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प्राकृत भाषा और राजशेखरकृत कर्पूरमञ्जरी में देशी शब्द
श्रमण, वर्ष ५६, अंक १-६ जनवरी- जून २००५
डॉ० कमलेश कुमार जैन*
णासिय- दोस- समूहं, भासिअणेगंतवाय - ललिअत्थं । पासिअ लोआलोअं, वंदामि जिणं महावीरं ॥
विश्व का मानव समुदाय आदिकाल से ही अपने भावों की अभिव्यक्ति के लिये ध्वनि का प्रयोग करता आ रहा है। बाद में यह ध्वनि बोली कहलाने लगी और कालान्तर में सभ्य समाज के द्वारा साहित्य संरचना के क्रम में भाषा के रूप में समादृत हुई।
श्रद्धा पर आधारित धार्मिक सिद्धान्तों को कुछ समय के लिये गौण कर दिया जाये और सुप्रसिद्ध पाश्चात्य विद्वान डार्विन के इस सिद्धान्त को स्वीकार कर लिया जाये कि - 'मानव समुदाय का विकास बन्दर से हुआ है' अथवा 'मनुष्य के पूर्वज बन्दर थे' तो वस्तुस्थिति ऐसी ही प्रतीत होती है।
मानव मात्र द्वारा आदिकाल से बोली जानी वाली विविध भारतीय भाषाओं के विकास-क्रम में संस्कृत को केन्द्र - बिन्दु मानकर यदि प्राकृत- भाषाओं के विकास पर विचार किया जाये तो प्राकृत भाषाओं के शब्द- समूह के तीन रूप स्पष्ट दिखलाई देते. - तत्सम शब्द, तद्भव शब्द और देश्य अथवा देशी शब्द |
तत्सम शब्द वे हैं जिनकी संरचना संस्कृत शब्दों के समान होती है, यथासंसारदावानलदाहनीरं अथवा तुण्डं, कण्ठं, नीरं, तीरं आदि। इन शब्दों में किसी भी प्रकार का ध्वनि-विकार नहीं होता है, अपितु संस्कृत और प्राकृत- इन दोनों भाषाओं में सदृश प्रयोग होते हैं।
तद्भव शब्द वे हैं जिनकी व्युत्पत्ति संस्कृत भाषा को आधार बनाकर की गयी हैं। यथा
सिरिसिद्धराअ सच्चं साहसरसिक ति कित्तणं तुज्झ ।
कहमण्णहा मणं मह पडतमअणत्थमक्कमसि ।।
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* रीडर एवं अध्यक्ष, जैन-बौद्ध दर्शन विभाग, संस्कृतविद्या धर्मविज्ञान सङ्काय, • हि० वि०वि०, वाराणसी
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