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________________ भारतीय दार्शनिक सन्दर्भ में जैन अचेतन द्रव्य : ४३ है। वस्तुओं की अवस्था में जो परिवर्तन होता है, उसकी व्याख्या के लिए काल को मानना पड़ता है। यह नित्य है, अत: पुद्गल सदैव गतिशील रहता है। व्यावहारिक दृष्टिकोण से काल को 'समय' के रूप में जाना जाता है, जिसका विभाजन आधुनिक काल में घण्टा, मिनट और सेकेण्ड के रूप में किया गया है। समय निश्चय काल का एक रूप है, पर जीव और पुद्गल की गति के द्वारा अभिव्यक्त होने के कारण 'परिणाम भव' कहलाता है। समय अस्थायी है, अत: इसे 'काल अण' भी कहा जाता है। चूंकि काल अणु मात्र प्रदेश को स्पष्ट करता है, अत: इसके काय नहीं होते। काल अणु परस्पर नहीं मिलते, यद्यपि ये समस्त लोकाकाश में भरे रहते हैं। निश्चय काल नित्य है और द्रव्यों के परिणाम में सहायक होता है। इन्हीं गणों के कारण जैन विद्वानों ने काल को दो वर्गों में बांटा है- पारमार्थिक या निश्चय काल तथा व्यावहारिक काल। जहाँ प्रथम नित्य और निराकार है, वहीं व्यावहारिक काल सांसारिक है जिसका प्रारम्भ एवं अन्त होता है।२२ गुणरत्न के आधार पर कुछ विद्वानों ने काल को स्वतंत्र द्रव्य न मानकर दूसरे द्रव्यों का ही एक पर्याय माना है। अखण्ड द्रव्य होने के कारण यह अस्तिकाय नहीं है, बल्कि यह अवयवों के बिना ही समस्त विश्व में व्याप्त रहता है।२३ उपरोक्त सभी द्रव्य अचेतन या अजीव हैं, अत: वे सुख-दुख की भावना से परे हैं। पुद्गल के अलावा दूसरे सभी अस्तिकाय द्रव्य असीमित आकार वाले हैं, जबकि पुद्गल में शुरू से ही रस, रूप, गंध तथा स्पर्श का अस्तित्व होता है। दूसरे दर्शन में व्यवहार काल को ही काल द्रव्य मान लिया गया है, जबकि जैनियों ने काल द्रव्य अणुरूप वस्तु को स्वीकार किया है। यह कालद्रव्य भी आकाश की तरह ही अमूर्तिक है, अन्तर इतना है कि आकाश अखण्ड है जबकि कालद्रव्य अनेक हैं।२४ इस प्रकार तुलनात्मक दृष्टिकोण से अजीव तत्त्व को जैन दर्शन में एक विशिष्ट स्थान दिया गया है और इसकी उपयोगिता इसके वैज्ञानिक तथ्यों के कारण अधिक परिलक्षित होती है। सन्दर्भ : १. आउट लाइन्स आफ इंडियन फिलॉसफी, एम० हिरियन्ना, पृ० १५८ आकाश का वह भाग, जिसमें एक परमाणु रह सके। तत्त्वार्थसूत्र, ५,१-४ भारतीय दर्शन, उमेश मिश्र, पृ० १११ द्रव्यसंग्रह, नेमिचन्द्र, १७ ६. तत्त्वार्थसूत्र, ३, ५, ६, ७ एवं १३ ७. पंचास्तिकाय, ८५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525055
Book TitleSramana 2005 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2005
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size12 MB
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