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श्रमण, वर्ष ५६, अंक १-६/जनवरी-जून २००५
(iii) पर्याय की स्वतन्त्रता
ऊपर हमने द्रव्य के सहभू, अनन्य व अभिन्न प्रत्येक गुण का अस्तित्व व कार्य भिन्न-भिन्न व स्वतन्त्र है, यह बतलाया है। इससे प्रगट होता है कि प्रत्येक गुण की पर्यायें भी स्वतन्त्र हैं, क्योंकि गुणों के कार्य अथवा परिणमन का नाम ही तो पर्याय है। अनन्त गुणों की अनन्त पर्यायें अपना स्वतन्त्र अस्तित्व रखती हैं यहाँ तक कि एक क्षण पूर्व उत्पन्न पर्याय भी दूसरे क्षण उत्पन्न होने वाली पर्यायों की कर्ता नहीं है। यही वस्तु की स्वतन्त्र सामर्थ्य है। इस सन्दर्भ में यह कथन अवलोकनीय है"जैसे स्वत: सिद्ध है वैसे ही स्वत: परिणमनशील भी है। गुण नित्य हैं तो भी वे निश्चय करके स्वभाव से ही प्रतिसमय परिणमन करते रहते हैं।''३३
निष्कर्ष - उपरोक्त विवेचन से यह स्पष्टत: प्रतीत होता है कि जैनदर्शन द्रव्य और उसमें अन्तर्निहित गणों एवं उसकी निरन्तर उत्पन्न हो रही पर्यायों की स्वतन्त्रता का गहराई व सूक्ष्मता से दिग्दर्शन कराता है। द्रव्य-गुण-पर्यायात्मक वस्तु में एकत्व होने पर भी उनमें से प्रत्येक का अस्तित्व व परिणमन पूर्णत: स्वसहाय व निरपेक्ष है, यह प्रतिपादित कर जैनदर्शन वस्तु की पूर्णता व स्वतन्त्र सामर्थ्य का अद्वितीय निरूपण करता है। जैनदर्शन का यह विशिष्ट व अलौकिक प्रतिपाद्य ही वस्तुस्वातंत्र्य है।
६. जीव व पुद्गल कर्मों की स्वतन्त्र परिणमनशीलता
जैन दर्शन का प्रतिपाद्य है कि संसार अवस्था में जीव ज्ञानावरणादि अष्टकर्मों से सम्बद्ध है, बँधा है और कर्मजन्य नाना परिस्थितियों का उपभोग करता है। यहाँ पर मन में यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि जीव पुद्गल कर्मों से आबद्ध होने पर स्वतन्त्र कैसे है अथवा क्या यह कर्मबंधनों से जकड़ा होने पर भी स्वतन्त्र रह सकता है? सामान्यत: कर्मों की उदयरूप अवस्था में प्रत्येक प्राणी यह अनुभूति करता है कि वह कर्मों के कारण विभिन्न प्रकार की शारीरिक, मानसिक व भौतिक परिस्थितियों - से परतन्त्र है। कर्म उसको जो परिस्थितियाँ उत्पन्न करता है, वह उसका उपभोग करने के लिए विवश है और कर्मों का नाश होने पर ही वह स्वतन्त्र व स्वाधीन हो सकता है। यद्यपि यह अक्षरश: सत्य है कि मानव कर्मजन्य परिस्थितियों से पराधीन है, किन्तु वह कर्म की दृष्टि से केवल बाह्य रूप से ही परतन्त्र है। स्वभाव से वह कर्मोदयजन्य अवस्था भी स्वतन्त्र रूप से परिणमन करती है। यहाँ पर स्वतन्त्र परिणमन का अर्थप्रत्येक द्रव्य की परिणमनरूप स्वाभाविक स्वतन्त्रता से है। जैसे- जीव कर्मबन्ध के संयोग रूप अवस्था में भी अपना ज्ञान-दर्शन रूप कार्य ही करता है वह अपने ज्ञानदर्शन रूप कार्य को छोड़कर पुद्गल द्रव्य के स्पर्श-रस-गन्ध-वर्ण रूप कार्य को नहीं करता है, वैसे ही पुद्गल द्रव्य भी है।
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