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________________ ३६ : श्रमण, वर्ष ५६, अंक १-६/जनवरी-जून २००५ विश्व-व्यवस्था की सत्ता का निषेध कर ईश्वरीय आधिपत्य से मुक्त कर कर्म को ही विधाता मानता है, वहीं दूसरी ओर वस्तु की परनिरपेक्ष स्वतन्त्रता की उद्घोषणा कर कर्म के दासत्व से भी जीव की सत्ता को उन्मुक्त करता है। सन्दर्भ: १. जैनेन्द्रसिद्धान्त कोश, क्षु. जिनेन्द्र वर्णी, भाग- २, पृ. २५,नई दिल्ली; १९९७. कर्मकारक जगत् प्रसिद्ध है। व्याकरण शास्त्र में कर्मकारक को कर्म कहा जाता है जिसे कर्ता अपनी क्रिया के द्वारा प्राप्त करना चाहता है। 'घटं करोति' में कर्मकारक 'कर्म' शब्द का अर्थ है। कुशल-अकुशल कर्म में पुण्य-पाप का अर्थ निहित है। उत्क्षेपण, अवक्षेपण आदि कर्म का क्रिया अर्थ विवक्षित है। वास्तव में 'कर्म' का शब्द मौलिक , अर्थ क्रिया ही है। किन्तु तीसरे प्रकार का कर्म अप्रसिद्ध है। केवल जैन सिद्धान्त ही उसका विशेष निरूपण करता है। . २. कर्मग्रहण योग्या: पुद्गला: सूक्ष्मा: न स्थूला: सर्वार्थसिद्धि, पूज्यपाद, पृ. ४०२, नई दिल्ली; १९५५ कीरई जीएण हेऊहिं जेणं तु भण्णाए कम्म। कर्मग्रन्थ, देवेन्द्रसूरि, भाग-१, गाथा १, आगरा: १९३९ द्रव्यकर्माणि जीवस्य पुद्गलात्मान्यनेकधा। भावकर्माणि चैतन्यविवर्तात्मनि भान्ति नुः। क्रोधादीनि स्ववेद्यानि कथंचिदभेदतः। आप्तपरीक्षा, विद्यानन्द, श्लोक ११३-११४, सरसावा; वि. स. २००६. सांख्यकारिका, ईश्वरकृष्ण, कारिका ६२, दिल्ली; १९७९ 6. Buddhists do not regard the Karma as Subtle Matter. Encyclopedia of Religion and Ethics, Vol.- VIII, P. 472. अंगुत्तरनिकाय, साभार- बौद्धदर्शन व अन्य भारतीयदर्शन, पृ. ४६३ 8. Studies in Jaina Philosophy, Nathmal Tatia, p. 228, PVRI, Banaras; 1951. ९. पंचास्तिकाय, कुन्दकुन्द, गाथा९, बम्बई, वि. स. १९७२. १०. पंचाध्यायी (पूर्वार्द्ध), गाथा १४३, कारंजा; १९३२. ११. वही, गाथा ८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525055
Book TitleSramana 2005 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2005
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size12 MB
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