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श्रमण, वर्ष ५६, अंक १-६/जनवरी-जून २००५
__“जीव और पुद्गल में परस्पर व्याप्य-व्यापक भाव का अभाव होने से जीव को पुद्गल परिणामों के साथ और पुद्गल कर्म को जीव परिणामों के साथ कर्ता-कर्मपने की असिद्धि होने से, मात्र निमित्त-नैमित्तक भाव का निषेध न होने से, परस्पर निमित्त मात्र से ही दोनों के परिणाम होते हैं।'' ३७
"जैसे कुम्हार के परिणामों के निमित्त से मिट्टी घड़े के रूप में परिणमित होती है, उसी प्रकार जीव सम्बन्धी मिथ्यात्व व रागादिपरिणामों का निमित्त पाकर कार्मणवर्गणारूप पुद्गलद्रव्य कर्म रूप में परिणमित होता है। जैसे- घट का निमित्त पाकर कुम्हार 'मैं घड़े को बनाता हूँ'- इस प्रकार भाव रूप परिणमन करता है, उसी प्रकार उदय में आये हुए द्रव्य कर्मों का निमित्त पाकर जीव निर्विकार चिच्चत्मकार परिणति को प्राप्त नहीं होता हुआ मिथ्यात्व और रागादि विभाव रूप परिणमन करता है। यद्यपि परस्पर निमित्त से इन दोनों का परिणमन होता है तथापि निश्चय से जीव वर्णादि पुद्गल कर्म के गुणों को नहीं करता और कर्म भी अनन्त ज्ञानादि जीव के गुणों को नहीं करता। यद्यपि उपादान रूप से वे दोनों एक-दूसरे के गुणों को नहीं करते, तथापि कुम्हार व घड़े की भांति परस्पर निमित्त से उनके परिणाम होते हैं।'३८
आचार्य कुन्दकुन्द व उनके टीकाकारों ने जीव के भावों व पुद्गल के परिणामों में मात्र निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध की उद्घोषणा कर तथा कर्ता-कर्म सम्बन्ध का निषेध कर पुद्गल कर्मों के कर्तृत्व से जीव को मुक्त कर पूर्ण स्वतन्त्रता का रसास्वादन कराया है।
___आचार्य कुन्दकुन्द ने पुद्गलकर्मों के कर्तृत्व की मान्यता को और अधिक विश्लेषित करते हुए कहा है कि "आत्मा अनेक प्रकार के पुद्गल कर्मों का कर्ता व भोक्ता है, ऐसा कहना अज्ञानियों का अनादिकाल से प्रसिद्ध (रूढ़) व्यवहार है।''३९
जिस प्रकार कुम्हार को घड़े का कर्ता व भोक्ता कहना वास्तविकता न होकर अनादि का रूढ़ व्यवहार है, उसी प्रकार आत्मा को पुद्गल कर्म का कर्ता व भोक्ता कहना भी अनादि संसार का प्रसिद्ध व्यवहार है। लेकिन व्यवहारनय के इस मन्तव्य में दूषण है। कारण कि- "यदि आत्मा पुद्गल कर्म को करे और उसी को भोगे तो वह आत्मा अपनी व पुद्गलकर्म की दो क्रियाओं से अभिन्न ठहरे'' तथा जो आत्मा को (अपनी व पुद्गलकर्म की) दो क्रियाओं का कर्ता मानते हैं वे द्विक्रियावादी मिथ्यादृष्टि हैं।
योगसार व पंचाध्यायी में भी यही मन्तव्य व्यक्त किया गया है- “यदि कर्म को चेतन और चेतन को कर्म का कर्ता माना जाये तो दोनों एक दूसरे के उपादान बन जाने के कारण कौन चेतन और कौन अचेतन है, यह बात सिद्ध ही न हो सकेगी।''४१
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