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श्रमण, वर्ष ५६, अंक १-६
जनवरी-जून २००५
जीवदयाः धार्मिक एवं वैज्ञानिक आयाम
डॉ० काकतकर वासुदेव राव*
जीव पालतू जानवरों के मौलिक अधिकार तथा वन्य जीवों का संरक्षण अब व्यापक एवं गम्भीर चर्चा के विषय हैं। निजी सदाचार नियमों से इनका सम्बन्ध प्राचीन काल से विद्यमान है। हाल में ये विषय कानून की परिधि में भी आ गये हैं। अत: हर नागरिक के जीवन से इनका सीधा सम्बन्ध हो गया है। विदेशों में नियमों के ढांचे पर जल्दबाजी में बनाने गये कानून के कारण लोगों के सामने कई समस्याएं पैदा हुई हैं। वन्य जीवों के अधिकारों का समर्थन करने वाले संगठनों के अत्युत्साह के कारण कानूनी प्रावधान में वैचारिक विसंगतियां उत्पन्न हुई हैं। विभिन्न धर्मों के चिंतक विज्ञान से विमुख होकर अपनी पुरानी मान्यताओं का ही समर्थन कर रहे हैं। फलस्वरूप उनके विचारों की उपेक्षा होती है। भारत में जीवदया को धार्मिक विचार ही समझा जाता था। अब विज्ञान एवं तंत्रज्ञान की प्रगति के कारण नयी समस्याएं सामने आ रही हैं जिनका समाधान प्राचीन ग्रथों में नहीं मिल सकता। कुल मिलाकर पूरी वैचारिक दिशाहीनता नजर आ रही है। अत: इन विषयों पर आमूलाग्र पुनर्विचार करने की
आवश्कता है। इस चर्चा से धार्मिक भावनाओं तथा वैज्ञानिक तथ्यों से सुसंगत सदाचार नियम बनाना आसान होगा।
सभी सदाचार नियम किसी न किसी दार्शनिक सिद्धान्त पर आधारित होते हैं। भारतीय संस्कृति की दो प्रमुख परम्पराओं- वैदिक परम्परा और श्रमण परम्परा में से जैन-बौद्ध परम्पराएं इसी देश में विकसित हईं जब कि वैदिक परम्परा का आगमन आर्य लोगों के साथ हुआ, ऐसा माना जाता है। इन दोनों परम्पराओं में माना गया है कि प्रत्येक प्राणि तथा वनस्पति की अलग अलग आत्माएं हैं जो जड़ शरीर से भिन्न हैं। मृत्यु के पश्चात् आत्मा दूसरा शरीर धारण करती है। जैनमत के अनुसार किसी जीव का वध करना पाप है। शुद्ध शाकाहार ही इस परम्परा में ग्राह्य माना गया है। यद्यपि प्राचीन काल में वैदिक आर्य लोगों में मांसाहार का प्रचलन था तथा यज्ञ में पशु बलि प्रथा थी तथापि कालक्रमेण शाकाहार ही श्रेष्ठ माना गया । आजकल वैदिक धर्मानुसरण करनेवाले उच्च वर्ण के लोग शाकाहारी हैं। परम्परा तथा भौगोलिक परिस्थिति के कारण कुछ लोगों में मांसाहार का प्रचलन जरूर है; फिर भी व्रत उपवास * रिटायर्ड प्रोफेसर, जन्तुविज्ञान, दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली
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