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________________ छाया: जिन-वन्दनार्थं अत्र सिद्धायतनेसु एति सुर-निवहः । नित्यमपि वयस्य! अतः प्रसिद्ध-वस्तुनि का पृच्छा? ||३५|| अर्थ :- जिनेश्वरोजा वन्दन माटे अहिं सिद्धायतनमां देवो नो समूह हमेसा आवे छे तेथी हे मित्र ! प्रसिद्ध-वस्तुमां शुं पूछवानुं ? हिन्दी अनुवाद :- वंदन के लिए यह देव-समूह नित्य जाता है। अत: हे मित्र। इस प्रसिद्ध वस्तु में पूछने जैसा क्या है ? गाहा : तत्तो य मए भणियं एवं एयंति किंतु निसुणेसु। महया विच्छड्डणं न एति, निच्च सुरा एत्थ ।।३६।। छाया: ततश्च मया भणितं एवमेवमिति किन्तु निशृणुहि । महता विच्छन न आयान्ति नित्यं सुराः अत्र ||३६|| अर्थ :- व्यार पछी मे कहयु तमारी बात बराबर छे परंतु सांभळो, आटला मोटा परिवार साथे देवो हमेसा आवता नथी। हिन्दी अनुवाद :- तुम्हारी बात सच है, किन्तु जरा सुनो? इतने बड़े परिवार से आवृत देवगण प्रतिदिन यहाँ नहीं आते हैं। गाहा : अज्ज पुणो सविमाणा, सव्विड्डीए महंत-हरिसेणं । दीसंति जं वयंता तेण मए पुच्छियं मित्र ! ।।३७।। छाया : अद्य पुनः सविमानाः सर्वर्द्धया महद्-हर्षेण । दृश्यन्ते यत् व्रजन्तः तेन मया पृष्टं मित्रम्! ।।३७।। अर्थ :- वळी आजे विमान सहित सर्वऋद्धियुक्त अने अत्यंत हर्षयुक्त देवो जता देखाय छे तेथी हे मित्र में तमें पूछयु । हिन्दी अनुवाद :- पुन: आज विमान सहित, सर्वऋद्धियुक्त और हर्षान्वित देव जाते हुए दिखाई देते हैं, इसलिये हे मित्र ! मैंने तुझे पूछा। गाहा : अह भणइ बंधुदत्तो खणंतरं चिंतिऊण सवितक्कं। हुं नायं पारद्धा सिद्धाययणेसु जत्ताओ ।।३८।। छाया: अथ भणति बंधुदत्तः क्षणांतरं चिन्तयित्वा सवितर्कम् | हा ! ज्ञातं प्रारब्धाः सिद्धायतनेषु यात्राः ।।३८।। 66 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525055
Book TitleSramana 2005 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2005
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size12 MB
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