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________________ कर्म - सिद्धान्त एवं वस्तुस्वातन्त्र्य कर्म का इस प्रकार आत्मा वास्तव में पुद्गल कर्म का अकर्ता है। उसे पुद्गल कर्ता कहना उपचार मात्र से है, जैसे- "योद्धाओं के द्वारा युद्ध किये जाने पर 'राजा युद्ध किया' ऐसा कहा जाता है, वह उपचार कथन है, वैसे ही जीव ने कर्म कियेऐसा उपचार से ही कहा जाता है । " ने १४२ FO ३५ यहाँ पर हमने आत्मा, पुद्गल कर्मों का अकर्ता कैसे है ? इस प्रश्न का तर्कपुरस्सर समाधान, आचार्यों के मन्तव्यों को उद्धृत करते हुए दिया है। आचार्यों ने जो कारण दिये हैं उसका सार निम्नांकित है (१) जीव व पुद्गल कर्मों में परस्पर निमित्त - नैमित्तिक सम्बन्ध है, कर्ता-कर्म सम्बन्ध नहीं है। क्योंकि जीव व कर्म परस्पर एक-दूसरे के गुणों के कर्ता नहीं होते । (२) जीव व पुद्गल कर्म दो भिन्न द्रव्य होने से उनमें व्याप्य व्यापक भाव का अभाव होने से कर्ता-कर्म सम्बन्ध नहीं होता । (३) यदि जीव को पुद्गलकर्म का कर्ता माना जाये तो द्विक्रियावादिता का प्रसंग उपस्थित होगा तथा दो द्रव्यों की भिन्नता सम्भव न हो सकेगी। (४) जीव को पुद्गल कर्मों का कर्ता कहना मात्र उपचार कथन है- अतः सिद्ध . हुआ कि अपने से भिन्न जीव जड़रूप पौगलिक कर्म का कर्ता नहीं है वह केवल अपने परिणाम का ही कर्ता है। निष्कर्ष उपरोक्त सम्पूर्ण विवेचन से यह बात भलीभाँति स्पष्ट हो जाती है कि जैनदर्शन परकर्तृत्व की मान्यता का जड़मूल से निषेधकर वस्तु की स्वतन्त्रता को सम्पूर्णता से प्रतिपादित करता है। जैनदर्शन सर्वप्रथम परम सत्ता ईश्वर के जगत्-कर्ता की अवधारणा को अस्वीकृत करते हुए कहता है कि विधि, स्रष्टा, विधाता, दैव, पुराकृत कर्म और ईश्वर ये सब कर्मरूपी ईश्वर के पर्यायवाचक शब्द हैं ४३ अर्थात् इनके सिवाय अन्य कोई लोक को बनाने वाला नहीं है। जैन दर्शन ईश्वरीय दासता से जगत् को मुक्त कर 'एक द्रव्य-दूसरे का कार्य करता है' इस प्रकार कर्तृत्व की मिथ्या बुद्धि का भी परिहार करते हुए, एक ही द्रव्य में कर्ता-कर्म सम्बन्ध की स्थिति को स्वीकार करता है और जीव अपने भिन्न परद्रव्यों घट, पट, रथ, शरीरादि, द्रव्यकर्मों का कर्ता मात्र उपचार से है, वास्तव में नहीं, इस मन्तव्य को बतलाकर स्वकर्तृत्व की अवधारणा का प्रतिपादन करता है। जैन दर्शन दार्शनिक जगत् में अपनी स्वतन्त्र वस्तु - व्यवस्था या विश्वव्यवस्था के प्रतिपादन में अद्वितीय वैशिष्ट्य स्थापित करता है। एक ओर जहाँ वह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org -
SR No.525055
Book TitleSramana 2005 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2005
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size12 MB
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