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________________ ६८ : श्रमण, वर्ष ५६, अंक १- ६ / जनवरी - जून २००५ २४. अमरदत्त और मित्रानंद की कथा सुरतिलक नामक नगर में मकरध्वज नामक राजा रहता था। उसकी मदनसेना नामक की रानी थी। राजा ने एक बार अपना सफेद बाल देखकर वैराग्य को प्राप्त होकर तापस दीक्षा ले ली। उसके साथ मदनसेना भी जंगल में चली गयी। रानी पहले से ही गर्भवती थी। अत: तापस वन में एक पुत्र को जन्म दिया। किन्तु महाज्वर से पीड़ित होकर वह मृत्यु को प्राप्त हुई। तब वहां पर उज्जैनी के आये हुए देवानंद सेठ की पत्नी देवश्री को मदनसेना का वह पुत्र सौंप दिया। उज्जैनी लौट कर उस सेठ ने उस पुत्र का नाम अमरदत्त रखा। वहां पर सार्थवाह वेश्रमण का पुत्र मित्रानन्द अमरदत्त का बाल सखा हो गया । - एक बार वे दोनों बगीचे में गेंद खेल रहे थे तभी उनकी गेंद वहां पर वृक्ष की शाखा से लटके हुए एक मुर्दे के मुख में चली गई । मित्रानन्द इसे देखकर हंस दिया। तब उस मुर्दे ने मित्रानन्द को श्राप दिया कि थोड़े ही समय में तुम भी मेरी इस अवस्था को प्राप्त होगे। इससे मित्रानन्द उदास हो गया । अमरदत्त के बहुत पूछने पर ही मित्रानन्द ने अपना दुःख उससे कहा । तब अमरदत्त ने उसे समझाया की देव - व्यन्तरों का कथन पुरुषार्थ के द्वारा विपरीत भी किया जा सकता है। इसके लिए उसने मित्रानन्द को एक कथा सुनाई। २५. नैमित्तिक और मन्त्री पुत्र की कथा जितशत्रु राजा की सभा में एक नैमित्तिक ने आकर कहा कि ज्ञानगर्भ मन्त्री के घर में उसके पुत्र के द्वारा ही आपत्ति आयेगी । मन्त्री ने नैमित्तिक को अपनी ओर मिलाकर भोजन और पानी के साथ अपने पुत्र को एक पेटी में बन्द कर दिया और उसमें ताला लगवाकर उसे राजा के भंडार में रखवा दिया। तेरहवें दिन अन्तःपुर में शोर मचा कि मन्त्री के पुत्र ने राजकुमारी के वेणी को काट दिया है। यह सुनकर क्रोधित राजा ने मन्त्री को सकुटुम्ब नष्ट कर देने का आदेश दे दिया। तब मन्त्री ने भण्डार से उस पेटी को निकलवा कर देखा तो उसे उसका पुत्र एक हाथ में छुरी और दूसरे हाथ में कटी हुई वेणी लिए हुये निकला। इससे ज्ञात हुआ कि नैमित्तिक के कथन को विपरीत करने के लिए मन्त्री ने यह उपाय सोचा था। राजा इससे संतुष्ट हो गया । - २६. सालभंजिका रूप राजकुमारी रत्नमंजरी की कथा मित्रानन्द के श्राप को बदलने के लिए अमरदत्त और मित्रा मित्रानन्द दोनों देशान्तर को चल दिये। वे क्रमशः पाटली पुत्र पहुंचे। वे वहां पर एक देव मन्दिर के दर्शन करने के लिए गये। जिसमें कलात्मक पुतलियां बनी हुई थीं। उनमें से एक मनोहर सालभंजिका के सौंदर्य को देखकर अमरदत्त उस पर आसक्त हो गया। बहुत समझाने पर भी जब उसका मोह कम नहीं हुआ तो मित्रानन्द अमरदत्त को उस मंदिर के निर्माता निधिसार के संरक्षण में छोड़कर एक माह के भीतर सालभंजिका की असलियत का पता लगाने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525055
Book TitleSramana 2005 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2005
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size12 MB
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