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८८ : श्रमण, वर्ष ५६, अंक १-६/जनवरी-जून २००५ दृष्टि से अनुपम है। उसमें कई पत्र स्वर्णाक्षरी हैं और साथ ही इसमें कई चित्र भी हैं। इससे १९वीं शताब्दी में अपभ्रंश चित्रशैली के बाद जो जैन चित्रकला-शैली का विकास हुआ, उसकी जानकारी प्राप्त होती है।
प्रस्तुत लेख में तो केवल जौनपुर के जैन मन्दिर एवं मूर्तियों के सम्बन्ध में ही प्रकाश डालना अभीष्ट है। वहाँ की उस बड़ी मस्जिद का जैन दृष्टि से अध्ययन होना चाहिये और उसके भंवरे में जो भी जैन मूर्तियाँ हों, उन्हें पुरातत्त्व विभाग के सहयोग से बाहर निकलवाकर उनके चित्र व प्रतिमालेख शीघ्र ही प्रकाशित किये जाने चाहिये। काशी के भी जैन मन्दिरों में यहाँ की जो जैन मूर्तियाँ गई हों, उनके भी लेख प्रकाशित किये जायें। यह स्थान खरतरगच्छ और श्रीमाल जाति से विशेष रूप से सम्बन्धित रहा है। सन्दर्भ:
शर्की राज्य का इतिहास : लेखक - सैय्यद एकबाल अहमद जौनपुरी, प्रकाशक - शीराज हिन्द प्रकाशन भवन, ११५, रिजवी खाँ, जौनपुर। जौनपुर इतिहास के पृष्ठ ५०३ में हड़यान मन्दिरं के परिच्छेद में लिखा है कि इस मन्दिर के पश्चिम-दक्षिण तथा शिवजी के मन्दिर के दक्षिण गोमती नदी के तट पर आलोकेश्वर जी की मूर्ति पृथ्वी के नीचे से प्रगट प्राप्त हुई है जो जैनियों के देवता कहे जाते हैं। इस स्थान पर यदि खुदाई की जाय तो जैनियों के मन्दिर तथा मूर्तियाँ मिल सकती हैं।
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