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________________ कर्म-सिद्धान्त एवं वस्तुस्वातन्त्र्य : २७ ५. जैनदर्शन प्रणीत वस्तुव्यवस्था एवं वस्तुस्वातन्त्र्य जैन एवं जैनेतर दर्शनों में मान्य कर्म-सिद्धान्त के सामान्य स्वरूप से अवगत होने के पश्चात् सर्वप्रथम जैनदर्शन प्रणीत वस्तुव्यवस्था पर दृष्टिपात करना आवश्यक है तभी इस तथ्य का प्रगटीकरण सम्भव होगा कि जैनदर्शन में मान्य वस्तुव्यवस्था की क्या विशिष्टता है जो जीव की कर्मसम्बद्धता की अवस्था में भी स्वतन्त्रता का प्रतिपादन करती है। ५.(१) वस्तु का सत् स्वरूप जैन दर्शन में वस्तु को 'सत्रूप' माना गया है। “जो सत्ता रखता है अथवा जो सत् है वही वस्तु है।"९ वस्तु, सत्ता, द्रव्य, तत्त्व, पदार्थ, अर्थ, धर्म सभी एक ही अर्थ के वाचक हैं।१० सत् अस्तित्व का सूचक है। सत्तासहित वस्तु को ही जाना सकता है, उसपर विचार किया जा सकता है। जब तक वस्तुओं के सत् अस्तित्व को स्वीकार न कर लिया जाये तब तक उनके सम्बन्ध में विचार ही सम्भव नहीं है, क्योंकि असत्रूप वस्तु तो आकाशकुसुम, बंध्यापुत्र व शशशृंगवत् असम्भव है। इसीलिए आचार्य उमास्वामी ने तत्त्वार्थसूत्र में ‘सत्द्रव्यलक्षणम्' कहते हुए द्रव्य को परिभाषित किया है और वह सत्तावान वस्तु अनेक गुणधर्मों व विशेषताओं से परिपूर्ण है, इसका प्रतिपादन पंचाध्यायीकार ने निम्न श्लोक में किया है।११ तत्त्वं सल्लाक्षणिकं सन्मानं वा यतः स्वतः सिद्धम् । तस्मादनादिनिधनं स्वसहायं निर्विकल्पं च।। तत्त्व सत् लक्षणवाला है या सन्मात्र ही तत्त्व है और जिस कारण से वह स्वत: सिद्ध है, इसीलिए वह विनाशरहित अनादि है, अनिधन है, स्वसहाय है और निर्विकल्प अर्थात् अखण्ड है। उक्त श्लोक में संक्षेप में वस्तु के स्वभाव का सम्पूर्णता से दिग्दर्शन कराया गया है। वस्तु को स्वतः सिद्ध न माना जाये तो विश्व में वस्तुओं की कोई मर्यादा नहीं रह जायेगी। अनन्त द्रव्य उत्पन्न होते चले जायेंगे। अनादि-निधन स्वभाव की स्वीकृति के अभाव में वस्तु को परत: सिद्ध मानना होगा। प्रत्येक पदार्थ पर के सहयोग से उत्पन्न होगा जिससे अनवस्था नामक दोष उत्पन्न होगा। वस्तु स्वसहाय न मानने पर सत् का नाश मानना होगा, क्योंकि वस्तु की स्वतंत्र स्थिति, टिकाव व परिणमन के अभाव में समस्त द्रव्य परस्पर एक-दूसरे के कार्यों में हस्तक्षेप करने लगेंगे जिससे किसी भी वस्तु का मूल स्वरूप न ठहर सकेगा। निर्विकल्प स्वभाव की स्वीकृति के अभाव में वस्तु को युत्सिद्ध स्वीकार करना होगा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525055
Book TitleSramana 2005 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2005
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size12 MB
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