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छाया :
हे हृदय ! कस्मात् दासे उद्वेगं कस्मात् करोषि अत्यर्थम् । दुर्लभ - जने राग प्रथम-मेव कस्मात त्वं करोषि ? || २३४ ||
अर्थ :- माटे हे हृदय ! तुं शा माटे बळे छे ? शा माटे अत्यंत उद्वेगने धारण करे छे? वळी दुर्लभजनने विषे प्रथम थी ज तुं शा माटे राग करे छे ! हिन्दी अनुवाद :- अतः हे हृदय ! तूं किस हेतु जलता है ? अत्यन्त उद्वेग को क्यों धारण करता है ? अथवा दुर्लभ जनों पर पहले से ही इतना प्रेम क्यों करता है ?
गाहा :- अन्नं च
जो किर करेइ नेहं तस्सेव य हियय! रच्चिरं जुत्तं । दूर - ट्ठिओवि जो दहइ माणसं तम्मि को
छाया :- अन्यच्च
यः किल करोति स्नेहं तस्यैव च हृदय ! रञ्जितुं युक्तम् । दूरः स्थितोऽपि यो दहति मानसं तस्मिन् को रागः ? || २३५|| अर्थ :- हे हृदय! जो निश्चे स्नेह करे छे तेनी साथेज स्नेह करवा माटे योग्य छे। जे दूर रहेलो पण मनने बाळे छे, तेने विषे राग केम करवो ? हिन्दी अनुवाद :- हे हृदय ! जो निश्चित स्नेह करता है, उसके साथ ही स्नेह करना योग्य है, जो दूर रहके भी दिल को जलाता है उससे राग क्या करना ?
गाहा :
जो च्चिय वुब्भइ हियये सो च्चिय अइनिठुरो दहइ देहं । कस्स कहिज्जइ वत्ता सरणाओ भयम्मि उब्भूए ? ।। २३६।।
छाया :
सैव ह्यते हृदये सैवातिनिष्ठुरो दहति देहम् |
कस्य कथ्यते वार्त्ता शरणाद् भये उद्भूते ? ||२३६||
अर्थ :- जे हृदयमां धारण कराय छे ते ज अतिनिष्ठुर देहने बाले छे । "शरणथी भय उत्पन्न थये छते कोनी आगळ बात कराय" ।
रागो ? ।। २३५ ।।
हिन्दी अनुवाद :- जिसको दिल में बिठाते हैं वही अतिनिष्ठुर होकर देह को जलाता है " शरणदाता से ही भय उत्पन्न होने पर किसके आगे गुहार करना ?
गाहा :
किं मन्ने होज्ज दियहं जम्मी लग्गेज्ज मज्झ हत्थम्मि । मण निव्ववणो तीए कमलोयर कोमलो हत्थो ।। २३७।।
छाया :
किं मन्ये भवेद् दिवसं यस्मिन् लगेत् मम हस्ते । मनो निर्वापने तस्याः कमलोदर-कोमलो हस्तः । २३७ ।।
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