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________________ छाया: तावच्च क्षणान्तरात् निर्णासित-बहुल-तिमिर संघातः | मानिनी-मानोन्मथनः विस्तृतः शशि-कर-समूहः ||२३१।। अर्थ :- अने त्यारपछी तरत ज घणा अंधकारना समूहने नाश करनार मानिनीना मानने मथनार चन्द्रमा किरणोनो समूह फेलायो। हिन्दी अनुवाद :- और उसके बाद तुरन्त ही अंधकार के समूह का नाश करने वाला तथा मानिनी के मान का मंथन करने वाले चन्द्रमा के किरणों का समूह चारों तरफ फैल गया। गाहा : मयलंछण-पवणेणं गाढं संध्युक्किओ विओयग्गी । संताविउं पयत्तो मह हिययं ताहे सय-गुणियं ।। २३२।। छाया : मृगलांछन-पवनेन गाठं प्रदीप्त वियोगाग्नी । संतापयितुं प्रवृत्तो मम हृदयं तदा शत-गुणितम् ||२३२।। अर्थ :- चन्द्र अने पवनवड़े मारो वियोगरूपी अग्नि अत्यंत प्रदीप्त करायो त्यारे मा हृदय सो गणो संताप पामवा लाग्यु ! हिन्दी अनुवाद :- चन्द्र और पवन द्वारा मेरी विरहाग्नि अत्यंत प्रदीप्त हुई, तब मेरे हृदय में संताप सौ गुना बढ़ गया। गाहा : अह चिंतिउं पयत्तो अमयमओ सुम्मई इमो चंदो। नवरं तव्विरहे अज्ज विज्जु-पुंजोवमो जाओ।। २३३।। छाया: अथ चिन्तितुं प्रयतोऽमृतमयः श्रूयते अयं चन्द्रः। नवरं तद्विरहे अद्य विद्युत्-पुंजोपमो जातः ।।२३३।। अर्थ :- आथी हुं विचारवा लाग्यो के “आ चन्द्र अमृतमय छे एम संभळाय छे परन्तु तेणीना विरहमा आजे विजळीना पुंज समान थयो छे'। हिन्दी अनुवाद :- अत: मैं सोचने लगा कि - "यह चन्द्र अमृतमय है, ऐसा सुनाई देता है किन्तु उसके विरह में आज यह विद्युत-पुञ्ज के समान लगता है।" गाहा : हे हियय! कीस उज्झसि उव्वेवं कीस कुणसि अच्चत्थं? । दुल्लह-जणम्मि रागं पढम चिय कीस तं कुणसि ? ।। २३४।। 128 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525055
Book TitleSramana 2005 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2005
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size12 MB
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