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________________ १२ श्रमण, वर्ष ५६, अंक १-६ / जनवरी - जून २००५ के तंत्र विकसित किये गये और आहार के लिए जंगली जानवर मारने की जरूरत नहीं रही फिर भी शौक के रूप में मृगया करनेवालों ने अपनी बहादुरी प्रदर्शित करने के लिए यह हिंसा जारी रखी। वास्तव में बंदूक से किसी असहाय जंगली जानवर मारने में कोई पराक्रम नहीं है। फिर भी यह शौक समाप्त नहीं हुआ। हिंसक जानवरों को मारकर हिरण, नीलगाय जैसे पशुओं की रक्षा की जा सकती है, ऐसी दलील देनेवाले लोग हैं। वैज्ञानिक व्यवहारवाद के अनुसार यह गलत है। १७ ४. समस्या का समाधान जीवों को प्रति अनुकम्पा ही प्राचीन नीतिनियमों की बुनियाद थी। अब इस विषय को व्यक्तिवाद सदाचार की सीमा से बाहर एक बहुत विस्तृत परिप्रेक्ष्य में देखना होगा। जीवों के मौलिक अधिकार निसर्ग में मानव जाति का स्थान तथा उसकी सीमाएं आदि कई बातों पर वैज्ञानिक तरीके से चिंतन करने की आवश्कता है। यद्यपि इस विषय में लोगों की जागरुकता स्पष्ट दिखाई देती है तथापि सही दिशा में प्रयत्नों का अभाव है। (क) निसर्गसंगोपन के कार्यक्रम जंगल काटकर कृषि क्षेत्र का विस्तार, रासायनिक उर्वरक और कीटनाशक, जलसिंचन का विस्तार आदि हरित क्रांति के कारण बने । पशुपालन के नये तरीके अपनाने से दूध विपुल मात्रा में मिलने लगा। आधुनिक आयुर्विज्ञान की प्रगति के कारण लोगों की औसत आयु बढ़ी। बालमृत्यु दर में भी कमी आयी। फलस्वरूप पिछले कुछ वर्षों में द्रुतगति से आबादी बढ़ी। साथ ही साथ नयी जीवनशैली अपनाने के कारण मानव की जरूरतें भी बढ़ीं। पहले इसे विज्ञान-तंत्रज्ञान की यशस्विता के रूप में देखा गया। परन्तु धीरे-धीरे इसके आनुवांशिक दुष्परिणाम भी दिखाई देने लगे। आबादी के सम अनुपात में नैसर्गिक सम्पदा नहीं बढ़ी। अनियमित वर्षा, मृत्तिका अपरदन, सिंचाई तथा घरेलू उपयोग के लिए पर्याप्त पानी का अभाव, वन-सम्पदा तथा प्राणि-सम्पदा में अवक्षय आदि जटिल समस्याएं प्रकट हुईं। इन समस्याओं के मूल कारण की अनदेखी करते हुए कुछ लोगों ने बाघ जैसे वन्य पशुओं की रक्षा का बीड़ा उठाया। प्रसार माध्यमों में उन्हीं के विचार प्रसारित किये गये। जानकार वैज्ञानिक सामान्य लोगों को सही दिशा दिखाने में असमर्थ रहे क्योंकि उनकी जटिल निरूपण शैली समझना कठिन है। धार्मिक नेता वैज्ञानिक चिंतन से विमुख होकर लोगों का मार्गदर्शन करने में विफल रहे। वन्य जीवों के 'अधिकारों' के समर्थकों का अत्युत्साह देखकर तर्कहीन कानून बनाये गये। ऐसी स्थिति में सामान्य नागरिक दिग्भ्रमित हो बैठे हैं | प्रसार माध्यमों में केवल बाघों की संख्या बढ़ाने की ही बात Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525055
Book TitleSramana 2005 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2005
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size12 MB
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