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________________ भारतीय दार्शनिक सन्दर्भ में जैन अचेतन द्रव्य 44 ४१ बिना पानी के वह तैर ही नहीं सकती। ठीक इसी तरह धर्म क्रियाशील जीव और पुद्गलों को उनकी क्रिया में एक सहायक के रूप में कार्य करता है। न तो धर्म स्वयं ही क्रियाशील है और न ही यह किसी में क्रिया उत्पन्न करना है, लेकिन यह उसकी क्रिया में एक आवश्यक आधार के रूप में कार्य करता है । अचेतन तत्त्व लोकाकाश में व्यापक रूप से रहता है पर यह रस, रूप, गंध, शब्द और स्पर्श से विहीन है । " यह परिणामी होकर भी नित्य है क्योंकि उत्पाद और व्यय होने के बाद भी इसका स्वरूप कायम रहता है । यह गति और परिणाम का कारण है। जीव और पुद्गल को स्थिर रखने में अधर्मास्तिकाय तत्त्व सहायक है।' इसकी तुलना उस बड़े पेड़ से की जा सकती है, जिसकी छाया में थके यात्री को आराम मिलता है।" यह अमूर्त, नित्य और लोकाकाश में व्याप्त है। धर्म और अधर्म दोनों जहां एक साथ लोकाकाश के प्रत्येक प्रदेश में रहतें हैं, वहीं दोनों नित्य, निराकार और गतिहीन हैं। यदि आधुनिक विज्ञान से धर्म और अधर्म की तुलना की जाए, तो इसे 'ईथर' तत्त्व और आकर्षण सिद्धान्त के सदृश माना जा सकता है। जिस प्रकार ईथर को अमूर्तिक, व्यापक और निष्क्रिय माना गया है, उसी प्रकार जैनियों ने धर्म द्रव्य को भी स्वीकार किया है। इसी प्रकार अधर्म द्रव्य को आइंस्टीन सिद्धान्त के अनुरूप माना गया है, जिसे सहायक कारण के रूप में स्वीकार किया गया है, मूल कर्ता के रूप में नहीं। १ १ जीव, धर्म, अधर्म, काल एवं पुद्गल को अपनी-अपनी स्थितियों के लिए जिस तत्त्व में स्थान की प्राप्ति हो जाती है, उसे जैन साहित्य में आकाशास्तिकाय तत्त्व कहा गया है। १२ उसका ज्ञान मात्र अनुभव से ही प्राप्त हो सकता है, क्योंकि यह अदृश्य है। अस्तिकाय द्रव्यों का विस्तार बिना आकाश के हो ही नहीं सकता। १३ आकाश के दो भेद बताये जाते हैं- लोकाकाश और अलोकाकाश। प्रथम आकाश का ही प्रतिरूप है, पर अलोकाकाश में गति का होना सम्भव नहीं है। १४ लोकाकाश में असंख्य और अलोकाकाश में अनन्त प्रदेश हैं । जहाँ प्रथम में जीव, पुद्गल, धर्म और अधर्म का निवास होता है, वहीं अलोकाकाश विश्व के प्रदेश से बाहर है। जैन विचारक लोकाकाश को सान्त मानते हैं और उसके आगे अनन्त आकाश मानते हैं, पर आइंस्टीन ने समस्त लोक को सान्त माना है और वे उससे आगे कुछ नहीं मानते । १५ 'पुद्गल' को जैन दर्शन के अन्तर्गत जड़ पदार्थ या वस्तु के नाम से जाना जाता है। इसकी परिभाषा देते हुए ऐसा विचार व्यक्त किया गया है कि 'जिस भौतिक द्रव्य का संयोजन और विभाजन हो सके, वही पुद्गल द्रव्य है।' इसी कारण पुद्गल को ऐसा द्रव्य माना गया है, जिसे जोड़कर हम बहुत बड़ा बना सकते हैं और उसे छोटेछोटे टुकड़ों में भी बांट सकते हैं। यह सीमित और मूर्त रूप है और इसमें आठ प्रकार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525055
Book TitleSramana 2005 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2005
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size12 MB
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