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________________ श्रमण, वर्ष ५६, अंक १.६ जनवरी-जून २००५ भारतीय दार्शनिक सन्दर्भ में जैन अचेतन द्रव्य डॉ. विनोद कुमार तिवारी* जैन परम्पराओं मे संसार की समस्त वस्तुओं को दो भागों में विभाजित किया गया है - जीव तथा अजीव अथवा चेतन और अचेतन। अचेतन द्रव्यों में पुदगल के अलावा देश और काल को भी शामिल किया गया है।' अजीवों में भी जो शरीर धारण करते हैं उन्हें अस्तिकाय तथा जो शरीर धारण नहीं करते उन्हें अनस्तिकाय अजीव कहा जाता है। अजीव द्रव्यों का विभाजन पांच समूहों में किया जाता है- धर्म, अधर्म, आकाश, पुद्गल और काल। इनमें से अन्तिम को छोड़ शेष को अस्तिकाय कहा गया है क्यों कि वे स्थान घेरते हैं, पर काल में चूंकि एक ही प्रदेश है, अत: वह अस्तिकाय नहीं है। अन्य द्रव्यों से अलग पुद्गल में रस, रूप, गंध और स्पर्श जैसे लक्षण पाये जाते हैं।३ धर्म, अधर्म और आकाश एक है, पर पुद्गल और जीव अनेक हैं। धर्म, अधर्म क्रिया रहित है, जबकि शेष दो में क्रिया है। काल में क्रिया नहीं है और इस कारण यह एक स्थान से दूसरे स्थान पर नहीं जा सकता। धर्म, अधर्म, आकाश और जीव में अनेक प्रदेश होते हैं, पर अणु में प्रदेश होता ही नहीं, अत: इसे अनादि या अमध्य भी कहा गया है। ये द्रव्य जीव, धर्म, काल एवं पुद्गल व्याप्त आकाश में स्वच्छन्द रूप से विचरण करते हैं। साधारणत: शाब्दिक रूप से धर्म और अधर्म का अर्थ पुण्य और पाप से लिया जाता है, पर जैन शब्दावली में धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय का विशेष अर्थों में प्रयोग किया गया है। धर्मास्तिकाय अजीव तत्त्व का वह भेद है, जो स्वयं क्रियारहित है और दूसरे में क्रिया उत्पन्न नहीं करता। पर इसके बावजूद वह क्रियाशील जीवों और पुद्गलों को उनकी क्रिया में सहायता अवश्य प्रदान करता है। इसका यह अर्थ कदापि नहीं कि जीव और पुद्गल की अपनी कोई गति नहीं है, बल्कि यह तो एक माध्यम है जिसके द्वारा गति पैदा होती है। जिस प्रकार विश्व की प्रत्येक वस्तु में परिणमन करने की शक्ति है, लेकिन फिर भी काल द्रव्य उसमें सहायक होता है जिसकी सहायता के बिना कोई वस्तु परिणमन नहीं कर सकती, उसी प्रकार धर्मास्तिकाय के बिना किसी में गति नहीं हो सकती। एक उदाहरण इसे समझने के पर्याप्त होगा। जैसे एक मछली पानी में तैरती है । यहां मछली के लिये पानी का रहना नितान्त आवश्यक है क्योंकि * रीडर व अध्यक्ष, इतिहास विभाग, यू०आर० कालेज, रोसड़ा, (समस्तीपुर) बिहार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525055
Book TitleSramana 2005 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2005
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size12 MB
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