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भक्त्या प्रणम्य कुर्मः निज-मानुष्यत्वम् सफलम् । पश्यावः जिन-यात्रा श्रुत-खेचरौघेन क्रियमाणं ||५९ ।।
अर्थ :- तेथी में कछु - हे मित्र ! एम ज होय तो आपणे पण सिद्ध कूटोमां जइने शाश्वत प्रभु प्रतिमाआने भक्तिपूर्वक नमस्कार करीने आपणा मनुष्यत्वने सफल करीए, अने विद्याधरो वड़े कराती सांभळेली जिनभक्तिने प्रत्यक्षथी दृष्टि द्वारा जोइए ।
हिन्दी अनुवाद :अतः मैने कहा - हे मित्र ! यदि ऐसा ही हो तो हम सब भी सिद्धकूट में जाकर शाश्वत प्रभु - प्रतिमाओं को नमस्कार करके अपने मनुष्यत्व को सफल बनाएं और विद्याधरों द्वारा की जा रही जिनभक्ति जिसके विषय में सुन रखा था, को प्रत्यक्ष देखें |
धात्री पुत्र बलनुं आववु अह सव्वेहिवि भणियं एवं होउत्ति सुड्डु ते भणियं । एत्थंतरम्मि पत्तो मह धाइ-सुओ बलो नाम ।। ६० ।।
गाहा :
छाया :
अथ सर्वैरपि भणितं एवं भवतु इति सुष्ठु त्वया भणितम् । अत्रान्तरे प्राप्तो मम धात्री - सुतो बलो नाम ।। ६० ।।
अर्थ :- त्यार बाद सर्ववड़े पण कहेवायु आ प्रमाणे थाव, तारा वड़े सारू कहेवायु ए प्रमाणे एटलीवार मां मारी धाव - मातानो पुत्र बल अहीं आवी पंहोच्यो ।
हिन्दी अनुवाद :- बाद में सभी लोगों ने कहा कि ऐसा ही हो, तूने अच्छा कहा इतने में ही मेरी धाय माता का पुत्र बल भी वहाँ आ गया।
गाहा :
आगम्म तेण भणियं पिउणा ते चित्तवेग ! संलत्तं । एसो हु रयण-संचय - वत्थव्वो सयल- खयर - जणो ।। ६१ ।।
छाया :
आगम्य तेन भणितं पित्रा तव चित्रवेग ! संलप्तम् ।
एषः खलु रत्न- संचय वास्तव्यः सकल- खेचर- जनः ।।६१ ॥
अर्थ :- आवीने तेना वड़े कहेवायु- “हे चित्रवेग ! पिताजीए तने कह्यु छे। निश्चे आ बधा विद्याधरो रत्न-संचय नगरीमा रहेनारा छे।”
हिन्दी अनुवाद :- आकर उसने कहा :- "हे चित्रवेग ! पिताजी ने तुझे कहा है - कि निश्चित ही ये सभी विद्याधर लोग रत्न - संचय नगरी के वासी हैं।
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