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________________ २८ श्रमण, वर्ष ५६, अंक १ - ६ / जनवरी - जून २००५ ५. (२) वस्तु का परिणामी नित्य स्वरूप सत्तावान वस्तु के स्वरूप से अवगत होने के पश्चात् यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि वस्तु कैसी है? क्या वह सर्वथा कूटस्थ व नित्य है या फिर सर्वथा परिवर्तनशील व अनित्य है ? जैनदर्शन वस्तु के अनेकान्त स्वरूप अर्थात् अनन्त धर्मात्मक स्वरूप का प्रतिपादक होने से वस्तु को न तो सर्वथा अथवा नित्य मानता है और न सर्वथा परिवर्तनशील अथवा अनित्य मानता है। वह वस्तु को 'भगुंत्पादधुवत्ता' व उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तंसत् १२ रूप में प्रतिपादित करता है। प्रत्येक वस्तु अपने ध्रुव रूप अस्तित्व को कायम रखते हुए पूर्व अवस्था का व्यय व नवीन अवस्था का उत्पाद करती हुई अनादि - अनन्त तक अपने अस्तित्व को कायम रखती है, जैसे- मिट्टी अपने पिण्ड रूप पर्याय का व्यय करती हुई, घट रूप नवीन पर्याय का उत्पाद करती हुई, घट व पिण्ड दोनों अवस्थाओं में मिट्टी रूप ध्रुव अस्तित्व से तादात्म्य रखती हुई अपने त्रिलक्षणात्मक अस्तित्व को सूचित करती है। इस सन्दर्भ में कार्तिकेयानुप्रेक्षा का कथन द्रष्टव्य है- " परिणाम से रहित नित्य द्रव्य न तो कभी नष्ट हो सकता है और न कभी उत्पन्न हो सकता है, ऐसी अवस्था में वह कार्य कैसे कर सकता है ? क्षण-क्षण में अन्य होने वाला विनश्वर तत्त्व अन्वयी द्रव्य के बिना कुछ भी कार्य नहीं कर सकता । " २३ दूसरे शब्दों में- "सर्वथा नित्य व सर्वथा क्षणिक वस्तु में अर्थक्रिया सम्भव नहीं है और अर्थक्रिया के अभाव में वस्तु की सत्ता ही सम्भव नहीं है । " २४ यहाँ यह शंका होना स्वाभाविक है कि द्रव्य एक समय में उत्पाद-व्यय-: - ध्रौव्य तीनों लक्षणों से युक्त कैसे हो सकता है ? इसका समाधान यह है कि अवस्था भेद से तीनों धर्म माने गये हैं। जिस समय द्रव्य की पूर्व अवस्था नाश को प्राप्त होती है उसी समय उसकी नयी अवस्था उत्पन्न होती है फिर भी उसका त्रैकालिक अन्वय बना रहता है ।" वह इस प्रकार कि जिस समय अंकुर की उत्पत्ति होती है उसी समय बीज का नाश होता है और दोनों में वृक्षत्व पाये जाने के कारण वृक्षत्व का भी वही काल है । ९६ उक्त विवेचन से स्पष्ट है कि प्रत्येक वस्तु त्रिलक्षणात्मक अस्तित्व से युक्त है। जगत् में नित्य-अनित्य, एक-अनेक इत्यादि अनेक धर्मयुक्त वस्तुयें ही कार्यशील दिखाई देती हैं जैसे- स्वर्ण कुण्डल, कलश, कंगन, अंगूठी इत्यादि अनेक रूपों में दिखाई देता है। यदि स्वर्ण एक रूप तथा अनित्य रूप ही हो तो उससे कुण्डलादि कार्य नहीं बन सकते। अतः वस्तु स्वभाव से ही अनेकान्त स्वरूप है। For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.525055
Book TitleSramana 2005 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2005
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size12 MB
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