन खण्डों में विभाजित है जिसके प्रथम खण्ड में जैन आचार्य, महात्मा, मुनि, साध्वीगण आदि के बारे में विस्तार से वर्णन है। पुस्तक के द्वितीय खण्ड में जैन न्यायविद, वैज्ञानिक, पण्डित, लेखक, राजनेता, कलाकार, प्रशासक आदि के बारे में वर्णन किया गया है। तृतीय खण्ड में जैन उद्योगपति, श्रेष्ठि एवं धर्म प्रभावक व्यक्तियों के बारे में सविस्तार विवेचना है। अन्त में परिशिष्ट के अन्तर्गत ग्रन्थ के परम संरक्षक, संरक्षक, संयोजक, सह-संयोजक व्यक्तियों के बारे में बताया गया है। इस पुस्तक की महत्ता इसी से सिद्ध हो जाती है कि लेखक ने परम गाँधीवादी, महात्मा भगवानदीन एवं कथित् विवादास्पद आचार्य रजनीश को भी जैन नायकों में शामिल कर साहस का परिचय दिया है। यूँ तो जैनों में विद्वानों की कोई कमी नहीं है फिर भी लेखक ने इस छोटे से ग्रन्थ में प्रमुख व्यक्तियों को समेटेने का सफल प्रयास किया है। आशा है, वैसे सधी पाठक जो जैन धर्म में रुचि रखते हैं, इस पुस्तक को पढ़कर अवश्य लाभाविन्त होंगे एवं देश के विकास में जैन धर्मावलम्बियों के योगदान से परिचित होंगे। - ज्योतिमा (शोध छात्रा) ४. जीवन दर्पण (महापुरुषों की वाणी), संकलन- केवलचन्द जैन, प्रका० शा० लालचन्द, मदनराज एण्ड कं०, ७/२८ ए० पी०लेन, चिकपेट, बैंगलोर५३, आकार- डिमाई, पृष्ठ- २९२, मूल्य- ५०/ श्री केवलचन्द जैन द्वारा संकलित जीवन दर्पण (महापुरुषों की वाणी) गद्य एवं पद्य का अनूठा संग्रह है। हमारा जीवन तभी सार्थक है जब हम जीवन का उद्देश्य एवं लक्ष्य निर्धारित कर अपने को उस ओर अग्रसर रखें। इस जीवन दर्पण पुस्तक में लेखक ने जीवन जगत् के कटु सत्य को सरल भाषा में समझाने का सार्थक प्रयास किया है। कहते हैं दर्पण कभी झूठ नहीं बोलता है। इस दर्पण रूपी पुस्तक में भी सच्चाई को सामने लाने का प्रयास लेखक ने किया है। सभी कहानियां शिक्षाप्रद हैं जो किसी एक सम्प्रदाय विशेष का प्रतिनिधित्व न करते हुए सबके लिए उपयोगी हैं। दृष्टान्तों के उचित समन्वय से कहानियाँ अत्यन्त ही रोचक बन पड़ी हैं। आशा है सभी पाठक इसे एक बार अवश्य पढ़ेंगे और अपने जीवन को सार्थक बनाएँगे। __- ज्योतिमा (शोध छात्रा) ५. महाप्रभा स्मृति-ग्रन्थ (सिखा गई... दिखा गई...) लेखिका- सम्पादिकासाध्वी डॉ० प्रियदर्शनाश्री एवं साध्वी डॉ० सुदर्शनाश्री, प्राप्ति स्थान- श्री राजेन्द्र सूरि जैन कीर्ति-मन्दिर तीर्थ ट्रस्ट, भरतपुर एवं श्री राजधन जयन्त सेन अराधना भवन, Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ : श्रमण, वर्ष ५६, अंक १-६ / जनवरी - जून २००५ पो० मदनगढ़, जिला - अजमेर (राजस्थान) आकार - डबल डिमाई, पृष्ठ- ४७२, मूल्य- पठन-पठान श्री महाप्रभाश्री जी म०सा० उन महान् विभूतियों में से एक थीं जिनका व्यक्तित्व एवं कृतित्व सहज ही अपनी ओर आकर्षित कर लेता है। म०सा० के व्यक्तित्व एवं कृतित्व से सम्बन्धित ज्योति स्वरूप यह स्मृति ग्रन्थ कुल पाँच खण्डों में विभाजित है। प्रथम खण्ड 'श्रद्धार्चना' के नाम से है। इस खण्ड में श्रद्धालुओं द्वारा पूज्याश्री जी म०सा० के प्रति भावभीनी श्रद्धांजलियाँ दी गई हैं जो गद्य एवं पद्य दोनों में हैं। द्वितीय खण्ड का शीर्षक अभिनन्दनीय व्यक्तित्व है। इस खण्ड में म०सा० के व्यक्तित्व की आभा को प्रकट करने वाले प्रेरक प्रसंग उद्धृत हैं। तृतीय खण्ड का शीर्षक'व्यक्तित्व के प्रतिबिम्ब हैं एवं चतुर्थ खण्ड का शीर्षक विज्ञता' है। चतुर्थ खण्ड के अन्तर्गत म०सा० के संयमी जीवन चरित्र, उनके धार्मिक क्रिया-कलापों और स्वाध्याय से सम्बन्धित विषयों का वर्णन है। पंचम खण्ड का शीर्षक 'विविधा' है। इसमें पौरवाल जाति की उत्पति, श्री मोहनखेड़ा तीर्थ का संक्षिप्त इतिहास, पूज्याश्री को समर्पित अभिनन्दन-पत्र एवं चातुर्मासों की सूची आदि दी गई है। इस प्रकार प्रस्तुत स्मृति ग्रन्थ म०सा० के जीवन दर्शन पर केन्द्रित है। म०सा० के बारे में सम्पूर्ण जानकारी के लिए यह स्मृति ग्रन्थ उपयोगी है। ज्योतिमा (शोध - छात्रा ) ६. आत्मानुसन्धान, प्रवक्ता - श्री मणिभद्र मुनि 'सरल', प्रका० कोमल प्रकाशन, C/o विनोद शर्मा, प्रेमनगर दिल्ली - ८, आकार - डिमाई, पृष्ठ- २००, मूल्य- ६०/ 'आत्मानुसन्धान' मुनि श्री मणिभद्र जी म०सा० के प्रवचनों का संकलन है। धनबाद में चातुर्मास के समय युवासन्त मुनि मणिभद्र जी द्वारा समय-समय पर दिए गए प्रवचन इस पुस्तक मे संकलित हैं। यूँ तो यह पुस्तक देखने में छोटी प्रतीत होती है परन्तु इसका एक-एक कथानक अपने आप में व्यापक रूप समेटे हुए है। वस्तुतः यह गागर में सागर है। प्रायः प्रवचन दार्शनिक एवं कठिन शब्दों से युक्त होते हैं जिसे आमजन के लिए आत्मसात करना दुरूह होता है । मुनिश्री ने जीवन के सत्य को इन प्रवचनों के माध्यम से दिखाने का प्रयास किया है। प्रवचन अत्यन्त ही सरल भाषा में है। भाषा शैली विशिष्ट है जिसमें वर्णनात्मक, विश्लेषणात्मक तथा संवाद शैली का प्रभावी ढंग से प्रयोग हुआ है। प्रवचनों के प्रेरणादायी प्रसंग, उनका सरल एवं सुबोध भाषा में विश्लेषण हमें जीवन-दर्शन की मौलिकता का दर्शन कराता है। गुरु के आत्मज्ञान की लौ जब हृदय को स्पर्श करती है तभी चेतना जागृत होती है। Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्य सत्कार : १७९ मुनि श्रीमणिभद्र जी के प्रवचन लोगों को सहज ही प्रभावित करेंगे और सुधीजन इसे आत्मसात कर लाभान्वित होंगे। - ज्योतिमा (शोध छात्रा) ७. जैन कर्म सिद्धान्त और मनोविज्ञान, लेखक - डॉ० रत्नलाल जैन, प्रकाशक- बो० जैन पब्लिशर्स प्रा० लि०, १९२१ / १० चूनामण्डी, पहाड़गंज नई दिल्ली, पुनर्मुद्रण- २००४, पृष्ठ- २८२, मूल्य- २२५/ भारतीय दर्शन जीवन का दर्शन है। जीवन की व्याख्या करना एक जटिल कार्य है। कर्मवाद इसी व्याख्या का एक सर्वाधिक सशक्त माध्यम है। प्रस्तुत पुस्तक लेखक के शोध-प्रबन्ध पर आधारित है। इसमें जैन कर्म - सिद्धान्त एवं मनोविज्ञान पर सूक्ष्मता प्रकाश डाला गया है। प्रस्तुत पुस्तक आठ अध्यायों में विभाजित है । प्रथम अध्याय में भारतीय दर्शन में कर्म सिद्धान्त पर प्रकाश डाला गया है। इसमें वैदिक, बौद्ध तथा जैन दर्शनों में विवेचित कर्म सिद्धान्त की विवेचना की गई है। द्वितीय अध्याय में जैन कर्म सिद्धान्त की विशेषताओं का सविस्तार वर्णन है। जीव और पुद्गल, कर्म वर्गणा, कर्म के भेद एवं उनके आधार की विवेचना की गई है। तृतीय अध्याय में कर्म-बंध के कारणों का वर्णन है। इसमें आस्रव, प्रकृति, स्थिति, अनुभाग, प्रदेश, पाप-पुण्य आदि पर सविस्तार प्रकाश डाला गया है। चतुर्थ अध्याय में कर्म की अवस्थाओं का वर्णन है। पंचम अध्याय में ज्ञानमीमांसा पर आधुनिक मनोविज्ञान के परिप्रेक्ष्य में प्रकाश डाला गया है। इसमें ज्ञान की महिमा, प्रत्यक्ष - परोक्ष ज्ञान, स्मृति, जाति स्मृति ज्ञान एवं जैन दर्शन में स्वप्न विज्ञान नामक शीर्षक विवेचित हैं। षष्ठ अध्याय में आधुनिक मनोविज्ञान के परिप्रेक्ष्य में भाव जगत् का वर्णन है। सप्तम अध्याय में शरीर - संरचना को आधुनिक शरीर विज्ञान के परिप्रेक्ष्य में व्याख्यायित किया गया है। अष्टम अध्याय में आप स्वयं अपने भाग्य - कर्म - रेखा को बदल सकते हैं, शीर्षक के अन्तर्गत लेखक ने अपना सबल विचार प्रस्तुत किया है। अन्त में उपसंहार एवं ग्रन्थ सूची है। इसप्रकार यह पुस्तक सुधी पाठकों, जैन धर्म दर्शन के प्रेमियों एवं शोध छात्रों के लिए पठनीय एवं संग्रहणीय है। - डॉ० राघवेन्द्र पाण्डेय - - , ८. सिरिकुम्मापुत्तचरिअं अनु० डॉ० जिनेन्द्र जैन, प्रका० जैन अध्ययन एवं सिद्धान्त शोध संस्थान, श्रीपिसनहारी मढ़िया, जबलपुर, म०प्र०, संस्करण प्रथम २००४, आकार- डिमाई, पृष्ठ- ८८, मूल्य- १००/ साहित्य को समाज का दर्पण कहा जाता है । कवि के अन्तर्मन से प्रस्फुटित विचारों की श्रृंखला को जब एक सूत्र में पिरोया जाता है तो कविता का जन्म होता है । अनन्तहंस कृत सिरिकुम्मापुत्तचरिअं प्राकृत साहित्य का एक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० : श्रमण, वर्ष ५६, अंक १-६/जनवरी-जून २००५ है। इसमें कुल १९९ श्लोक हैं। यह एक धार्मिक कथा काव्य है। इसकी प्रमुख विशेषता है- सरलता। सामान्य पाठक सहजता से इसवे. कथ्य को आत्मसात कर सकते हैं। प्रस्तुत पुस्तक में प्रस्तावना के अन्तर्गत इस कृति का कर्ता, समय और स्थान, पुस्तक का सारांश, मूलाधार, प्राकृत कथा-साहित्य की संक्षिप्त परम्परा, धर्मकथा, भाषा आदि पर प्रकाश डाला गया है। परिशिष्ट के अन्तर्गत गाथानुक्रमणिका, ग्रन्थ में उद्धत पात्रों से सम्बद्ध कथाएँ, अतिरिक्त गाथाएँ एवं जीव द्वारा क्षय की जाने वाली प्रकृतियों की विवेचना की गई है। आशा है साहित्य प्रेमी पाठक एक बार इसे अवश्य पढ़ेंगे। - डॉ० राघवेन्द्र पाण्डेय ९. क्या विद्युत (इलेक्ट्रीसिटी) सचित्त तेउकाय है? ३. लेखक: प्रो० मुनि महेन्द्र कुमार, प्रका० जैन विश्वभारती, लाडनूं, राजस्थान, प्रथम संस्करण- मार्च २००४, आकार डिमाई, पृष्ठ- २९८, मूल्य- ८०/ प्रो० मुनि महेन्द्र कुमार रचित यह पुस्तक अपने आप में एक अनूठी रचना है। प्राचीन समय से ही जैन परम्परा में अग्नि को सजीव पदार्थ माना गया है जिसका प्रयोग साधु-साध्वी के लिए वर्जित है। अब प्रश्न उठता है कि क्या विद्युत भी सजीव है? जैन आगमों में तो अग्नि की विस्तृत चर्चा है और उसे सजीव मानकर साधुसाध्वी के लिए प्रयोग वर्जित किया गया है। परन्तु इलेक्ट्रीसिटी तो आधुनिक विज्ञान की उपज है। प्रश्न उठता है कि इसे सजीव माना जाय या निर्जीव? प्रस्तुत पुस्तक में विद्वान लेखक ने इसी विषय पर विचार किया है। पुस्तक के विषय के प्रतिपादन को दो भागों में विभाजित किया गया है। प्रथम भाग में जैन दर्शन, आगम एवं अन्य साहित्य तथा विज्ञान में इलेक्ट्रीसिटी, लाईटिंग तथा अग्नि इस विषय का सैद्धान्तिक विवेचन है। इसके अन्तर्गत जैन दर्शन में पद्गल, जीव और पुद्गल का सम्बन्ध, विज्ञान में पुद्गल, मनुष्य शरीर में इलेक्ट्रिक उर्जा, विज्ञान की दृष्टि में विद्युत, अग्नि का स्वरूप, आकाशीय विद्युत, इलेक्ट्रीसिटी और अग्नि, बल्ब निर्माण की प्रक्रिया, और ट्यूबलाईट की प्रक्रिया का विस्तार से वर्णन है। द्वितीय भाग में प्रश्नोत्तर के माध्यम से जिज्ञासाओं का वैज्ञानिक तरीके से समाधान है। परिशिष्ट-१ में सजीव-निर्जीव मीमांसा को प्रस्तुत किया गया है। परिशिष्ट-२ में एटॉमिक टेबल, एवं परिशिष्ट-३ में संदर्भ ग्रन्थ-सूची है। निष्कर्षत: कहा जा सकता है कि प्रो० मुनिश्री महेन्द्र कुमार लिखित यह पुस्तक रोचक एवं अनेक प्रश्नों का विस्तृत समाधान करने वाली है। धर्म-दर्शन एवं विज्ञान में रुचि रखने वाले सुधी पाठकों के लिए यह पुस्तक अवश्य ही पठनीय है। - डॉ.राघवेन्द्र पाण्डेय Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्य सत्कार : १८१ Jaina Darsana (with special reference to Three Jewels of Jainism), Author: Sadhvi Subhasha, Publisher: Bharatiya Vidya Prakashan, Delhi, Varanasi, 2004. pp. xxxviii + 270, Price Rs. 500.00, The book entitled 'Jaina Darśana', authored by Sadhvi Subhasha is a first book published under the Maha Sadhvi Kusum Jain Series. There are number of books written having base the Gem-trio by many of the authors but this scholarly work of Sadhviji has myriad characteristics in order to be an excellent work on the very topic, published so for. The book begins with the humble submission and dedication to the teacher of the author. It has been classified in six chapters. The first chapter accounts the very enquiry in the subject named as 'Bhāratīya Darśana Men Iñāna Darśana Tathā Ratnatraya' In this chapter, the author, after giving a general account of the place of Jainism in Indian Philosophy, has discussed very methodically the concept of Ratna-traya---Right Perception, Right Knowledge and Right Conduct, which constitute the path of liberation, in particular context of six systems of Indian Philosophy. In the second chapter of 'Jaina Darśana Men Samyag-darśana,' she has elaborately discussed the definition, importance, ability, origin and the obstacles coming in the way of Right Perception along with its kinds, qualities, transgressions and types of Right perception. The third chapter deals with the Right-knowledge. In this chapter, along with the definition and etymological meanings of the word 'Knowledge' and 'Right Knowledge', the author has discussed in detail the five types of knowledge, concept of Standpoints, validity of knowledge and Positings along with its divisions and subdivisions. The forth chapter deals with Right Conduct with special reference to Jaina lay followers in which the author, after defining Right Conduct, has minutely discussed the kinds of Right Conduct, the conduct of Monks and Lay followers along with Minor-vows of violence, truth, non-stealing, non-chastity, non-possession and their Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ : श्रमण, वर्ष ५६, अंक १-६/जनवरी-जून २००५ transgressions. She has also discussed the Qualifying vows, Educative vows, Twelve Reflections, Six Essentials prescribed for the Lay followers, Ten Commandments and Sarlekhanā. In the fifth chapter of Samyag-cāritra', she has discussed in detail the Right-conduct with special reference to Jaina Monks in which she has very profoundly defined the word 'Sramaņa'the Monk, their code of conduct, types of Monks, Ācāryas, Upādhyāyas, and their obligatory qualities. In the same chapter all the essentials of a monk like--five great vows, five restricted vows, three restraints, ten equanimous conduct, twelve types of austerities, ten types of atonements, seven reverences, selfless-services to be rendered to the senior monks, study, teaching and questioning, reflections, righteous tale, two wholesome meditation-religious meditation and pure mediation along with their kinds and fifty-two restricted-conducts are widely discussed. In the sixth chapter 'Conclusion' the author has made an enquiry of getting emancipation in view of Practical and Transcendental standpoints and finally she concludes that both the standpoints are nothing but the different sides of the same coin, hence lead to the emancipation, the final goal. The gem-trio has been considered a subject of much importance in the Jaina Philosophy, as it leads to the emancipation. This concept has been very intensely discussed by all the Jaina philosophers. Here, the author's approach is to make the mass acquainted with the so important subject. Her style and way of presentation shows that she has a profound knowledge of the subject as well as Jainism as a whole. It does not give reader any strain in order to grasp the concept. It is because she is very clear in her concept as well as approach. The scholarly 'Introduction' by Pujya Manohar Muni adds value to the book. - Dr. S.P. Pandey Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्य सत्कार : १८३ साभार प्राप्ति १. श्री त्रिषष्टिशलाका पुरुषचरित महाकाव्यमः, सम्पा० पू० श्री विजययोगतिलक सूरि, प्रकाशक, संयम-सुवास, C/o सेठ जमनालाल जीवतलाल, जूनागंज बाजार, भाभर जि० बनासकांठा-३८५३२० (गुज०) प्रथम आवृत्ति: ५०० प्रति, वि० सं० २०५९. २. संस्कृत साहित्य नो इतिहासः भाग-१, २, ३, सम्पा० आ० श्री विजय मुनिचन्द्र सूरीश्वर जी म०सा०, प्रकाशक- आ० श्री ॐ कारसूरि ज्ञान मन्दिर, सूरत, २००४, मूल्य (२५०४३) ७५० रु० मात्र। ३. सिद्धान्त लक्षणः भाग-१, २, पं० चन्द्रशेखरविजय जी (चन्द्रशेखरी टीका एवं गुजराती विवेचन सहित, प्रथम संस्करण- २००४, मूल्य- ७५ रु०, प्रकाशक - कमल प्रकाशन ट्रस्ट, रिलीफ रोड, अहमदाबाद। 4. Jaina Kashthapat Chitra by Vasudeo Smart, Edited by Jagdeep Smart, First Edition 2002, Price Rs. 1000/-, Publisher - Acharya Shree Omkarsuri Aradhana Bhavan, Surat. ५. महोत्सव करिये मानव जन्म नो: लेखिका- साध्वी जितपूर्णा, प्रथम आवृत्ति, दिसम्बर २००४, मूल्य ५० रु०, प्रकाशक- श्री वर्धमान स्थानकवासी जैन श्रावक संघ, अहमदाबाद। ६. मुक्तिनो मारग मीठो: लेखक, पू० आचार्यदेव, श्रीमद् विजय पूर्णचन्द्र सूरीश्वर जी म०, प्रथम आवृत्ति २००४, मूल्य ४० रु०, प्रकाशक- पंचप्रस्थान पुण्य स्मृति प्रकाशन, गोपीपुरा, सूरत। ७. काव्यानुशासनम्: संशोधन- पंडित शिवदत्त शर्मा, काशीनाथ शर्मा एवं वासुदेव शर्मा, नवीन संस्करण, वि०सं० २०५८, मूल्य ८०.०० रु०, प्रकाशकप्रवचन प्रकाशन, पूना। ८. सुविधि दर्शन: भाई श्री शशिभाई, वीतराग सत् साहित्य प्रसारक ट्रस्ट, भावनगर, प्रथम संस्करण, नवम्बर, २००४, मूल्य ४० रु०। ९. अमर उपाध्याय जी, पू०आ० देव विजयपूर्णचन्द्र सूरीश्वर जी म० प्रकाशक- पंच प्रस्थान पुण्य स्मृति प्रकाशन, प्रथम आवृत्ति संवत् २०६१, मूल्य ४० रु०॥ १०. प्रवचन बिन्दुः प्रवचनकार मुनिश्री हितरत्न विजय जी, प्रथम आवृत्तिवि०सं० २०५९, मूल्य ६० रु०, प्रकाशक- श्री कारेली बाग, श्वेता० मूर्ति पू० जैन संघ, बड़ोदरा। Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ : श्रमण, वर्ष ५६, अंक १-६/जनवरी-जून २००५ ११. जिनराज गुंजनः प० पू० आचार्यदेव राजयश सूरीश्वर जी, पृ०सं० २५४, प्रथम आवृत्ति, २००४, मूल्य- जिनभक्ति, प्रकाशक- श्रीलब्धि विक्रम सूरीश्वर संस्कृति केन्द्र, शांतिनगर सोसायटी, अहमदाबाद-१३। १२. पूछ्यू तमे पीरस्यु अमेः(गुजराती) प०पू० आचार्यदेव राजयश सूरीश्वर जी, पृ० सं० ६०, प्रथम आवृत्ति, २००४, मूल्य-१० रुपये, प्रकाशक- श्रीलब्धि विक्रम सूरीश्वर संस्कृति केन्द्र, शांतिनगर सोसायटी, अहमदाबाद-१३। १३. पूछा जिसने पाया उसनेः प० पू० आचार्यदेव राजयश सूरीश्वर जी, पृ०सं० ६४, प्रथम आवृत्ति, २००४, प्रकाशक-जैनं जयति शासनम् चेरीटेबल ट्रस्ट ,इतवारी नागपुर। १४. पर्व पर्दूषण आव्या रेः (गुजराती), लब्धि दीक्षा शाताब्दी ग्रन्थ सिरीज १५, सम्पा० प० पू० आचार्यदेव राजयश सूरीश्वर जी, पृ० सं० ३१, प्रथम आवृत्ति, २००४, प्रकाशक- श्रीलब्धि विक्रम सूरीश्वर संस्कृति केन्द्र, शांतिनगर सोसायटी, अहमदाबाद-१३ । १५. लब्धि बे प्रतिक्रमण सूत्रः (गुजराती), लब्धि दीक्षा शाताब्दी ग्रन्थ सिरीज ११, शुभाशीषदाता प० पू० आचार्यदेव राजयश सूरीश्वर जी, पृ० सं० ९२, प्रथम आवृत्ति, २००४, प्रकाशक- श्रीलब्धि विक्रम सूरीश्वर संस्कृति केन्द्र, शांतिनगर सोसायटी, अहमदाबाद-१३। __ 16. Know to Enlighten: by Acharya Shri Rajyash Surishwarji, Labdhi Diksha Shatabdi Series No. 27, pp. - 28, First Edition: 2004, Price Rest. Rest. 7.25, Publisher: Shri Rajendrabhai Dalal, Secundrabad, Dineshbhai S. Shah,Coimbatore. ____17. The Spiritual Guide: by Acharya Shri Vikram Surishwariji and Acharya Shri Rajyash Surishwarji, Labdhi Diksha Shatabdi Series No.29, pp. 79, First Edition: 2004, Price Rs. 7.25, Publisher: Shri Rajendrabhai Dalal, Secundrabad, Dineshbhai S. Shah,Coimbatore. - इसके अतिरिक्त प० पू० आचार्यश्री राजयश सूरीश्वर जी म.सा० द्वारा रचित कुछ और छोटी साइज की पाकेट बुक्स जो विभिन्न विषयों पर लिखी गयी हैं, प्राप्त हुई हैं, उनके हम अत्यन्त आभारी हैं। पुस्तकें इस प्रकार है- An Outline of Jainism, Labdhi Biography, जादुई उपचार, अतिचार, राजभक्ति गुंजन, लब्धि स्तवन सज्झाय संग्रह,चिन्तनधारा, स्वातिजल, मणता रहो भणता रहो, पूछता रहो पामता रहो, जाप जपता रहो पाप खपता रहो, नमता रहो गमता रहो, सदा हंसता रहो, गुरुकृपा, क्षमा संदेश, शून्य रहो पूर्ण बनो आदि। Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद्धनेश्वरसूरिविरचितं सुरसुंदरीचरिअं (तृतीय परिच्छेद) गणिवर्य विशुतयशाविजयकृत संस्कृत छाया, गुजराती और हिन्दी अनुवाद सहित __परामर्शदात्री प०पू० साध्वीवर्या रत्नचूलाजी म साo पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी २००५ Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Surasundarichariam: an Introduction Jaina narrative litterateur is enormously rich. Particularly the narrative literature of Shvetambaras is a veritable storehouse of folktales, fairy-tales, beast-fables, parables, illustrative examples, apologues, allegories, legends, novels, funny stories and anecdotes. Apart from a large number of tales and parables and legends found in the Jaina canons itself, the Jaina writers have created new stories and legends of their own also. The versatile Jaina monk authors were very practical minded. They exploited the Indian people's inborn love for stories for the propagation of their Dharma. Surasundarichariam (last quarter of the 17h century AD) is a voluminous romantic epic composed in Prakrit by Shrimad Dhaneshwarsuri. Richer in contents it is an important work of Jaina narrative literature. It is considered under ornate poems, one of the ten divisions of Jaina narrative literature. The whole subject matter of Surasundarichariam is divided into sixteen chapters (parichchedas). Each chapter contains a story interwoven with some another stories which keep retained the interest of the readers. The most authentic translation of the book in Gujarati and Hindi alongwith Sanskrit chhaya by Ganivarya Param Pujya Shri Vishrutyash Vijayji Maharaj, and ideal desciple of Param Pujya Acharya Shri Rajyash Surishwarji Maharaj has added value to the book. We are very greatful to Acharyashri for entrusting this work to us for publication. Sraman is presenting this beautiful story for its readers in parts. We have already published Chapter First and Second of Surasundarichariam in our successive to issues. Here follows the Third Chapter. - The Editor Brief accounts of last two chapters At the very outset of the story of the first chapter, the author after paying obeisance to Tirthankara Rishabhadeva, Mahavira, Panch-paramesthin and his revered teacher, narrates the description of the Universe, Jambudvipa, Bharat Kshetra and Kuru. Kuru is the Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ country where the businessmen come from all over the world, as it was an ideal place for business free from taxation having good gentry of people. (gatha 1-47) Hastinapur was the capital city of Kuru. There lived a King Amaraketu who was very kind to his public. Once, when he was sitting in assembly, Chitrasena of Kushagrapur who was a famous painter, asked King for granting permission to show him the best of his paintings. He showed the King painting of a beautiful nymph. Looking the picture the King was stunned by the beauty ofthe nymph and got fainted. The people sitting in assembly thought that the painter has played any foultrick causing pain to the King and became very angry with the Chitrasena. They wanted to punish the Chitrasena. Then Chitrasena was told to give his identity.(48-105). He accepted that he has been sent by the King Dhanavahan and queen Vasantasena of Kushagrapur. The King has got one son named Naravahan. When Dhanavahan realized the futility of the world full of sorrow and sufferings, he quit the thrown and got initiated as a monk in Jaina order. The new King Naravahan had a Jaina friend Shridatta and her sister Kamalavati had friendship with Shrikanata. Once sitting in his assembly, King Naravahan invited the suggestions of their courtiers with regard to search of an appropriate bridegroom for his sister Kamalavati. In the meanwhile, a prophet Sumati came and told to the King that the man who will become fainted after seeing the painting of Kamalavati will be the right bridegroom for her 106-145). The King Naravahan entrusted the job of sketching the picture of Kamalavati to Chitrasena. After the sketch was completed, he was ordered to go throughout the state and show the picture to every king for the said purpose. Sir, that is why I came to you and you got fainted after seeing the picture, said Chitrasena. The King then praised the painter and told that Kamalavati must be much beautiful than her painting. After the King Amaraketu agreed to marry Kamalavati, the Chitrasena went to Naravahan (146-165). Getting this auspicious news the Naravahan became very glad and sent Kamalavati Hastinapur to marry Amarketu. The Kamalavati finally got married with Amaraketu. (147-172). Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Here the author narrates one other story of Dhanadharam of Hastinapur who was a businessman with a religious binding particularly with Jaina religion. He had an equally pious wife Manorama. They had got a son named Dhanadeva. When the Dhanadeva become young he perceived a sad old man sitting near a pond. Dhanadeva asked the old man as to why he was so sad. The old man narrated his story that in a dreadful cave named Singh of a Palli, there lived a Pallipati, the owner of the Palli with her wife Lakshmi and son Jaysena. I, Deva Sharma used to take care of Jayasena. Once, while I was out with Jaysena, saw two ascetics. The ascetics gave me betel to eat. After eating the betel, I became enchanted. Being unaware of anything around me I just started to follow the ascetics. I heard those ascetics talking of Jaysena's sacrifice in order to get super natural power (Yakshini). When the ascetics were sleeping I ran away with Jayasena and saved him. But very soon we were traced by those ascetics, Seven days have been elapsed without taking food and water. I request you to kindly save us. On request of Deva Sharma, Dhanadeva went to that banyan tree where the Jayasena was sitting with the one of the ascetics. Dhanadeva got Jaysena freed in lieu of one lac gold coin. Jayasena reached to his father safely. After that incident Dhanadeva became famous as a big donor. Dhanadeva, after taking permission of his father and mother moved to other country for business purposes. In the way he had to fight with The Bhillas who after defeating Dhanadeva presented him to Pallipati. When Deva Sharma recognized Dhanadeva he admonished to Pallipati that he is the person who saved your son from wicked ascetics. The Pallipati repents on his act and begs pardon. He invites Dhanadeva to his Palli as a guest. Dhanadeva gets warm hospitality at Palli. There he asks to Pallipati as to why he lives there? The Pallipati replies. There was a city Siddharthapur in the Anga country. There lived a King Sugreeva with his queen Kamala Devi I, Supratishtha, the son of King Sugreeva, being served by five foster-mothers, become five years old. Once, when the king was engaged describing the rainy season with the queen, Vasudatta informs him that a messenger from Shri Kirtivarma has come from (iii) Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Champapuri. The King called messenger and went to the court. Then a maidservant informed him that the queen has got burnt by lightening. The queen died of lightening. The king became very sad. I was sent to the teacher (upadhyaya) for study. After some time, there came a messenger from Kirtidharma, the King of Champapuri. The daughter of Kirtidharma, Kanakavati was very beautiful. Kirtidharma married her daughter to King Sugreeva. It was the second marriage of Sugreeva. Kanakavati gave birth to a son named Surabha. She wanted to give the royal throne to her own son. She wanted that the elder son Supratishtha should be ignored. She advised the King to sentence Supratishtha to prison. When I was told about the plot of my step-mother by my maidservant Subhagika, I develop hatred to my father as he had lost his discretion. I felt better to quit the state. I did so and now I am here in Palli. Then Dhandeva got permission from Supratishtha to go with his convoy. Dhanadeva was presented a handsome amount of fabulous jewels at the time of farewell. Dhanadeva asked Supratishtha about the source of so precious jewels. Then Supratishtha told that once in the morning when he was on hunting in the forest he heard cry of a women. I went in the same direction and surprised to see that near a tree an old man was crying surrounded by so many poisonous snakes. When I went closer to the man he suggested me to get out a jewel from his waist, which could disperse the poison of the snakes. He told me to get the jewel wetted by water and throw the water on his body. After throwing the water all the snakes got disappeared. Then he asked me that who am I? Where from I have come? What is my name and so on so forth? (172-250). Here the Second Chapter ends. The third chapter of Surasundarichariam contains the following story: After introducing him with that old man Dhanadeva asked that old man to tell some thing about himself. He took a long breath and said that in this world a man with attachment, aversion and lacking foresightedness has sure to suffer. It is only due to the past karmas, which results in pain and pleasure. Talking about himself he said In this Bharata Kshetra, dividing it in two parts from east to west there (iv) Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ is Vaitadhya mountain. In southern part of Vaitadhya there is a city named Ratnasanchaya. There lived a King Pavanagati and queen Bakulamati with so many Vidyadharas. I, Chitravega was born as a son in that family. (1-25). After few years, I was sent to my teacher for study with a view to have mastery over all the branches of learnings. I was also imparted a special Akashgamini Vidya by my father, which he had received by tradition. With the passage of time, I became young. Once, I went to a garden with my friends where I saw a queue of aircrafts flying in sky. On a question who are they, I was told by my friend Bandhudatta that heavenly gods are going to pray Jineshwara God at Siddhayatana on Vaitadhya. (26-35). Curiously I also expressed my desire to go there and observe the worshiping of gods. In the meanwhile, Bala, the son of my foster mother (dhayamata) also confirmed that really they are Vidyadharas of Ratnasanchaya. I flew with my father in the sky in order to reach Siddhakuta. I enjoyed the way people were worshiping god by singing and dancing. There, I met my maternal uncles’son Bhanuvega and went to Kunjaravarta city where he used to live. There during night I had an unanticipated dream in which I lost a garland and by my friends help I got it back. In the morning I told about the dream to Bhanuvega but he was not able to profess the result of the dream. (36-103). Sitting in an oriel window studded with jewels, I saw welldressed people going somewhere. Then I asked Bhanuvega regarding those people going and he replied that they are going to Makaranda Udyana for worshiping Kamadeva (Cupid--the God of love) on the eve of Madana Trayodashi. As suggested by Bhanuvega we also went there. Suddenly, I saw a young and charming lady decorated with so many ornaments. Seeing the lady I was slightly confused whether she is a daughter of serpent god or the dryad has come here. (104-129). Bhanuvega told that she is Kanakamala, the only daughter of Amitagati and Chitramala. named. I was very much attracted to the lady. Every one went back to his home but I was not feeling well. (y) Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Bhanuvega was laughing on me as he came to know the actual matter. (130-156). In the meanwhile, our maidservant Chutalata informed us that Somalata, the foster mother of Kanakamala is waiting for you at the door. She came and clarified the whole matter that Kanakamala was also feeling not well after seeing the Chitravega. She is remembering the same scene again and again which she enjoyed. Her face is looking like eclipsed moon. She is likely to be fainted. So we are now in great trouble and it is utmost importance to console her at any cost (156-193). After her death everything would be futile. Then I asked who is Kanakamala and why is she in trouble. Better you ask to Bhanuvega because I am a guest in this city. Then Somalata told me that you are the reason behind the pathetic condition of Kanakamala. You are behaving as if it is not known to you. Then I asked Somalata what should I do? She replied that you can send a letter or your photograph to console her. Then I wrote a letter to Chutalata saying that a black bee is always fond of lotus putting aside all other flowers. Then I handed over the letter to Somalata putting beetle (tambula) in between other letters and both went to Kanakamala. (193-207). They found Kanakamala unconscious. Friends of Kanakamala told her that a messenger has come from Citravega. By hearing this, she became conscious. Kanakamala asked Cutalata regarding the letter and showed her curiosity to meet me. Then she again became unconscious. I was suggested to meet her in the garden in morning otherwise she would die. Then I realized that I have fallen in love with Kanakamala. I wanted to meet and marry her. But I was not sure as to when my dreams would be fulfilled. Then Cutalata told me, do not worry. You can meet her in the morning. Anyhow, I passed that long night and the sun rose in the east. Oh! Supratistha I was very happy that today I would meet my darling (207-250). Here the third chapter ends. (vi) Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद्धनेश्वरमुनीश्वरविरचितं सुरसुंदरीचरीअं तइओ परिच्छेओ आपत्ति पृच्छा गाहा : अह सोवि मए पुट्ठो केण तुमं एरिसाए धाराए । खित्तो सि आवयाए केण व कज्जेण भद्द ! मुहा ? ।।१।। संस्कृत छाया : अथ सोऽपि मया पृष्टः केन त्वं ईदृश्यां धारायाम् । क्षिप्तोऽसि आपदि केन वा कार्येण भद्र ! मुधा? ||१|| गुजराती अर्थ :- हवे ते पण मारा वड़े पूछायो - हे भद्र ! तुं कोना बड़े आवाप्रकारनी पृथ्वी पर क्या कारण वड़े आपत्तिमां फेंकायेलो छे । हिन्दी अनुवाद :- अब वह भी मेरे से पूछा गया - हे भद्र ! तूं ऐसी भूमि पर किसके द्वारा तथा किस कारण से आपत्ति में फेंका गया है ? गाहा : एवं च पुच्छिओ सो सदुक्खमइदीहरं च नीससिउं । चित्तभंतर-गुरु-दुक्ख-सूयगं मोत्तुं अंसु-जलं ।।२।। छाया : एवं च पृष्टः सः स्वदुक्खमतिदीर्घ च निःश्वस्य । चित्ताभ्यंतर-गुरु-दुक्ख-सूचकं मुक्त्वा अश्रु-जलम् ||२|| अर्थ :- आ प्रमाणे पूछायेला तेणे अतिदीर्घ निःसासो मूकीने, चित्तनी अंदर रहेला मोटा दुःखना सूचक अश्रु जलने मूकिने पोताना दुःखने - हिन्दी अनुवाद :- इस तरह पूछा गया हुआ उसने अतिदीर्घ नि:श्वास छोड़कर, चित्त के अंदर रहे हुए बड़े दु:ख के सूचक अश्रुजल को छोड़कर, अच्छी तरह से - गाहा : अह सो भणइ सुभणिओ संसारे राग-मोहिय-मणाणं । सुलहाओ आवयाओ जीवाण अदीह-दंसीणं ।।३।। युग्मम् छाया: अथ सो भणति सुभणितः संसारे राग-मोहित-मनसाम् | सलब्धा आपदो जीवाना-मदीर्घदर्शिनाम् ||३|| 56 Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ :- सारी रीते कहेवायेलो ते कहे छे। “रागधी मोहित मनवाळा, अदीर्घदर्शि जीवोने आ संसार मां आपत्तिओ सुलभ ज छे।” युग्मम् हिन्दी अनुवाद :- अपने दुःख को कहता है, "राग से मोहित मनवाले अदीर्घदर्शी जीवों को इस संसार में आपत्तियाँ सुलभ ही हैं। गाहा : संसार सागरम्मी परिब्भमंताण भद्द ! जीवाणं । न हु चोज्जमावयाहिं अनिजंतिय- करण वग्गाणं ।।४।। छाया : संसार सागरे परिभ्रमन्तानां भद्र ! जीवानाम | न खलु चोद्यमापद्भिः अनियंत्रितकरणवर्गाणाम् ||४|| अर्थ :- अनियन्त्रित इन्द्रिय ना समूहवाळा, संसार सागरमा भमता जीवोने हे भद्र ! आपत्तिओ वड़े शुं पूछवुं ? हिन्दी अनुवाद :हे भद्र ! अनियन्त्रित इन्द्रियोंवाले संसार सागर में भटकते जीवों के लिए आपत्तिओं का पूछना ही क्या ? गाहा : पुव्व-कय- कम्म- दोसा दुक्खं सव्वंपि जायइ जियाण । अवराहेसु गुणेसु य निमित्तमेत्तं परो होइ ।।५।। छाया : पूर्वकृत कर्मदोषात् दुःखं सर्वमपि जायते जीवानाम् । अपराधेषु गुणेसु च निमित्तमात्रं परो भवति ||५|| अर्थ :- पूर्वे करेला कर्मना दोषथी बधा जीवोने दुःख नी प्राप्ति थाय छे। अपराधमा अने गुणोमां बीजा निमित्तमात्र छे । हिन्दी अनुवाद :- पूर्वकृत कर्म के दोषों से ही सभी जीवों को दुःख का अनुभव होता है, अपराधों में और गुणों में दूसरे तो निमित्त मात्र ही हैं। गाहा : परमत्थओ न केणइ सुहं व दुक्खं व कीरइ नरस्स । पुव्व- कयमेव कम्मं सुह- दुह-जणणम्मि तल्लिच्छं ।। ६ ।। छाया : परमार्थतः न केनाऽपि सुखं वा दुःखं वा क्रियते नरस्य । पूर्वकृतमेव कर्म सुख-दुःख-जनने तत्परम् ।।६।। अर्थ :- परमार्थं थी मनुष्यना सुख-दुःख कोईना वड़े पण कराता नथी । पण पूर्वे करेला ज कर्म सुख-दुःख उत्पन्न करवामां समर्थ छे । 57 Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी अनुवाद :- परमार्थ से औरों द्वारा मनुष्य को सुख-दु:ख नहीं दिया जाता किन्तु पूर्वकृत कर्म से ही सुख-दुख प्राप्त होते हैं। गाहा : तत्तो य मए भणियं एवं एयंति नत्थि संदेहो । तहवि हु विसेस-कारण-वियाणणे अम्ह इच्छत्ति ।।७।। छाया: ततश्च मया भणितं एवमेवेति नास्ति सन्देहः | तथाऽपि खलु विशेष-कारण-विज्ञाने मम इच्छेति ।।७।। अर्थ :- त्यारपछी मारावड़े कहेवायु आ प्रमाणे ज छे एमां कोई सन्देह नथी। तो पण निश्चे विशेष कारण जाणवामांटे मारी इच्छा छ। हिन्दी अनुवाद :- तत्पश्चात् मेरे द्वारा कहा गया - "ऐसा ही है इसमें कुछ सन्देह नहीं है, फिर भी विशेष कारण जानने की मेरी जिज्ञासा है।" गाहा :- आपत्ति कारण कथन अह भणइ भो सुंदर ! जइ एवं सुटु तुम्ह निब्बंधो । ता एग-मणो होउं साहिज्जंतं निसामेहि ।।८।। छाया: अथ भणति भो सुन्दर ! यदि एवं सुष्ठ तव निर्बन्धः । तत एकमनो भूत्वा कथ्यमानं निशाम्य ।।८।। अर्थ :- हवे ते कहे छे--हे सुंदर ! जो आ प्रमाणे तमारो सारो एवो आग्रह छे तो एकाग्र मन थई ने कहेता एवा मने सांभळ।। हिन्दी अनुवाद :- अत: वह कहता है - "यदि आपका ऐसा ही आग्रह है तो आप एकाग्र-मन से सुनिए, मैं कहता हूँ। गाहा :- वैताढ्य पर्वत, वर्णन अत्थेथ भरह-खेत्ते विक्खाओ खेयरावली-गम्मो । तुंगोव्व रुप्प-पुंजो दस-दिसि-पसरंत-कंतिल्लो ।।९।। झर-झर-झरंत-निज्झर- हुंकार-रवेहिं बहिरिय दियंतो । मयरंद-पाण-लंपड-अलि-वलय-विरायमाण-वणो ।।१०।। वहमाण-वाहिणीणं दिसि-दिसि सुव्वंत-खलहरा-सद्दो । ठाणे ठाणे विज्जाहरोरु-पुर-पंति-सोहिल्लो ।।११।। विज्जा-पसाहणुज्जय-विज्जाहर-संनिरुद्ध-एगंतो । वर-सिद्धाययणेहिं परिमंडिय-चूलिया-सिहरो ।।१२।। 58 Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धाययण-परिट्ठिय-जिण-बिंबच्चण-निमित्तमितीहिं । विविह-विबुहावलीहिं विरायमाणंबरा-5ऽ भोगो ।।१३।। कयलीहर-ट्ठिएहिं पइमज्झण्हं वणे वणे बहुसो । कंता-बिइज्ज-विज्जाहरेहिं किज्जंत-संगीओ ॥१४।। अइमहुर भारईए ठाणे ठाणम्मि चारण-मुणीहिं । पारद्ध-देसणेहिं पडिबोहिज्जंत-जंतु-गणो ।।१५।। पुव्वावर-सागर-पाविएण होऊण मज्झ-देसम्मि । पिसुणेणव जेण कओ दुब्भावो भरह-वासस्स ।।१६।। सुविसाल-दक्खिणुत्तर-विभत्त-सेढी-दुगेण सोहिल्लो । आसिय-सव्विड्डीओ वेयड्ढो नाम सेलोत्ति ।।१७।। छाया : अस्ति अत्र भरतझेत्रे विख्यातः खेचरावलीगम्यः | तुङ्ग इव रूप्य-पुंजः दश-दिशि-प्रशरन्त-कांतिमान् ।।९।। झर-झर-झरंत-निर्झर-हुंकार-रवैः बधिरत दिग्गंतम् । मकरंद-पान-लंपट-अलि-वलय-विराजमान-वनम् ||१०।। वहमान-वाहिनीनां दिशि-दिशि श्रूयमाण-खलखल शब्दः । स्थाने स्थाने विद्याधर-उरु-पुर-पंक्तिः शोभावान् ।।११।। विद्या-प्रसाधनोद्यत-विद्याधर-सन्निरुद्ध-एकांतः वरसिद्धायतनैः परिमण्डित-चूलिका-शिखरः ।।१२।। सिद्धायतन-प्रतिष्ठितो जिन-बिम्बार्चन-निमित्तमात्रैः । विविध-विबुधवलिभि विराजमानाम्बराभोगः ||१३|| कदलीगृहस्थितैः प्रतिमध्याहं वने वने बहुशः । कांता-द्वितीय-विद्याधरैः क्रियमाण-सङ्गीतः ।।१४।। अतिमधुर-भारत्या स्थाने-स्थाने चारणमुनिभिः । प्रारब्ध-देशनाभिः प्रतिबुध्यमान-जन्तुगण ||१५|| पूर्वापर-सागर प्रापितेन भूत्वा मध्यदेशे । पिशुनेनेव येन कृतो द्विर्भावो भरत-वर्षस्य ।।१६।। सुविशाल-दक्षिणोत्तर-विभक्त-श्रेणि-द्विकेन शोभमानः | आश्रित-सर्वर्धिक-वैताढ्य नाम शैल इति ।।१७।। नवभिः कुलकम् अर्थ :- आ भरतक्षेत्रमा खेचरोनी श्रेणीमा मनोहर, दशे दिशामा फेलाती कान्तिवाळो, उँचा रूप्यना समूहवाळो, झर झर झरता झरणाना हुंकार वाळा अवाजो वड़े बहेरी थयेली दिशावाळो, पुष्पना रसने पीवामा-लंपट 59 Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भमराना समूहथी शोभता वनवाळो, वहेती नदीओनां पाणीने अवाज दशे दिशामां संभळाता खलखल शब्दवाळो, स्थाने स्थाने विद्याधरोनी विशाल नगरनी पंक्तिनी शोभावाळो, विद्याने साधवामां उद्यत एवा विद्याधो वड़े रोकायेल एकांत स्थळवाळो, श्रेष्ठसिद्धायतनोथी शोभताचूलिकाना शिखरवाळो, सिद्धायतन पर प्रतिष्ठित जिन-बिम्बोनी पूजाने निमित्त विविधप्रकारना देवोनी श्रेणीओ वड़े शोभता गगनना विस्तारवाळो, केळघरमा रहेला विद्याधटो वड़े दरेक वनमा घणीवार प्रतिमध्याह्न पत्नीनी साधे करता सङ्गीतवाळो, स्थाने-स्थाने चारणमुनिओ वड़े अतिमधुर वाणी वड़े प्रारंभ करली देशना वड़े बोध-पमाडाता प्राणीओना समूहवाळो, पूर्वथी पश्चिम सागरने प्राप्त थवा वड़े जाणे चाड़ी खातो होय तेम सागरना मध्यदेश थी थईने भरतवर्षना बे विभाग करतो, सुविशाल दक्षिण अने उत्तर थी विभाजित पामेल बे श्रेणि वड़े शोभतो, आश्रित सर्वऋद्धिवाळो वैताढ्य नामनो पर्वत छे। हिन्दी अनुवाद : - इस भरतक्षेत्र में खेचरों की श्रेणी में मनोहर, दशो दिशाओं में विस्तृत कान्तिवाला, उच्च रूप्य के समूहवाला, झर-झर बहते हुए झरनों की आवाज से बाधित बनी हई दिशावाला, पुष्परस का पान करने में लंपट भ्रमरों से सुशोभित वनवाला, बहती नदियों के पानी की आवाज दशों दिशाओं में व्याप्त, स्थान-स्थान पर विद्याधरों की विशाल नगरपंक्ति से सुशोभित, विद्या को सिद्ध करने के लिए सदा उद्यमवन्त विद्याधरों द्वारा अवरुद्ध एकांत स्थानवाला, श्रेष्ठ सिद्धायतनों से सुन्दर चूलिका के शिखरवाला, सिद्धायतन पर प्रतिष्ठित जिन-विम्बों के पजानिमित्त विविधप्रकार के देवों की श्रेणिओं से मनोहर गगन विस्तारवाला, कदलीगृह में विद्याधरों द्वारा प्रति वन में प्रति मध्याह्न, बहुतबार पत्नी के साथ क्रीड़ा करते हुए, प्रतिस्थान पर चारणमुनि द्वारा अतिमधुर वाणी से देशना द्वारा प्राणिओं को बोधिबीज की प्राप्ति करानेवाला, पूर्व से पश्चिम तक व्याप्त सागर के मध्यदेश से होकर भरतवर्ष का दो विभाग करता हुआ सुविशाल दक्षिण और उत्तर से विभाजित दो श्रेणि युक्त सुन्दर, सर्वऋद्धि समृद्धि से युक्त वैताढ्य नाम का पर्वत है। गाहा :- रत्नसंचयनगर तत्थथि दक्खिणाए सेढीए खयर-लोय-पडिपुन्नं । भमिर-खयरंगणा-गण-नेउर-झंकार- रव-मुहलं ।।१८।। उत्तुंग-मगर-तोरण-असमाण-दुवार-देस-सोहेहिं । निच्चं विरायमाणं विज्जाहर-भवण-वंदेहिं ।।१९।। सयल-तइ-लोक्क-लच्छी-निय-निलयं रयणसंचयं नाम । नगरं नयर-गुणड्ढं पमुदिय-नर-नारि-संघायं ।।२०।। 60 nal Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छाया : तत्राऽस्ति दक्षिणायां श्रेण्यां खेचर-लोक-प्रतिपूर्णम् । भ्रमित खेचराङ्गना-गण-नूपुर-झंकार-रव मुखरम् ।।१८।। उत्तुंग-मकर-तोरण-असमान द्वार-देश-शोभाभिः | नित्यं विराजमानं विद्याधर-भवन-वृन्दैः ।।१९।। सकल-त्रिलोक-लक्ष्मी-निज-निलयं रत्नसंचयं नाम । नगरं नगरगुणाढ्यं प्रमुदित-नर-नारि-संघातम् ।।२०।। अर्थ :- त्यां ते पर्वतनी दक्षिण श्रेणिमा विद्याधरो थी परिपूर्ण, भमवाना स्वभाववाळी विद्याधरोनी स्त्रीओनां समुदायनां नूपुरना झंकारना अवाज थी मुखरित बनेल, ऊंचा मकराकार तोरणोथी अपूर्व द्वार देशनी शोभावाला विद्याधरोना भवनोना समूह वड़े हमेशा शोभतु, नगरना गुणोथी युक्त, प्रमुदित नर-नारिना समूहवाळु संपूर्ण त्रणे लोकनी लक्ष्मीना पोताना घर समान रत्नसंचय नामनुं नगर छ। हिन्दी अनुवाद :- वहाँ पर्वत की दक्षिण श्रेणि में विद्याधरों से परिपूर्ण, घूमने के स्वभाववाली विद्याधर स्त्रियों के पायल की आवाज से मुखरित, ऊँचे मकराकर तोरणों से सुन्दर, विद्याधरों के भवनों में से मनोहर, नगर गुणों से युक्त, आनन्दित नर-नारि के समूहवाला, तीनों लोक की लक्ष्मी के गृह-तुल्य रत्नसंचय नाम का नगर है। गाहा : तम्मि य पुरम्मि बहुविह-विज्जाहर-सय-सहस्स-संकिन्ने । परिवसइ गुण-निहाणो, पवणगई नाम वर-खयरो।।२१।। छाया : तस्मिंश्च पुरे बहुविध-विद्याधर-शत-सहस्र-संकिर्णः । __ परिवसति गुण निधानः पवनगति नामा वर-खेचरः ||२१|| अर्थ :- ते नगरमा घणा-प्रकारना लाखों विद्याधरोथीयुक्त गुणनिधान पवनगति नामनो श्रेष्ठ विद्याधर रहे छे। हिन्दी अनुवाद :- उस नगर में अनेक प्रकार के लाखों विद्याधरों से युक्त गुणनिधान पवनगति नाम का श्रेष्ठ विद्याधर रहता है। गाहा : विन्नाण-विणय-जुत्ता पइणो अच्चंत-वच्छल-सहावा । निय-परिमल-जिय-बउला, बउलवई नाम से भज्जा ।। २२।। छाया : विज्ञान-विनय, युक्ता पत्युः अत्यंत-वत्सल-स्वभावा । निज-परिमल-जित-बकुला बकुलवती नाम तस्य भार्या ||२२|| 61 Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ :- विज्ञान अने विनयथी युक्त अत्यंत वात्सल्यस्वभाववाली पोताना परिमलथी जिती छे बकुलपुष्पोनी सुवासने तेवी बकुलमती नामनी तेने पत्नी छे। हिन्दी अनुवाद :- विज्ञान और विनय से युक्त अत्यंतवात्सल्यमयी, अपनी परिमल से बकुल-पुष्पों की सुवास को पराजित करनेवाली बकुलमती नाम की पत्नी है। गाहा :- बकुलमती ने पुत्रोत्पत्ति तीए सह विसय-सोक्खं अणुहवमाणस्स तस्स कालेण । अहमेगएव पुत्तो उप्पन्नो कय-मणाणंदो ।।२३।। छाया: तस्याः सह विषय-सौख्य-मनुभवमानस्य तस्य कालेन । अहमेक एव पुत्र उत्पन्नः कृत-मनानंदः ।।२३।। अर्थ :- तेणीनी साथे विषय-सुखनो अनुभव करतां योग्य समये मनने आनंद-आपनारो हुं पुत्र रूपे उत्पन्न थयो। हिन्दी अनुवाद :- बकुलमती के साथ विषय-सुख का अनुभव करते, योग्य समय पर मन को प्रसन्न करने वाला मैं पुत्र रूप में उत्पन्न हुआ। गाहा : जम्म-दिणे च्चिय पुर-नर-चित्त-चमुक्कार-कारयं मज्झ । वद्धावणयं पिउणा कारावियमसम-हरिसेणं ।।२४।। छाया : जन्म-दिने एव पुर-नर-चित्त चमत्कार-कारकं मम | वयिनकं पित्रा कारापितमसम-हर्षेण ।।२४।। अर्थ :- मारा जन्म दिवसे ज अत्यंत हर्ष युक्त पिता वड़े नगरना लोकोना चित्तने चमत्कार करनारी वधामणी कराई। हिन्दी अनुवाद :- मेरे जन्म दिन पर ही अत्यंत हर्षान्वित पिता द्वारा नगर-लोगों के चित्त को आश्चर्य चकित करनेवाली मेरे जन्म की बधाई करायी गयी। गाहा :- नामकरणविधि कमसो य बारसहि वोलीणे मज्झ जणणि-जणएहिं । गुरु-तुट्ठीए पइट्ठियमहिहाणं चित्तवेगोत्ति ।। २५।। छाया: क्रमशश्च द्वादशाहि व्यतिते मम जननि जनकाभ्याम् । गुरु-तुष्टया प्रतिष्ठितमभिधानं चित्रवेग इति ।।२५|| 62 Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ :- क्रमथी बार दिवस पूर्ण थये माता-पिता वड़े मोटा महोत्सव पूर्वक मारू नाम “चित्रवेग" ए प्रमाणे स्थापित करायु। हिन्दी अनुवाद :- बारह दिन व्यतीत होने पर माता-पिता द्वारा बड़े ठाठ से मेरा नाम "चित्रवेग' रखा गया । गाहा :- पाठशाला गमन वोलीणंसु य कइवय-वरिसेसु अहं महंत-बुद्धिस्स । अज्झावयस्स सुह-तिहि-रिक्खम्मि समप्पिओ पिउणा ।।२६।। छाया : व्यतितेषु च कतिपय वर्षेषु अहं महत्-बुद्धये । अध्यापकाय शुभ-तिथि-नक्षत्रे समर्पितः पित्रा ||२६|| अर्थ : केटलाक वर्षों व्यतीत धये शुभ तिथि नक्षत्रमा अत्यंत बुद्धिमान अध्यापकने माता-पिता वड़े हुं समर्पित करायो। हिन्दी अनुवाद :- कितने ही वर्ष व्यतीत होने पर शुभ तिथि और नक्षत्र में मुझे पढ़ाने के लिए अत्यंत बुद्धिशाली अध्यापक को माता पिता ने मुझे समर्पित किया।। गाहा :- सकल विद्या पारंगत - तत्तो अकाल-हीणं तहविह-अज्झावय-प्पभावेण । निय-मइ सामत्येण य गहियाओ कलाओ सयलाओ ।। २७।। छाया: ततः अकाल-हीनं तथाविध-अध्यापक-प्रभावेन | निज मति सामर्थ्येन च ग्रहिताः कलाः सकलाः ।।२७।। अर्थ :- त्यार पछी ते काळमां प्राप्त समस्त विद्याओ तेवा प्रकारना अध्यापकना प्रभावथी अने मारी बुद्धिना सामर्थ्यथी (सकल विद्याओं) में ग्रहण की। हिन्दी अनुवाद : - अध्यापक के प्रभाव से और अपनी बुद्धि सामर्थ्य से मैने विद्यमान समस्त विद्याएं ग्रहण कर ली। गाहा :- पिता वड़े विद्या प्रदान निय-कुल-कमागयाओ पिउणा विज्जाओ मज्झ दिनाओ। नहगामिणि-पमुहाओ जहविहिणा साहियव्वाओ ।। २८।। छाया: निज-कुल क्रमागताः पित्रा विद्याः मह्यं दत्ताः । नभगामिनि-प्रमुखा यथाविधिना साधयितव्याः ।।२८।। 63 Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ :- अमारा कुल क्रमथी आवेली आकाशगामिनी वगेरे साधवा योग्य विद्याओ विधिपूर्वक पिताए मने आपी। हिन्दी अनुवाद :- हमारे कुल क्रम से आई हुई आकाशगामिनी आदि विद्याएं सिद्ध करने के लिए पिता ने मुझे विधि सहित दी। गाहा :- यौवनारम्भ दंसिय-मयण-वियारं महिला-जण-हियय-मोहणमुदारं । अह कमसो संपत्तो, अहयं नव-जोव्वणारंभं ।। २९।। छाया : दर्शित-मदन-विकारं महिला-जन-हृदय-मोहनमुदारम् । अथ क्रमशः सम्प्राप्तः अहकं नव-यौवनारम्भम् ।।२९।। अर्थ :- स्त्री समुदायना हृदयने माटे आकर्षणरूप अने कामदेवना विकारने बतावनार हुं क्रमथी नवा यौवनारम्भने पाम्यो। हिन्दी अनुवाद :- स्त्री समुदाय के हृदय के लिये आकर्षक और कामदेव तुल्य नूतन यौवनारम्भ मैंने पाया। गाहा :- उद्यान प्रति गमन अन्नम्मि दिणम्मि अहं समाण-जोव्वण-वयंस-परियरिओ। पत्तो अणेय-तरु-संड-मंडियं महणरुज्जाणं ।।३०।। छाया: अन्यस्मिन् दिने अहं समान-यौवन-वयस्य-परिवृतः। प्राप्तोऽनेक-तरु-खंड-मण्डितं मनोहरोद्यानम् ।।३०।। अर्थ :- कोई एक दिवस हुं सरखे सरखा मित्रोनी साथे परिवरेलो अनेक वृक्ष खंडोथी शोभता मनोहर उद्यानमां पंहोच्यो। हिन्दी अनुवाद :- कभी एक दिन समान वयस्क मित्रों से परिवृत, अनेक वृक्ष खंडों से मण्डित उद्यान में मैं जा पंहुचा। गाहा :- उद्यानमां क्रीडा तथा देवो ने जोवुः पारद्ध-विविह-कीला चिट्ठामो जा खणंतरं तत्थ । ताव य गयणे दिट्ठा दिव्व-विमाणाण रिंछोली ।।३९।। पसरंत-पवर- रयणोरु-दित्ति-विच्छुरिय-नह-यलाऽऽ भोया । उत्तरदिसा पयट्टा सुर-सुंदरी गेय-सोहिल्ला ।। ३२।। छाया: प्रारब्ध-विविध-क्रीडाःतिष्ठामः यावत् क्षणांतरं तत्र । तावच्च गगने दृष्टा दिव्य-विमानानां पङ्कितः ।।३९।। 64 Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रसरत्-प्रवर-रत्नोरु-दिप्ति-विच्छुरित नभ-तलाऽऽभोगा । उत्तर दिशा-प्रवृत्ताः सुर-सुन्दरि गेय-शोभिता ।।३२।। अर्थ :- त्यां प्रारम्भ करेली विविध क्रीडा करतो जेटलीवारमा व्यां रहया तेटली-वारमा गगनमा दिव्य विमानोनी पंक्तिने जोई। हिन्दी अनुवाद :- वहाँ विविध क्रीडाओं में मस्त मैंने कुछ ही क्षणों में गगन में दिव्य विमानों की पंक्ति देखी। विस्तृत श्रेष्ठ रत्नों के तेज से देदीप्यमान आकाश की उत्तरदिशा को सुरसुन्दरियाँ अपने गीतों से सुशोभित कर रही थीं। गाहा : तं दट्ट मए भणियं कत्थ इमो हंदि ! देव-संदोहो । चलिओ चलंत-कुंडल-मुत्ताहल-धवल-गंड- यलो? ।।३३।। छाया : तं दृष्ट्वा मया भणितं कुत्र अयं हंदि ! देव-संदोहः। चलितः चलत्-कुण्डल-मुक्ताफल-धवल गंड-तलः ?|| अर्थ :- फेलायेला श्रेष्ठ विशाळ रत्नोना तेजथी व्याप्त आकाशनी उत्तरदिशाने सुरसुन्दरीओ गीतोथी शोभावती हती। ते जोईने में कहयु झूलताकुंडलवाळो मोतीओथी सफेद मस्तकवाळो शु देवताई समूह क्या चाली रहयो छे ? (एवु लागतु हतु !) हिन्दी अनुवाद :- यह देखकर मुझे लगा की सफेद मोतीमय लटकते कुंडलवाला क्या यह देवताओं का समूह चल रहा है? गाहा :- सिद्धायतनमा देव वगेरेनु आगमन ईसि हसिऊण भणियं मज्झ वयंसेण बंधुदत्तेण । सुपसिद्धमेव एवं वेयड्ढ- नगे वसंताणं ।।३४।। छाया: ईसत् हसित्वा भणितं मह्यं वयस्येन बंधुदत्तेन । सुप्रसिद्धमेव एतत् वैताढ्य-नगे वसंतानाम् ||३४|| अर्थ :- थोडु हसिने मारा मित्र बंधुदत्ते कह्यु-वैताढ्य-पर्वतमा रहेता सुप्रसिद्ध एवा..... हिन्दी अनुवाद :- थोड़ा हँसकर मेरे मित्र बंधुदत्त ने मुझसे कहा - यह अत्यंत प्रसिद्ध ही है - वैताढ्य पर्वत पर सिद्धायतनों में रहते जिनेश्वरों को - गाहा : जिणवंदणत्थमेत्थं सिद्धाययणेसु एइ सुर-निवहो । निच्चपि वयंस ! अओ पसिद्ध-वत्थुम्मि का पुच्छा? ।।३५।। 65 Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छाया: जिन-वन्दनार्थं अत्र सिद्धायतनेसु एति सुर-निवहः । नित्यमपि वयस्य! अतः प्रसिद्ध-वस्तुनि का पृच्छा? ||३५|| अर्थ :- जिनेश्वरोजा वन्दन माटे अहिं सिद्धायतनमां देवो नो समूह हमेसा आवे छे तेथी हे मित्र ! प्रसिद्ध-वस्तुमां शुं पूछवानुं ? हिन्दी अनुवाद :- वंदन के लिए यह देव-समूह नित्य जाता है। अत: हे मित्र। इस प्रसिद्ध वस्तु में पूछने जैसा क्या है ? गाहा : तत्तो य मए भणियं एवं एयंति किंतु निसुणेसु। महया विच्छड्डणं न एति, निच्च सुरा एत्थ ।।३६।। छाया: ततश्च मया भणितं एवमेवमिति किन्तु निशृणुहि । महता विच्छन न आयान्ति नित्यं सुराः अत्र ||३६|| अर्थ :- व्यार पछी मे कहयु तमारी बात बराबर छे परंतु सांभळो, आटला मोटा परिवार साथे देवो हमेसा आवता नथी। हिन्दी अनुवाद :- तुम्हारी बात सच है, किन्तु जरा सुनो? इतने बड़े परिवार से आवृत देवगण प्रतिदिन यहाँ नहीं आते हैं। गाहा : अज्ज पुणो सविमाणा, सव्विड्डीए महंत-हरिसेणं । दीसंति जं वयंता तेण मए पुच्छियं मित्र ! ।।३७।। छाया : अद्य पुनः सविमानाः सर्वर्द्धया महद्-हर्षेण । दृश्यन्ते यत् व्रजन्तः तेन मया पृष्टं मित्रम्! ।।३७।। अर्थ :- वळी आजे विमान सहित सर्वऋद्धियुक्त अने अत्यंत हर्षयुक्त देवो जता देखाय छे तेथी हे मित्र में तमें पूछयु । हिन्दी अनुवाद :- पुन: आज विमान सहित, सर्वऋद्धियुक्त और हर्षान्वित देव जाते हुए दिखाई देते हैं, इसलिये हे मित्र ! मैंने तुझे पूछा। गाहा : अह भणइ बंधुदत्तो खणंतरं चिंतिऊण सवितक्कं। हुं नायं पारद्धा सिद्धाययणेसु जत्ताओ ।।३८।। छाया: अथ भणति बंधुदत्तः क्षणांतरं चिन्तयित्वा सवितर्कम् | हा ! ज्ञातं प्रारब्धाः सिद्धायतनेषु यात्राः ।।३८।। 66 Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ :- हवे शांतिपूर्वक विचारीने एक क्षण पछी बंधुदत्त कहे छे हा ! हवे मे जाण्यु के सिद्धायतनमा यात्राओ शरू थई छ । हिन्दी अनुवाद :- अब एक क्षण सोचकर बंधुदत्त ने कहा हाँ अब मुझे मालूम हुआ की सिद्धायतन में यात्राएं प्रारम्भ हुई हैं। गाहा :- वसन्त ऋतुनु वर्णन पसरंत-सुरहि-मलयानिलुद्धरो जेण वट्टइ वसंतो। किसलइय-सयल-तरु-वर-विरायमाणोरु-वण-नियरो ।।३९।। छाया : प्रसरत्-सुरभि-मलयानिलुद्धरो येन वर्तते वसन्तः। किसलयति सकल-तरुवर-विराजमानोरु-वन-निकरः ।।३९|| अर्थ :- फेलाती सुगंधयुक्त मलयपर्वतना पवनथी वसन्तऋतु शोभे छे अने समस्त श्रेष्ठवृक्षोथी शोभतु विशाल वन समूह किसलयनु आचरण करे छे। हिन्दी अनुवाद :- फैलती सुगंधयुक्त मलयपर्वत के पवन से वसन्त ऋतु सुन्दर लगती है और सम्पूर्ण श्रेष्ठवृक्षों से शोभायमान विशाल वनसमूह किसलय का आचरण कर रहा है। गाहा :- अविय। वायंत-मलय-मारुय-चलंत-पत्तल-विसाल-साहाहिं । नच्चंतिव तरुणो पहरिसेण महु-मास-आगमणे ।।४।। छाया :- अपि च वात-मलय-मारुत-चलत्-पत्रल-विशाल-शाखाभिः । नृत्यंतीव तरवः प्रहर्षेण-मधुमासागमने ||४०।। अर्थ :- अने वळी वाई रहेला मलयना पवनथी चालता युवानो (वृक्षो) मधुमासना आगमनमा खुश थया होय तेम जाणे नृत्य करता ज होय ? हिन्दी अनुवाद :- तथा बहते हुए मलय पवन से झूलते वृक्ष मधुमास के आगमन से जैसे खुश हो गए हों वैसे नृत्य करने लगे हैं। गाहा : कुसुमाऽऽ मोयाऽऽयड्डिय-अलि-उल-झंकार-गहिर-सद्देण । गायंतिव तरु-नियरा । वसन्त-मासागमे तुट्ठा ।।४१।। छाया: कुसुमाऽऽमोदाऽऽकृष्ट-अलि-कुल-झंकार-गंभीर-शब्देन । गायन्तीव तरु-निकरा वसन्त-मासागमे तुष्टाः ।।४।। 67 Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ :- फूलोनी सुगंधथी आकर्षित भमराना समुदायना झंकारना गंभीर शब्दो-वड़े वृक्षोनो समुदाय वसन्त-मासना आगमनथी जाणे संतुष्ट थयो न होय तेम गातो हतो। हिन्दी अनुवाद : - पुष्प की सुगंध से आकर्षित भौरों के समूह के गुंजारव से युक्त बसंत मास के आगमन से वृक्ष समुदाय संतुष्ट होकर गा रहे हैं। गाहा : मयरंद-पिंजराओ विसट्ट-सुगंध-कुसुम-वयणाओ। वण-राईओ हसंतिव-वसंत-मासागमं द8 ।।४२।। छाया : मकरंद-पिजरात्-विसृतसुगन्धकुसुमवदनात् । वनराज्यो हसन्त्य इव, वसंत-मासागमं दृष्ट्वा ।।४२।। अर्थ :- मकरंदथी पीळा बनेल विकसित-सुगन्धवाळा कुसुम रूपी मुखथी वसंत-मासना आगमने जोई ने जाणे वनराजि हसती न होय तेम लागे छ। हिन्दी अनुवाद :- मकरंद से पीले वर्णवाली, विकसित और सुगन्धित कुसुम पराग से युक्त बसंत मास के आगमन को देख कर वनराजी हँसती है, ऐसा लगता है। गाहा : दगुणव तरु-नियरं महु-समए बहल-पत्तल-च्छायं । अवमाणिओ पलासो कसिण-मुहो झत्ति संजाओ ।।४३।। छाया: दृष्ट्वा इव तरु-निकरं मधु-समये बहल-पत्रल-छायाम् । अपमानितः पलासः कृष्णमुखः झटिति सञ्जातः।।४३|| अर्थ :- वसन्त ऋतुमां घणा पांदळावाळा छायायुक्त वृक्षना समूहने जोइने जाणे अपमानित थयो होय तेम पलास जल्दी थी कृष्णमुखवाळो थयो। हिन्दी अनुवाद : - वसन्त ऋतु में छायायुक्त बहुत पत्तों वाले वृक्ष समूह को देखकर अपने को अपमानित समझकर शीघ्र ही पलास कृष्णमुख हो गया। गाहा : अच्छउ ता फल-काले फुल्लिम-समएवि कालिमा वयणे। इय कलिउंब पलासो चत्तो पत्तेहिं किविणोव्व ।। ४४।। छाया : आस्तां तस्मात् फल-काले फुल्लता समयेऽपि कालिमा वदने । इति कलयित्वा इव पलासः त्यक्तः पत्रैः कृपणेव ||४४|| 68 Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ :- खरेखर आश्चर्य छे के फल आववाना वखते फूल हाजर होते छते पण तेना कृष्ण-मुखने जाणीने कृपणनी जेम पांदड़ाओ वड़े पलास त्याग कराय छे । हिन्दी अनुवाद :- निश्चय ही आश्चर्यजनक है कि फल आने के समय पुष्प होने पर भी पलास को कृष्णवर्णवाला देखकर पर्णों द्वारा त्याग कर दिया जाता है। गाहा : दट्टण वण-समिद्धिं पलास-विडवेहिं मउलियं वयणं । अन्नेवि हु अप्पत्ता पर-रिद्धिं नेव विसहति ।।४५।। छाया: दृष्ट्वा वन-समृद्धिं पलास-विटपैः मुकुलितं वदनम् । अन्येऽपि खल अप्राप्ताः परर्द्धि नैव विसहंते ।।४५|| अर्थ :- वन-समृद्धिने जोईने पलासना वृक्षोनु मुख करमाइ गयु । खरेखर जे अयोग्य छे तेओ बीजानी ऋद्धिने सहन की सकता नथी। हिन्दी अनुवाद :- वन-समृद्धि को देखकर पलास वृक्ष म्लान बन जाता है, निश्चित ही जो अयोग्य है वह दूसरों की ऋद्धि को नहीं सह सकता है। गाहा :- अविय। पाविय-वसंत-मासो वणम्मि निस्सेस-पीय-लोहियओ। पिय-विरहिय-पहियाणं भय-जणओ किंसुय-पिसाओ ।। ४६।। छाया :- अपिचः । प्राप्त-वसंतमासः वने निःशेष-पीत-लोहितः । प्रिय-विरहित-पथिकानां भय-जनकः किंशुक-पिशाचः ।।४६।। अर्थ :- अने वळी वनमां-ऋतु आवे छते जेणे बधु लोही पीधु छे एवो केसुडो रूपी पिशाच प्रियथी विरहित मुसाफरो ने भय उत्पन्न करतो हतो।। हिन्दी अनुवाद :- और पुन: वसंत-ऋतु आने पर जिसने पूर्ण रक्तपान किया है, ऐसा किंशुक रूपी पिशाच प्रिय से विरहित मुसाफिरों को भय उत्पन्न करता है। गाहा :- अन्नं च पंचसर-लोद्धएणं महु-मास-बिइज्जएण दय-रहियं । हम्मंतीओ गाढं दद्णव पहिय-महिलाओ ।।४७।। छाया :- अन्यच्च पञ्चशर लुब्धकेन मधु-मास द्वितीयेन दया-रहितम् । हन्यमाना गाढं दृष्ट्वेव पथिक-महिलाः ||४७।। 69 Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ :- पांच बाणवाळा (कामदेव) शिकारी वड़े वसंत ऋतु सहित निर्दय रीने अत्यंत हणाती मुसाफरोनी स्त्रीओ ने जोइने . हिन्दी अनुवाद :कामदेव रूप शिकारी और निर्दयी वसंत ऋतु द्वारा मुसाफिरों की पत्नियों की अत्यंत ताड़ना देखकर - गाहा : हसियंव मज्ज - संठिय- कलयंठि- कएण कूइयपयडिय - मंजरि - गुरु- दंत-पंतियं छाया : हसितं इव मध्य-संस्थित-कलकण्ठि कृतेन कूजित - रवेन । प्रकटित-मञ्जरि -गुरु5- दंत पंक्तिकं चूत - विटपैः ।।४८। । अर्थ :- मध्यमां रहेलि कोयलपक्षी द्वारा करायेला पंचम स्वर वडे आंबाना वृक्षो द्वारा प्रगट करायेली मञ्जरिओ द्वारा दांतनी पंक्तिवड़े जाणे हंसती होय तेम लागे छे । हिन्दी अनुवाद :बीच में रही कोयल पक्षी के पंचम स्वर में कूक से आम्रवृक्ष पर प्रगटित मञ्जरियाँ अपने बड़े-बड़े दांतों की पंक्ति से हंसने लगीं। गाहा : दट्ठूण पहिय-निवहं निहयं महु-मास- लोद्धय- नरेण । ओणय-मुहीओ कुसुमंसुएहिं रोयंतिव लयाओ ।। ४९ ।। गाहा : I चूय - विडवेहिं ।। ४८ ।। छाया : दृष्ट्वा पथिक- निवहं निहतं मधु-मास-लुब्धक-नरेण । अवनत मुखाः कुसुमांशुभिः रुदंतीव लताः ।।४९।। अर्थ :वसंत मास रूपी शिकारी मनुष्य वड़े मुसाफरोना समूहने हणायेला जोईने लताओ, पुष्परूपी आंसुओ बहावती अवनतमुखवाळी थइ रडती होय तेम लागे छे ! हिन्दी अनुवाद :- वसन्त- मास रूपी शिकारी मनुष्य द्वारा घायल हुए मुसाफिरों को देखकर लताएँ पुष्परूप अश्रु को बहाती हुई, अवनतमुखवाली हो गईं। - रवेण छाया : मह - पहियाण जलंतिव ठाणे ठाणे महंत चीयाओ । घण- किंसुय- च्छलेणं अलि-रव- मिसिमिसिय सद्दाओ ।। ५० ।। - महत्-पथिकानां ज्वलंतीव स्थाने स्थाने महत्-चिताः । घन किंसुक-छलेन, अलि-रव-मिश्रमिश्रित 70 शब्दाः ||५०|| Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ :- लाल केसुडानां बहाना वड़े अने भमराओना अवाजना मिश्रणथी मिश्रित शब्दो वड़े स्थाने स्थाने भरेला मुसाफरोनी मोटी चिताओ सळगी रही होय तेम लागे छे । हिन्दी अनुवाद :- रक्तवर्णी किंशुक और भ्रमर की आवाज से मिश्रित शब्द से ऐसा लगता है जैसे स्थान-स्थान पर मुसाफिरों की विशालकाय चिता जल रही हो । गाहा : निज्झर - तडेसु तरुणो पवण- पहल्लंत - जल- निबुड्डेहिं । देंतिव जलंजलिं जत्थ पहियाणं । । ५१ । । साहा - करेहिं छाया : निर्झर-तटेषु तरवः पवन- घूर्णन - जल- निमग्नैः । शाखा - करैः दंदातीव जलाञ्जलिं यत्र पथिकानाम् ||५१|| अर्थ :- ज्यां झरणाओनां किनारापर पवनथी आंदोलित पाणिमां मग्न वृक्षो जाणे पोतानी शाखा रूपी हाथ वड़े पसार थई रहेला मुसाफरो ने जलाञ्जलि आपता होय तेम लागे छे । हिन्दी अनुवाद :- जहाँ झरनों के तट पर पवन से आन्दोलित जल में मगन वृक्षगण मानो अपने शाखा रूपी हाथों द्वारा पथिकों को जलाञ्जलि दे रहे हों। किंच | गाहा : घण- किंसुय- नव- रंगय- विराइया बद्ध- पवर- मयण- हला । सोहई वसंत- लच्छी नव- वहुव्व ।। ५२ ।। पाडल - कुसुमा किञ्च छाया : घन किंशुक - नव-रंग-विराजिता बद्ध-प्रवर-मदन-हला । पाटल - कुसुमानि शोभंते, वसंत लक्ष्मी नव वधूरिव ।।५२ ।। अर्थ :- वळी अत्यंत सघन केसुडाओना नवा रंगथी शोभता अने बंधायेला श्रेष्ठ मदनना फूलवाळा गुलाबना फूलोथी नव वधूनी जेम वसंत-लक्ष्मी शोभा पामे छे । हिन्दी अनुवाद : पुनः अत्यंत सघन किंशुकगण के नूतन वर्ण से सुशोभित और गुम्फित श्रेष्ठ मदन युक्त पुष्पवाले गुलाब के फूल से नव वधू की तरह वसन्त - लक्ष्मी शोभित हो रही है। अन्नं च बुह - सहिओवि हु सूरो कव्वासत्तो वसंत- माहप्या । उवभुंजिऊण मीणं संपइ मेसस्स उक्कोत्ति ।। ५३ ।। गाहा : 71 Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छाया :- अन्यच्च बुध-सहितोऽपि खलु सूरः काव्यासक्तो वसंत-महात्म्यात् । उपभुज्य मीनं संप्रति मेषस्योत्सुकः इति ।।५३।। अर्थ :- अने वळी बुध ग्रहथी सहित एवो पण सूर्य शुक्रनी साथे रहीने मीन राशिमां जईने पछी मेष राशि मा जाये छे तेम काव्यासक्त माणस गमे तेवो पंडित के शूरवीर होय उत्सुक बने छे, आ बसंतनु माहात्म्य छ । हिन्दी अनुवाद :- और पुन: जैसे बुध ग्रह से युक्त सूर्य भी शुक्र के साथ में रहकर मीन राशि में जाकर मेष राशि में जाता है उसी तरह काव्यासक्त मनुष्य भी चाहे कितना भी पंडित हो या शूरवीर हो फिर भी वह प्रथम मीन को खाकर ही मेष को खाने को उत्सुक होता है, यह वसन्त का माहात्म्य है। गाहा: ता एरिसे वसंते दिसि-दिसि-पसरंत-परहुया-सद्दे। · वित्थरिय-चच्चरी-ख-मुहरिय-उज्जाण- भूभागे ।।५४।। छाया : तस्मात् इदृश्यां वसंते दिशि-दिशि प्रसरन-परभृता-शब्दे । विस्तरित चर्चरिख-मुखरित-उद्यान-भू-भागे ।।५४।। अर्थ :- तेथी आवा प्रकारना वसंतमां दशे दिशा मां फेलाता कोयलना शब्दो विस्तार पामे छते चर्चरी नामना गीतना प्रकार ना अवाज थी बगीचानी भूमि मुखरित थयो । छते हिन्दी अनुवाद :- अत: ऐसे मधुमास में दशों दिशाओं में गुञ्जित कोयल के शब्द विस्तारित होने पर भी चर्चरी नामक गीत की आवाज से उद्यान भूमि मुखरित हो गयी हैगाहा : विलसंति कामुय-जणा अंदोलिज्जति तरूण-जुवईओ। वित्थरइ पडहय-रवो पियंति वर-वारुणिं तरुणा ।।५५।। छाया: विलसन्ति कामुक-जना अन्दोल्यन्ते तरुण-युवतयः । विस्तरति पटहक-रव पिवन्ति वर-वारुणिं तरुणाः ।।५।। अर्थ :- कामीलोको विलास करता हता, युवान युवतीओ हिंचका खाती हती, नगाराओने अवाज फेलाई रहयो हतो, अने युवानो उत्तम प्रकारनो दारू पी रहया हतां । युग्मम् 72 Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी अनुवाद :- कामीलोग विलास करते थे, युवा और युवतियां झूले में झूलती थीं, वांजित्र की ध्वनि फैल रही थी और युवा श्रेष्ठ दारू पान कर रहे थे। गाहा : साहीण-पिययमाणं तरुणीणं वल्लहम्मि महु-मासे । धम्म-परायण लोएण, एत्थ कीरंति जत्ताओ ।। ५६।। छाया: स्वाधीन-प्रियतमानां तरुणीनां वल्लभे मधु-मासे । धर्म-परायण लोकेन अत्र क्रियन्ते यात्राः ||५६|| अर्थ :- प्रिय एवी वसंत ऋतु आवे छते जेने पोतानो प्रिय स्वाधीन छे एवी तरुणीओ अने धर्म-परायण लोकवड़े अहीं यात्रा कराय छे ।। हिन्दी अनुवाद : - प्रिय मधुमास आने पर अपना प्रिय जिनके स्वाधीन है ऐसी युवतियों और धर्मपरायण लोगों द्वारा यहाँ की यात्रा की जाती है। गाहा : जिण-बिंबाणं भत्तीए तेण एए समागया देवा। सव्वायरेण वेयल-सिद्धकूडेसु जत्तत्थं ।। ५७।। छाया : जिन-बिम्बानां भक्त्या तेन एते समागताः देवाः। सर्वादरेण वैताढ्य-सिद्धकूटेषु यात्रार्थम् ।।५७।। अर्थ :- तेथी प्रभु-प्रतिमाओनी भक्ति थी सर्वआदरवड़े वैताढ्यना सिद्धकूटोमां यात्रा माटे आ देवो आवेला छे । हिन्दी अनुवाद :- अत: प्रभु-प्रतिमा की भक्ति एवं सादरपूर्वक वैताढ्य के सिद्धकूटों में यात्रा के लिए ये देवगण यहां आये हैं। सिद्धकूट तरफ जवानी विचारणा गाहा : तत्तो य मए भणियं जइ एवं तो वयंस ! अम्हेवि । गंतूण सिद्धकूडे सासय-सव्वन्नु-पडिमाओ ।। ५८।। भत्तीए पणमिऊणं करेमु निय-माणुसत्तणं सहलं। पेच्छामो जिण-जत्तं सुय-खयरोहण किज्जंतं ।।५९।। छाया : ततश्च मया भणितं यदि एवं ततो वयस्य! आवामपि । गत्वा सिद्ध-कूटे शाश्वत-सर्वज्ञ-प्रतिमाः ।।५८।। 73 Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भक्त्या प्रणम्य कुर्मः निज-मानुष्यत्वम् सफलम् । पश्यावः जिन-यात्रा श्रुत-खेचरौघेन क्रियमाणं ||५९ ।। अर्थ :- तेथी में कछु - हे मित्र ! एम ज होय तो आपणे पण सिद्ध कूटोमां जइने शाश्वत प्रभु प्रतिमाआने भक्तिपूर्वक नमस्कार करीने आपणा मनुष्यत्वने सफल करीए, अने विद्याधरो वड़े कराती सांभळेली जिनभक्तिने प्रत्यक्षथी दृष्टि द्वारा जोइए । हिन्दी अनुवाद :अतः मैने कहा - हे मित्र ! यदि ऐसा ही हो तो हम सब भी सिद्धकूट में जाकर शाश्वत प्रभु - प्रतिमाओं को नमस्कार करके अपने मनुष्यत्व को सफल बनाएं और विद्याधरों द्वारा की जा रही जिनभक्ति जिसके विषय में सुन रखा था, को प्रत्यक्ष देखें | धात्री पुत्र बलनुं आववु अह सव्वेहिवि भणियं एवं होउत्ति सुड्डु ते भणियं । एत्थंतरम्मि पत्तो मह धाइ-सुओ बलो नाम ।। ६० ।। गाहा : छाया : अथ सर्वैरपि भणितं एवं भवतु इति सुष्ठु त्वया भणितम् । अत्रान्तरे प्राप्तो मम धात्री - सुतो बलो नाम ।। ६० ।। अर्थ :- त्यार बाद सर्ववड़े पण कहेवायु आ प्रमाणे थाव, तारा वड़े सारू कहेवायु ए प्रमाणे एटलीवार मां मारी धाव - मातानो पुत्र बल अहीं आवी पंहोच्यो । हिन्दी अनुवाद :- बाद में सभी लोगों ने कहा कि ऐसा ही हो, तूने अच्छा कहा इतने में ही मेरी धाय माता का पुत्र बल भी वहाँ आ गया। गाहा : आगम्म तेण भणियं पिउणा ते चित्तवेग ! संलत्तं । एसो हु रयण-संचय - वत्थव्वो सयल- खयर - जणो ।। ६१ ।। छाया : आगम्य तेन भणितं पित्रा तव चित्रवेग ! संलप्तम् । एषः खलु रत्न- संचय वास्तव्यः सकल- खेचर- जनः ।।६१ ॥ अर्थ :- आवीने तेना वड़े कहेवायु- “हे चित्रवेग ! पिताजीए तने कह्यु छे। निश्चे आ बधा विद्याधरो रत्न-संचय नगरीमा रहेनारा छे।” हिन्दी अनुवाद :- आकर उसने कहा :- "हे चित्रवेग ! पिताजी ने तुझे कहा है - कि निश्चित ही ये सभी विद्याधर लोग रत्न - संचय नगरी के वासी हैं। 74 Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाहा :- जिन यात्रा माटे प्रयाण न्हाओ विलित्त-देहो सुह-नेवत्थो महा-विभूईए । चलिओ जिण-जत्ताए आसन्ने सिद्धकूडम्मि ।।६२।। छाया : स्नातो विलिप्त-देहः शुद्ध नेपथ्यो महा-विभूत्या। चलितो जिन-यात्रायां आसन्ने सिद्ध-कूटे ।।६२।। अर्थ :- स्नान करेलो, विलेपन करेला देहवाळो, शुद्ध आभरणने धारण करेलो महा आडंबर पूर्वक पासे रहेला सिद्धकूट पर जिनयात्रा माटे विद्याधरगण चाल्यो। हिन्दी अनुवाद :- स्नान और विलेपन कर शुद्ध आभरण को धारण करके बड़े आडंबर से विद्याधरगणों ने पास में रहे सिद्धकूट पर जिनयात्रा के लिए प्रयाण किया। गाहा : तेण समं अम्हेवि हु चलिया ता सिग्यमेव आगच्छ । कय-ण्हाणाइ-विहाणा जेण समं चेव गच्छामो ।। ६३।। छाया : तेन सह वयमपि खलु चलितास्तस्मात् शीघ्रमेवागच्छ । कृत-स्नानादि-विधान येन समं चैव गच्छावः ।।६३।। अर्थ :- तेनी साथे अमे पण निश्चेजइए छीए । तेथी विधिपूर्वक करेला स्नानादिवाळा तमे जल्दी आवो जेथी आपणे साथेज जइए । हिन्दी अनुवाद :- उनके साथ में हम भी निश्चित ही चलें अत: विधिपूर्वक स्नानादि कर्म करके तुम शीघ्र ही आओ जिससे हम साथ में ही जा सकें। गाहा : तव्वयणं सोऊणं निय-गेहे आगमो पिउ-समीवे । तेवि य मज्झ वयंसा निय-निय गेहेसु संपत्ता ।।६४।। छाया: तद् वचनं श्रुत्वा निज-गृहे आगतः पितृ-समीपे । तेऽपि च मम वयस्या निज-निज गृहेषु सम्प्राप्ताः ||६४|| अर्थ :- तेना वचन सांभळीने पितानी पासे पोताना घरे आव्यो, अने ते मारा मित्रो पण पोत-पोताना घरे पंहोच्या । हिन्दी अनुवाद :- उसका वचन सुनकर मैं पिताजी के पास अपने घर आया, और मेरे वे सभी मित्र भी अपने-अपने घर गए । 75 Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाहा : कय-व्हाणाइ-विहाणो सह पिउणा ताहे पवणगइणा हं । तक्कालुचियं सव्वं गहिऊणं धूव-पुफ्फाइं ।।६५।। नागर-जणेण सहिओ उप्पइओ खग्ग-सामलं गयणं ।। गच्छंतेण कमेणं दिटुं भवण जिणिंदस्स ।।६६।। छाया: कृत-स्नानादि-विधानः सह पित्रा तदा पवनगतिना अहम्। तत्कालोचितं सर्वं गृहीत्वा धूप-पुष्पाणि ।।६५|| नागर-जनेन सहित उत्पतितः खड्ग-श्यामलं गगनम् । गच्छता क्रमेण दृष्टं भवनं जिनेन्द्रस्य ।।६६।। अर्थ :- करेला स्नानादि वाळो हुं व्यारे ‘पवनगति' पितानी साधे ते कालने उचित धूप-पुष्पादि बघुज ग्रहण करीने.. नगर-जनोनी साथे तलवार जेवा श्याम गगनमां उडया अने क्रम वड़े जता जिनेश्वर परमात्माना भवनो मे जोया ।। हिन्दी अनुवाद :- स्नानादि कर्म करके मैं “पवनगति' पिताजी के साथ तत्कालोचित धूप-पुष्पादि पूजा सामग्री को साथ लेकर नगरजनों के साथ खड्ग जैसे श्याम गगन में उड़ने लगा और जाते समय क्रम से जिनेश्वर-परमात्मा के भवनों को देखा । गाहा : वायंत-मउय-मारुय-मंदंदोलंत-धय- वडग्गेहिं । सन्नंव करेमाणं आगमणत्थं जणोहस्स ।।६७।। छाया: चलत्-मृदुक-मारुत-मन्दं दोलायमान-ध्वज-पटाप्रैः। संज्ञामिव कुर्वन् आगमनार्थम् जनौघस्य ।।६७।। अर्थ :- वाता कोमल-पवनथी मन्द-मन्द फरफरती ध्वाजाओ लोकोना समूहने आववा माटे जाणे संज्ञान करती होय तेवी लागे छे । वळी । हिन्दी अनुवाद : - मन्द-मन्द वायु से धीरे-धीरे से झूलती ध्वजाएँ मानों लोगों के समूह के आने का संज्ञान कर रही हों। गाहा: दुंदुहि-मउंद-मद्दल-तिलिमा-पमुहेण तूर-सद्देण । हक्कारेंतंव जणं जत्ता-समए जिणिंदस्स ।।६८।। छाया : दुंदुभि-मुकुंद-मर्दल-तिलिमा-प्रमुखेन-तूर्य-शब्देन। आकार्यन्तमिव जनं यात्रा- समये जिनेन्द्रस्य ।।६८।। 76 Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ :- दुंदुभि-मुकुंद-मृदंग-तिलिमा आदि वांजियोना शब्दवड़े जिनेश्वरनी यात्रा ना समये लोकोने बोलावती होय तेम लागे छे । हिन्दी अनुवाद दुन्दुभि-मुकुंद-मृदंग-तिलिमा आदि वाद्ययंत्रों की ध्वनि से ऐसा लगता था, जैसे जिनेश्वर भगवंत की यात्रा का समय हो गया हो ! गाहा : जिनालयनी शोभा कय- उल्लोयं ततो कमेण पत्ता दिसि दिसि नच्चंत - अच्छरा - नियरं । महर - गेय-झुणीए आनंदिय- भविय- संदोहं ।। ६९ ।। नाणाविह-वत्थेहिं मणोहरायारं । विच्छित्तीए विरइय- घण- - फुल्लहरं पवर- पडि - मंडवेणं लंबिय - निम्मल - वर हार - ओचूलं ।। ७० ।। - विचित्त - लंबंत-तारियाइन्नं । उच्छाइय- अंगणा भोयं । । ७१ ।। मंडिय- चउक्किया-देसं । नीसल- तड्डि- चंदायएहिं फुल्लमय-पवर- - तोरण- सोहिय- मज्झं जिणिंद-गिहं ।।७२।। छाया : ।।६९।। ततः क्रमेण प्राप्ता दिशि दिशि नृत्यन्- अप्सरा-निकरम् । मनोहर - गेय-ध्वन्या - आनन्दित भविक - सन्दोहम कृतोल्लोचम् मनोहराकारम् | लम्बित-निर्मल- -वरहारावचूलः 11७०|| नानाविध वस्त्रैः विच्छित्या विरचित- घन-पुष्पगृहम् विचित्र-लम्बयन् तारकाकीर्णम् । प्रवर-पट-‍ - मण्डपेनाउवच्छादिताङ्गणऽऽभोगम् निस्तलं - तत - चन्द्रातपैः मण्डित - चुतुष्किका - देशम् । पुष्पमय-प्रवर- तोरण- शोभित - मध्यं जिनेन्द्र-गृहम् ।।७२।। अर्थ :- व्यार पछी क्रम पूर्वक अमे पंहोच्या, ज्यां दशे - दिशामां नृत्य करती अप्सराओ नो समूह मनोहर गीत ध्वनि थी भव्य जीवोनां समूहने आनन्द आपतो हतो, विविध प्रकारना वस्त्रो वड़े मनोहर चंदरवो रचायेलो हतो । सुंगधित पुष्पगृहनी रचनावाळो, विचित्र रीते लटकतां ताराओथी व्याप्त श्रेष्ठ कपड़ाना मण्डप वड़े आंगणानो विस्तार सुशोभित थयो हतो । निर्मल जमीनना तळीयावाळो, चंदरवावड़े शोभतो चोकनो विभाग जेनो छे, तेवु तथा पुष्पवाळा श्रेष्ठ तोरणोथी शोभित मध्य भाग वाळु जिन मंदिर हंतु । ।।७१।। 77 Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी अनुवाद :- तत्पश्चात् क्रम से हम वहाँ पहुंचे जहाँ दशों दिशाओं में नृत्य करती अप्सरागण मनोहर गीत संगीत से भव्यात्माओं को आनन्द प्रदान करती थीं। विविध प्रकार के वस्त्रों से बना सुन्दर चन्दरवा वहाँ था। सुगन्धित पुष्पगृह की रचनावाला, विचित्र प्रकार से लटकते हुए ताराओं से व्याप्त, श्रेष्ठ कपड़े के मण्डप से आंगन का विस्तार सुन्दर लग रहा था। निर्मल जमीन के फर्श वाला एवं चन्द्रमा के किरणों से मनोहर चौक का विभागयुक्त पुष्पमय श्रेष्ठ तोरणों से शोभित सुन्दर मध्यभागवाला जिनमन्दिर था। गाहा : तस्स य दुवार-देसे निम्मल-जल- पूरियाए-वावीए । काऊण पाय-सोयं नियय-वयंसेहिं परियरिओ ।।७३।। जिण-भवण-दुवार-ट्ठिय-उच्चल्लिय-फुल्लमालियोहस्स। पुफ्फाइं गेण्हंतो अंतो विहिणा पविट्ठो हं ।।७४।। छाया: तस्य च द्वार-देशे निर्मल-जल-पूरितायां वाप्याम् । कृत्वा पाद-शौचम् निजक-वयस्यैः परिकलितः ।।७३|| जिन-भवन-द्वार-स्थित उच्चलित-पुष्पमालिका-ओघस्य । पुष्पाणि गृह्णन्तोऽन्तः विधिना प्रविष्टोऽहम् ।।७४।। अर्थ :- ते जिनमंदिरना द्वारना विभागमां निर्मळ पाणीथी भरेली वावडीओमां पोताना मित्रोनी साथे पगधोईने जिनभवनना द्वारनी पासे रहेल पुष्प वेचनारनी पासेथी पुष्पने ग्रहण करतो एवो हुँ विधिपूर्वक जिनमंदिरमा प्रवेश्यो। हिन्दी अनुवाद :- उस जिन मन्दिर के द्वार के विभाग में निर्मल पानी से भरी वापिका में अपने मित्र के साथ पाद शौच करके जिनभवन के द्वार के पास पुष्प-विक्रेता से पुष्प खरीदकर मैं विधिपूर्वक जिनमंदिर में गया। गाहा : पूइय जिणिंद-बिंबे काउं चीइ-वंदणं जहा-विहिणा । वाहिं नीहरिओ हं उवविट्ठो खयर- मज्झम्मि ।।७५।। छाया : पूजित जिनेन्द्र-बिम्बानि कृत्वा चैत्यवन्दनं यथा-विधिना । बहिः निसृतोऽह-मुपविष्टः खेचर-मध्ये ।।७५।। अर्थ :- जिनेश्वर भगवंतोनी पूजा कर्या बाद यथाविधि चैत्यवंदन करीने बहार निकळेलो हु विद्याधरोनी मध्यमां बेठो । 78 Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी अनुवाद :- जिनेश्वर भगवन्तों की पूजा के पश्चात् विधिवत चैत्यवंदन करके बाहर निकल कर मैं विद्याधरों के बीच जा बैठा। गाहा : वत्ते जिण-मज्जणए इओ तओ तत्थ संचरंतो हं । अवरोप्पर-दंसिय-कोउगेहिं सहिओ वयंसेहिं ।।७६।। छाया : वर्ते जिन-मज्जने इतस्ततस्तत्र संचरनहम् । अपरापर-दर्शित-कौतुकैः सहितो वयस्यैः ।।७६|| अर्थ :- त्यां जिन-मंदिरमां आम तेम फरतो हुं जात-जातना कौतुकोने मित्रोनी साथे जोतो हतो। हिन्दी अनुवाद :- वहाँ जिनमन्दिर में इधर-उधर घूमता हुआ मैं अपने मित्रों के साथ विविध प्रकार के कौतुक देखता था। गाहा : कत्थइ विलासिणि-जणं पेच्छंतो नच्चमाणयं विविहं । कत्थइ कवि-वर-निवहं जिण-चरियं अहिणवेमाणं ।।७७।। छाया : क्वचित् विलासिनि-जनं पश्यन् नृत्यमानकं विविधम् । क्वचित् कवि-वर-निवहं जिन-चरितं अभिनयन् ।।७७।। अर्थ :- क्यांक विविध रीते नृत्यकरता विलासीजनने जोतो, क्यांक बांदाओना समुदायने तो क्यांक जिनेश्वर भगवंतोना चरित्रने जोतो। हिन्दी अनुवाद :- कहीं पर नाचते हुए विलासी जन को देखता तो कहीं वानरगण को देखता था और कहीं पर जिनेश्वरों के चरित्र दृष्टिपथ में आते थे। गाहा : वीणा-रव-संवलियं कत्थवि गीय-ज्झुणिं निसामेंतो। विरइय-विविहायारं कत्थवि य बलिं पलोएंतो ।।७८।। छाया : वीणा-रव-संवलितं कुत्राऽपि गीत-ध्वनिं निशाम्यन् । विरचित-विविधाचारं कुत्राऽपि च बलिं प्रलोकयन् ।।७८।। अर्थ :- क्यांक वीणाना अवाजथी युक्तगीतना ध्वनि ने सांभळतो क्यांक रचेला विविध प्रकारना आचारने अने बलि ने जोतो ... हिन्दी अनुवाद :- कहीं वीणा की आवाज से युक्त गीतध्वनि सुनता था तो कहीं पर अनेक प्रकार के आचार और बलि को देखता था। 79 Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाहा : कत्थइ तरुण-नरेहिं दिज्जंतं रासयं सुणेमाणो। सुर-सुंदरीहिं कत्थइ गिजंतं धवल संघायं ।।७९।। छाया :। क्वचित तरुण-नरैः दीयमानं रासकं श्रुण्वानः | सुर-सुन्दरीभिः क्वचित् गीयमानं धवल संघातम् ।।७९।। अर्थ :- तो क्यांक युवान-मनुष्योवड़े अपाता रासडाने सांभळतो क्यांक सुर-सुन्दरीओवड़े गवाता धवल मंगल गीतोने सांभळतो। हिन्दी अनुवाद :- कहीं युवाओं के गरबे सुनता था तो कहीं सुर-सुन्दरियों के धवल मंगल गीत सुनता था। गाहा :- सिद्धायतनमा मातुल पुत्र चित्रवेगनुं मिलन-आलाप-संलाप एवं च जाव कोऊहलेण अवरावरेसु ठाणेसु । हिंडामि तत्थ भवणे लीलाए समं वयंसेहिं ।।८।। ताव मह माउल-सुओ सहरिसमागम्म साइयं दाउं । वज्जरइ भाणुवेगो पभूय-कालाओ दिट्ठो सि ।।८१।। छाया : एवं च यावत् कौतूहलेन अपरापरेसु स्थानेसु । भ्रमामि तत्र भवने लिलया समं वयस्यैः ।।८०।। तावत् मम मातुल-सुतः सहर्षमागम्य स्वादिमं दत्वा । कथयति भानुवेग ! प्रभूत-कालात् दृष्टोऽसि ।।८१।। अर्थ :- आ प्रमाणे ज्यांसुधी जुदा स्थानोमां कुतूहल वळे फरतो हतो तेटलीवारमा त्यां भवनमां मित्रोनी साथे क्रीडाओ करतो मारा मामाना छोकरो आव्यो अने मुखवास आपीने कहे छे हे भानुवेग ! घणा समयथी तुं जोवायो छे। हिन्दी अनुवाद : - इस प्रकार जब तक अलग-अलग स्थानों में कुतूहल देखते हुए घूम रहा था तब तक मेरे मामा का लड़का वहां आया और मुखवास अर्पित करके बोला- "हे भानवेग! बहुत समय के बाद तू दिखाई दिया है। गाहा : कुसलं च पवणगइणो पिउ- भगिणीए य बउलवइयाए? । तत्तो य मए भणियं कुसलं सव्वेसि, अन्नं च ।।८ ।। छाया: कुशलं च पवनगतेः पितृ-भगिन्याश्च बकुलवत्याः ? | ततश्च मया भणितं कुशलं सर्वेषामन्यच्च ।।२।। 80 Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ :- तारा पिता पवनगति कुशल छे ने ? अने बकुलवती फईवा पण कुशल छेने ? त्यार पछी मारा वड़े कहेवायु बधा ज कुशल छे। हिन्दी अनुवाद :- आपके पिता पवनगति और बकुलवती बुआ कुशल पूर्वक हैं न?” फिर मैंने कहा - "हाँ सभी कुशल पूर्वक हैं। गाहा : एत्थेव आगयाइं इमाई चिट्ठति भद्द! जिण- भवणे । अम्मा-पिऊण मूलं समायओ तेण सहिओ हं ।। ८३ ।। छाया : अत्रैवागतानि इमानि तिष्ठन्ति भद्र ! जिन भवने । मातृ-पित्रोः मूलं समागतो तेन सहितोऽहम् ।। ८३ ।। अर्थ :- अहीं ज आ लोको आवेला छे अने भद्र ! जिन-भवनमां बेठा छे । हुं माता - पितानी साथे अहीं आवेलो धुं पछी तेनी साथे हुं माता-पिता पासे गयो । हिन्दी अनुवाद :यहीँ पर वे लोग आए हुए हैं और हे भद्र ! जिनभवन में विराजित हैं। मैं माता-पिता के साथ ही यहाँ पर आया हूँ। बाद में उनके साथ मैं माता-पिता के पास गया । गाहा : सायरमवगूढो सो तेहिं पउत्तिं च पुच्छिओ भणइ । कुसलं मह जणगाणं नागमणं कारणावेक्खं ।। ८४ ।। छाया : सादरमवगूढः सः तैः प्रवृत्तिं च पृष्टो भणति । कुशलं मम जनकानां नागमनं कारणापेक्षम् ||८४|| अर्थ : आदरपूर्वक तेओनी प्रवृत्ति विषे पूछायेलो ते कहे छे। मारा पिता कोई कारणवश थी आव्या नथी पण तेओ पण कुशल छे।” हिन्दी अनुवाद :- आदरपूर्वक उनका कुशल पूछने पर उन्होंने कहा - " मेरे पिता कतिपय कारणों से यहाँ नहीं आए हैं किन्तु वे भी कुशल पूर्वक हैं। " गाहा : अह सो मए भणिओ वित्तप्पाया इमा हु जिण - जत्ता । संपइ पुण अम्हाणं आगच्छसु पाहुण ताव ।।८५ ॥ छाया : अथ सो मया प्रभणित वृत्तप्राया हमा खलु जिन यात्रा । सम्प्रति पुनः अस्माकं आगताः प्राघूर्णकाः तावत् ।। ८५ ।। 81 Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ :- त्यारपछी ते मारा वड़े कहवायो। “हवे आ जिन-यात्रा तो पूरी थवा आवी छ। आथी हवे तुं “अमारी साथे चाल" तुं अमारो महेमान छ। हिन्दी अनुवाद :- फिर उसने मुझे कहा कि “अब यह जिन-यात्रा पूर्ण होती है। अत: फिलहाल तू मेरे साथ चल, तू हमारा अतिथि है। गाहा : तो भणइ भाणुवेगो एवं एयंति किंतु निसुणेसु । मह चित्तभाणु-पिउणा लहुमागच्छेज्ज इति भणियं ।। ८६।। छाया : ततो भणति भानुवेगः एवं एवमिति किन्तु निश्रुणुहि । मां चित्रभानु पित्रा शीघ्रमागच्छ इति भणितम् ।। ८६।। अर्थ :- त्यारे भानुवेग कहे छे “तमारी आ प्रमाणेनी बात बराबर छे परंतु सांभलो ! मारा पिता चित्रभानुए कहयु छे के तुं जल्दी आवजे।। हिन्दी अनुवाद :- तब भानुवेग ने कहा "तुम्हारी बात ठीक है किन्तु सुनो ! मेरे पिताजी चित्रभानु ने मुझसे कहा है कि तू जल्दी आ जाना। गाहा : ता चित्तवेग ! संपइ तं चिय नगरम्मि एहि महतणए। उक्कंठिओ पगामं जं अच्छइ तुम्ह माउलओ।।८७।। छाया : तस्मात् चित्रवेग ! सम्प्रति त्वमेव नगरे आगच्छ मदीये । उत्कंठितः प्रकामं यत् आस्यते तव मातुलकः ।।८७।। अर्थ :- तेथी हे चित्रवेग ! हमणा तो तुं ज मारा नगरमा आव केम के तारा मामा अत्यंत उत्कंठित छ। हिन्दी अनुवाद :- अत: हे चित्रवेग! फिलहाल तू ही मेरे गाँव में आ, क्यों कि तेरे मामा भी बहुत उत्कंठित हैं । गाहा : एवं च तेण भण्ओि अम्मा-पीईहिं अन्भणुन्नाओ। भाउ-समेओ पत्तो नगरमहं कुंजरावत्तं ।।८८।। छाया :- चित्रवेग नुं मातुलभाई साथे आगमन एवं च तेन भणितोऽम्बा-पितृभ्यां अभ्यनुज्ञातः। भ्रातृ-समेतः प्राप्तो नगरमहं कुञ्जरावर्तम् ।।८८|| अर्थ :- अने आ प्रमाणे तेना वड़े कहेवायेलो हुं माता-पितानी अनुज्ञा वड़े। भाईनी साथे कुंजरावर्त नामना नगरमां गयो। 82 Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी अनुवाद :- इस प्रकार उनके कहने पर मैं माता-पिता की आज्ञा से भाई के साथ कुञ्जरावर्त नगर में गया। गाहा: तहियं च चित्तभाणू मं दटुं सुख हरिसिओ भणइ। सुंदरमायरियं ते जमागओ अम्ह पाहुणओ ।।८९।। छाया : तदा च चित्रभानू मां दृष्ट्वा सुष्ठु हर्षितो भणति। सुंदरमाचरितं ते यदागतः अस्मांक प्राघूर्णकः ।।८९|| अर्थ :- व्यारे मने जोईने चित्रभानु खूबज हर्षित थयो अने कहयुं के तमे अमारा महेमान रूपे आव्या ते सारु कर्यु। हिन्दी अनुवाद : - उस समय मुझे देखकर चित्रभानु बहुत हर्षित हुए और अच्छी तरह मेरा आदर-सत्कार करके कहा - आज आप हमारे मेहमान रूप में यहां आये, यह बहुत अच्छा किया। गाहा : नियय-पिउत्तिं सव्वं कहिउं कय-भोयणाइ-वावारो। पत्ताए रयणीए पासुत्तो पवर-सयणीए ।।९०।। छाया : निजक-प्रवृत्तिं सर्वं कथयित्वा कृत-भोजनादि-व्यापारः। प्राप्तायां रजन्यां प्रसुप्तः प्रवर-शयने ।।१०।। अर्थ :- पोताना बधी प्रवृत्तिने सारी रीते कहीने करेला भेजनादिना व्यापरवाळो रात्री प्राप्त थये छते श्रेष्ठ शयनमां हुं सूई गयो! . हिन्दी अनुवाद :- अपनी सभी प्रवृत्ति बताकर भोजनादि क्रिया के पश्चात् रात्रि होने पर श्रेष्ठ शय्या में मैं सो गया। गाहा : तत्थ य पभाय-समए लवमाणे तंबचूल-निउरंबे । दिट्ठो अदिट्ठ-पुव्वो एसो सुमिणो मए तइया।।९१।। छाया :- विचित्र स्वप्न दर्शन तत्र च प्रभात - समये लपमाने ताम्रचूड-निकुरम्बे । दृष्टोऽदृष्ट-पूर्व एषः स्वप्नो 'मया तदा ।।९१।। अर्थ :- अने त्यां प्रभात समये कुकडाना समुदायनो अवाज आवतो हतो त्यारे पूर्वमा क्यारे य नहीं जोयेनु स्वप्न त्यारे मारा वड़े जोवायु। 83 Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी अनुवाद :- और वहाँ प्रभात समय में जब मुर्गे की बांग सुनाई दे रही थी, तभी पहले कभी न देखा हुआ एक विचित्र स्वप्न मैंने देखा। गाहा : किल धवल-फुल्ल-माल मणोहरं दट्ट तग्गहट्टाए । चलिओ हं न य सक्केमि गेण्हिउं तं जया कहवि।।१२।। केणवि मित्तेण तओ समप्पिआ आयरेण मे गहिया। ओलंविस्सं गलए किल नियए ताव सा झत्ति ।।९३।। पडिया मह हत्थाओ कत्थवि य गयत्ति नेव जाणामि । ताहे महंत-दुक्खं तस्विरहे मज्झ संजायं ।।९४।। छाया : किल धवल-पुष्पमालां मनोहरं दृष्ट्वा तद्ग्रहणार्थम् । चलितोऽहं न च शक्नोमि गृहीतुम तं यदा कथमपि ।।९२|| केनाऽपि मित्रेण ततः समर्पिता आदरेण मया गृहीता । अवलंबिष्ये ग्रीवायां किल निजके तावत् सा झटिति ।।९३।। पतिता मम हस्तात कुत्राऽपि च गता इति नैव जानामि | तदा महद्-दुःखं तद्विरहे मह्यं सजातम् ।।९४।। अर्थ :- सफेद मनोहर पुष्पनी माला जोईने तेने लेवा माटे हुं चाल्यो पण कोई पण रीते ते माळा मेळती शक्यो नहीं। पण मारा मित्र वड़े अत्यन्त आदर पूर्वक अपायेली ते माळा में ग्रहण की अने हुं जल्दी थी ते माळाने मारा कंठमा धारण करवा गयो । तेटलीवारमा मारा हाथमां थी पडेली ते माळा क्यां गई ते हुं जाणतो नथी तेथी तेना विरहमां मने अत्यंत दुःख थयु छ। हिन्दी अनुवाद :- श्वेत सुंदर पुष्प की माला को देखकर मैं उसे ग्रहण करने गया किन्तु किसी भी हालत में मैं उस माला प्राप्त नहीं कर सका, किन्तु मेरे मित्र द्वारा अत्यन्त आदर पूर्वक अर्पित की हुई माला को मैंने ग्रहण कर ली, और जल्दी से उस माला को कण्ठ में धारण करने गया । उतने ही क्षणों में मेरे हाथ से वह माला गुम हो गई । इसलिये उसके गुम हो जाने से मुझे बहुत दु:ख है। गाहा : सुक्कावि मए एसा पुणोवि अभिलाण-कुसुमिया विहिया । इय भणिऊणं केणवि कंठे विणिवेसिया मज्झ ।। ९५।। छाया : शुष्काऽपि मया एषा पुनरपि अम्लान-कुसुमिता विहिता । इति भणित्वा केनाऽपि कण्ठे विनिवेशिता मम ||९५।। ___84 Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ :- सुकायेली ते माळा मारा वड़े फरी जराय करमाया वगरनी सुगंधित करायेली छे एम कहिने कोईना पण वड़े मारा कण्ठमां ते माळा आरोपाई। हिन्दी अनुवाद :- सूखी हुई वह माला सुन्दर सुगन्धित करके किसी ने मेरे कण्ठ में पहना दिया। गाहा :- स्वप्न फल विचारणा ताव पडु-पडह-झल्लरि-काहल-भंभा-मउंद-सद्दालं । सोउं तूरस्स रवं झत्ति पणट्ठा महं निद्दा ।।९६।। छाया: तावत् पटु-पटह-झल्लरि-काहल भम्भा मुकुन्द शब्दालुः । श्रुत्वा तूर्यस्य रवं झटिति प्रणष्टा मम निद्रा ||९६।। अर्थ :- तेटलीवारमा सारी रोते पटह, जलर, काहल, भम्भा, मुकुन्द आदि शब्द थी व्याप्त वांजिनना अवाजने सांभळीने जल्दीथी मारी निद्रा उडी गई। हिन्दी अनुवाद :- उसी क्षण में पटह,जलर, काहल, भम्भा, मुकुन्द आदि शब्दों से युक्त वाजिंत्र की अवाज को सुनकर मेरी नींद उड़ गयी । गाहा : तो हरिस-विसायढे दटुं सुमिणं विचिंतियं हियए । किं नाम मज्झ सूयइ अदिट्ठ-पुव्वं इमं सुमिणं ? ।।९७।। छाया: ततः हर्ष-विषादाढ्यं दृष्ट्वा स्वप्नं विचिन्तितं हृदये । किम् नाम मम सूचयति अदृष्ट-पूर्वम् इदम् स्वप्नम् ?||९७।। अर्थ :- तेथी हर्ष अने विषादयुक्त स्वप्न जोईने में हृदयमां विचार्यु “आवु स्वप्न में पहेला क्यारेय जोयु नथी तो आ मने शुं सूचवे छे ?" हिन्दी अनुवाद :- अत: हर्ष और विषादयुक्त स्वप्न देखकर मैं मन में सोचने लगा कि “ऐसा स्वप्न मैंने पहले कभी नहीं देखा तो यह स्वप्न मुझे क्या सूचित करता है?" गाहा : का हंदि ! इमा माला विज्जा वा संपया व मह होज्जा। दिन्ना केणवि नट्टा पुणरवि लद्धा न याणामि ।।९८।। छाया : का हतः ! इमा माला विद्या वा सम्पदा इव मम भविष्यति । दत्ता केनाऽपि नष्टा पुनरपि लब्धा न जानामि ।।९८।। 85 Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ :- अथवा तो शु? आ माला, विद्या अथवा सम्पत्तिनी जेम मने मळशे? अपायेली कोईना बड़े नाश थशे ? के वळी पण मळशे ते हु जाणतो नथी! हिन्दी अनुवाद :- अथवा तो क्या यह माला, विद्या अथवा सम्पत्ति की तरह मुझे प्राप्त होगी? या मिली हुई किसी के द्वारा नाश होगी? या पुन: प्राप्त होगी मैं नहीं जानता। गाहा : एवं आणच्छियत्थो सुविण-सरूवस्स उट्ठिओ अहयं । काउं पभाय-किच्चं अह सहिओ भाणुवेगेण ।।९९।। आरूढो पासाए उवरिम-भूमीए चित्त-सालाए। मणि- रयण कोट्टिमम्मी उवविट्ठो मत्तवारणए ।।१०।। छाया : एवं आनिश्चितार्थः स्वप्न-स्वरूपस्य उत्थितोऽहकम् । कृत्वा प्रभात-कृत्यं अथ कथितो भानुवेगेन ।।९९।। आरूढः प्रासादे उपरिम-भूमौ चित्र-शालायाम् । मणि-रत्न कुट्टिमे उपविष्टो मत्तवारणे ।। १००।। अर्थ :- आ प्रमाणे स्वप्नना स्वरूपनो निश्चय करवा माटे हुँ उठ्यो । प्रातः कृत्य कर्या पछी भानुवेगवड़े कहेवायलो महेलनी उपरनी भूमिनी चित्र-शालामा आरूढ़ थयो अने त्यां मणि-रत्नोनी जडेला झरूखामां बेठो। हिन्दी अनुवाद :- इस तरह स्वप्न के स्वरूप को निश्चित करने के लिए मैं जगा और प्रातः कृत्य करके भानुवेग के कहने से मैं भवन के ऊपर स्थित चित्रशाला के कक्ष में आरूढ़ हुआ और वहाँ मणि-रत्नों से जड़ित झरोखे में बैठ गया। गाहा : अह तं पभाय-दिलृ सिटुं सुविणं तु भाणुवेगस्स । निच्छइउं नो सक्कइ सोवि हु सुविणस्स सब्भावं ।।१०१।। छाया : अथ तं प्रभात-दिष्टं शिष्टं स्वप्नं तु भानुवेगम् ।। निश्चेतुं न शक्नोति सोऽपि स्वप्नस्य सद्भावम् ।। १०१।। अर्थ :- त्यारबाद प्रभाते जोयेला स्वप्नो निश्चय करवा माटे भानुवेगने मे कहयुं पण ते पण स्वप्नना सद्भावनो निश्चय करवा समर्थ न थयो! हिन्दी अनुवाद :- तत्पश्चात् सुबह देखे हुए स्वप्न के फल को जानने के लिए मैंने भानुवेग को कहा किन्तु वह भी स्वप्न के फल का निश्चय करने में असमर्थ रहे। 86 Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाहा : ।। १०२।। चिंतित्ता सुविण - फलं विगप्प- संकप्प- खित्त निय-चित्ता । जा चिट्ठामो अम्हे खणंतरं तत्थ ठाणम्मि ताव य वर-नेवत्थो महम्घ- आभरण- भूसिय- सरीरो सव्वोवि नयर - लोओ गंतु कत्थवि पयट्टोत्ति ।। १०३।। छाया : चिंतयित्वा स्वप्न फलं विकल्प-संकल्प - क्षिप्त- निज-चित्तौ । यावत्तिष्ठावः आवाम् क्षणान्तरं तत्र स्थाने ||१०२।। ||१०३।। तावच्च वर- नेपथ्यो महार्घ्याभरणभूषित-शरीरः । सर्वोऽपि नगर- र-लोको गंतुं कुत्राऽपि प्रवृत्तः इति अर्थ :- स्वप्नना फलने विचारीने विकल्प अने संकल्पथी विक्षिप्त चित्तवाळा अमे ज्यांसुधी रह्या नेटलीवारमां एक क्षण पछी त्यां स्थानमां श्रेष्ठ वस्त्रो किमती - आभरणथी शोभता शरीरवाळा सर्वे पण नगर लोको क्यांय पण जवा माटे प्रवृत थया । हिन्दी अनुवाद :- स्वप्न के फल को सोचकर विकल्प और संकल्प से विक्षिप्त चित्तवाला मैं बैठा था, इतने में देखा कि श्रेष्ठ वस्त्र और कीमती आभरण से अलंकृत देहवाले सभी नगरवासी कहीं जाने के लिए प्रवृत्त थे। गाहा : तं दट्ठे मए भणियं सबाल - वुड्डो इमो जणो कत्थ । कय - उवसोहो वच्चइ साहसु भो भाणुवेगम्ह ? ।। १०४ । । छाया : तं दृष्टवा मया भणितं स बाल-वृद्धो अयं जनः कुत्र । कृतोपभिः व्रजति कथय भो भानुवेग ! अस्मान् ? ।। १०४ । । अर्थ :- ते जोईने मारा वड़े पूछायु ? “ आबाल-वृद्धे करेली विभूषावाळो आ लोक क्यां जाय छे ? हे भानुवेग ! ते अमने कहे । हिन्दी अनुवाद :- यह देखकर मैंने पूछा? “ अलंकृत देहवाले बालक - वृद्ध सभी लोग कहाँ जा रहे हैं ? हे भानुवेग ! तू मुझे बता । " गाहा : भणियं च तेण निसुणसु अज्जं जं मयण- तेरसी भद्द ! | तेण जत्ताए मयणस्स ।। १०५।। वच्चइ पमोया । कुसुमसर- जत्तं ।। १०६ ।। मयरंदुज्जाण-ठियस्स एसो नर-नारि- गणो पूयत्थं तस्स अम्हेवि हु गच्छामो पेच्छामो 87 Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छाया : भणितं च तेन निशामय! अद्य यत् मदन त्रयोदशी भद्र! | मकरन्दुद्यान स्थितस्य एषो नरनारिगणः तेन यात्रया मदनस्य || १०५ ।। पूजार्थं तस्य व्रजति प्रमोदा । आवां गच्छावः प्रेक्ष्यावः कुसुमशर - यात्राम् ।। १०६ ।। अर्थ :- व्यारे भानुवेग वड़े कहेवायु हे भद्र ! तुं सांभळ आजे मदन-तेरस छे तेथी मकरंद उद्यानमा रहेली मदननी यात्रा माटे तेओ जई रहया छे। आ स्त्री-पुरुषनो समुदाय आनंदपूर्वक मदननी पूजा माटे जाय छे। अने आपणे पण त्यां जइए अने कामदेवनी यात्राने जोइए। हिन्दी अनुवाद तब भानुवेग ने कहा - "हे भद्र! तू सुन! आज मदन- त्रयोदशी है, अतः मकरन्द उद्यान में विराजित मदन की यात्रा के लिए ये सभी जा रहे हैं। यह हर्ष युक्त स्त्री-पुरुष का समुदाय मदन की पूजा के लिए जा रहा है। चलो हम भी उस कामदेव की यात्रा को देखेंगे।" ; गाहा :- मदनोद्यान तरफ प्रयाण तत्तो य मए भणियं एवं होउत्ति दोवि कय- सिंगारा पयओ पत्ता य कमेण छाया : ततश्च मया भणितं एवं भवतु इति द्वौ अपि संचलितौ । कृत - श्रृंगारौ प्रयतः प्राप्तौ च क्रमेण उद्यानम् ||१०७।। अर्थ :- अने त्यारबाद मारा वड़े कहेवायु “एम थाव” अने अमे बन्ने पण करेला शृङ्गारवाळा प्रयत्न पूर्वक चालता क्रम वड़े त्यां उद्यानमा पहोंच्चा । हिन्दी अनुवाद :- इस तरह मेरे द्वारा कहा गया "ऐसा ही हो" और हम दोनों अलंकृत देहवाले प्रयत्न पूर्वक चलते हुए उद्यान में जा पहुंचे। गाहा :- मदन उद्यान नुं वर्णन संचलिया । उज्जाणं ।। १०७ ।। कीलंत - कामिणी- यण-रणंत- नेउर- रवेण तरु-नियरो | मयण-महूसव- तुट्ठो गायइ इव चच्चरिं जत्थ ।। १०८ ।। छाया : क्रीडयन् - कामिनी - जन रणत् नूपुर-रवेण-तरु-निकरः । मदन- -महोत्सव-तुष्टः गायतीव चच्चरीं यत्र ।। १०८ । अर्थ :- क्रीडा करती स्त्रीओना झंकार करता नूपुरना अवाज वड़े अने मदन महोत्सवथी संतुष्ट थयेला वृक्षो जाणे सुंदर गीत गाय रहया होय तेवुं लागे छे । 88 Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी अनुवाद :- क्रीड़ारत स्त्रियों के नूपुर की अवाज से और मदन महोत्सव से संतुष्ट हुए वृक्ष भी सुंदर गीत गाने लगे हों, ऐसा लग रहा है। गाहा : मलयानिल-हल्लाविय- साहाहिं विघुम्ममाणया धणियं। कोइल-कय-कल-कोलाहलेहिं अफुडक्खरालावा ।।१०९।। आयंबिर-नव-किसिलय-आयंब-मुहा महीरुहा जत्थ । आसाइय-महु-मासा मत्ता इव सच्चविज्जति ।।११०।। छाया : मलयानिल-चालित-शाखाभिः विधूर्णयमानकाः गाढम् । कोकिल-कृत-कल-कोलाहलैः अस्पष्टाक्षरालापाः।।१०९।। आताम्रा नव-किसलया-ताम्रमुखा महीरुहाः यत्र । आस्वदित-मधुमासो मत्ता इव सत्यापयति ।।११०।। अर्थ :- मलय पर्वतना पवन थी डोलती शाखाओ वड़े अत्यंत घूणतां होय तेम कोयलना करायेला मनोहर कोलाहल वड़े अव्यक्त धीमां संवादथी 'युक्त तथा ? लालाश पडती नवी कुंपळोना लाल मुखवाळा वृक्षोए आस्वाद को छे मधुमास (वसंतऋतु) नो अने तेथी ज मत्त थया होय तेवा लागे छे ! । हिन्दी अनुवाद :- मलय पर्वत के पवन से हिलती शाखाओं द्वारा नृत्य करते कोयल के मनोहर आवाज से युक्त, तथा रक्तवर्णी नूतन किसलय से लालमुखवाले वृक्ष मधुमास का आस्वाद करने के कारण मदोन्मत्त हो गये हों, ऐसा लगता है । गाहा : सुविसट्ट-कुसुम-सोहंत-मंजरी-पुंज-रइय-सेहरया । जोहारेंतिव पवणोणयाहिं साहाहिं पउर-जणं ।।१११।। छाया : सुविकसित-कुसुम शोभायमान-मञ्जरी-पुज-रचित शेखरता ।। प्रणमंतीव पवनावनताभिः शाखाभिः पौर-जनम् ||१११।। अर्थ :- सुंदर विकसित पुष्पोथी शोभती मजीओना पुजथी रचित शिखाओ वड़े अने पवनथी नमेली शाखाओ जाणे नगर जनो नो सत्कार करती होय तेम लागे छे! हिन्दी अनुवाद :- सुन्दर विकसित पुष्पों के मनोहर मञ्जरी के पुञ्ज से रचित और पवन से झुकी शाखाएं नगर जनों का जैसे स्वागत करती हों, ऐसा लग रहा है। 89 Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाहा : तम्मि या पवरुज्जाणे घण-तरु-वर-मंडिए सुरमणीए । दंसणमेत्तुप्पाइय-मयणे मयरंद-नामम्मि ।।११२।। नाणा-नेवत्थेणं नायर-लोएण परिगया जाव । पविसामो ता दिटुं दूराओ मयण-देव-हरं ।।११३।। छाया: तस्मिंश्च प्रवरोद्याने घनतरुवरमण्डिते सुरमणिके । दर्शनमात्रोत्पादित-मदने मकरंद-नाम्नि ।।११२।। नाना नैपत्थ्येन नागर-लोकेन परिगता यावत् । प्रविसामः तावद् दृष्टं दूराद् मदन-देव-गृहम् ।।११३।। अर्थ :- सघन वृक्षोथी अत्यंत शोभता, रमणीय, अने जोवमात्रथी कामने उत्पन्न करनार, विविध प्रकारना नेपथ्यने धारण करेला नगर-लोकथी परिवरेला ते श्रेष्ठ मकरंद नामना उद्यानमा ज्यां सुधी अमे प्रवेश्या त्यां सुधीमां दूरथी मदन देवनुं मंदिर जोवायु। हिन्दी अनुवाद :- सघन वृक्षों से अत्यंत सुन्दर, रमणीय और दृष्टिपात से ही काम को उत्तेजित करनेवाले, विविध प्रकार के वस्त्र को धारण किए नगरवासियों से परिवृत उस श्रेष्ठ मकरंद उद्यान के द्वार के निकट आते ही दूर से ही मदनदेव का मंदिर देखा। गाहा : रइ-जुत्त-मयण-पूयण-निमित्तमित्तेण पउर-लोएण। पडिपुन्नं सुविलासं उत्तुंगं तुंग-पागारं ।।११४।। छाया : रति-युक्त-मदन-पूजन-निमित्तमात्रेण पौरलोकेन। प्रतिपूर्णं सुविलास-मुत्तुङ्ग-तुङ्ग-प्राकारम् ।।११४।। अर्थ :- रतिथी युक्त मदन-पूजननां निमिते नगरलोको वड़े भरायेलु ते उद्यान विलास ना अत्यंत ऊँचा किल्ला जेवु लागतु हतु। हिन्दी अनुवाद :- रति से युक्त मदन-पूजा के लिए आए नगरवासियों से भरा वह उद्यान विलास का उच्च किला लगता था। गाहा :- अविय । 'उद्दाम- वज्जत-अच्चंत-वर-मद्दलं मत्त-वर-कामिणी-संघ-कय-गुंदलं।' चच्चरी-सह-अक्खित्त-कामुय-जणं पडहिया-सद्द-नच्चंत-बहु-वामणं ॥११५।। १. गुंदलं = दे० खुशी की आवाज 90 Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपिच उद्दाम वाद्यमानात्यंत- वर-मर्दलं छाया : चर्चरी - शब्दाक्षिप्त-कामुक - जनं पटहिका-शब्द-नृत्यत् - बहु- वामनम् ।।११५।। अर्थ :वळी पण जोशी वागी रहेला अत्यंत श्रेष्ठ मृदंगो वाळु मदोनमत्त श्रेष्ठ स्त्रीओना समुदायथी करायेला छे। आनंदनी ध्वनी वाळु चर्चरीना शब्दोथी खेंचाईने आवेला कामी लोकोना समुदाय वाळु अने नगाराना शब्दोनी साथे नाची रहेला घणा वामन वाळु उद्यान छे । हिन्दी अनुवाद :- अतिजोश से बजते श्रेष्ठ मृदंग से युक्त, मदनमत्त स्त्री समूह द्वारा प्रगट की हुई आनन्द की ध्वनिवाला, चर्चरी के शब्द से आकृष्ट कामुकलोकवाला और नगाड़ों के शब्द से नृत्य करते अनेक वामनवाला उद्यान था। गाहा : पिययमासंत्त - नर - रुद्ध- कयली - हरं छाया : मत्त-वरर- कामिनी - संघ - कृत - गुंदल सविड- वेसा - जणारद्ध - जल- कीडयं प्रियतमासक्त-नर- रुद्ध-कदलीगृहं गाहा : दोलिया - रूढ-पुर- बालिया - सुंदरं 1 सविट-वेश्याजनारब्द्ध-जल-क्रीडकं २. उप्पीलयं - सलिल - संपाय- कय- कद्दमुप्पीलकम' ।। ११६।। सलिल संपात - - कृत-कर्दमुप्पीलकम् ।।११६।। अर्थ :- प्रियतमामां आसक्त मनुष्यों द्वारा अवरोध करायेलु, कदलीगृहवाळु, हिंचका ऊपर चढेली नगरनी बालिकाओथी सुंदर, लज्जा उत्पन्न करनार वेश्या जनथी प्रारंभ करायेली जल-क्रीडा वाळा लीला सहित कादव थी खरडायेला शरीरवाळा लोको हता! हिन्दी अनुवाद :प्रियतमा में आसक्त मनुष्यों द्वारा अवरुद्ध कदलीगृह वाला, झूलने पर आरूढ़ हुई नगरबालिकाओं से सुन्दर, लज्जा उत्पन्न करने वाली वेश्याजन से आरम्भ की हुई जल-क्रीड़ा थी, तथा मिट्टी के लेप से लिपा हुआ उद्यान था । दोलारूढ पुर- बालिका सुन्दरम् I 1 तं मज्झे पविसित्ता दट्ठूण रईए संजुयं मयणं । निग्गंतूणं दोण्णिवि उवविट्ठा वार- वेईए ।। ११७ । । दे० ० समूह 91 Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छाया : तन्मध्ये प्रविश्य द्रष्टुं रत्या संयुक्तं मदनम् । निर्गत्या द्वावपि उपविष्टौ द्वार वेदिकायाम् ||११७|| अर्थ :तेओनी मध्यमां प्रवेश करीने रति साधे मदनने जोड़ने अमे बन्ने त्यांथी निकली ने द्वारनी वेदिका ऊपर बेठा । उनके बीच में जाकर रति के साथ मदन को देखकर हम दोनों हिन्दी अनुवाद :वहाँ से निकलकर द्वार की वेदिका पर जा बैठे। गाहा :- मदन उद्यानमां नवयुवतिनुं दर्शन नाणाविह - कीलाहिं कीलंतं पुर- जणं पुलोएंतो । जाव खणंतरमेगं कुमर ! अहं तत्थ अच्छामि ।। ११८ ।। तावसन्नम्म दुमे अंदोलिंती सहीण मज्झ गया ।.. दिट्ठा अउव्व- रूवा जुवई नव जोव्वणारंभा । । ११९ । पीणुन्नय- घण- सिहिणुच्छलंत हारावलीए कय सोहा । उत्तत्त- कणय- वन्ना मणि- कुंडल - मंडिय- कवोला ।। १२० ।। अमयमइयव्व विहिणा विहिया कय- लोय- लोयणाणंदा । दंसणमेत्तेणं चिय पल्हायंती जण मणाई । । १२१ । । छाया : नानाविध क्रीडाभिः क्रीडत् पुर-जनं पश्यन् । यावत् क्षणान्तर-मेकं कुमार ! अहं तत्र आसे ||११८ | | तावदासने द्रुमे आन्दोलयन्ती सखीनां मध्य-गता | दृष्टा अपूर्व-रूपा युवति नव-यौवनारंभा । ।११९ ।। पीनोन्नत- घन- स्तनोच्छलन् हारावल्या कृत- शोभा । उत्तप्त-कनक- - वर्णा मणि - -कुण्डल- मंडित कपोला ।। १२० ।। अमृतमयैव विधिना विहिता कृत लोक लोचनान्दा | दर्शनमात्रेणैव प्रह्लादयंति जन - मनांसि || १२१।। अर्थ :- विविध प्रकारनी क्रीडा करतां नगर-जनने जोतो जेटलीवारमां हु त्यां बेठो ने पछी तरत त्यां नजीकना वृक्ष पर हिंचकाखाती सखीओनी मध्यमां रहेली अपूर्व रूपवाळी नवयौवनना आरंभवाळी एक युवतिने में जोई। भरावदार उंचा सघन स्तन उपर उछलता हारनी श्रेणी वड़े करायेली शोभावाळी तपेला सोनाजेवा वर्णवाळी, मणिना कुंडलोथी शोभता गळावळी, ब्रह्मा वड़े जाणे अमृतमय बानावी होय तेवी लागती हती, लोकोना 92 Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नयनने आनन्द आपनारी अने दर्शनमात्रथी ज लोकोना मनने आनंद आपती हती। हिन्दी अनुवाद :- अनेक प्रकार की क्रीड़ा में मस्त नगरजनों को देखते हुए ज्योंही मैं बैठा, उसी समय निकट के वृक्ष पर झूला झूलती सखिओं के बीच में अपूर्व रूपवाली नवयौवना को मैंने देखा। वह नवयौवना अति उन्नत स्तन पर लटकते हार की श्रेणी से सुशोभित, स्वर्ण जैसे वर्णवाली, मणि कुंडलों से मनोहर कण्ठवाली, ब्रह्मा द्वारा अमृतमय बनायी हुई लोगों के नयनों को आनन्द देनेवाली, और दर्शनमात्र से लोगों के दिल को बहलाने वाली थी। गाहा : तं दङ्ग चिंतियं मे का एसा हंदि ! मणहर-सरूवा । किं नाग-कन्नगेसा अवइन्ना अहव वण-लच्छी ? ।।१२२।। छाया : तां दृष्ट्वा चिंतितं मया का एषा हन्त ! मनहर-स्वरूपा। किं नागकन्यकैषा अवतीर्णा अथवा वन-लक्ष्मी ? ||१२२|| अर्थ :- तेणीने जोईने में विचार्यु अरे ! आ मनोहर-रूपवाळी कोण छे ? शुं आ नागकन्या अवतारी छे के वनलक्ष्मी अवतरेली छे? हिन्दी अनुवाद :- उस युवती को देखकर मैंने सोचा, “अरे! मनोहर रूपधारी यह युवती कौन है? यह नागकन्या है या वनलक्ष्मी यहां अवतरित हुई है? गाहा : किंवा सुर-लोगाओ पब्भट्ठा तियस-सुंदरी एसा । किंवा मयण-विउत्ता होज्ज रई गहिय-देहत्ति ? ।।१२३।। छाया : किं वा सुर-लोकात् प्रभ्रष्टा त्रिदश-सुंदरी एषा। किं वा मदन-वियुक्ता भवेत् रति ग्रहित-देह इति ।। अर्थ :- अथवा देव-लोकथी भ्रष्टथयेली शुं आ त्रिदशसुंदरी छे ? अथवा शुं आ मदनथी वियुक्त शरीरधारिणी रती छे? हिन्दी अनुवाद :- अथवा तो क्या यह देवलोक से भ्रष्ट हुई त्रिदश सुंदरी है? अथवा यह मदन से वियुक्त शरीरधारी रति है? गाहा : एवं विगप्पमाणो अणमिस-नयणेहिं तं पुलोएंतो । तीएवि पुलोइओ हं ससिणिद्ध-अवंग-दिट्ठीए ।।१२४।। 93 Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छाया : एवं विकल्पमान अनिमेष - नयनाभ्यां तां पश्यन् । तयाऽपि प्रलोकितोऽहं सस्निग्धापांग- दृष्टया ।।१२४।। अर्थ :- ए प्रमाणे विकल्प करतो अनिमेष नयनवड़े तेणीने जोनो हतो तेलीवारमां तेणीवड़े स्नेहभिनी तिच्र्च्छा दृष्टिवड़े हुं पण जोवायो । हिन्दी अनुवाद :- इस प्रकार विकल्प करता हुआ अनिमेष नयनों से उसे देख रहा था, इतनी ही देर में युवती ने भी मुझे स्नेहिल तिरछी दृष्टि से देखा । गाहा : पुट्ठो य भाणुवेगो का एसा कस्स वावि महिलत्ति ? | ईसीसि विहसिऊणं अह भणियं छाया : महिलेति ? | पृष्टश्च भानुवेगः का एषा कस्य वा अपि ईषदीषत् विहस्य अथ भणितं भानुवेगेन || १२५ | | अर्थ :- अने में भानुवेगने पूछ्यु आ कोण छे ? अथवा शुं कोईनी पण स्त्री छे? आ प्रमाणे पूछवाथी कांइक स्मित करीने भानुवेगे कहयु ! हिन्दी अनुवाद :- मैंने भानुवेग से पूछा - "यह कौन है ? क्या यह किसी की पत्नी है ? इस प्रकार पूछने पर कुछ मुस्कुराकर भानुवेग ने कहा । गाहा : एईए संकहाए न हु कज्जं किंचि उट्टिमो ताव | एसा हु वंक- वंकं जोयइ तुह संमुहं जेण । । १२६ ।। छाया : अस्याः संकथायाः न हि कार्यं किञ्चितुतिष्ठामः तावत् । एषा हि वक्र-वक्रं पश्यति तव सम्मुखं येन || १२६ ।। अर्थ :- आ कन्यानी कथामां कोई ज फायदो नथी। हवे आपणे अंहीथी उठिए केम के आ कन्या तिरछी नजरे तारी सामे जोया करे छे। भाणुवेगेणं ।। १२५ ।। हिन्दी अनुवाद :- "इस कन्या की कहानी कहने से कोई फायदा नहीं है। अब हम यहाँ से उठेंगे क्यों कि यह कन्या कटाक्ष से तुझे देखती रहती है । गाहा : अंगेसु निवडमाणा दिट्ठी एवंविहाण महिलाण । देहं कुणइ असत्थं अवस्स हिययं अवहरेज्जा ।। १२७ ।। छाया : अङ्गेषु निपतमाना दृष्टिः एवं विधानां महिलानाम् । देहं करोति अस्वस्थं अवश्यं हृदय-मपहरेत् ।। १२७ ।। 94 Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ :- आवाप्रकारनी स्त्रीओनी दृष्टि आपणा अंग उपर पड़ती देह ने अस्वस्थ करे छे अने अवश्य हृदय पण हरे छे।। हिन्दी अनुवाद :- ऐसी स्त्रियों की दृष्टि अपने अंग पर गिर जाय तो देह अस्वस्थ हो जाती है और हृदय भी हर लिया जाता है। गाहा : तत्तो य मए भणियं परिहास-परो सि अम्हे एमेव । पुच्छामो कोउगेणं तं पुण अन्नं विअप्पेसि ।।१२८।। छाया : ततश्च मया भणितं परिहास-परोऽसि आवां एवमेव । पृच्छामि कौतुकेन तत्पुनरन्यं विकल्पसे ।।१२८।। अर्थ :- व्यारपछी मारावडे कहेवायु - “शुं अमेज परिहास पात्र बन्या ? अमे तो कौतुकवड़े पूछयु अने तमे तो बीजा ज विकल्पो को छो" ? हिन्दी अनुवाद :- तत्पश्चात् मैंने कहा - "अरे! मैं भी क्या उपहासपात्र बना?'' मैंने तुझे कौतुक से पूछा? और तू तो और ही विकल्प करने लगा। गाहा :- नवयुवति परिचय तो भणइ भाणुवेगो इमम्मि नयरम्मि अत्थि पयड-जसो। खयरो अमियगई तस्स भारिया चित्तमालत्ति ।।१२९।। छाया : ततश्च भणति भानुवेगः एतस्मिन्नगरे अस्ति प्रकट-यशः। खेचरोऽमितगतिः तस्य भार्या चित्रमालेति ।।१२९।। अर्थ :- त्यारपछी भानुवेग कहे छे - आ नगरमां प्रकटयशवाळो अमितगति नामनो खेचर छे अने तेनी पत्नी “चित्रमाला" (ए प्रमाणे) छे ! हिन्दी अनुवाद :- पुन: भानुवेग कहता है - इस नगर में प्रख्यातयशस्वी अमितगति नाम का खेचर है और उनकी पत्नी “चित्रमाला" है। गाहा : एसा एगा धूया ताणं जाया अणोवम-गुणवा । नामेण कणगमाला विन्नाण-समन्निया कन्ना ।।१३०।। छाया : एषा एका दुहिता तयोः जाताऽनुपम-गुणाठ्या। नाम्ना कनकमाला विज्ञान-समन्विता कन्या ।।१३०।। अर्थ :- ते बोनी आ एक पुत्री अनुपम गुणथी युक्त ज्ञान-विज्ञानथी समन्वित नामवड़े “कनकमाला” छे! 95 Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी अनुवाद : - उन दोनों की यह इकलौती पुत्री अनुपम गुणयुक्त, ज्ञान-विज्ञान से समन्वित "कनकमाला' नाम वाली है। गाहा : ततो य मए भणियं का एसा मयण-पूयणं कुणइ ? । एसावि का सहीए पुरओ वत्तं कहेमाणी ? ।।१३१।। छाया : ततश्च मया भणितं का एषा मदन-पूजनं करोति ? | एषाऽपि का सख्याः पुरतो वार्ता कथमाना ? ||१३१।। अर्थ :- त्यार पछी मे कहयु आ मदननी पूजा कोण करे छे ? अथवा सखीओनी आगळ वार्ता करती आ कोण छे? हिन्दी अनुवाद : - पुन: मैंने पूछा - ये मदन की पूजा कौन कर रहा है? अथवा सखिओं के साथ उनके आगे बातें करती यह कौन है? गाहा : को व इमो अवलंबइ गलए वेसाए तरुणओ पुरिसो ?। एमाइ मए पुट्ठो हसिऊण तओ इमं भणइ ।।१३२।। छाया : को वाऽय-मवलम्बते ग्रीवया द्वेषन तरुणः पुरुषः ?| एवमादि मया पृष्टः हसित्वा तत इमं भणति ।।१३२|| अर्थ :- अथवा कयो तरुण पुरुष तेणीने गले अवलम्बीने रहयो छे? इत्यादि मारावड़े पूछायेलो भानुवेग हंसीने आ प्रमाणे कहे छे! हिन्दी अनुवाद :- अथवा कौन तरुण पुरुष इनके कण्ठ से लगा है? इत्यादि मेरे द्वारा पूछा गया भानुवेग हंसकर इस प्रकार कहता है। गाहा : एवंविह-पुच्छाहिं कीस तुमं सुयणु ! मं पयारेसि ? । को जुन्न- मज्जरि कंजिएण पवियारिउं तरइ ? ।। १३३।। छाया : एवंविध पृच्छाभिः कस्यास्त्वं सुतनो ! मां प्रतारयसि ? | कः जीर्ण-मार्जारी कांजिकं प्रवितारयितुंवा नरति ।।११३३।। अर्थ :- हे सुतनु ! आप्रमाणे पूछवावड़े शु तु मने डगवा मांगे छे ? शु धरडी बिलाडीने ठगीने कोण कांजी पीवडाववामाटे समर्थ बने? हिन्दी अनुवाद :- हे सुतनु! इस प्रकार पूछकर क्या तूं मुझे अनजान बनाना चाहता है? क्या वृद्ध बिल्ली को ठग कर कोई कांजी पीने में समर्थ बन सकता है? 96 Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाहा : न हु सुयणु ! पढम-पुच्छ एरिस-पुच्छाहिं छाइउं तरसि। किडएहिं पयत्तेणवि छाइज्जइ कह णु पच्चूसो ?।।१३४।। छाया: नखलु सुतनु! प्रथम-पृच्छा इदृश-पृच्छाभिःछादयितुंतरसि | कटैः प्रयत्नेनाऽपि छाद्यते कथं नु प्रत्यूषः ? ||१३४।। अर्थ :- हे सुतनु ! आवाप्रकारना प्रश्नो वड़े तुं प्रथम पूछायेलु ढांकवामाटे समर्थ नहीं बने ! गमे तेटला प्रयत्नोवड़े पण शुं चटाई द्वारा सूर्य ढांकी शकाय? हिन्दी अनुवाद :- हे सुतनु! इस प्रकार के प्रश्नों से तूं सच्चाई मुझसे छुपा नहीं सकेगा, कितने भी प्रयत्न करो क्या कभी चटाई से सूर्य ढका जा सकता है? गाहा : एवं च तेण भणिओ लज्जाए अहोमुहो ठिओ अहयं । तं दद्रु भाणुवेगो ठिओ अलक्खोव्व होऊणं ।। १३५।। छाया : एवं च तेन भणितः लज्जया अधोमुखः स्थितोऽहकम् । तं दृष्ट्वा भानुवेगः स्थितो अलक्ष्येव भूत्वा ।।१३५।। अर्थ :- आ प्रमाणे भानुवेगवड़े कहेवायेलो लज्जाथी अधोमुख हुं रहयो। आ जोईने भानुवेग पण विलखों जेवों थई गयो । हिन्दी अनुवाद :- इस प्रकार भानुवेग से कहा गया मैं लज्जा से अधोमुख हो गया यह देख कर भानुवेग भी अलक्ष्य जैसा हो गया। गाहा : लज्जाए तस्समए वालिज्जतीवि अन्नओहुत्तं । मड्डाए तहवि निवडइ मह दिट्ठी तीए मुह-कमले । १३६।। छाया : लज्जाया तत्समये वार्यमाणाऽपि अन्यतो भुक्तं। बलात्कारेण तथाऽपि निपतति मम दृष्टिस्तस्या मुख-कमले।।१३६।। अर्थ :- ते समये शरमथी दृष्टिने अटकाववा छतां पण बीजे नहि जता बलात्कार वड़े पण मारी दृष्टि तेणीना मुख कमल पर जती हुती । हिन्दी अनुवाद : - उस समय लज्जा से दृष्टि को रोकने पर भी बारबार दृष्टि और कहीं न जाकर उस कमलमुखी कनकमाला की ओर ही चली जाती थी। 97 Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाहा :- कनकमाला चित्रवेगनी प्रेमसभरता अणुराय-तंति बद्धा दिट्ठी जण-सकुलेवि मग्गम्मि । सरिऊण सणिय-सणियं जत्थ पियं तत्थ अल्लियइ।।१३७।। छाया : अनुराग - तन्ति-बद्धा दृष्टिर्जन-संकुलेऽपि मार्गे । सत्वा शनैः शनैः यत्र प्रियं तत्राऽऽलियते ।।१३७।। अर्थ :- अनुरागना तांतणाथी बंधायेल दृष्टि लोकोथी भरचक मार्गमा पण सरकीने धीमे-धीमे ज्यां प्रिय छे त्यां ज चोटी जाय छे ! हिन्दी अनुवाद :- अनुराग के तंतुओं से बद्ध दृष्टि लोगों के भीड़वाले मार्ग में भी खिसक कर धीरे से जाँ प्रिय है, वहीं चली जाती थी। गाहा : सहि-जण-पच्छन्नेहिं पुणो पुणो तरल दिट्ठि-पाएहिं । भद्दवय- मेह-विज्जूए विलसियं तीए विजियंति ।। १३८।। छाया : सखि-जन-प्रच्छन्नैः पुनः पुनः तरल-दृष्टि पातैः। भाद्रपद-मेघ-विद्यूते विलसितं तया विजयंती ।।१३८।। अर्थ :- सखिजन पण बारंबार छुपीरीते चपल दृष्टिपातवड़े विंजती भादरवाना मेघनी विजळीनी जेम तेणीनुं विलसित जोती होती ! हिन्दी अनुवाद :- सखियां भी बारम्बार छुपकर चपल दृष्टि द्वारा भाद्र मास के मेघ के बिजली की तरह उनका विलास देखती थीं। गाहा : तो तीए तरल-पम्हल-दिट्ठी-बाणेहिं जज्जरे हियए । मज्झ पविट्ठा पंचवि कुसुम-सरा मयण-पविमुक्का।।१३९।। छाया : ततस्तया तरल-पक्ष्मल-दृष्टि-बाणैः जर्जरे हृदये। मम प्रविष्टा पञ्चापि कुसुम-शर-मदन-प्रविमुक्ताः ||१३९।। अर्थ :- त्यारपछी तेणीना चपळ पापणोवाळी दृष्टिना बाणोवड़े हृदय जर्जरीत थये छते पण मदनथी मुकायेला पांचे पण बाणो मारा हृदयमा प्रवेश्या। हिन्दी अनुवाद :- उसके बाद उनकी चंचल पलकों वाले नैनों के बाण द्वारा हृदय जर्जरित होने पर मदन के द्वारा छोड़े गए पांचों बाण मेरे हृदय में घुस गये। गाहा :- कनकमालानु गृहगमन एत्थंतरम्मि तीए सहि-निवहो निय-गिहेसु संचलिओ। सावि हु बाला चलिया पुणो पुणो मं पुलोएंती ।।१४०।। 98 Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छाया: अत्रान्तरे तस्याः सखि-निवहः निज-गृहेषु संचलितः। साऽपि खलु बाला चलिता पुनः पुनः मां पश्यन्ती।।१४०।। अर्थ :- एटलीवारमा तेणीनो सखि-समूह पोत-पोताना घरे गयो। अने ते बाला पण बारम्बार मने जोती चाली। हिन्दी अनुवाद :- तभी उनका सखी-समूह अपने-अपने घर चला गया और कनकमाला भी बारबार मुझे देखती हुई चली गई। गाहा : वलिय-ग्गीवं तीए ससिणिद्ध-अवंग-दिट्ठि-दोरेण । आयड्डिय पच्छन्नं मह हिययं झत्ति अवहरियं ।।१४१।। छाया : वलित-ग्रीवं तया सस्निग्ध अपांङ्ग-दृष्टि-द्वारेण । आकृष्ट्य प्रच्छन्नं मम हृदयं झटिति अपहृतम् ।।१४१।। अर्थ :- वळोली डोकवाळी तेणीए स्नेहपूर्वक दृष्टिना अंतभाग वड़े खेचायेलु मारू हृदय जल्दी थी चोरी लीधु ! हिन्दी अनुवाद :- कंठ को घुमाकर स्नेहिल दृष्टि की अंतिम चितवन द्वारा आकृष्ट मेरा दिल शीघ्र ही चुरा लिया गया। गाहा : नाउं वहरिज्जतं मह हिययं तीए पय-विलग्गाइं । कूयंति नेउराई पुणो कुढिय-पुरिसोव्व ।।१४२।। छाया :। ज्ञात्वाअपहियमाणं मम हृदयं तस्याः पद-विलग्नानि । कूजन्ति नूपुराणि पुनः पुनः कुढित-पुरुषेव ।।१४२।। अर्थ :- मारू हृदय अपहरण करातु जाणीने तेणीना पगे लागेला अने नूपुरो बारंबार मूर्खपुरुषनी जेम अवाज करता हता। हिन्दी अनुवाद :- मेरे दिल का अपहरण होता जानकर उनके पैरों में रहे नूपुर बारबार मूर्ख पुरुष की तरह अवाज करने लगे। गाहा : मयणत्ता सा जंती अणमिस-नयणेहिं पुलइया ताव । जावुज्जाण-तरूहिं अंतरिया दिट्ठि-मग्गाओ।।१४३।। ३. कुढिय = दे० मूर्ख 99 Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छाया : मदनार्ता सा यान्ति अनिमेष - नयनाभ्यां पुलकिता तावत् । यावदुद्यान-तरुभि-रन्तरिता दृष्टि - मार्गात् ।। १४३ ॥ अर्थ :- मदनथी पीडाति जती अनिमेष - नयनोवड़े ने जोवाई नेटलीवारमां उद्यानना वृक्षो वच्चे आववाथी दृष्टि-मार्गथी तेणी दूर थई । हिन्दी अनुवाद :- मदन से पीड़ित अनिमेष - नयनों द्वारा वह दिख रही थी तभी उद्यान के वृक्षों के बीच में आने से वह भी नयनों से ओझल हो गई । गाहा : वोलीण - दंसणाए तीए मह माणसम्मि संतावो । दुव्विसहो संजाओ समकं अइदीह - सासेहिं ।। १४४।। छाया : व्यतीत-दर्शनया तस्या मम मानसे संतापः । दुः विसहः संजातः समयं अतिदीर्घ श्वासैः ।।१४४।। अर्थ :- तेणीना दर्शन नही थतां मारा मनमां अत्यंत दुःसह संताप थयो अने साथे साथे ते वखते श्वासपण जोश जोशथी चालवा लाग्या । और साथ : हिन्दी अनुवाद उनका दर्शन न होने से मेरे दिल में दुःसह संताप हुआ ही उस समय श्वास भी जोर-जोर से चलने लगी। गाहा : अह भाइ भाणुवेगो गच्छामो निय- गिहम्मि अम्हे वि । एवंति मए भणिए समागया दोवि गेहम्मि ।। १४५।। छाया : अथ भणति भानुवेगो गच्छामः निज गृहे आवामपि । एवमिति मया भणिते समागतौ द्वावपि गृहे ।।१४५। अर्थ :- हवे भानुवेग कहे छे “आपणे आपणा घरे जइए, “हा” ए प्रमाणे मारावड़े कहेवाये छते अमे बन्ने घरे गया। हिन्दी अनुवाद :- भानुवेग कहता है “फिलहाल हम अपने घर चलेंगे। मेरे "हां" कहने पर हम दोनों घर चले गये। गाहा : तत्तो अहमारूढो उवरिम- भूमीए तत्थ सयणीए । पासुत्तो उवविट्ठो मह पासे भाणुवेगोवि ।। १४६ ।। छाया : ततोऽहमारूढ उपरितन- भूमौ तत्र शय्यायाम् । प्रसुप्त उपविष्टो मम पार्श्वे भानुवेगोऽपि । । १४६ ।। 100 Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ :- व्यारपछी हुं मकानना ऊपरना माळामां मारी शय्यामां सूइ गयो । भानुवेग पण मारी पासे बेठो हतो। हिन्दी अनुवाद :- बाद में मैं महल के सबसे ऊपरी मंजिल पर जाकर अपनी शय्या पर सो गया, और भानुवेग मेरे पास में बैठा था। गाहा :- चित्रवेगनो हृदय संताप तो भाइ भाणुवेगो कीस तुमं दुम्मणोव्व मुंचसि विसाय- गब्भे सुदीहरे कीस छाया : तत्र भणति भनुवेगः कथं त्वं दुर्मन इव मुञ्चसि विषाद-गर्भे सुदीर्घान् कथं संजातः ? | निःश्वासान् ||१४७ ।। अर्थ त्यां भानुवेग कहे छे - “तुं दुर्मनस्क जेवो केम थयो छे? अने शामाटे विशाद- युक्त अनिलांबा नीसासा नांखे छे? हिन्दी अनुवाद :- तब भानुवेग ने कहा- “ तूं उदास क्यों हो गया है ? किस कारण सेतूं विशादयुक्त अतिदीर्घ नि:श्वास छोड़ रहा है। · गाहा : संजाओ ? | नीसासे ? ।। १४७ ।। किं कुणसि अंग-भंगं दीहं नीससिय मुक्क - हुंकारो । भट्ट - द्विय- चणगो विव सयणीए कीस तडफडसि ? ।। १४८ ।। छाया : किं करोषि अङ्गभङ्ग दीर्घं निःश्वस्य मुक्त - हङ्कारः । भ्राष्ट-स्थित चणकेव शयनीये कथं तडफडसि ?... .?।।१४८।। ( इतस्ततो भ्रमति) अर्थ :- तुं अंगने शा माटे मरडे छे? दीर्घनिः सासा छोडीने हुंकार केम करे छे? अने शा माटे भट्टिमां रहेला चणानी जेम शय्यामां तरफठियां मारे छे? हिन्दी अनुवाद :- अंगों को क्यों मरोड़ रहे हो । ? तथा दीर्घ निःश्वास द्वारा हुंकार क्यों भर रहे हो ? और किस लिए भाड़ के चने की तरह शय्या पर इधर-उधर लेट रहे हो ? गाहा : किं किंपि चिंतिऊणं अणिमित्तं चेव कीस तं हससि ? । नियय - विगप्प- वसेणं कीस पुणो दुम्मणो होसि ? ।। १४९।। छाया : किं किमपि चिन्तयितु-मनिमित्तं चैव कथं त्वं हससि ? | निजक - विकल्प - वशेन कथं पुनः दुर्मनोभवति ? ।।१४९ ।। 101 Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ :- गमे ते विचारो करीने अकारण ज तुं केम हसे छे? अने वळी पोताना विकल्पोने वश थईने दुःखी केम थाय छे ? हिन्दी अनुवाद :- कुछ भी सोचकर बिना किसी कारण तूं क्यों हंसता है ? पुनः स्वयं के विकल्पों के वश होकर दुःखी क्यों होता है ? गाहा : नाणा - रस- संकिन्नं नाडय कव्वंव अहिणवेमाणो । किं चिट्ठसि न य साहसि सब्भावं किंचि अम्हाणं ? ।। १५० ।। छाया : नाना-रस संकीर्णं नाटक काव्यमिव अभिनयन् । किं तिष्ठति न च कथयसि सद्भावं किंञ्चिदस्माकम् ||१५० ।। अर्थ :- विविध प्रकारना रसथी युक्त नाटक-काव्यनी जेम अभिनय करतो तुं केम उभो छे ? अने साचीवात अमने केम कहेतो नथी । हिन्दी अनुवाद :- विविध प्रकार के रस से युक्त नाट्य-काव्य की तरह अभिनय करता हुआ क्यों खड़ा है ? जो सच्ची बात है सो मुझे बतादे ।” गाहा : एवं च तेण बहुसो पुच्छिज्जंतेण कुमर! मे भणियं । जाणमि नेव किं पुण मह देहं गाढमस्सत्यं ? ।। १५१ ।। छाया : · एवं च तेन बहुशः पुच्छ्यमानेन कुमार! मया भणितम् । जानामि नैव किं पुनः मम देहं अर्थ :- आ प्रमाणे तेना वड़े घणीवार पूछाता मारा वड़े कहेवायु । हे कुमार! मारु शरीर केम अत्यंत अस्वस्थ छे ते हुं कांइ ज जाणतो नथी! हिन्दी अनुवाद :इस प्रकार उनके बार-बार आग्रह करने पर मैंने कहा - हे कुमार! मेरा शरीर एकदम अस्वस्थ्य क्यों है यह मै स्वयं भी कुछ नहीं जानता । गाहा : छाया : हसिऊण तेण भणियं पुव्वं चिय साहियं मए तुज्झ । एवंविह- महिलाणं न सुंदरं गाढमस्वस्थम् । । १५१।। दंसणं होइ । । १५२ ।। हसित्वा तेन भणितं पूर्वमेव कथितं मया तुभ्यम् । एवंविध- महिलानां न सुन्दरं दर्शनं भवति । । १५२ ।। अर्थ :- तेणे हसीने कहयु, “पहेला ज मारा वड़े तने कहेवायु हतुं के आवा प्रकारनी स्त्रीओना दर्शन नथी होता । 102 Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी अनुवाद : - तब उसने हंसकर कहा - मैंने तुझे पहले ही कहा था - कि ऐसी स्त्रियों का दर्शन करना अच्छा नहीं है। गाहा : ता तीए चक्खु-दोसा एसो सव्वोवि तुज्झ संतावो । दाविज्जइ सा हत्थं पट्टीए जेण होइ सुहं ।।१५३।। छाया : तस्मात् तस्याः चक्षु-दोषात् एषः सर्वोऽपि तव संतापः। (दापयति) ददाति सा हस्तं पृष्ठे येन भवति सुखम् ।।१५३।। अर्थ :- तेणीना दृष्टि दोषथी आ सर्व पण तारो संताप छ। हवे तो तेणी तारी पीठ उपर हाथ फेरवशे तो ज तने सुख थशे।" हिन्दी अनुवाद :- उसके दृष्टि दोष से ही यह सब कष्ट तुझे हो रहे हैं, अब तो वह आकर जब तेरी पीठ पर हाथ रखेगी तभी तुझे खुशी होगी। गाहा : नीससिय मए भणियं संदेहो जीवियस्सवि य अम्हं । तं पुण सुहिओ भाओ य परिहासं कीस नो कुणसि? ।।१५४।। छाया : निःश्वस्य मया भणितं संदेहो जीवितस्याऽपि च मम । त्वं पुनः सुखितो भ्राता यः परिहासं कस्मानः करोसि?|१५४।। अर्थ :- त्यारे में उंडो श्वास छोडीने कहयुं हवे तो मारू जीवनपण संदेहमय छे । वळी तुं मारो सुखीभाई थईने परिहास करे छे? हिन्दी अनुवाद :- तब मैंने गहरा श्वास छोड़कर कहा - अब तो मेरा जीवन भी सन्देहमय है और तूं मेरा भाई होकर भी परिहास करता है? गाहा :__ तो भणइ भाणुवेगो सब्भाव-विवज्जियस्स पुरिसस्स। अन्नायम्मि सरूवे किं काउं सक्किमो अम्हे ? ।।१५५।। छाया : ततो भणतिभानुवेगः सद्भाव-विवर्जितस्य पुरुषस्य । अज्ञाते स्वरूपे किं कर्तुम् शक्नुवः आवाम ? ||१५५।। अर्थ :- त्यारपछी भानुवेग कहे छे जे पुरुषजी साचीबात अमे जाणीये नहि अने अमने साची वस्तुनुं स्वरूप कहे नही तो अमें शु की शकीए? हिन्दी अनुवाद :- पुनः भानुवेग कहता है - सच्ची बात या जिसका सच्चा स्वरूप हम जानते नहीं हैं उसमें हम भी क्या कर सकते हैं? 103 Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाहा : ताहि मए वज्जरियं साहिज्जइ तस्स जो न याणाइ। तं पुण जाणंतोवि हु अलियं चिय पुच्छिसि ममंति ।।१५६।। छाया : तदा मया कथितं कथ्यते तस्य यो न जानाति । तं पुनो जाननपि खलु अलीकमेव पृच्छसि ममेति ।। १५६।। अर्थ :- त्यारे में कहयु - “जे जाणातो नथी तेने कहेवाय छे । तुं तो जाणतो छता पण खोटु ज मने पूछे छ। हिन्दी अनुवाद :- तब मैंने कहा - "जो अज्ञात है उसका स्वरूप कहा जाता है, तूं तो जानने पर भी उल्टा मुझसे ही पूछता है। गाहा : एमाइ-वयण-वित्थर-वज्जरण-परायणाण अम्हाणं । चूय-लया गिह-दासी आगंतुणं इमं भणइ ।।१५७।। छाया : एवमादि-वचन-विस्तर-कथ्यमान परायणयो-रावयोः । चूतलता गृहदासी आगत्य इमं भणति ||१५७।। अर्थ :- इत्यादि वचनना विस्तारने कहेवामां अमे बन्ने तत्पर हता तेटलीवारमा “चूतलता" नामनी घरनीदासी आवीने अने कहे छ। हिन्दी अनुवाद : - इत्यादि बात-चीत करने में हम दोनों लगे थे, इतनी देर में "चूतलता' गृहदासी आकर इस प्रकार कहती है। गाहा: अच्छइ दुवार-देसे समागया तुम्ह सण-निमित्तं । सोमलया नामेणं वर-धाई कणगमालाए ।। १५८।। छाया : तिष्ठति द्वार-देसे समागता तव दर्शन-निमित्तम् । सोमलता नाम्ना वर-धात्री कनकमालायाः।।१५८।। अर्थ :- मुख्य द्वार पर आपना दर्शनना निमित्ते आवेली कनकमालानी धावमाता नामवड़े “सोमलता" द्वार पर उभी छे। हिन्दी अनुवाद :- आपके दर्शन हेतु कनकमाला की धायमाता “सोमलता'' आकर द्वार पर खड़ी है। गाहा :- कनकमालानी धावमाता- आगमन तो भणइ भाणुवेगो लहुं पवेसेह एव भणियम्मि । अह सच्चिय सोमलया समागया अम्ह पासम्मि ।।१५९।। 104 Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छाया: ततो भणति भनुवेगो लघु प्रवेशय एवं भणिते । अथ सा एव सोमलता समागता आवयो पार्श्वे ।।१५९।। अर्थ :- प्यार पछी भानुवेगे कहयु : "तेणीने जल्दी अंदर मोकलो" आ प्रमाणे कहेवाये छते ते ज सोमलता आमारी पासे आवी ।। हिन्दी अनुवाद :- अतः भानुवेग ने कहा "उन्हें जल्दी से अंदर आने दीजिए'' इस प्रकार कहने पर सोमलता हमारे पास आई। गाहा : कय-उवयारा ताहे उवविट्ठा भणइ सायरं वयणं । एगंतं कुणह तओ चूयलया पेसिया तत्तो ।।१६०।। छाया : कृतोपचारा तदोपविष्टा भणति सादरं वचनम् । एकांतं कुरु ततश्चूतलता प्रेषिता ततः ।। १६०।। अर्थ :- त्यारे करेला उपचारवाळी, बेठेळी तेणीए आदपूर्वक कहयु “एकांत कन्टो” व्यारे अमे लोकोए चूतलताने मोकली दीधी। हिन्दी अनुवाद :- तब पायी हुई सन्मानवाली बैठकर आदरपूर्वक उसने कहा - “एकान्त करो'' तब हमने चूतलता को बाहर जाने को कहा। गाहा : भणियं सोमलयाए सरणागय-वच्छला जओ सुयणा । परितायह परितायह ममं तओ भीम-वसणाओ ।।१६१।। छाया : भणितं सोमलतया शरणागत-वत्सला यतः सज्जनाः। परित्रायस्व परित्रायस्व मम तम्सात् भीम-व्यसनात् ।।१६१।। . अर्थ :- त्यार पछी सोमलताए कहयुः - “हे शरणागतवत्सल सज्जनो। मने ते घोर-संकटमाथी बचावो | मारू रक्षण करो।" हिन्दी अनुवाद :- बाद में सोमलता ने कहा - "हे शरणागतवत्सल सज्जनों! मुझे इस महासंकट से बचाइए! मेरी रक्षा कीजिए!" गाहा : हरिसाऊरिय-हियएण ताहे एवंविहं मए भणियं । कत्तो भद्दे! वसणं, सा भणई कुसुमबाणाओ।।१६२।। छाया: हर्षापूरित-हृदयेन तदा एवंविधं मया भणितम् । कुतो भद्रे! व्यसनं सा भणति कुसुमबाणात् ।।१६२।। 105 Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ :- व्यारे हर्षथी भन्टेला हृदयवाळा में आ प्रमाणे कहयु : हे भद्रे! तमने कोना थी संकट छे? व्यारे सोमलताए मने कहयु - “कुसुमबाणथी मने भय छ।” हिन्दी अनुवाद :- तब हर्षयुक्त हृदयवाला मैने इस प्रकार कहा - हे भद्रे ! आपको किससे संकट है? तब सोमलता ने मुझसे कहा - "कुसुमबाण से मुझे भय है। गाहा : ईसीसि विहसिऊणं वज्जरियं ताहि भाणुवेगेण । कडकडिय-सव्व-संधि गय-लायन्नं तुह सरीरं ।।१६३।। छाया : ईषदीषत् विहस्य कथितं तदा भानुवेगेन । कडकडित-सव्व-सन्धिं गत-लावण्यं तव शरीरम् ।।१६३।। अर्थ :- त्यारे कंईक हसिने भानुवेगे कहयु - "तारू शीर जीर्ण थयेला सर्व सांधावाळु अने लावण्यरहित छे .... हिन्दी अनुवाद :- तब थोड़ा हंसकर भानुवेग कहता है - "आपका शरीर तो जीर्ण और लावण्य रहित है। गाहा : निन्नट्ठ-दंत-पंतिं सिय-केस-हसंत-सीस-सोहिल्लं । दूर-पलंबिर-वलि-वलय-सहिय-सिहिणेहिं बीभच्छं।।१६४।। छाया : निर्नष्ट-दन्त-पंक्तिं श्वेत-केश-हसन्-शीर्ष -शोभावान् । दूर-प्रलंबित-वलि-वलय-सहित-स्तनाभ्यां बीभत्सम् ।।१६४।। अर्थ :- जेनी दांतनी पक्तिं पण नाश थई छे, सफेदबाळना हास्यथी मस्तक शोभी-रहयु छे। दूर लटकती त्रिवली सहित स्तनावड़े बीभत्स तारू रूप छ। हिन्दी अनुवाद :- जिनकी दन्तपंक्ति नष्ट हो गई है, श्वेतकेश के हास्य से मस्तक शोभायमान है, लटकती हुई त्रिवली सहित स्तनों द्वारा बीभत्स तेरा रूप है। गाहा : दठूण भीय-भीओ दूरं दूरेण वच्चइ अणंगो। तत्तो कह तुज्झ भयं जराए जज्जरिय-देहाए ? ।।१६५।। छाया : दृष्ट्वा भीत-भीतो दूरं दूरेण व्रजति अनङ्गः । ततः कथं तव भयं जरया जर्जरित-देहेन ? ||१६५।। ४. कडकडित = जीर्ग| 106 Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ :- आवा तारा रूपने जोईने भयथी डरतो अनंग दूर-सुदूर भागी जाय छे। तो जराथी जर्जरित देहवाळी तने भय केवी रीते थाय छे? हिन्दी अनुवाद :- ऐसे तेरे रूप को देखकर भय से कम्पता हुआ अनंग भी सुदूर चला जाता है तो फिर वृद्धावस्था से जर्जरित देहवाली तुझे भय कैसे लगता है? गाहा : सोमलयाए भणियं मा मं उवहससु सुणसु वुत्तंतं । जह कुसुम-बाण-विहियं परंपराए मह भयंति ।।१६६।। छाया : सोमलतया भणितं मामुपहसस्व शृणु वृत्तान्तम् । यथा कुसुम-बाण-विहितं परंपरया मम भयमिति।।१६६।। अर्थ :- हवे सोमलता कहे छे। तमे माराविषे हसो नहि। अने माटो वृत्तान्त सांभळो जेवीरीते कुसुम-बाणथी विंधायेली परंपराथी मने भय छ। हिन्दी अनुवाद :- अब सोमलता कहती हैं - आप मेरे बारे में हंसो नहीं? मैं कहती हूं सो सुनो, कुसुमबाण से पीड़ित कनकमाला (का परम्परा) से मुझे भय है। गाहा : उज्जाणाउ कीलिय समागया निय-गिहे कणगमाला। विच्छाय- वयण-सोहा विड-प्पगहिया ससि-कलव्व ।।१६७।। छाया : उद्यानात् क्रीडित्वा समागता निज-गृहे कनकमाला। विच्छाद-वदन-शोभा विडप्प-गृहीत शशि-कलेव ।। १६७।। अर्थ :- उद्यानथी क्रीडा करीने कनकमाला पोताना घरे आवी व्यारे तेनुं मुख राहु थी ग्रसित चन्द्रकलानी जेम करमायेलुं जोयु। हिन्दी अनुवाद :- उद्यान से क्रीड़ा करके जब कनकमाला अपने घर आई तब उसका मुख राहु से ग्रस्त चन्द्रमा की तरह मुरझाया हुआ था। गाहा : तत्तो य मए पुट्ठा कीस तुमं पुत्ति। विमण-दुम्मणिया? । न य तीए किंचि सिटुं सुदीहरं नवरि नीससिहउं ।।१६८।। छाया : ततश्च मया पृष्टा कस्मात् त्वं पुत्रि! विमन-दुर्मनिता ? | न च त्वया किञ्चित् शिष्टं सुदीर्घ नवरि निःश्वस्य ।।१६८।। ५. विडप्प = दे० राहु 107 Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दनया । अर्थ :- तेथी में तेणीने पूछयु - “हे पुत्रि! तुं शा कारणथी विमनस्क दुःखीछे? त्यारे तेणीवड़े दीर्घ निःसासा सिवाय कोइज प्रत्युत्तर न अपायो। हिन्दी अनुवाद :- अत: मैंने उससे पूछा - "हे पुत्री! तूं किस लिए अन्यमनस्क और दुःखी हो? तब उसने मात्र दीर्घ नि:श्वास ही छोड़ा और कुछ भी प्रत्युत्तर नहीं दिया। गाहा : अंसु-जल-पूरियाई नयणाई दीण-वयणाए । - तत्तो य मए पुट्ठा तीए सही हंसिया नाम ।।१६९।। छाया : अश्रु-जल पूरितानि नयनानि कृतानि दीन-वदनया । ततश्च मया पृष्टां तस्याः सखी हंसिका नाम ||१६९।। अर्थ :- पण अशु-जल भरेला नयनोवडे दीन मुखवाळी थई, तेथी ये तेणीनी "हंसिका" नामनी दासीने पूछयु! हिन्दी अनुवाद : - अश्रु जल से भरे हुए नयनों द्वारा दीनवदना पुत्री को देखकर मैंने "हंसिका' नाम की दासी से कारण पूछा ? गाहा : तीए भणियं अंबे! उज्जाणं अज्ज पाविया अम्हे । पूइय मयणं बाहिं नीसरिया जाव ता दिह्रो ।।१७०।। कोउगवक्खित्त-मणो उवविट्ठो भाणुवेग-पासम्मि । पच्चक्खोव्व अणंगो एगो तरुणो महाभागो ।।१७१।। छाया : तया भणितं अम्बे! उद्यानमद्य प्रापिता वयम् । पूजयित्वा मदनं बहिर्निसृता यावत् तावत् दृष्टः ।।१७०।। कौतुक-व्यक्षिप्त-मन उपविष्टो भानुवेग-पार्श्वे । प्रत्यक्षेवनंग एकस्तरुणो महा भागः ||१७१।। अर्थ :- तेणीए कहयु :- हे माता! आजे अमे उद्यानमांजई मदननी पूजाकरीने जेटलीवारमा बहार नीकळया तेटलीवारमा भानुवेगनी पासे कौतुकथी खेंचायेला मानवाळो महाभाग्यवान् साक्षात् कामदेव जेवो एक तरुण बैठो हतो। हिन्दी अनुवाद :- उसने मुझसे कहा - हे माता! आज जब हम उद्यान में मदन की पूजा करके बहार निकले तब भानुवेग के साथ कौतुक से आकृष्ट चित्तवाला महाभाग्यवान् साक्षात् कामदेव जैसा एक युवक वहां बैठा था। 108 Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाहा : तं दठूण एसा जाया निष्फंद-लोयणा सहसा । आसत्ता तव्वयणे आलेक्ख-गयव्व निच्चेट्ठा।।१७२।। छाया : तं दृष्ट्वा एषा जाता निष्पंद-लोचना सहसा । आसक्ता तद्-वदनेऽऽलिख्य-गतेव निश्चेष्टा ।।१७२।। अर्थ :- तेने जोइने आ सहसा निष्पंद लोचनवाळी थई। तेना मुखपर आसक्त, चित्रमा दोरेलानी जेम निश्चेष्ट थई! । हिन्दी अनुवाद :- उसको देखकर कनकमाला सहसा निष्पंद लोचनवाली हो गई, उसके मुख पर आसक्ति चित्र में चित्रित किसी वस्तु की तरह निश्चेष्ट हो गई। गाहा : सव्वंगिओ इमीए अणिमिस-दिट्ठीए जोइओ स युवा । न य तेण इमा दिट्ठा कोउगवक्खित्त-चित्तेण ।।१७३।। छाया: सर्वाङ्गीणेऽमया अनिमिष-दृष्ट्या दृष्टः स युवा। न च तेन इमा दृष्टा कौतुक व्यक्षिप्त-चित्तेन ।।१७३।। अर्थ :- अनिमेष दृष्टि द्वारा आना वड़े सर्वाङ्गी ते युवा जोवायो परंतु कौतुकथी खेंचायेला चित्तवाळा तेना वड़े आ न जोवाई। हिन्दी अनुवाद :- इसके द्वारा अपलक नयनों से वह युवक देखा गया किन्तु कौतुक देखने में तल्लीन उस युवक ने इसे (कनकमाला की) नहीं देखा। गाहा : तो तस्स नयण-गोयरमपावमाणा सलज्ज-मुह-कमला। दोहग्ग-दूसियं पिव अत्ताणं मन्नमाणव्व ।।१७४।। किं-किंपि चिंतिऊणं भणइ सहीओ! इमम्मि चूय-दुमे । कीलामो ताव खणं बंधिय अंदोलयं अम्हे ।।१७५।। छाया: ततस्तस्य-नयन-गोचरमप्राप्यमाना स-लज्ज-मुखकमला । दौर्भाग्य-दूषितमिवात्मानं मन्यमानेव ||१७४।। किं किमपि चिंतयित्वा भणति सखि! अस्मिन् चूत-द्रुमे । क्रीडामः तावत् क्षणं बद्भवा आन्दोलकं वयम् ||१७५।। अर्थ :- तेथी तेना नयनना विषयने प्राप्त नहीं करती लज्जायुक्त मुखकमलवाळी पोताने दौर्भाग्यथी दूषित जाणे मानती होय तेम कांड 109 Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पण विचारीने कहयु हे सखि ! चालो आपणे आ आम्रवृक्ष नीचे हिंचको बांधीने रमीट! ते वखते ज.. हिन्दी अनुवाद : - अत: उससे आंखे चार न होने के कारण लज्जायुक्त मुखवाली स्वयं को दुर्भाग्य से दूषित मानती हुई कुछ सोचकर कहने लगी - हे सखि। चलो, हम इस आम्रवृक्ष के नीचे झूला बांधकर खेलेंगे, उसी समय... गाहा : एवं ताहिं भणिए तहेव संपाडियम्मि एसावि । गुरु-सद्देण सहीओ आसन्नाओवि वाहरइ।।१७६।। छाया: एवं ताभ्यां भणिते तथैव संपातिते एषाऽपि । गुरु-शब्देन सखी रासन्नतरपि व्याहरति ।।१७६।। अर्थ :- तेना कहेला प्रमाणे कराये छते अने सखीओ नजीक होवा छतां पण मोटा अवाज वड़े बोले छे। हिन्दी अनुवाद :- उसकी आज्ञा प्रमाण होने पर भी, और सखियों के पास होने पर भी ऊँची-ऊँची आवाज में बोलने लगी। गाहा : जइ एसो मह सदं सोऊणं संमुहं पलोएज्जा । होञ्जामि ता कयत्था इइ आसाए तडिज्जती ।।१७७।। छाया : यदि एषो मम शब्दं श्रुत्वा सम्मुखं प्रलोकयेत् । भविष्यामि ततः कृतार्था इति आशया ताडयन्ति ।। १७७।। अर्थ :- जो आ मारा शब्दने सांभळीने कदाच मारी सामे जोवे तो पण हुं कृतार्थ थईश ए प्रमाणे नी आशाथी पीडाति हती। हिन्दी अनुवाद :- यदि वह मेरे शब्द को सुनकर शायद मेरी ओर देखे तो भी मैं कृतार्थ हो जाऊंगी, ऐसा सोचकर वह दुःखी हो रही थी। गाहा : तं पेक्खिऊण य मए परिहास- वसेण जंपियं एयं । आसन्नपि सहि-जणं उच्चुच्चं कीस वाहरसि? ।। १७८।। छाया : तं प्रेक्ष्य च मया परिहास-वशेन जल्पितं एतद् । आसनमपि सखि-जन-मुच्चमुच्चं कस्मात् व्याहरसि ? ||१७८।। . 110 Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ :- ते जोईने उपहासना वशथी में आ प्रमाणे कहयु - के “सखि-जन नजीक होवा छता पण शा माटे जोर जोरथी बोले छे ? हिन्दी अनुवाद :- यह देखकर उपहास से मैंने इस प्रकार कहा - कि “सखिजन पास होने पर भी तूं इतना जोर-जोर से क्यों बोल रही है? गाहा : कोउगवक्खित्त-मणो एसो तुह देइ नेय पडिवयणं । तं वयणं सोऊणं सविलक्खा किंचि संजाया ।।१७९।। छाया : कौतुक व्यक्षिप्त-मन एषस्तव ददाति नैव प्रतिवचनम् । तद् वचनं श्रुत्वा सा वैलक्ष्या किञ्चित् संजाता ।।१७९/ अर्थ :- कौतुकथी व्यक्षिप्त मनवाळो आ तने कोई प्रतिवचन नहि आपे सखिना ते वचन सांभळनी ते कांइक विलखी थई। हिन्दी अनुवाद :- कौतुक से व्यक्षिप्त मन वाला वह तुझे कुछ भी प्रत्युत्तर नहीं देगा, सखि का ऐसा वचन सुनकर वह कुछ कुम्हला गई। गाहा : एत्यंतरम्मि दिट्टा तेण जुवाणेणऽणंग-रूवेण । सज्झस-हरिसेहिं इमा ताहि अउव्वं रसं पत्ता ।।१८०।। छाया: अत्रान्तरे दृष्टा तेन यूना अनङ्ग-रूपेण । साध्वस-हर्षाभ्यां इयं तत्रऽपूर्वं रसं प्राप्ता ||१८०11 अर्थ :- एटलीवारमा अनङ्गरूपने धारण करनार ते युवान वड़े जोवाई व्यारे आणी भय अने हर्षवड़े अपूर्व रसने प्राप्त कर्यो। हिन्दी अनुवाद :- इतनी ही देर में अनङ्गरूपधारी उस युवक ने इसे देखा, तब इंसने भय और हर्ष द्वारा अपूर्व रस का पान किया। गाहा : तेणालोइयमेत्ता सोहग्ग-समन्नियं च अप्पाणं । जीवियमवि स-कयत्थं मन्नंता पुलइय-सरीरा ।।१८१।। छाया: तेनालोकित-मात्रे सौभाग्य-समन्विता चात्मानम्। जीवितमपि स-कृतार्थं मन्यमाना पुलकित-शरीरा।।१८१।। अर्थ :- तेनावड़े जोवा मात्रथी पोताने सौभाग्यवाळी अने पोताना जीवितने पण कृतार्थमानती पुलकित शरीवाळी थई। 111 Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी अनुवाद :- उसकी दृष्टि अपने ऊपर गिरते ही वह स्वयं को सौभाग्यवान और जीवन को कृतार्थ मानती हुई पुलकित अंगवाली हो गयी... । गाहा : अवरुंडइ सहि-निवहं उच्चं संलवइ हंसइ अनिमित्तं । पायंगुह्रण महिं विलिहइ केसे य संजमइ।। १८२।। छाया: परिरभते सखि-निवह-मुच्चं संलपति हसति अनिमित्तम् । पादाङ्गुष्ठेन महिं विलिखति केशांश्च संयमति ।। १८२।। अर्थ :- तथा सखि समुदायने भेटवा लागी, उच्चस्वरे बोलवा लागी कारण-वगर ज हसवा लागी, पगना अंगूठावड़े पृथ्वी खोदवा लागी अने वाळोने सजाववा लागी। हिन्दी अनुवाद :- तथा सखि समुदाय का आलिङ्गन करने लगी, उच्चस्वर से बोलने लगी, निष्कारण हंसने लगी, पैर के अंगूठे से पृथ्वीतल खोदने लगी और केशों को सजाने-संवारने लगी। गाहा : एमाइं सवियारं चेटुंता कीलिऊण खणमेगं । मयण-सर-विहुरियंगी इहागया एरिसा जाया ।।१८३।। छाया : एवमादि सविकारं चेष्टयन् क्रीडित्वा क्षणमेकम् । मदन-सर-विधुरिताङ्गी इहागता ईदृशी जाता ।।१८३।। अर्थ :- इत्यादि विकारयुक्त चेष्टाने करती एक क्षण क्रीडा करीने कामदेव ना बाणथी विधुरित अवाळी अहीं आवेली आवाप्रकारनी धई छ। हिन्दी अनुवाद :- विकारयुक्त चेष्टा से क्रीड़ा करके कामदेव के बाण से बेधित देहवाली इसकी यहाँ ऐसी अवस्था हुई है। गाहा : एवं च हंसियाए भणियम्मि पुणो वि सा मए पुट्ठा । को सो पुरिसो हंसिणि!, कहियं सव्वंपि मह तीए ।।१८४।। छाया : एवं च हंसिकायां भणिते पुनरपि सा मया पृष्टा । कः सः पुरुषो हंसिनि! कथितं सर्वमपि मह्यतया ||१८४।। अर्थ :- आ प्रमाणे हंसिका कहे छते फरि पण मारावड़े ते पूछाई - हे हंसिनि। ते पुरुष कोण छे? अने तेनावड़े मने बधु ज कहेवायु। 112 Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी अनुवाद :- इस प्रकार हंसिका ने पूरा स्वरूप बताया, फिर भी मैने उसे पूछा, हे "हंसिनी ! वह पुरुष कौन है ? और उसने मुझे सब कुछ कह दिया। गाहा : सोहण - ठाणे रागो पुत्तीए चिंतिउं गया पसे । ती दिट्ठा य मए सयणीय- गया कणगमाला ।। १८५ ।। छाया : शोभन-स्थाने रागः पुत्र्या चिन्तयितुं आगता पार्श्वे । सा दृष्टा च मया शयनीय-गता कनकमाला ।।१८५ ।। अर्थ :- पुत्रीवड़े राग सारा स्थानमां करायो छे “ए प्रमाणे विचारीने हुं तेनी पासे गई” अने शयनमां सूतेली कनकमाला मारा वड़े जोवाई । हिन्दी अनुवाद :- पुत्री ने श्रेष्ठ स्थान में प्रेम किया है, ऐसा सोचकर मैं उनके पास गई और शयन में सोयी हुई कनकमाला को मैने देखा । गाहा : आपंडुर- मुह - कमला सुदीह - सासेहिं सोसिय- सरीरा । कहकहवि हु निय-जीयं महया किच्छेण धारंती । । १८६ । । छाया : आपाण्डुर-मुख कमला सुदीर्घ श्वासैः शोषित-शरीरा । कथकथमपि खलु निज-जीवं महता कृच्छेण धारयंती ।।१८६।। अर्थ :- त्यारे तेनु मुख फिक्कु पडेलु हतु, अत्यंत लांबा श्वासवड़े शूकायेलाशरीवाळी केमे करीने मोटा कष्टवड़े पोताना जीवनने धारण करती हती! हिन्दी अनुवाद :- तब उसका मुख कुम्हला गया था, अतिदीर्घ श्वास से मूर्च्छित देहवाली बड़े कष्ट से अपने प्राण को धारण की थी । गाहा : पिय- विरह - जलण- जालावलीहिं संतावियाए वरईए । हारो चंदण- पंको मुम्मुर - सरिसोव्व छाया : प्रिय - विरह - ज्वलन - ज्वालावलिभिः सन्तापितायाः वराक्याः । हारश्चंदन- पङ्को सदृशेव प्रतिभाति । । १८७ । । मुर्मुर अर्थ प्रियना विरहरूपी अग्निनी ज्वालाओवड़े सन्तप्त थती ते बीचारी पडिहाइ ।।१८७।। : नो हार पण चंदनना लेपनी तुसना अग्नि जेवो देखातो हतो । हिन्दी अनुवाद प्रिय की विरहाग्नि की ज्वालाओं से सन्तप्त उस बिचारी का हार भी चंदन के लेप ऊपर तुस के अग्नि जैसा दिखाई देता था । : 113 Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाहा : चीयव्व मुणालाई नलिणि दलाइंपि अंगार - रासि - सरिसा पsिहासइ छाया : चैत्येव मृणालानि नलिनि-दलान्यपि ज्वाला- तुल्यानि । अङ्गार- राशि - सदृश प्रतिभासते हंस - तुलिरपि ।। १८८।। अर्थ :- कमलनाल चिता जेवी लागती हती, कमलना पत्र ज्वाला तुल्य लागता हता, अने सुंदर शय्या पण अङ्गार-राशि जेवी लागती हती। हिन्दी अनुवाद : कमलनाल चिता जैसी लगती थी, कमल के पत्ते ज्वाला जैसे लगते थी और सुंदर शय्या भी अङ्गार - राशि जैसी लगती थी। - गाहा : जाल - तुल्लाई । हंस - तूलीवि ।। १८८ ।। पुट्ठा न देइ वयणं आलवइ न सहि जणं सिणिर्द्धपि । झाणोवगया वर जोगिणिव्व जाया विगय- चेट्ठा ।। १८९ ।। 1 छाया : पृष्टा न ददाति वचन - मालपति न सखि - जनं स्निग्धमपि । ध्यानोपगता वर - योगिनीव जाता विगत - चेष्टा ।।१८९|| अर्थ :- पूछायेली ते कांई उत्तर आपती नथी, स्नेहल सखीजन साथै पण बोलती नथी पण ध्यानमा रहेला योगिनी जेम मूर्च्छित जेवी थई गई हती! हिन्दी अनुवाद :- तथा पूछने पर भी कुछ प्रत्युत्तर नहीं देती है, स्नेहान्वित सखिजन के साथ भी बोलती नहीं है किन्तु वह ध्यानस्थ योगी की तरह मूर्च्छित जैसी लगती है। गाहा : पिय- विरह-पिसाएणं गहिया गय- चेयणावि हु सहीहिं । आसासिज्जइ वरई सुंदर ! नाम - मंतेहिं । । १९० ।। तुह छाया : प्रिय - विरह-पिशाचेन ग्रहिता गत-चेतनाऽपि हि सखीभिः । आश्वास्यते वरति सुन्दर ! तव नाम - मन्त्रैः ।।१९०।। अर्थ :- प्रियना विरहरूपी पिशाचवड़े ग्रस्त थयेली, गयेली चेतनावाळी पण सखीओ वड़े आश्वासन अपाय छे पण हे सुन्दर ! तेी तो तारा नाम मन्त्र साथै ज परणी छे । हिन्दी अनुवाद :प्रिय के विरहरूप पिशाच से ग्रसित, निश्चेष्ट चैतन्यवाली उसे सखियों द्वारा आश्वासन दिया जाता हैं। पर हे सुन्दरी ! उसने तो तेरे नाम के साथ ही विवाह किया है। 114 Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाहा : पिय-विरह-पीडियं तं तुडि-गय-निय-जीवियं मुणेऊणं । तदुक्ख-दुक्खिया हं समागया तुम्ह पासम्मि ।।१९१।। छाया : प्रिय-विरह पीडितं तां त्रुटि-गत-निज-जीवितां ज्ञात्वा । तदुःख-दुःखिताऽहं समागता तव पार्श्वे ।। १९१।। अर्थ :- प्रियना विरहथी पीडित पोताना प्राणने पण संकटमां मूकेली तेणीने जाणीने तेना दुःखथी दुःखी थयेली हुं तारी पासे आवी छु। हिन्दी अनुवाद : - प्रिय के विरह से पीड़ित, खुद के प्राणों को भी संकट में डाली हुई उसे जानकर उसके दुःख से दु:खी बनी हुई मैं तुम्हारी पास आई हूँ। गाहा: एवं कुसुमसराओ अइगरुयं आगयं महं वसणं । जं तीए दुक्खियाए अहंपि अइदुक्खिया चेव ।।१९२।। छाया : एवं कुसुमसराद् अतिगुरुक-मागतं मम व्यसनम् । यत् तया दुःखितया अहमपि अतिदुःखितैव ।।१९२।। अर्थ :- आ प्रमाणे कुसुमबाणथी मने बहु मोटु कष्ट आव्यु छे, कारण के तेणीना दुःखथी हुँ पण अति दुःखी छु । हिन्दी अनुवाद :- इस प्रकार कुसुमबाण से मुझे बड़ा कष्ट हुआ है क्योंकि उनके दुःख से मैं भी अति दु:खी हूँ। गाहा : ता सुयणु! कणगमाला जा सा नीसास-सोसिय-सरीरा। . आसासिज्जउ वरई जाव न सासा समप्पंति ।।१९३।। छाया : तस्मात् हेसुतनो! कनकमाला या सा निःश्वास-शोषित-शरीरा | आश्वास्यतां वरति यावद् न श्वासान् समाप्यते ।।१९३|| अर्थ :- तेथी हे सुतनु ! ज्यांसुधीमा ते कनकमाला निःसासा वड़े सूकायेला देहवाळी पोताना श्वासने समाप्त न करे त्यांसुधीमां ते बीचाटीने आश्वासन अपावतु जोइए। हिन्दी अनुवाद :- अतः हे सुतनु! जब तक कनकमाला निः श्वासों द्वारा शुष्क देहवाली अपने श्वास को समाप्त न करे तब तक हमें उस बेचारी को आश्वासन देना चाहिए। 115 Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाहा : लहु कुणसु किंचुवायं जाव न नीसरइ जीवियं तीए । गय-जीवियाए पच्छा किं काही लावय-रसेण? ।।१९४।। छाया : लघु कुरुष्व किंचिदुपायं यावन निःसरति जीवितं तस्याः। गतजीवितायाः पश्चात किं करिष्यसि लावक-रसेन ? ||१९४।। अर्थ :- तमे जल्दी थी कांइक उपाय को जेथी तेणीना प्राण निकळी न जाय। केमके जीव नीकळी गया पछी लावक रसवड़े शंकराशे ? हिन्दी अनुवाद :- आप शीघ्रता से कुछ उपाय कीजिए, ताकि उसके प्राण निकल न जायें, क्योकि प्राण चले जाने पर लावक रस का क्या होग? गाहा : तव्वयणं सोऊणं तइया अह राय- उत्त ! में भणिय । एयंपि न जाणामो का एसा कणगमालत्ति ।।१९५।। छाया तद्वचनं श्रुत्वा तदा अथ राज-पुत्र! मया भणितम् । एतदपि न जानीमः का एषा कनकमालेति ।।१९५।। अर्थ :- त्यारे ते वचन सांभळीने मारावड़े कहेवायु, “हे राजपुत्र! आ कनकमाला कोण छे ए पण अमे जाणता नथी ! हिन्दी अनुवाद :- तब उसके ऐसे वचन सुनकर मैंने कहा - हे राजपुत्र! वह कनकमाला कौन है, यह भी हम नहीं जानते । गाहा: ता पुच्छा भाणुवेगं पत्थुय-वत्थुम्मि गहिय-परमत्थं । अम्हे पुण पाहुणया अयाणुया एत्थ वत्थुम्मि ।।१९६।। छाया : तस्मात् पृच्छ भानुवेगं प्रस्तुत-वस्तुनि गृहीत-परमार्थम् । आवां पुनः प्राघूर्णका अज्ञातौ अत्र वस्तुनि ।।१९६।। अर्थ :- तेथी प्रस्तुत वातमां ग्रहणकरेला परमार्थवाळा भानुवेगने पूछो। केमके अमे तो अहीं महेमान छीए अने आ वस्तुमा अज्ञात छीए! हिन्दी अनुवाद :- अत: इस बात में ग्रहण किए परमार्थवाले भानुवेग को पूछो - क्योंकि हम तो यहाँ के मेहमान हैं और इस विषय में अन्जान भी । गाहा : अह भणइ भाणुवेगो अम्हेवि हु नेव जाणिमो किंचि । तो भणइ सोमलया सासूयं एरिसं वयणं ।।१९७।। 116 Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छाया: अथ भणति भानुवेगो वयमपि खलु नैव जानीमः किञ्चित् । तस्मात् भणति सोमलता सासूयं इदृशं वचनम् ।।१९७।। अर्थ :- हवे भानुवेग कहे छे “अमेपण निश्चे कांइ जाणता नथी"। तेथी सोमलता असूयासहित आवा वचन कहे छ। हिन्दी अनुवाद :- अब भानुवेग कहते हैं “हम भी इस विषय में कुछ नहीं जानते', इसपर सोमलता आँसू बहाती हुई इस प्रकार बोलने लगी। गाहा : हरिऊण तीए हिययं दिट्ठी-बाणेहिं पहरियं अंगे । तुडि-गय- जीयं काउं तं संपइ अयाणुओ जाओ।। १९८।। छाया: हृत्वा तस्या हृदयं दृष्टि-बाणै प्रहत्या-ङ्गानि । त्रुटि-गत-जीवं कृत्वा तं सम्प्रति अज्ञातो जातः।।१९८|| अर्थ :- दृष्टिरूपि बाणो वड़े तेणीनुं हृदय चोरीने, अंगो पर प्रार करीने, प्राणने शंसयमां मूकीने हवे हमणा तमे अज्ञात थाओ छो ! हिन्दी अनुवाद : - "दृष्टिरूप बाण से उनका दिल चुराकर, अंगों पर प्रहार कर, प्राण को संकट में डालकर अब आप अन्जान बन रहे हो? गाहा : कंठ-गय जीवियासा तुह विरहे मरइ नत्थि संदेहो। अयणतं अवलंबिय तं चिट्ठसि निद्दओ भद्द ! ।। १९९।। छाया : कण्ठ-गत जीविताशा तव विरहे म्रियते नास्ति सन्देहः । अजनत्व-मवलम्ब्य त्वं तिष्ठसि निर्दयो हे भद्र ! ।।१९९।। अर्थ :- कंठमा रहेला प्राणवाळी, तारी आशामा जीवनारी ते तारा विरहमां निश्चे मृत्यु पामशे तेमां कोई संदेह नथी। वळी तुं पशुपणानुं आलंबन लईने निर्दयएवो रहयो छे।। हिन्दी अनुवाद :- कण्ठ में रहे हुए प्राणवाली, तेरी आशा में जीनेवाली, वह तेरे विरह में निश्चित मृत्यु को प्राप्त होगी, इसमें कोई संदेह नहीं है और तूं पशुत्व का आलंबन लेकर निर्दयी बन गया है। गाहा :- अन्नं च जो जत्थ जणो निवसइ रक्खइ सो आयरेण तं गेहं । तीए मणम्मि वसंतो किं निद्दय ! तं मणं दहसि ? ।। २००।। 117 Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छाया : अन्यच्च यो यत्र जनो निवसति रक्षति स आदरेण तद्गृहम् । तस्या मनसि वसन् किं निर्दय ! त्वं मनो दहसि ? ||२००|| अर्थ :- अने वळी - जे मनुष्य ज्यां रहे छे ते आदरवड़े ते घरनुं रक्षण करे छे । वळी हे ! निर्दय ! नुं तो तेणीना मनमां रहेतो पण तेना मनने बाळे छे! हिन्दी अनुवाद :- जो मनुष्य जहाँ रहता है वहाँ उस घर की आदरपूर्वक रक्षा करता है, और हे निर्दयी ! तूं तो उसके मन में रहने पर भी उसके दिल को जलाता है। गाहा : हरिऊण तीए हिययं संपइ चोरोव्व निन्हवेमाणो । न हु छुट्टसि सुयणु ! तुमं किंचि उवायं विचिंतेसु ।। २०१ । । छाया : हृत्वा तस्याः हृदयं सम्प्रति चौर इव निहुवानः । न खलु छूट्यसे हे सुतनो ! त्वं किंचिदुपायं विचिन्तय । । २०१ । । अर्थ :तेणीना हृदयने हरीने हवे हमणा चोरनी जेम् पोताने छूपावतो हे सुतनु ! तुं छुटी नहीं शके हवे कांइक उपाय कर ? हिन्दी अनुवाद उसका हृदय चुराकर फिलहाल चोर की तरह छुपता हुआ हे सुतनु ! तूं बच नहीं सकेगा । अतः अब कुछ उपाय कर!" : गाहा : तत्तो य मए भणियं अम्मे! तं चेव साहसु उवायं । एवं चवत्थियम्मि जं जुत्तं अम्ह काउं जे ।। २०२ ।। छाया : ततश्च मया भणित-मम्बे ! त्वं चैव कथय उपायम् । एवं चावस्थिते यदुक्तं अस्मान् कर्तुम् यत् || २०२|| अर्थ :- व्यार पछी में कहयु : हे माता ! आवा प्रकारनी अवस्थामां अमने करवा माटे जे योग्य छे ने उपाय तुं ज बताव ! · - हिन्दी अनुवाद पुनः मैंने कहा - हे माता ! ऐसी अवस्था में मुझे जो उपाय करना उचित हो सो आप ही बताईए। गाहा :- कनकमाला आश्वासन उपाय - भणियं सोमलयाए चित्तं पत्तं व पच्चय- निमित्तं । पट्ठवसु जेण चित्तं संधीरइ सा तयं दद्धुं ।। २०३।। छाया : भणितं सोमलतया चित्रं प्राप्तमिव प्रत्यय-निमित्तम् । प्रस्थापय येन चित्तं सन्धिरिति सा तर्कं दृष्ट्वा || २०३ । । 118 Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ :- तेथी सोमलताए कहयु - “चित्र के पत्र विश्वास ने माटे तेणी पर मोकलो जेथी ने जोईने तेणीने धैर्यनी प्राप्ति थाय!” हिन्दी अनुवाद :- अत: सोमलता ने कहा :-"उसके विश्वास के लिए चित्र या पत्र भेजिए जिससे वह देखकर उसे धैर्य प्राप्त हो। गाहा : तत्तो य मए लिहिया पत्ते नलिणीओ तीए पउमम्मि । मोत्तूण सेस-कुसुमे निलीयमाणो अली लिहिओ ।। २०४।। छाया : ततश्च मया लिखिता पत्रे नलिन्यस्तस्मिन् पर्ला। मुक्त्वा शेषकुसुमे नीलियमानोऽलिः लिखितः।।२०४।। अर्थ :- त्यारे मारावड़े पत्रमा लखायु “सर्वं कुसुमोने छोड़ी ने भमरो कमळमां लीन थाय छे"। हिन्दी अनुवाद :- तब मैंने पत्र में लिखा “सभी पुष्पों को छोड़कर भ्रमर कमल में लीन होता है।" गाहा : हिढे य तस्स लिहिया एसा गाहा उव्वुन्नय-रसेण । निय-भाव- सूयण-परा पच्छन्नत्था तया कुमर!।। २०५।। छाया : अघश्च तस्य लिखिता एषा गाथा उद्भटो रसेण | निज-भाव सूचन-परा प्रच्छन्नार्थ तदा हे कुमार! ।।२०५।। अर्थ :- व्यारपछी हे कुमार! पोताना भावने जणाववामां तत्पर आ गाथा तेनी नीचे उद्भट-रसवड़े लखाई। हिन्दी अनुवाद :- हे कुमार ! बाद में उस पंक्ति के नीचे अपने भाव को ज्ञापन करने वाली गाथा उद्भट रस से लिखी। गाहा : तह कहवि परिठ्ठवियं अलिणो नलिणीए परिमलं हियए । लयणुप्पयणं जह तस्स केवलं सेस-कुसुमेसु ।। २०६।। छाया : तथा कथमपि परिस्थापितं अलयः नलिन्याः परिमलं हृदये । लयनोत्पतनं यथा तस्य केवलं शेषकुसुमेषु ।।२०६।। अर्थ :- केमे कटीने पण भमराओ कमलिनीना परिमलने हृदयमा धारण करे छे परंतु शेषकुसुमोमां भमराओनों मात्र दृष्टिपात ज होय छे। 119 Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी अनुवाद :"किसी भी रूप से भ्रमर कमलिनी के परिमल को हृदय में धारण करता है परन्तु शेष पुष्पों में तो भ्रमरों का मात्र दृष्टिपात ही होता है । " गाहा : तं च बहु-पत्त-: - मज्झे काउं तो पेसिओ चूयलयाए हत्थे दोवि गया तीए छाया : तत् च बहुप्राप्त-मध्ये कृत्वा ततः प्रेषितः सतांबूलः । चूतलतया हस्ते द्वौ अपि गता तस्याः पार्श्वे ||२०७।। अर्थ :- त्यार पछी घणा पत्रोनी मध्यमां करीने तांबूलसहित पत्र चूतलताना हाथमां मोकल्यो ते बन्ने पण तेनी पासे गया । हिन्दी अनुवाद :पुनः बहुत पत्रों के बीच में ताम्बूल सहित पत्र रखकर चूतलता के हाथ में अर्पित किया और वह दोनों उनके पास गयीं। गाहा : सतंबोलो । पासम्मि ।। २०७।। तत्तो खतराओ चूयलया आगया इमं भणइ । एत्तो विणिग्गया हं पत्ता य कमेण तग्गेहे ।। २०८ ।। छाया : ततः क्षणान्तरात् चूतलता आगता इमं भणति । इतो विनिर्गताहं प्राप्ता च क्रमेण तग्गृहे || २०८ || पछी थोडीवारमां आवेली चूतलता आ प्रमाणे कहे छे, “अंहीथी अर्थ : नीकलेली हुं क्रमपूर्वक तेणीना घरमां पंहोची" । हिन्दी अनुवाद :- फिर कुछ क्षणों के पश्चात् चूतलता इस प्रकार कहने लगी, यहीं से निकलकर मैं क्रम से उसके घर जा पहुंची। गाहा : मत्तव्व मुच्छिया इव गिलिया इव सुयणु ! गुरु- पिसाएण । दिट्ठा उ कणगमाला विसममवत्थंतरं पत्ता ।। २०९॥ छाया : प्राप्ता ।।२०९।। मृतेव मूर्च्छिता इव गिलिता इव हे सुतनो ! गुरू-पिशाचेन । दृष्टा तु कनकमाला विषम-मवस्थान्तरं अर्थ :व्यारे हे सुतनो ! कोई मोटा पिशाचवड़े ग्रहण करायेली अने मरेलानी जेम मूर्च्छित विषम अवस्थाने पामेली कनकमालाने में जोई। हिन्दी अनुवाद :- तब हे सुतनु ! कोई बड़े पिशाच द्वारा ग्रस्त और शव जैसी मूर्च्छित अवस्था को पाई हुई कनकमाला को देखी। 120 Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाहा : तीए सहीहिं भणियं समागया चित्तवेग-दूइत्ति । अह सा तुह नामक्खर-आयन्त्रण-लद्ध-बुद्धीया ।।२१०।। छाया: तस्याः सखीभिः भणितं समागता चित्रवेग-दूतेति । अथ सा तव नामाक्षराऽऽकर्णनं लब्ध-बुद्धिका ||२१०।। अर्थ :- तेणीनी सखीओवड़े “आ चित्रवेगनी दूति आवी छे” ए प्रमाणे कहेवायु के तेण तारा नामाक्षर सांभळता ज प्राप्त चैतन्यवाळी थई!" हिन्दी अनुवाद :- उनकी सखिओं ने इस प्रकार कहा “यह चित्रवेग की दूति आयी है' इतना सुनते ही कनकमाला चैतन्ययुक्त हो गई। गाहा : झत्ति निविठ्ठा तत्तो पासिय मं लज्जियाव मणयंति। ताहे समप्पिओ से तंबोलो सहरिसं गहिओ ।। २११।। छाया: झटिति निविष्टा ततो दृष्ट्वा मां लज्जितेव मनागिति । तदा समर्पितस्तस्यास्त ताम्बूलं सहर्षं गृहीतः ।।२११।। अर्थ :- अने जल्दीथी बेठी थई ठगई, त्यारपछी मने जोईने जराक लज्जा पामी तेणीने ताम्बूल अर्पण कर्यु अने तेणीए पण सहर्ष ग्रहण कर्यु! अने.. हिन्दी अनुवाद :- और शीघ्रता से बैठ गई। बाद में मुझे देखकर वह लज्जित हो गई तब मैंने उसे ताम्बूल अर्पित किया और उसने भी सहर्ष ग्रहण किया। गाहा : गहियत्थाए भणियं केणेसो पेसिओ म्ह तंबोलो? ।। मे भणियं तुह सुंदरि! मणोहरेणं पिययमेणं ।। २१२।। छाया : गृहीतया भणितं केनेवः प्रेषितो मां ताम्बूलम् ? | मया भणितं तव हे सुन्दरि! मनोहरेण प्रियतमेन ||२१२।। अर्थ :- ग्रहण करेला ताम्बूलवाळी तेणीए कहयु - “कोनावड़े आ ताम्बूल मने मोकलायु छे त्यारे मे कहयु - हे सुन्दरि! तारा मनोहर प्रियतमवड़े मोकलायु छ। हिन्दी अनुवाद :- ताम्बूल को ग्रहण करके उसने कहा - किसके द्वारा यह ताम्बूल भेजा गया है? तब मैंने कहा - हे सुन्दरी! तेरे सुन्दर प्रियतम ने भेजा है।" 121 Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाहा : तीए भणियं कन्ना अहंति कह मज्झ पिययमो भद्दे !? । मे भणियं नणु हो ही अह सा अफुडक्खरं भणइ ।।२१३।। छाया : तया भणितं कन्या अह-मिति कथं मम प्रियतमो भद्रे ?| मया भणितं ननु भविष्यति अथ सा अस्फुटाक्षरम् भणति।।२१३|| अर्थ :- ते वखते तेणीए कहा, “हे भद्रे! हुं कन्या छु मारो प्रियतम केवी रीते?" त्यारे मे कहयु “निश्चे थशे"| आथी ते अस्पष्ट अक्षरमां बोली। हिन्दी अनुवाद :- उस समय उसने कहा - "हे भद्र ! मैं कन्या हूँ तो फिर क्या वह मेरा प्रियतम बनेगा तब मैंने कहा - "निश्चित बनेगा' इसपर वह कुछ अस्पष्ट शब्दों में बोली। गाहा :- कह मामि ! अउन्नाए एत्तियमेत्ताणि मज्झ पुन्नाणि । जं सो भत्ता होही दंसणमित्तंपि अइदुलहं ।। २१४।। छाया : कथं मामि! अपुन्यायारेतावत् मात्रेण मम पुन्यानि | यत् स भर्ता भविष्यति दर्शनमात्रमपि अतिदुर्लभम् ।।२१४।। अर्थ :- हे सखि! मारा जेवी अभागी® एवु पुण्य क्याथी ? जेना दर्शनमात्र पण अतिदुर्लभ छे ते मारो पति केवी टीते बनशे ? हिन्दी अनुवाद :- हे सखि! मेरे जैसी अभागिनी का ऐसा पुण्य कहाँ ? जिसका दर्शन मात्र भी अतिदुर्लभ है, वह मेरा पति कैसे बनेगा ? गाहा : एत्तियमेत्तं भणिउं अंसु-जलुप्फुण्ण-लोयणा झत्ति । नीसासं मोत्तूणं गय-चेट्ठा सा पुणो जाया ।। २१५।। छाया: एतन्मात्रं भणित्वा अश्रुजलपूर्ण-लोचना झटिति । निःश्वासमुक्त्वा गतचेष्टा सा पुनः जाता ||२१५।। अर्थ :- आटलु मात्र कहीने अश्रुजलथी पूर्ण लोचनवाळी जल्दीथी निसासो मूकीने फटी ते मूर्छित थई गयी ।। हिन्दी अनुवाद :- मात्र इतना कहकर अश्रुजन से पूर्ण लोचनवाली वह शीघ्रता से निःश्वास छोड़कर पुन: मूर्छित हो गई। ६. सखि ना आमन्त्रणमा 122 Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाहा :- दर्शन माटे चित्रवेगने प्रार्थना तत्तो सहिहिं भणियं साहेज्जसु तस्स निग्घिण-मणस्स । जह-दिटुं हि सरूवं इमीए अइगरुय-पेम्माए ।। २१६।। छाया : ततः सखीभि-भणितं कथय तस्य निघृण-मनसः | यथा-दृष्टं खलु स्वरूपं अनया अतिगुरु प्रेम्णा ||२१६।। गाहा :- अन्नं च जइ कहवि ताव वोलइ रयणी कुसलेण ता पभायम्मि। उज्जाणम्मि गयाए दायव्वं दंसणमिमीए ।।२१७।। छाया :- अन्यच्च यदि कथमपि तावद् गच्छति रजनी कुशलेन ततः प्रभाते। उद्याने गतायै दातव्यं दर्शन-मस्यै ।।२१७।। अर्थ :- ते वखते सखीओए मने कहयु 'ते निर्दय मनवाळानुं आटला बधा पुष्कल प्रेमवडे तेणी जेवू स्वरूप जोयेलु छे ते ओमने कहेजे, अने वळी कोइ पण रीते रात्री सुखपूर्वक पसार थई जाय तो सवारमा उद्यानमां तेणीने दर्शन आपवा जोइए । हिन्दी अनुवाद :- उस समय सखी ने मुझसे कहा - अतिप्रेम से इसके द्वारा निर्दय मनवाले उनका स्वरूप जैसा देखा वैसा कहो । किसी भी प्रकार यह रात्रि सुखपूर्वक बीत जाए तो प्रात: कनकमाला को दर्शन देने के लिए आप उद्यान में आना । गाहा : तहसणेण जीवइ न अन्नहा एस निच्छओ अम्ह । एवं बहुहा भणिया समागया तुम्ह पासम्मि ।। २१८।। छाया : तद्दर्शनेन जीवति न्यान्यथा एव निश्चयोऽस्माकम् । एवं बहुधा भणिता समागता तव पार्श्वे ।।२१८|| अर्थ :- तेणी तमारा दर्शनवड़े जीवशे अन्यथा नहीं एवो अमाटो निश्चय छे। आ प्रमाणे कहेवायेली हुं तमाटी पासे आवी छ । हिन्दी अनुवाद :- वह आप के दर्शन से ही जीयेंगी अन्यथा नहीं, ऐसा हमारा मानना है । इस प्रकार कहवाई हुई मैं आपके पास आयी हूँ। गाहा : एवं चूयलयाए भणियं सोऊण तीए वुत्तंतं। दुगुणतरो मे जाओ तव्विरहे गरुय-संतावो ।। २१९।। 123 Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छाया : एवं चूतलतया भणितं श्रुत्वा तस्या वृत्तान्तम् । द्विगुणतरो मे जातः तद्विरहे गुरू-संतापः । । २१९ ।। अर्थ :- आ प्रमाणे चूतलताए कहेला तेणीना वृतान्तने सांभळीने तेणीना विरहमां द्यणो संताप थतो हतो ते बमणो थई गयो । उनके विरह द्वारा वृत्तान्त को सुनकर हिन्दी अनुवाद :- इस प्रकार चूतलता में जो संताप हो रहा था वह दुगुना हो गया। गाहा :- चित्रवेगनी संतापयुक्त विचारणा - जइ मरिही सा बाला कहवि हु गुरु विरह - ताविया हंदि ! | निमित्तेणं ता मज्झवि आगयं एएण छाया : यदि मरिष्यति सा बाला कथमपि खलु गुरूविरह-तापिता हत? | एतेन निमित्तेन तस्मात् म माप्यागतं मरणम् ||२२०।। अर्थ :- अरे ! जो भारेविरह थी पीडाती ते बाला केमे करीने पण मरशे तो ए निमित्ते मारे पण मृत्यु आवशे । हिन्दी अनुवाद :- अरे! अत्यंत विरहाग्नि से जलती उस बाला की यदि मृत्यु होगी तो उसी कारण से मेरी भी मृत्यु होगी। मरणं ।। २२० ।। गाहा : अहवा सिणेह - जुत्ता जइ सा ता कीस मज्झ पडिवयणं । नवि दिन्नं, ता मन्त्रे मंद- सिणेहा उ मह उवरिं । । २२१ । । छाया : अथवा स्नेह युक्ता यदि सा ततः कस्मात् मह्यं प्रतिवचनम् । नापि दत्तं, ततः मन्ये मंदस्नेहा तु ममोपरि ।।२२१ ।। अर्थ :- अथवा जो ते मारा अपर प्रेमवाळी छे तो शा कारणथी तेणीए मने उत्तर पण न आप्यो, आथी हुं मानु छं के ते मारा पर मन्दस्नेहवाळी छे । हिन्दी अनुवाद :- अथवा यदि वह मुझसे प्रेम करती है तो उसने किस कारण से मुझे मेरे पत्र का प्रत्युत्तर भी नहीं दिया। इससे मैं मानता हूँ कि वह मुझसे कम स्नेह करती है। गाहा : जइवि हु सा निन्नेहा तहवि मणं मज्झ तीए विरहम्मि । जलिय - जल- समुज्जल- जालालिद्धंव 124 पडिहाइ ।। २२२ ।। Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छाया : यद्यपि खलु सा निःस्नेहा तथापि मनः मम तस्या विरहे | प्रज्वलित-ज्वलन-समुज्वल-ज्वालाऽऽश्लिष्टं इव प्रतिभाति।।२२२।। अर्थ :- जो के ते बाला साचे ज मारा विषे निःस्नेह होय तो पण मारू मन तेणीना विरहमा सळगती आगनी ज्वालाओनी अंदर आशिलष्ट करतु होय तेम लागे छे! हिन्दी अनुवाद :- यदि वह बाला निश्चित रूप से मुझसे नि:स्नेह हो तो भी मेरा दिल तो उसकी विरहाग्नि की ज्वालाओं में जला करता है, ऐसा लगता है। गाहा : नयणेहिं पुलइया सा ताई चिय दहउ एस पिय-विरहो । हियएण किमवरद्धं जेण तयं निद्दयं दहइ ? ।। २२३।। छाया : नयनाभ्यां पुलकिता सा तानि एव दहतुएषः प्रिय-विरहः । हृदयेन कि-मपराधं येन तकं निर्दयं दहति? ।।२२३।। अर्थ :- नयनो वड़े ते जोवाई छे तो मारा नयनो ने जतेभले बाळे। पण आ तो प्रियनो विरह निरपराधी एवा हृदयने पण निर्दय थईने बाळे छ। हिन्दी अनुवाद :- नयनों ने उसे देखा है तो मेरे नयनों को वह भले ही जला ले किन्तु यह प्रियतमा तो निरपराध मेरे हृदय को भी जलाती है। गाहा : अन्नेण कयं अन्नो न भुंजए अलिएमेरिसं वयणं । सा दिट्ठा नयणेहिं जाओ हिययस्स संतावो ।। २२४।। छाया: "अन्येन कृतं अन्यो न भुनक्ति" अलिकमिदृशं वचनम् । सा दृष्टा नयनाभ्याम् जातो हृदयस्य संतापः ||२२४।। अर्थ :- “अन्य घडे करायेल अन्य भोगवतो नथी" आवाप्रकारनी जे लोकोक्ति छे ते असत्य छ। केमके ते बाला नयनवड़े जोवाई अने संताप हृदयमां थयो! हिन्दी अनुवाद :- “दूसरे द्वारा किए गये कर्म का दूसरा भोक्ता नहीं बनता" इस प्रकार की जो लोकोक्ति है वह असत्य है, क्योंकि उस बाला को नयनों ने देखा और संताप हृदय को हुआ। गाहा : रोवंतु नाम तं जणमपेच्छमाणाणि दव-नयणाणि । तं हियय ! किं विमूरसि साहीणे चिंतियव्वम्मि? ।। २२५।। 125 ational Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छाया: रुदन्तु नाम तम् जनमप्रेक्ष्यमाणानि दृढ नयनानि। तं हृदय ! किं विभज्यसे स्वाधीने चिंतयितव्ये ?||२२५।। अर्थ :- हे हृदय ! जेणे लोकने जोयो छे ते नयनो भले रूदन करे ! पण स्वाधीनपणे विचार करी शकवा छतां तुं शा माटे विदीर्ण थाय छे ? हिन्दी अनुवाद :- हे हृदय! जिसने लोक को देखा है वे नयन भले ही रोयें, किन्तु तं विचार करने में स्वतन्त्र होने पर भी क्यों विदीर्ण होता है? गाहा : नयणेहिं जोइया सा हियएण कओ य गरुय-पडिबंधो। सरिसेवि हु अवराहे विरहो हिययं दढं दहइ ।। २२६।। छाया: नयनाभ्याम् दृष्टवा सा हृदयेन कृतश्च गुरुक-प्रतिबन्धः। सदृशेऽपि खलु अपराधे विरहो हृदयं दृढं दहति ।।२२६।। अर्थ :- ते बाला नयनोवड़े जोवाई अने हृदयवड़े ममत्व करायु । बलेनो अपराध समान होवा छता पण विरह दृढरीते (अत्यंत) हृदयने बाळे छ । हिन्दी अनुवाद :- उस बाला को नयनों ने देखा और हृदय ने उससे प्रेम किय। दोनों का अपराध समान होने पर भी उसका विरह हृदय को जलाता है। गाहा : एत्थंतरम्मि सूरो भमिऊणं भुवण-मंडलमसेसं। अत्थ-गिरि-मत्थय-त्थो जाओ अद्धाण-खिन्नोव्व ।। २२७।। छाया : अत्रान्तरे सूर्यो भ्रान्त्वा भुवन-मण्डलमशेषम् । अस्तगिरि-मस्कस्थो जातोऽध्वनः-खिन्नेव ||२२७।। अर्थ :- एटलीवारमा सूर्य समस्त भुवनमण्डलमा भमीने मार्गथी खिन्नथयेला नी जेम अस्तगिरिनां मस्तक पर रह्यो। हिन्दी अनुवाद : - इतनी देर में सूर्य समस्त भुवनमण्डल में घूमकर मार्ग से खिन्न होकर अस्ताचल पर्वत पर आ गया। गाहा : निट्ठर-करेहिं भुवणं इमेण संतावियंति रोसेण । नज्जइव अत्थ-गिरिणा सीसाओ ढालिओ सूरो ।। २२८।। छाया : निष्ठुर-करै र्भुवन-मनेन संतापितमिति रोषेण । ज्ञायत इव अस्त-गिरिणा शीर्षात् पातितः सूर्यः ||२२८।। 126 Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ :- निष्ठुर किरणो वड़े भुवनने संताप आप्यो छे। एवा शेषथी अस्ताचल वड़े पोताना मस्तक परथी सूर्य ने नीचे धकेली दीधो होय, तेवु लागे छे । हिन्दी अनुवाद :- ऐसा लगता है कि सूर्य ने अपने निष्ठुर किरणों से भुवन को संताप दिया है, इसी कारण क्रोध से अस्ताचल पर्वत ने अपने ऊपर आये हुए सूर्य को नीचे फेंक दिया। गाहा : नाऊण सूर- पडणं अणुलग्गा उवरि अत्थ-सेलस्स । रोसेणव रत्त-मुहा समागया झत्ति अह संझा ।। २२९।। छाया : ज्ञात्वा सूर-पतन-मनुलग्ना उपरि अस्त-शैलस्य। रोषेणेव रक्त-मुखा समागता झटिति अथ सन्ध्या ||२२९।। अर्थ :- अस्तगिरि उपर सूर्यना पतनने जाणीने जाणे रोषथी लाल चोळ मोठावाळी थई होय तेम जल्दीथी सन्ध्या आवी - हिन्दी अनुवाद :- अस्ताचल पर्वत से सूर्य के पतन को देखकर सन्ध्या जैसे क्रोध से लाल होकर शीघ्र आ गयी । गाहा : तयणंतरमंधारिय दिसि-वलया नवरि आगया रयणी। पयडिय-तारय-निवहा कोसिय-हुंकार भीसणया ।। २३०।। छाया : तदनन्तर-मन्धारित दिशि-वलया नवर्यागता रजनी । प्रकटित तारक-निवहा कौशिकहुंकार भीसणता ||२३०।। अर्थ :- त्यारपछी तरत ज दिशा वलयोने अंधारी करती रात्री आवी। ते रात्रीमा ताराओ प्रकाशित हता अने घुवडना अवाज थी भयंकर लागती हती। हिन्दी अनुवाद :- उसके बाद तत्काल ही दिशा वलयों को अंधकारमय बनाती हुई रात्रि आयी, उस रात्रि में तारागण प्रकाशित हो रहे थे और उल्लू की अवाज भयंकर लगती थी। गाहा : ताव य खणंतराओ निन्नासिय-बहल-तिमिर-संघाओ। माणिणि-माणुम्महणो वित्थरिओ ससि-कर-निहाओ ।। २३१।। 127 127 Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छाया: तावच्च क्षणान्तरात् निर्णासित-बहुल-तिमिर संघातः | मानिनी-मानोन्मथनः विस्तृतः शशि-कर-समूहः ||२३१।। अर्थ :- अने त्यारपछी तरत ज घणा अंधकारना समूहने नाश करनार मानिनीना मानने मथनार चन्द्रमा किरणोनो समूह फेलायो। हिन्दी अनुवाद :- और उसके बाद तुरन्त ही अंधकार के समूह का नाश करने वाला तथा मानिनी के मान का मंथन करने वाले चन्द्रमा के किरणों का समूह चारों तरफ फैल गया। गाहा : मयलंछण-पवणेणं गाढं संध्युक्किओ विओयग्गी । संताविउं पयत्तो मह हिययं ताहे सय-गुणियं ।। २३२।। छाया : मृगलांछन-पवनेन गाठं प्रदीप्त वियोगाग्नी । संतापयितुं प्रवृत्तो मम हृदयं तदा शत-गुणितम् ||२३२।। अर्थ :- चन्द्र अने पवनवड़े मारो वियोगरूपी अग्नि अत्यंत प्रदीप्त करायो त्यारे मा हृदय सो गणो संताप पामवा लाग्यु ! हिन्दी अनुवाद :- चन्द्र और पवन द्वारा मेरी विरहाग्नि अत्यंत प्रदीप्त हुई, तब मेरे हृदय में संताप सौ गुना बढ़ गया। गाहा : अह चिंतिउं पयत्तो अमयमओ सुम्मई इमो चंदो। नवरं तव्विरहे अज्ज विज्जु-पुंजोवमो जाओ।। २३३।। छाया: अथ चिन्तितुं प्रयतोऽमृतमयः श्रूयते अयं चन्द्रः। नवरं तद्विरहे अद्य विद्युत्-पुंजोपमो जातः ।।२३३।। अर्थ :- आथी हुं विचारवा लाग्यो के “आ चन्द्र अमृतमय छे एम संभळाय छे परन्तु तेणीना विरहमा आजे विजळीना पुंज समान थयो छे'। हिन्दी अनुवाद :- अत: मैं सोचने लगा कि - "यह चन्द्र अमृतमय है, ऐसा सुनाई देता है किन्तु उसके विरह में आज यह विद्युत-पुञ्ज के समान लगता है।" गाहा : हे हियय! कीस उज्झसि उव्वेवं कीस कुणसि अच्चत्थं? । दुल्लह-जणम्मि रागं पढम चिय कीस तं कुणसि ? ।। २३४।। 128 Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छाया : हे हृदय ! कस्मात् दासे उद्वेगं कस्मात् करोषि अत्यर्थम् । दुर्लभ - जने राग प्रथम-मेव कस्मात त्वं करोषि ? || २३४ || अर्थ :- माटे हे हृदय ! तुं शा माटे बळे छे ? शा माटे अत्यंत उद्वेगने धारण करे छे? वळी दुर्लभजनने विषे प्रथम थी ज तुं शा माटे राग करे छे ! हिन्दी अनुवाद :- अतः हे हृदय ! तूं किस हेतु जलता है ? अत्यन्त उद्वेग को क्यों धारण करता है ? अथवा दुर्लभ जनों पर पहले से ही इतना प्रेम क्यों करता है ? गाहा :- अन्नं च जो किर करेइ नेहं तस्सेव य हियय! रच्चिरं जुत्तं । दूर - ट्ठिओवि जो दहइ माणसं तम्मि को छाया :- अन्यच्च यः किल करोति स्नेहं तस्यैव च हृदय ! रञ्जितुं युक्तम् । दूरः स्थितोऽपि यो दहति मानसं तस्मिन् को रागः ? || २३५|| अर्थ :- हे हृदय! जो निश्चे स्नेह करे छे तेनी साथेज स्नेह करवा माटे योग्य छे। जे दूर रहेलो पण मनने बाळे छे, तेने विषे राग केम करवो ? हिन्दी अनुवाद :- हे हृदय ! जो निश्चित स्नेह करता है, उसके साथ ही स्नेह करना योग्य है, जो दूर रहके भी दिल को जलाता है उससे राग क्या करना ? गाहा : जो च्चिय वुब्भइ हियये सो च्चिय अइनिठुरो दहइ देहं । कस्स कहिज्जइ वत्ता सरणाओ भयम्मि उब्भूए ? ।। २३६।। छाया : सैव ह्यते हृदये सैवातिनिष्ठुरो दहति देहम् | कस्य कथ्यते वार्त्ता शरणाद् भये उद्भूते ? ||२३६|| अर्थ :- जे हृदयमां धारण कराय छे ते ज अतिनिष्ठुर देहने बाले छे । "शरणथी भय उत्पन्न थये छते कोनी आगळ बात कराय" । रागो ? ।। २३५ ।। हिन्दी अनुवाद :- जिसको दिल में बिठाते हैं वही अतिनिष्ठुर होकर देह को जलाता है " शरणदाता से ही भय उत्पन्न होने पर किसके आगे गुहार करना ? गाहा : किं मन्ने होज्ज दियहं जम्मी लग्गेज्ज मज्झ हत्थम्मि । मण निव्ववणो तीए कमलोयर कोमलो हत्थो ।। २३७।। छाया : किं मन्ये भवेद् दिवसं यस्मिन् लगेत् मम हस्ते । मनो निर्वापने तस्याः कमलोदर-कोमलो हस्तः । २३७ ।। 129 Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ :- मनना तापने दूर करनार ते कमलोदरीनो कोमल हाथ मारा हाथमां जे दिवसे लागे तेने शुं हुं दिवस मानु ? हिन्दी अनुवाद :- मन के ताप को दूर करनेवाली उस कमलोदरी का कोमल हाथ मेरे हाथ में जिस दिन आयेगा, उस दिन को मैं कौनसा दिन मानूं ? गाहा : अच्छउ ता दूरे च्चिय पाणिग्गहणाइयं तु सह तीए । अम्हाण मणो-दइयं दंसणमवि दुल्लहं मन्ने ।। २३८ । । छाया : अस्तु तावद्दूरैव पाणिग्रहणादिकं तु सह त या । अस्माकं मनो- दयितं दर्शनमपि दुर्लभं मन्ये || २३८|| अर्थ :- तेणीनी साथै पाणिग्रहणादिक तो दूर ज रहो पण अमारा मनने प्रिय एवं तेनु दर्शन पण दुर्लभ छे ! हिन्दी अनुवाद :- उनके साथ पाणिग्रहणादिक तो दूर रहा, मेरे दिल को प्रिय दर्शन भी दुर्लभ है। गाहा : किं मज्झ जीविएणं किं वा मह हंदि ! मणुय - जम्मेण । जो विरह- दुक्ख - समणं तीए वयणं न पेच्छामि ? ।। २३९ ॥ छाया : किं मम जीवितेन किं वा मम हत! मनुज-जन्मना ! यद् विरह- दुःख - शमनं तस्या वदनं न पश्यामि ? ।।२३९ ।। अर्थ :- हवे मारे जीववा वडे शुं ? अथवा आ मनुष्य जन्मवड़े पण मारे शुं काम? के जे विरहना दुःखने शान्त करनार तेणीनुं मुख पण जोई शकतो नथी ? हिन्दी अनुवाद :- अब मुझे जीवन से क्या ? अथवा इस मनुष्य जन्म से भी क्या काम ? कि जो विरहाग्नि के दुःख को शान्त करनेवाले उनका मुख भी नहीं देख सकता। गाहा : अहवा चूयलयाए भणिएणं भविस्सई पभायम्मि । तीए सह दंसणयं अणुकूलो जल विही होही ।। २४० ।। छाया : अथवा चूतलतायाः भणितेन भविष्यति प्रभाते । तया सह दर्शन - मनुकूलो यदि विधि भविष्यति । । २४० । । 130 Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ :- अथवा चूतलताना कहेवा प्रमाणे जो भाग्य हुशे तो प्रभातमां नेणीनी साथे दर्शननी अनुकूलता थशे। हिन्दी अनुवाद : - अथवा जैसा चूतलता ने कहा, वैसे यदि मेरे भाग्य होंगे तो प्रभात में उनके दर्शन की अनुकूलता होगी। गाहा : गुरु-विरह-जलण-जालावलीहिं संतावियस्स हिययस्स। अन्नो नत्थि उवाओ पिय-दंसण-ओसहं मोत्तुं ।। २४१।। छाया : गुरू-विरह-ज्वलन-ज्वालावलीभिः सन्तापितस्य हृदयस्य । अन्यो नास्त्युपायः प्रियदर्शनौषधं मुक्त्वा ।।२४१।। अर्थ :- मोटा विरह रूपी आगनी ज्वालाओनी श्रेणिवड़े सन्तप्त हृदयने प्रियना दर्शनरूप औषधने मूकीने बीजो कोई उपाय नथी ! हिन्दी अनुवाद :- अत्यंत बड़ी विरहाग्नि की ज्वालाओं से सन्तप्त हृदय को प्रियदर्शन रूप औषधि के समान दूसरी कोई औषधि नहीं है। गाहा : एमाइ-विगप्पेहिं पणट्ठ-णिद्दस्स मज्झ सा रयणी । चउ-जामावि हु तइया जाम-सहस्सोवमा जाया ।। २४२।। छाया : एवमादि विकल्पैः प्रणष्ट-निद्रस्य मम सा रजनी। चतुर्यामाऽपि खल तदा याम-सहस्रोपमा जाता ।।२४२।। अर्थ :- इत्यादि विकल्पो वड़े चाली गयेली निद्रावाळी चारप्रहरनी पण ते रात्री निश्चे न्यारे हजारो प्रहरवाळी थई । हिन्दी अनुवाद :- इत्यादि विकल्पों से गई हुई नींदवाली चार प्रहर की रात्रि भी हजारों प्रहर के समान हो गई। गाहा : असरिस-दूसह-संताव-तावियं कहवि माणसं मज्झ । फुडमाणंपि न फुट्ट मन्ने तहसणासाए ।। २४३।। छाया : असदृश-दुःसह-संताप-तापितं कथमपि मानसं मम । स्फुटमानमपि न स्फुटं मन्ये तद्दर्शनाशया।।२४३।। अर्थ :- असदृश-दुःसह संतापथी तप्त, तूटतु एवं पण मारू मन तेणीना दर्शननी आशावड़े तूटतु न हतु एम हुं मानु छु । 131 Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी अनुवाद :- असदृश-दु:सह संताप से तप्त, टूटता हुआ भी मेरा मन उसके दर्शन की आशा से टूटा नहीं है, ऐसा मैं मानता हूँ। गाहा : सीयल-कर-नियरेणवि संतावं फेडिउं मह असत्तो। अह लज्जिउव्व चंदो अत्थ-गिरिं पाविओ तत्तो।। २४४।। छाया : शीतल-कर-निकरेणापि सन्तापं स्फेटयितुं ममाशक्तः । अथ लज्जितेव चन्द्रोऽस्तगिरि प्राप्तः तस्मात् ||२४४।। अर्थ :- शीतल किरणोना समूहवड़े पण मारा सन्तापने दूर करवा माटे असमर्थ थयेलो चन्द्र लज्जा पामेलानी जेम अस्तगिरि पर पहोंच्यो ।। हिन्दी अनुवाद :- शीतल किरणों के समूह भी मेरे सन्ताप को दूर करने के लिए समर्थ नहीं हैं, संताप को दूर न करने से लज्जित हुआ चन्द्र भी अस्तगिरि पर चला गया। गाहा : पच्चूस-गयवरुम्मूलियाए उड्डीण-ससि-विहंगाए । रयणि-लयाए गलतिव कुसुमाइं तारय-निहेण ।। २४५।। छाया : प्रत्यूष-गजवरोन्मूलितया उड्डीन-शर्शी-विहंगाः | रजनी-लतया गलन्तीव कुसुमानि तारक-निभेन ।।२४५।। (छलेन) अर्थ :- प्रभातमां सूर्यरूपी हाथी द्वारा नक्षत्र अने चन्द्र रूपी पलिओ उडाडवामा आव्या त्यारे रात्री रूपी लतामाथी फूलो जाणे के गळता न होय तेम ताराओ पडी गया ! हिन्दी अनुवाद :- सुबह में सूर्य रूपी हाथी ने नक्षत्र और चन्द्र रूपी पक्षिओं को उड़ा दिया उस समय रात्रि लता में से फूल की तरह तारे बिखर गये। गाहा : अह इंद-दिसा सहसा केसुय-सुय-तुंड-सच्छहा जाया । आसन्न-सूर-मंडल-वज्जरणत्थंव लोयस्स ।। २४६।। छाया : अथ इन्द्र-दिक् सहसा किंशुक-शुक-तुंड-सदृशा जाता। आसन्न-सूर्यमण्डल-व्यागरणार्थ-मिव लोकस्य ।।२४६।। अर्थ :- हवे पूर्व दिशा केसुडा ना फूल जेवी तथा पोपटना चांच जेवी एकदम ज थई गई। ते सूर्यमण्डल पासे छे एम लोकने कहेती ना होय तेवी लागती हती। 132 Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी अनुवाद :तब पूर्व दिशा किंशुक फूल एवं तोते के चोंच की तरह रक्तवर्णी हो गई और सूर्यमण्डल पास में ही है मानो ऐसा लोगों से कहती थी । गाहा : पडिबोहिय कमल - वणो पसरिय-खर किरण पूरिय- दियंतो । मेलिय-रहंग- जुयलो तदणंतरमुग्गओ सूरो ।। २४७ । । छाया : प्रतिबोधित -कमल-वनो प्रसृत कर-किरण- पूरितदिगन्तः । मिलित- रथाङ्ग-युगल-तदन्तरमुद्गतः सूर्यः ।। २४७ ।। अर्थ :- कमलना वनने जगाडनार, फेलायेला किरणोना तेजथी दिशाओने भरनार, चक्रवाकना युगलने मेलाप करावनार सूर्य तरत ज उदय पाम्यो । हिन्दी अनुवाद :- कमलवन को जागृत करनेवाला, विस्तृत किरणों के तेज से दिशाओं को प्रकाशित करनेवाला, चक्रवाक का मिलन करानेवाला सूर्योदय तुरन्त ही हो गया। गाहा : एत्थंतरम्मि अहयंपि समुट्ठिऊण भो सुप्पट्ठ ! तइया दइयाइ होही छाया : किच्चं पभायतणयं करिउं पयत्तो । संदंसणम्ह वह पट्टि - मणो पगामं ।। २४८ ।। अत्रान्तरे अहमपि समुत्थाय कृत्यं प्राभातिकं कर्तुं प्रवृत्तः । भो सुप्रतिष्ठ! तदा दयितायाः भविष्यति सद्दर्शन - मस्माकमिति प्रहृष्ट-मनः प्रकामं ।। २४८ ।। अर्थ :एटलामां. हुं पण उठीने करवा योग्य प्राभातिक कार्य करवा माटे प्रवृत्त थयो अने हे सुप्रतिष्ठ! सत्दर्शन अमने पण थशे आथी त्यारे मारू मन पण अत्यंत खुश हतु । हिन्दी अनुवाद :इतने में मैं भी उठकर सुबह का नित्यकार्य सम्पादित करने में प्रवृत्त हुआ और हे सुप्रतिष्ठ! प्रिया का दर्शन मुझे आज होगा, इस आशा से मेरा दिल भी अत्यन्त प्रसन्न था । गाहा : साहु-धणेसर - विरइय- सुबोह- गाहा - समूह - रम्माए । रागग्ग-दोस - विसहर पसमण जल- मंत- भूयाए ।। २४९ ।। 133 Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छाया: साधु-धनेश्वर-विरचित-सुबोध-गाथा-समूह-रम्या। रागाग्नि-द्वेष-विषधर-प्रशमन-जल-मंत्र-भूता ॥२४९।। अर्थ :- साधु धनेश्वरसूरि वड़े विरचित सुखेथी बोध आपनारी गाथाना समूहथी रम्य रागरूपी अग्नि अने द्वेष रूपी विषधर ने शमाववा माटे पाणी अने मंत्र समान - हिन्दी अनुवाद :- साधु धनेश्वरसूरि से विरचित सुखावबोध, गाथा के समूह से रम्य, राग रूपी अग्नि और द्वेष रूपी विषधर का शमन करने के लिए पानी और मन्त्र समानगाहा : एसोवि परिसमप्पइ विरहे सूरुग्गमोत्ति सुपसिद्धो। सुर-सुंदरि-नामाए कहाए तइओ परिच्छेओ ।। २५०।। छाया :• एषोऽपि परिसमाप्यते विरहे सूर्योदगमरिति सुप्रसिद्धः। सुर-सुन्दरि-नाम्ना-कथायाः तृतीयः परिच्छेदः ।।२५०।। अर्थ :- सूर्यनो उदयथयो ए प्रमाणे सुप्रसिद्ध सरसुन्दरि नामनी कथानो आ तृतीय परिच्छेद पण विरहमां समाप्त कराय छे । हिन्दी अनुवाद :- सूर्योदय तक सुप्रसिद्ध सुरसुन्दरि नाम की कथा का यह तृतीय परिच्छेद भी विरह में समाप्त होता है। Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्थान के विकास में सहयोग का आह्वान (आयकर अधिनियम ८० जी० के अन्तर्गत देय अनुदान ५०% कर मुक्त) पार्श्वनाथ विद्यापीठ पिछले ६८ वर्षों से समग्र जैन संस्कृति के प्रचार-प्रसार में अनवरत लगा हआ है। यह संस्थान काशी हिन्दू विश्वविद्यालय एवं डा. राममनोहर लोहिया विश्वविद्यालय, फैजाबाद से शोध संस्थान के रूप में मान्यता प्राप्त है। अभी तक लगभग १५० छोटे-बड़े ग्रन्थ संस्थान से प्रकाशित हो चुके हैं और लगभग ६६ छात्रों ने यहां से पी-एच.डी. की उपाधि प्राप्त की है। यहां छात्र-छात्राओं के लिए छात्रावास एवं बाहर से पधारने वाले विद्वानों के लिए सभी सुविधाओं से सुसज्जित अतिथिगृह एवं पुस्तकालय उपलब्ध है। रमणीय और शान्त परिसर जैन विद्या के अभ्यासकर्ताओं के लिए अत्यन्त उपयुक्त है। सेठ श्री हरजसराय जी द्वारा संस्थापित यह संस्थान देवलोक प्राप्त प.पू. श्री सोहन लाल जी म., जैन श्रमण संघ के वर्तमान आचार्य प.पू. श्री शिवमुनि जी म., प.पू. श्री आचार्य श्री राजयश सूरीश्वर जी म., प.पू. श्री मणिभद्र मुनि जी म., प.पू. साध्वी मणिप्रभा श्री जी म. एवं प.प. प्रवर्तिनी आर्या ॐकारश्री जी म. आदि साधु भगवन्तों द्वारा आशीर्वाद प्राप्त, श्री भूपेन्द्र नाथ जैन, डॉ. सागरमल जैन एवं श्री इन्द्रभूति बरड़ जैसे कर्मठ अभिभावकों द्वारा संरक्षित तथा सर्वश्री जगन्नाथ जैन, श्रीमती सीता देवी जैन, श्री अमृतलाल जैन, श्री नृपराज शादीलाल जैन, श्री दीपचन्द जी गार्डी, श्री नेमनाथ जैन, श्री मोहनलाल खरीवाल, श्री पुखराजमल लुंकड़, श्री किशोर एम. वर्धन, श्री शान्तिलाल बी. सेठ, बनारसी दास लाजवन्ती जैन, खांतिलाल शाह, सुमतिप्रकाश जैन, शौरीलाल जैन, लाला जंगीलाल जैन, लाला अरिदमन जैन, राजकुमार जैन, अरुण कुमार जैन, जतिन्दरनाथ जैन, तिलकचन्द जैन; दुलीचन्द जैन आदि जैसे दानवीर उद्योगपतियों द्वारा पोषित एवं सेवित है। संस्थान के बढ़ते हुए चरण को और गतिमान् बनाने के लिए आप सभी के आर्थिक सहयोग की अपेक्षा है। यह सहयोग आप निम्न रूप में दे सकते हैं - १. ग्रन्थ प्रकाशन, २. प्रकाशित साहित्य-क्रय, ३. पुस्तकदान, ४. आवास निर्माण, ५. शोध छात्रवृत्ति, ६. आल्मारी, पंखे आदि का दान, ७. संस्थान द्वारा प्रकाशित साहित्य-सदस्य तथा श्रमण शोध पत्रिका के सम्मानित सदस्य के रूप में। वर्तमान में संस्थान द्वारा प्रकाशित साहित्य के लिए ११०००/- रुपये आजीवन सदस्यता शुल्क रखा गया है। इसके बदले हम अपने संस्थान का Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लगभग २०,०००/- का प्रकाशित साहित्य भेंट देते हैं तथा भविष्य में हाने वाले सभी प्रकाशन भी उन्हें पांच वर्षों तक मुफ्त भेंट दिये जाते हैं। हम श्रमण विद्या से सम्बन्धित उच्चकोटि के साहित्य (पुस्तक, मोनोग्राफ आदि) का प्रकाशन आपके लिए करते हैं। आपके या आपके निकटतम व्यक्ति की स्मृति में भी हम ग्रन्थ प्रकाशन करते हैं। - सुधी पाठकों से निवेदन है कि वे श्रमण एवं पार्श्वनाथ विद्यापीठ द्वारा प्रकाशित साहित्य के ग्राहक बनकर जैन साहित्य और संस्कृति के प्रचार-प्रसार में अपना अमूल्य सहयोग दें। लेखकों से निवेदन है कि वे उच्चस्तरीय जैन शोध-निबन्ध श्रमण में प्रकाशनार्थ भेजें। लेख हिन्दी, गुजराती और अंग्रेजी में हो सकते हैं। निवेदक डॉ श्रीप्रकाश पाण्डेय डा. सागरमल जैन, सचिव सम्पादक श्री इन्द्रभूति बरड़, संयुक्त सचिव Page #280 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