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५० : श्रमण, वर्ष ५६, अंक १-६/जनवरी-जून २००५
प्रात:काल प्रशंसात्मक वाक्यों को जोर से बोलने वाले चरणों के लिये सुप्रसिद्ध कवयित्री श्रीमती सुभद्राकुमारी चौहान ने अपनी एक रचना में हलबोलो शब्द का प्रयोग किया है।
बुन्देले हलबोलों के मुख हमने सुनी कहानी थी। खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।। पाडीसिद्धीएँ :
यह देशी शब्द प्रतिस्पर्धा के अर्थ में प्रयुक्त होता है। यह तृतीया एक वचन का रूप है और इसकी संस्कृतच्छाया प्रतिस्पर्धया की गई है। कर्पूरमञ्जरी में महाकवि राजशेखर की प्रशंसा करते हुये उन्हें चन्द्रमा का प्रतिस्पर्धी कहा है। यह देशी शब्द कर्पूरमञ्जरी में अन्य अनेक स्थलों पर भी प्रयुक्त हुआ है। १/९, १/१९, २/१० • ढिल्लाअरा :
यह देशी शब्द शिथिल आदर अथवा शिथिल रुचि के अर्थ में प्रयुक्त है। विद्वानों ने इसकी संस्कृतच्छाया शिथिलादरा: की है। वस्तुत: ढिल्ल का अर्थ ढीला या कमजोर है। संस्कृत शब्द शिथिल और देशी शब्द ढिल्ल में शब्द-संरचना की दृष्टि से कोई साम्य नहीं है। कर्पूरमञ्जरी में राजा चन्द्रपाल शिशिर ऋतु के बीत जाने पर बसन्त ऋतु के आगमन की सूचना देता हुआ कहता है कि वसन्तागम के कारण युवतियाँ शृङ्गार के प्रति शिथिल हो गईं हैं अर्थात् शृङ्गार करने में युवतियाँ ढिलाई कर रही हैं। १/१२
छोल्लंति, छल्लंति :
यह देशी शब्द विकसित होने या चमकने के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। विद्वानों ने इसकी संस्कृतच्छाया स्फुरन्ति की है। कर्पूरमञ्जरी में देवी विभ्रमलेखा राजा को बधाई देती हुई कहती है कि शीत ऋतु के बीत जाने के कारण दाँत रूपी रत्न चमकने लगे हैं। १/१४
भसलं :
यह देशी शब्द भ्रमर/भौंरा के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। कर्पूरमञ्जरी में द्वितीय वैतालिक टेसू के पुष्प पर बैठे भ्रमर को लक्ष्य करके कह रहा है कि काले अधोभाग वाला टेसू पुष्प ऐसा प्रतीत हो रहा है जैसे दोनों ओर अर्थात् दोनों दिशाओं से भ्रमर उसका पान कर रहा हो। १२/१५
कङ्कोली :
यह देशी शब्द अशोकवृक्ष के अर्थ में प्रयुक्त है । कहीं-कहीं कङ्कोली का अर्थ काली मिर्च के वृक्ष के लिये भी प्रयुक्त हुआ है । कर्पूरमञ्जरी में देवी
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