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________________ ४२ : श्रमण, वर्ष ५६, अंक १-६/जनवरी-जून २००५ के स्पर्श, पांच प्रकार के रस, दो प्रकार के गंध और पांच प्रकार के रूप पाये जाते हैं।१६ इसके रूप में जीव की प्रत्येक क्रिया अभिव्यक्त होती है। इसे यूं भी समझा जा सकता है कि इसके अणुओं से अनुभव की सारी वस्तुएं बनी हैं, जिसमें प्राणियों के शरीर, ज्ञानेन्द्रियां और मानस भी शामिल हैं। ऐसा विश्वास किया जाता है कि जीवों का निवास सभी अणुओं के अन्दर होता है और इस प्रकार सम्पूर्ण जगत् वस्तुत: जीवों से युक्त है। ये कर्म के रूप में भी होते हैं और इन्हीं कर्म पुद्गलों के सम्पर्क से जीव 'बद्ध' होता है। पुद्गल के 'सरल' या 'आणविक' और 'स्कन्ध' या 'यौगिक' दो रूप होते हैं। वस्तु के विभाजन की प्रक्रिया में एक ऐसा भी दौर आता है, जहां वस्तु का और विभाजन सम्भव नहीं होता और इसी अंश को 'अणु' कहा जाता है।१७ अनेक परमाणुओं के संगम से जो द्रव्य तैयार होता है, उसे स्कन्ध या संघात कहते हैं। सब प्रत्यक्ष योग्य वस्तुएं स्कंध या यौगिक हैं।१८ अणु या परमाणु की प्राप्ति स्कन्धों के विभाजन के फलस्वरूप ही होती है। यद्यपि परमाणु नित्य हैं तथापि स्कन्धों के टूटने से उनकी उत्पत्ति होती है। दो अणुओं के मेल से द्विप्रदेश और द्विप्रदेश तथा एक अणु को मिलाकर त्रिप्रदेश बनता है और इसी प्रकार बड़े एवं सूक्ष्म अनन्त प्रदेशी स्कन्ध तैयार होते हैं। आधुनिक विज्ञान में जिस अणु या ऐटम का वर्णन किया गया है, वे जैन शास्त्रों में वर्णित अणु की तरह नहीं हैं। जहां आधुनिक वैज्ञानिक 'अणु' का विभाजन हो सकता है, वहीं जैन दर्शन का अणु तो मूल कण है, जिसका अपना स्वयं का अस्तित्व है और उसमें किसी मिश्रण का प्रश्न ही नहीं होता जिसे विभाजित किया जा सके। शब्द, बन्ध, सूक्ष्मता, स्थूल, संस्थान, आकार, अंधकार, छाया, प्रकाश, और आतप ये सभी पुद्गल के परिणाम हैं।१९ जहां दूसरे दर्शन में शब्द को आकाश का गुण माना गया है, वहीं जैन विद्वानों ने इसे अलग मौलिक गुण के रूप में स्वीकार न करते हुए शब्द को स्कन्ध या आगन्तुक गुण बतलाया है।२° इसके प्रमाण में यह कहा जाता है कि यदि शब्द आकाश का गुण होता तो इसे मूर्तिक कर्णेन्द्रिय के द्वारा ग्रहण नहीं किया जा सकता था, क्योंकि अमूर्तिक आकाश का गुण - भी अमूर्तिक ही होता है और मूर्तिक को मूर्तिक इन्द्रिय नहीं जान सकती। वस्तु मात्र के परिवर्तन में सहायता प्रदान करने का कार्य काल द्रव्य का होता है। जैन दार्शनिक उमास्वाति ने द्रव्यों की वर्तना, परिणाम क्रिया, नवीनत्व या प्राचीनत्व 'काल' के कारण ही सम्भव माना है।२१ द्रव्यों के परिणाम और क्रियाशीलता की व्याख्या काल के द्वारा ही होती है। काल को एक ऐसा द्रव्य माना गया है, जिसे न तो हम देख सकते हैं, न उसकी आवाज सुन सकते हैं, न उसका स्पर्श कर सकते हैं और न उसकी गंध ही प्राप्त कर सकते हैं। इसीलिये काल के अस्तित्व का अनुभव प्रत्यक्ष के द्वारा सम्भव ही नहीं है। इसक लिए अनुमान का ही सहारा लेना पड़ता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525055
Book TitleSramana 2005 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2005
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size12 MB
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