SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 53
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४६ : श्रमण, वर्ष ५६, अंक १-६/जनवरी-जून २००५ (श्री सिद्धराज! सच्चं साहसरसिक! इति कीर्तनं तवं। कथमन्यथा मनः मम पतन्तमदनास्त्रमाक्रामसि।।) - वाग्भटालंकार, सिंहदेवगणि टीका, २/२ यहाँ इस गाथा में संस्कृत-ध्वनियों का ही प्राकृतीकरण किया गया है। अर्थात् संस्कृत शब्द-रूपों को वर्णागम, वर्णविकार, वर्णलोप और वर्णपरिवर्तन आदि के माध्यम से गंदला/विकृत करके शब्द-रूपों को प्रस्तुत किया गया है। धर्म का धम्म, चक्र का चक्क, कर्म का कम्म, पश्चात् का पच्छा, तस्मात् का तम्हा आर्य का अज्ज या आरिय आदि भी तद्भव शब्द रूप ही हैं। देश्य या देशी शब्द वे हैं, जिनमें संस्कृत भाषागत प्रकृति-प्रत्यय आदि की जोर-जबरदस्ती अथवा खींचातानी आदि नहीं चलती है। उनमें रूढ़िमात्र कारण होती है, यथा- कंदोट्ठ, छइल्ल, गलिबइल्ल आदि। ये शब्द तत्सम अथवा तद्भव शब्दों की भाँति न तो छान्दस् भाषा की तरह किसी पूर्ववर्ती बोली अथवा भाषा से संगृहीत हैं और न ही इनकी व्युत्पत्ति संस्कृत को आधार बनाकर की जा सकती है। ऐसे शब्द लोकभाषा में न केवल प्रयुक्त होते हैं, अपितु बोलचाल की भाषा को आभूषण की तरह सुशोभित भी करते हैं। देशी शब्द संस्कृत की किसी धातु या प्रत्यय से अथवा वर्णलोप, वर्णागम या वर्ण परिवर्तन से सिद्ध नहीं हैं। उदाहरण के लिये शरीर के लिये बोदि, निस्सार के लिये पोच्चड, चूहा के लिये ऊँदर, मिट्टी के ढेले के लिये डगलग, लड़का के लिये छोयर, कपड़ा के लिये पोत्त, कड़छी के लिये कडुच्छिका, खिड़की के लिये खडक्किका, छलनी के लिये चालिणि, खटमल के लिये ढिंकण, दाड़ी के लिये दाढिया, बैल के लिये बइल्ल, बाप के लिये बप्प, बेटी के लिये बेट्टिया, चावल के आटा के लिये रोट्ट, बरामदा के लिये बरंडग आदि देशी शब्दों का उल्लेख किया जा सकता है। (प्राकृत साहित्य का इतिहास पृष्ठ १०-११) आचार्य हेमचन्द्र ने अपने देशीनाममाला नामक ग्रन्थ में कुल ७८३ गाथाओं के माध्यम से ३९७८ शब्दों का संग्रह किया है, जिनमें तत्सम १००, तद्भव १८५०, जिनकी खींच-तानकर व्युत्पत्ति की जाये ऐसे संशयमूलक ५२८ और अव्युत्पादित प्राकृत अर्थात् देशी शब्द १५०० हैं। तात्पर्य यह कि आचार्य हेमचन्द्र ने विशुद्ध १५०० ऐसे देशी शब्दों का संकलन किया है, जिनकी कोई भी व्युत्पत्ति संस्कृत को आधार बनाकर नहीं की जा सकती है। यही देशी शब्द प्राकृत भाषा की जान हैं और जो अपने प्राकृत इस नाम को सार्थक करते हैं। ये देशी शब्द सीधे-सीधे प्राचीनकाल से अद्यावधि जन सामान्य की भाषा प्राकृत भाषा से संगृहीत हैं और इन पर संस्कृत वैयाकरणों का किसी भी प्रकार का कोई जोर-जुल्म नहीं चल सका। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525055
Book TitleSramana 2005 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2005
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy