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________________ कर्म-सिद्धान्त एवं वस्तुस्वातन्त्र्य : २९ वस्तु के त्रिलक्षणात्मक स्वभाव के स्पष्टीकरण के पश्चात यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि वस्तु स्वयं में कैसी है? आचार्य कुन्दकुन्द तथा आचार्य उमास्वामी ने इसे क्रमश: ‘गुणपज्जासयं' व 'गुणपर्यायवद् द्रव्यम्' के रूप में व्याख्यायित किया है१७ जिसमें गुण और पर्यायें रहती हैं वह वस्तु है।१८ द्रव्य का उत्पाद-व्यय स्वभाव पर्याय में समाहित हो जाता है और ध्रौव्य स्वभाव का नित्य विद्यमान गुणों में समावेश हो जाता है। इस प्रकार द्रव्य इन तीनों लक्षणों से युक्त है- सत्, उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मक और गुणपर्यायात्मक। ये तीनों लक्षण परस्पर अविनाभावी हैं जहाँ एक हो वहाँ शेष दो नियम से होते ही हैं। आचार्य कुन्दकुन्द व माइल्लधवल ने द्रव्य को इसी रूप में परिभाषित किया है- “जो सत् लक्षणवाला है जो उत्पाद-व्यय संयुक्त है अथवा जो गुण-पर्यायों का आश्रय है वह द्रव्य है।''१९ ५.(३) द्रव्य-गुण-पर्यायात्मक वस्तु का स्वरूप जैन दर्शन लोक में छह द्रव्यों की सत्ता को स्वीकार करता है जो जाति की अपेक्षा से छह व संख्या की अपेक्षा अनन्त हैं अर्थात् षद्रव्यों का समुदाय ही लोक है। 'लोक' शब्द का व्युत्पत्तिसिद्ध अर्थ भी यही है- “यथा लोकयन्ते यस्मिन् षद्रव्याणि इति लोक।" ये छह द्रव्य हैं- २० जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश व काल। (क) द्रव्य और उसमें अन्तर्निहित सामान्य-विशेष गुण द्रव्य के सामान्य स्वरूप का हम पूर्व में उल्लेख कर चुके हैं यहाँ द्रव्यों का स्वरूप और उनमें अन्तर्निहित विशेष व सामान्य गुणों को उल्लिखित किया जा रहा है (१) जीवद्रव्य- जिसमें ज्ञान दर्शन रूप शक्ति हो वह जीव द्रव्य है। ज्ञान, दर्शन, चेतना, वीर्य, चारित्र आदि जीव के विशेष गुण हैं।२१ (२) पुद्गलद्रव्य- जिसमें स्पर्श, रस, गंध, वर्ण आदि गुण पाये जाते हैं, वह पुद्गल द्रव्य है। स्पर्श, रस, गंध, वर्ण व मूर्तत्व पुद्गल द्रव्य के विशेष गुण हैं।२२ (३) धर्मद्रव्य- जो स्वयं गमन करते हुए जीव व पुद्गलों के गमन में साधारण निमित्त हो, वह धर्म द्रव्य है, जैसे- मछली के गमन में पानी। गति हेतुत्व धर्म द्रव्य का विशेष गुण है।२३ (४) अधर्मद्रव्य- जो स्वयं गतिपूर्वक स्थिति रूप में परिणमित होते हुए जीव व पुद्गलों को ठहरने में साधारण निमित्त हो, जैसे- पथिक के ठहरने में वृक्ष की छाया। स्थितिहेतुत्व अधर्म द्रव्य का विशेष लक्षण है।२४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525055
Book TitleSramana 2005 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2005
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size12 MB
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