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श्रमण, वर्ष ५६, अंक १- ६ / जनवरी - जून २००५
३. जैनेतर दर्शनों में मान्य कर्मसिद्धान्त की संक्षिप्त विवेचना
जैन दर्शन से इतर अन्य भारतीय दर्शनों में भी कर्म सिद्धान्त का विवेचन मिलता है। न्याय-वैशेषिक कर्म को 'अदृष्ट', मीमांसक 'अपूर्व', वेदान्त अविद्या अथवा माया आदि विभिन्न संज्ञाओं से अभिहित करते हैं। न्याय-वैशेषिक व वेदान्त कर्म करने में कर्ता की स्वतंत्रता तो स्वीकार करते हैं किन्तु कर्म - फल प्राप्ति में ईश्वर' की अनिवार्यता को भी स्वीकृत करते हैं। इसके विपरीत मीमांसक व सांख्य कर्म व कर्मफल की प्राप्ति में किसी बाह्य सत्ता की अनिवार्यता को अस्वीकृत करते हैं। वे कर्म में कर्ता की पूर्ण स्वतंत्रता को सहमति प्रदान करते हैं। चूँकि बौद्धदर्शन में कोई भी ईश्वरीय सत्ता स्वीकार्य नहीं है अतः जीव कर्म का स्वतंत्र कर्ता व भोक्ता है।
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४. जैन दर्शन प्रणीत कर्म सिद्धान्त की विशिष्टता
जैनदर्शन में कर्म के भेद - प्रभेदों के सूक्ष्म विवेचन के साथ ही कर्म के द्रव्यात्मक व भावात्मक दोनों पक्षों का उल्लेख मिलता है। पौगलिक सम्बन्ध, द्रव्यात्मक पक्ष का पोषक है और जीव भावात्मक पक्ष का पोषक है। आप्तपरीक्षा में इस सन्दर्भ में कहा गया है- "जीव के जो द्रव्यकर्म हैं वे पौगलिक हैं और उनके अनेक भेद हैं तथा जो भावकर्म हैं वे आत्मा के चैतन्य परिणामात्मक हैं, वे आत्मा से कथंचित् रूप से स्ववेद्य प्रतीत होते हैं । "
इस विधि से द्रव्य तथा भावरूप कर्म का प्रतिपादन अन्य दर्शनों में नहीं किया गया है। सांख्यदर्शन कर्म के मात्र द्रव्यात्मक पक्ष को स्वीकार करता है, क्योंकि वह पुरुष को कूटस्थ मानता है व कर्म को प्रकृति का विकार मानता है । अचेतन प्रकृति स्वयं ही कर्मबन्धन में बँधती है और स्वयं ही कर्मबन्धन से मुक्त हो जाती है।" दूसरी ओर बौद्ध दर्शन कर्म के केवल भावात्मक पक्ष को स्वीकार करता है, उसका मानना है कि कर्म का सम्बन्ध केवल चेतना से है। बौद्ध कर्म को सूक्ष्म पुगलों के रूप में स्वीकार नहीं करते।' बुद्ध ने कहा है कि "चेतना ही कर्म है, ऐसा मैं कहता हूँ ।" यहाँ चेतना को कर्म आरम्भ की दृष्टि से कहा गया है, क्योंकि सभी कर्मों का प्रारम्भ चेतना से ही होता है।
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जैन दर्शन ने कर्म को सांख्य व बौद्धों की तरह जड़, पुद्गल व चेतनात्मक नहीं माना है, बल्कि जीव व पुद्गगल के संयोग का परिणाम कहा है। जैनदर्शन के अनुसार अनादिकाल से जीव कर्मों से बंधा हुआ है यह कर्मबद्ध जीव ही भावकर्म से नित्य द्रव्यकर्म का संचय करता रहता है। रागद्वेष रूप आभ्यन्तर परिणाम भावकर्म हैं और उसके द्वारा जो सूक्ष्म पुगलों का आकर्षण होता है वही जीव के साथ बंधकर द्रव्य कर्म की संज्ञा को प्राप्त होता है। इस प्रकार कर्म वास्तव में आत्मा व पुद्गल के मध्य का सम्बन्ध है जो सांसारिक अवस्था के अन्त तक बना रहता है | "
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