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________________ ६२ : श्रमण, वर्ष ५६, अंक १-६ / जनवरी - जून २००५ पीहर में भी धनवती धन नष्ट करने वाली हो गयी । बंधुओं के द्वारा उसे त्याग दिया गया। सभी लोगों के द्वारा उसे अनादर मिलने पर उसने सोचा अहो! यह सब पापों की परिणति है। इस आत्म-आलोचना के परिणाम से मरकर वह सोमप्रभ ब्राह्मण के रूप में उत्पन्न हुई। ७. शूरतेज और शूरधर्म की कथा - कंचनपुर नगर में कनक कुण्डल राजा की कनकसुन्दरी और मतिसुन्दरी नाम की दो पत्नियां थीं। कनकसुन्दरी के पुत्र का नाम शूरतेज तथा मतिसुन्दरी के पुत्र का नाम शूरधर्म था। कुछ समय के बाद कनकसुन्दरी की मृत्यु हो गयी। एक बार राजा ने प्रसन्न होकर मतिसुन्दरी को वर प्रदान किया। समय आने पर मतिसुन्दरी ने राजा से वर के रूप में अपने पुत्र को राज्य देना मांग लिया। शूरधर्म के युवराज बनने पर शूरतेज दुःखी होकर देशान्तर को चला गया। वह विश्वपुर नगर को पहुंचा। वहां पर उसने श्मशान को ले जाते हुए एक बन्दी पुरुष को देखा वह किसी का कर्जदार था। शूरतेज ने अपने गले की रत्नावली देकर उस बन्दी को फांसी के फंदे से छुड़ा लिया और वह नगर की तरफ चला गया। इसी बीच में विक्रमबाहु राजा की पुत्री प्रियंगुमञ्जरी के पीछे एक पागल हाथी दौड़ पड़ा। उस दुष्ट हाथी से राजकन्या को बचाने के लिए सब लोग दौड़े। तभी शूरतेज ने पराक्रम से उस हाथी को वश में कर लिया और प्रियंगुमञ्जरी को बचा लिया। विक्रमबाहु राजा ने इस बात को सुनकर प्रसन्न होकर प्रियंगुमञ्जरी का विवाह शूरतेज से कर दिया और उसे अपने राज्य का युवराज बना दिया। राजा की दीक्षा के बाद शूरतेज वहां का महाराजा बन गया। एक दिन शूरतेज ने अपने अपमान का स्मरण कर अपने सौतेले भाई शूरधर्म के राज्य पर चढ़ाई कर दी और युद्ध में उसे पराजित कर तथा धार्मिक अनुष्ठानों को सम्पन्न करा कर शूरतेज मुनि बन गया। ८. चन्द्रानन राजकुमार और शिवकेंतु पुरोहित - कुण्डल नगर में चन्द्रशेखर राजा का चन्द्रानन और शिव पुरोहित का शिवकेतु नामक पुत्र था। चन्द्रानन और शिवकेतु दोनों मित्र थे जो स्वभाव से जैन धर्म के विरोधी थे। एक बार जब शान्तिनाथ भगवान का अभिषेक महोत्सव मनाया जा रहा था तब उन दोनों राजकुमारों द्वेष के कारण उस महोत्सव को बन्द करा दिया। इससे वहाँ पर स्थित श्रावकश्राविकाएँ बहुत दुःखी हो गये । उनके आग्रह पर वहाँ पर स्थित प्रवचनानंदीसूरि के द्वारा उन दोनों कुमारों को स्तंभित कर दिया गया। इस खबर को सुन कर उन कुमारों के पिता मुनि के पास आये और उन्होंने प्रार्थना की “कि हे महाराज! इनको इस बार छोड़ दें आगे से ये ऐसा धर्म विरोधी काम नहीं करेंगे। तब मुनि ने उन कुमारों को व्रत ग्रहण करा कर मुक्त कर दिया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525055
Book TitleSramana 2005 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2005
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size12 MB
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