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नयनने आनन्द आपनारी अने दर्शनमात्रथी ज लोकोना मनने आनंद आपती हती। हिन्दी अनुवाद :- अनेक प्रकार की क्रीड़ा में मस्त नगरजनों को देखते हुए ज्योंही मैं बैठा, उसी समय निकट के वृक्ष पर झूला झूलती सखिओं के बीच में अपूर्व रूपवाली नवयौवना को मैंने देखा। वह नवयौवना अति उन्नत स्तन पर लटकते हार की श्रेणी से सुशोभित, स्वर्ण जैसे वर्णवाली, मणि कुंडलों से मनोहर कण्ठवाली, ब्रह्मा द्वारा अमृतमय बनायी हुई लोगों के नयनों को आनन्द देनेवाली, और दर्शनमात्र से लोगों के दिल को बहलाने वाली थी।
गाहा :
तं दङ्ग चिंतियं मे का एसा हंदि ! मणहर-सरूवा ।
किं नाग-कन्नगेसा अवइन्ना अहव वण-लच्छी ? ।।१२२।। छाया :
तां दृष्ट्वा चिंतितं मया का एषा हन्त ! मनहर-स्वरूपा।
किं नागकन्यकैषा अवतीर्णा अथवा वन-लक्ष्मी ? ||१२२|| अर्थ :- तेणीने जोईने में विचार्यु अरे ! आ मनोहर-रूपवाळी कोण छे ? शुं आ नागकन्या अवतारी छे के वनलक्ष्मी अवतरेली छे? हिन्दी अनुवाद :- उस युवती को देखकर मैंने सोचा, “अरे! मनोहर रूपधारी यह युवती कौन है? यह नागकन्या है या वनलक्ष्मी यहां अवतरित हुई है? गाहा :
किंवा सुर-लोगाओ पब्भट्ठा तियस-सुंदरी एसा ।
किंवा मयण-विउत्ता होज्ज रई गहिय-देहत्ति ? ।।१२३।। छाया :
किं वा सुर-लोकात् प्रभ्रष्टा त्रिदश-सुंदरी एषा।
किं वा मदन-वियुक्ता भवेत् रति ग्रहित-देह इति ।। अर्थ :- अथवा देव-लोकथी भ्रष्टथयेली शुं आ त्रिदशसुंदरी छे ? अथवा शुं आ मदनथी वियुक्त शरीरधारिणी रती छे? हिन्दी अनुवाद :- अथवा तो क्या यह देवलोक से भ्रष्ट हुई त्रिदश सुंदरी है? अथवा यह मदन से वियुक्त शरीरधारी रति है? गाहा :
एवं विगप्पमाणो अणमिस-नयणेहिं तं पुलोएंतो । तीएवि पुलोइओ हं ससिणिद्ध-अवंग-दिट्ठीए ।।१२४।।
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