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अर्थ :- दुंदुभि-मुकुंद-मृदंग-तिलिमा आदि वांजियोना शब्दवड़े जिनेश्वरनी यात्रा ना समये लोकोने बोलावती होय तेम लागे छे ।
हिन्दी अनुवाद
दुन्दुभि-मुकुंद-मृदंग-तिलिमा आदि वाद्ययंत्रों की ध्वनि से ऐसा लगता था, जैसे जिनेश्वर भगवंत की यात्रा का समय हो गया हो !
गाहा :
जिनालयनी शोभा
कय- उल्लोयं
ततो कमेण पत्ता दिसि दिसि नच्चंत - अच्छरा - नियरं । महर - गेय-झुणीए आनंदिय- भविय- संदोहं ।। ६९ ।। नाणाविह-वत्थेहिं मणोहरायारं । विच्छित्तीए विरइय- घण- - फुल्लहरं पवर- पडि - मंडवेणं
लंबिय - निम्मल - वर हार - ओचूलं ।। ७० ।।
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विचित्त - लंबंत-तारियाइन्नं ।
उच्छाइय- अंगणा भोयं । । ७१ ।। मंडिय- चउक्किया-देसं ।
नीसल- तड्डि- चंदायएहिं फुल्लमय-पवर- - तोरण- सोहिय- मज्झं जिणिंद-गिहं ।।७२।।
छाया :
।।६९।।
ततः क्रमेण प्राप्ता दिशि दिशि नृत्यन्- अप्सरा-निकरम् । मनोहर - गेय-ध्वन्या - आनन्दित भविक - सन्दोहम कृतोल्लोचम् मनोहराकारम् | लम्बित-निर्मल- -वरहारावचूलः 11७०||
नानाविध वस्त्रैः
विच्छित्या
विरचित- घन-पुष्पगृहम् विचित्र-लम्बयन् तारकाकीर्णम् । प्रवर-पट- - मण्डपेनाउवच्छादिताङ्गणऽऽभोगम्
निस्तलं - तत - चन्द्रातपैः मण्डित - चुतुष्किका - देशम् । पुष्पमय-प्रवर- तोरण- शोभित - मध्यं जिनेन्द्र-गृहम् ।।७२।। अर्थ :- व्यार पछी क्रम पूर्वक अमे पंहोच्या, ज्यां दशे - दिशामां नृत्य करती अप्सराओ नो समूह मनोहर गीत ध्वनि थी भव्य जीवोनां समूहने आनन्द आपतो हतो, विविध प्रकारना वस्त्रो वड़े मनोहर चंदरवो रचायेलो हतो ।
सुंगधित पुष्पगृहनी रचनावाळो, विचित्र रीते लटकतां ताराओथी व्याप्त श्रेष्ठ कपड़ाना मण्डप वड़े आंगणानो विस्तार सुशोभित थयो हतो । निर्मल जमीनना तळीयावाळो, चंदरवावड़े शोभतो चोकनो विभाग जेनो छे, तेवु तथा पुष्पवाळा श्रेष्ठ तोरणोथी शोभित मध्य भाग वाळु जिन मंदिर हंतु ।
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।।७१।।
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