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राजपूत काल में जैन धर्म : ८३ भी बनवाया। इस प्रकार हम देखते हैं कि पूर्वमध्ययुग में (चालुक्य) गुजरात में जैनधर्म की विशेष उन्नति हुई।
मालवा भी उत्तर प्राचीन काल में जैन धर्म का केन्द्र बन गया था। मालवा नियाड के धार, मांडव, नालन्दा, उज्जैन, ऊन आदि में कई जैन परिवार बसे हुए थे। दसवीं सदी में धार, उज्जैन, ऊन तथा मालवा के कई जैनों ने ऋषभदेव की पूजा हेतु शत्रुंजय तीर्थ की यात्रा की थी २१ । परमार नरेश नरवर्मनदेव (११३३ ई० ) के काल में जैन धर्म मालवा में विशेष प्रगतिशील था। नरवर्मनदेव आचार्य वल्लभसूरि का बड़ा आदर करते थे २२ । मालवा के जैन तीर्थंकरों के नाम पर उत्सवों और पर्वों का आयोजन भी करते थे । तीर्थंकर नेमिनाथ के नाम पर सन् १९३४ ई० में एक उत्सव का भी आयोजन किया गया था। इस प्रकार मालवा जैन धर्म के एक केन्द्र के रूप में ज्ञात है।
राजस्थान में जैनों का अच्छा प्रभाव था। आबू और कुम्भारिया के जैन मन्दिर इसके साक्षी हैं। कई जैन राजस्थान के राजवंशों की सेवा में थे। उज्जैन के जैनाचार्य माधवचन्द्र द्वितीय ने बरन ( कोटा राजस्थान) को अपना केन्द्र बनाया। कुछ जैनाचार्य चित्तौड़ भी जा बसे थे। इनकी एक शाखा बघेरा में भी रहने लगी २४ । हरिभद्र और उनके समर्थकों ने कई पीढ़ियों तक राजस्थान को अपना कार्य क्षेत्र बनाये रखा।
पूर्व मध्ययुगीन जैन आचार्यों में गुजरात के प्रसिद्ध आचार्य हेमचन्द्र की बड़ी गहरी छाप थी। इस आचार्य ने राजस्थान के धार्मिक राजनीतिक तथा सांस्कृतिक इतिहास को प्रभावित किया। अनेकों चाहमान शासकों तथा मंत्रियों ने जैनधर्म के प्रचारार्थ सहयोग प्रदान किया। चौहान नरेश पृथ्वीराज प्रथम ने रणथम्भौर के जैन मन्दिरों पर स्वर्णकलश चढ़ाया था २५ | पृथ्वीराज प्रथम के पुत्र अजयराज ने भी अजमेर में जैनियों को नये मन्दिर बनाने की अनुमति प्रदान की तथा श्वेताम्बर गुरु धर्मघोष सूरि और दिगम्बर गुरु गुणचन्द्र के मध्य वाद-विवाद प्रतियोगिता में न्यायाधीश का कार्य किया। अर्णोराज यद्यपि शैव मतावलम्बी था, फिर भी अन्य धर्मों के प्रति दयालु था, उसने पुष्कर में एक वाराह मन्दिर बनावाया २७ तथा खरतरगच्छ अनुयायियों को अजमेर में जैन मन्दिर बनाने हेतु भूमि प्रदान किया । उसने श्वेताम्बर जैन विद्वान धर्मघोषसूरि को आश्रम प्रदान किया । विग्रहराज चतुर्थ ने अपनी राजधानी अजमेर में न केवल एक जैन विहार का निर्माण करवाया था, अपितु अपने धर्मगुरु धर्मघोष सूरि के आदेशानुसार एकादशी के दिन पशुवध निषेध की आज्ञा भी प्रसारित किया २९ ।
राजपूत काल में धार्मिक सहिष्णुता का भी प्रमाण मिलता है। चाहमान वंश के अधिकांश शासक शैव धर्म के अनुयायी थे, लेकिन फिर भी उन्होंने शिव और
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