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________________ ७० : श्रमण, वर्ष ५६, अंक १-६/जनवरी-जून २००५ यौवन अवस्था में ही अत्यन्त अस्वस्थ हो गयी है। अनेक औषधि और उपाय किये जाने पर भी वह स्वस्थ नहीं हुई। इसका क्या कारण है? तब मुनि ने कहा कि तुम्हारी यह पुत्री पूर्व जन्म में भूतमाल नगर में कुरुमति नाम की वणिक पत्नी थी। एक दिन बिल्ली के दूध पी जाने पर उसने अपनी बहू को डाकिनी जैसे दुर्वचन कहे थे। उसके परिणाम स्वरूप वह अगले जन्म में क्षुद्र चंडालिनी हुई वहां वह सिर की पीड़ा से दु:खी रही। किन्तु मृत्यु के समय में उसने वैराग्य को प्राप्त कर साध्वी रूप धारण किया था। उसके परिणाम स्वरूप वह तुम्हारी पुत्री हुई है। दुर्वचन बोलने के कारण वह अस्वस्थ है उसे जोगिनी लगी हुई है। तब मुनि के द्वारा मंत्रित पानी पीने से उसका रोग ठीक हुआ। (ख) मूल्यांकन - आ० नेमिचन्द्र ने रयणचूडरायचरियं में रत्नचूड और तिलकसुन्दरी के मुख्य कथा के साथ-साथ उपर्युक्त जो २८ अवान्तर कथाएं दी. हैं उनका ग्रन्थ की कथा वस्तु के विस्तार में महत्त्वपूर्ण योगदान है। ये अवान्तर कथाएं दो दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं। एक तो इन कथाओं से ग्रन्थ के नायक के चरित को विकसित करने का अवसर ग्रन्थकार को मिला है। रत्नचूड के चरित को उदारता, साहस, वीरता एवं धर्म के प्रति आस्था आदि अनेक गुणों को इन अवान्तर कथाओं के माध्यम से उजागर किया गया है। इन कथाओं का दूसरा महत्त्व यह है कि ग्रन्थकार ने इसके द्वारा प्रमुख कथा के पात्रों के जन्म-जन्मान्तर स्पष्ट करने का प्रयत्न किया है। ग्रन्थकार यह बताना चाहता है कि किसी भी व्यक्ति को दुःख अथवा सुख एक ही जन्म के कर्मों के कारण नहीं अपितु उसके पूर्वजन्मों में उपार्जित कर्मों के कारण प्राप्त होता है। ये कथाएं इस दृष्टि से भी महत्त्वपूर्ण हैं कि ग्रन्थ की मूल विषय वस्तु से हटकर भी कई बातों की शिक्षा इन अवान्तर कथाओं से मिलती है। क्षेमंकर सोनी की कथा से ज्ञात होता है कि अन्तरंग व्यक्तियों से प्रेम हो जाना स्वाभाविक है किन्तु मित्र की पत्नी को भगाकर ले जाने पर क्षणिक सुख ही हो सकता है। अन्ततः दु:खी होना पड़ता है। उल्लू रूप पवनगति की कथा से ज्ञात होता है कि ऋषि अकारण भी श्राप दे देते हैं। किन्तु यह कथा रत्नचूड के साहस को प्रकट करने की लिए सम्भवत: ग्रन्थकार द्वारा प्रस्तुत की गई है। रत्नचूड उल्लू को पराजित कर उसे श्राप से मुक्त करता है। श्राप से मुक्त करना चरित नायक के गुणों में वृद्धि करता है। धूमकेतु यक्ष की कथा अमानवीय शक्तियों को प्रकट करने की कथा है। इस कथा में राक्षस का उपद्रव और नगर का उजड़ना ये दोनों प्रमुख कथानक रूढ़ियां प्राप्त होती हैं। इस कथा के द्वारा ग्रन्थकार ने तीन कार्य किये हैं। निरपराध को सजा देने का फल केवल राजा को नहीं अपितु सारे नगर को भोगना पड़ता है। धूमकेतु राक्षस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525055
Book TitleSramana 2005 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeprakash Pandey
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2005
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size12 MB
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